हव्वा की बेटियों का ख़्वाब है ‘दूसरी जन्नत’/नासिरा शर्मा

बेनजीर जेएनयू की शोध छात्र हैं.

वर्तमान समय में सरोगेसी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। हाल ही में बीते साल 2018 के शीतकलीन सत्र में लोकसभा ने ‘सरोगेसी विनिमय विधेयक’ भी पारित किया, जिससे महिलाओं का शोषण कम हो सके। यदि इस मसले की पड़ताल मुस्लिम समाज के सन्दर्भ में की जाय तो यहां पर बेऔलाद दम्पति आई.वी.एफ. या सरोगेसी की सहायता से बच्चा प्राप्त करना चाहते है तो ऐसी स्थिति में मुस्लिम परिवारों में औरत-मर्द को किस तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, और विशेष रूप से महिलाओं के साथ परिवार और समाज के द्वारा किस तरह का अनैतिक व्यवहार किया जाता है इस पर विचार विमर्श करने की आवश्यकता है। यहां यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि आई.वी.एफ और सरोगेसी जैसे मसले के सन्दर्भ में वास्तव में इस्लाम धर्म, कानून और मुस्लिम समुदाय अपना किस तरह का नजरिया इख्तियार करता है।

इस दृष्टि से नासिरा शर्मा द्वारा लिखा गया उपन्यास ‘दूसरी जन्नत’ बहुत ही महत्वपूर्ण है। 96 पृष्ठों का यह उपन्यास ‘साहित्य भण्डार, इलाहाबाद’ से सन् 2017 में प्रकाशित हुआ । इससे पहले नासिरा शर्मा ने कई महत्वपूर्ण उपन्यास पारिजात, शाल्मनी, ठीकरे की मंगनी, कुइयांजान आदि उपन्यास लिखे ।

साभार गूगल

‘दूसरी जन्नत’ पर दृष्टि डालें तो इस पुस्तक में आधुनिक मुस्लिम परिवार की एक ऐसी तस्वीर उभरती है जो हमारी मानसिकता को गहराई से झकझोरती है । उपन्यास का महत्वपूर्ण अंश जिसे इस उपन्यास का केंद्रीय बिन्दु कह सकते हैं वह यह है कि ‘‘ हव्वा की बेटी लगातार उसकी नजरों के सामने अपना क़द निकाल रही थी । वही हव्वा जो जन्नत से निकाली गयी तो इन्सानी आबादी वजूद में आई और आज वही हव्वा की बेटी अपनी जन्नत बचाने के लिए कमर कस चुकी है।….’’(पृ.सं. 93) नासिरा शर्मा द्वारा लिखा गया यह उपन्यास जिसमें बांझपन से पीड़ित फरहाना जैसी उन तमाम मुस्लिम औरतों की स्थिति को बयान करता है जो सदियों से एक तरफ सामाजिक रूढ़ियों एवं धार्मिक मान्यताओं की आड़ में अपने अस्तित्व का खतरा मोल लेती हैं वहीँ दूसरी ओर अपनी आन्तरिक एवं बाह्य समस्याओं से मुक्त होने की दिशा में निरन्तर नयी राह भी तलाश करने का प्रयास भी करती रहती है।

यह उपन्यास मुस्लिम समाज से जुड़े ऐसे आधुनिक ज्वलंत प्रश्नों को हमारे सामने लाता है जो लगातार मुस्लिम समाज के लिए बहस का मुद्दा बनते रहते हैं। समाज में औरतों के ‘बांझपन की समस्या’ को लेखिका ने बड़े ही संजीदगी से इस उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत किया है। औरतों में बांझपन यह एक आम बात है लेकिन इस उपन्यास की विशेषता इस बात में है कि नासिरा शर्मा इस मुद्दे को मुस्लिम परिवार एवं समाज के सन्दर्भ में नये आधुनिक प्रश्नों और विचारों के साथ एक नयी बहस को आगे बढ़ाने का महत्वपूर्ण एवं सफल प्रयास करती है कि मुसलमान औरत को बांझपन से मुक्त होने के लिए परिवार, समाज, धर्म और तकनीकि तथा कानून के बीच किस तरह की जद्दोज़हद से गुजरना पड़ता है। इसलिए उपन्यास के हवाले से लेखिका ने समाज में इन्सान की जिन्दगी में धर्म, तकनिकी का कितना दखल है, और कितना होना चाहिए, इस पर बहुत बारीकी से छानबीन करती हुई दिखायी पड़ती हैं।

यह उपन्यास उस बहस को आगे ले जाता है जो सन् 1980 का है। पहली बार सन् 1980 में जब चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में एक आविष्कार हुआ जिसकी सबसे बड़ी देन रही बांझ मर्द-औरतों के लिए। इस्लाम का शुरू से ही जैसा मिजाज रहा वह जिन्दगी को सुचारू रूप से चलाने के लिए हर कदम पर गाइड लाईन देता है। आप उसे मानो या न मानो वह आप पर छोड़ देता है।

सन् 1980 में मिस्र में यह बात तय हो गयी कि तीसरी पार्टी के बगैर यह कैसे हो सकता है। सवाल यह है कि तीसरी पार्टी में मर्द को ‘मुताह’ (एक तरह की अस्थायी शादी मगर लीगल) की इजाजत देते है और औरत को कहते है कि आप या तो तलाक ले लें या दूसरी शादी कर लें जबकि दूसरी तरफ यह भी कहा जाता है कि इस्लाम में एक तरह का लचीलापन है। फिर सवाल यह उठता है कि यदि बीवी को अपने शौहर से मुहब्बत है तो क्या कुर्बानी केवल औरत को ही देना है और शौहर यदि अपनी बीवी को छोड़ना नहीं चाहता, उसे बीवी से मुहब्बत है तो वह बाहर जाकर मुताह कर बच्चा ले लेता है। यह एक आधुनिक सवाल है जिसका हल न कुरान शरीफ में आया है न शरियत में आया है । उपन्यास के दो अहम किरदार ‘गुलज़ार नक़वी’ और उसकी पत्नी ‘फरहाना’ बेऔलाद हैं । दोनों ही औलाद पाने की ललक और तड़प से स्पर्म बैंक डोनेशन से बच्चा प्राप्त करते है आगे चलकर लगभग दस सालों के बाद दोनों के रिश्ते में तनाव, टकराहट जैसी विकट स्थिति पैदा हो जाती है जो कि एक विवाद का रूप ले लेता है। उसकी वजह यह है कि औलाद पाने की असीम ललक और चाहत के कारण फरहाना और गुलज़ार इस्लाम से अलग होकर अपनी जिम्मेदारी लेते हैं लेकिन इसके बाद बहुत तकलीफ से भी गुजरते हैं, फरहाना का स्वास्थ्य बहुत खराब होता है, पैसे भी काफी लगते हैं लेकिन जब बच्चा अपने बाप पर पड़ जाता है (जिसका स्पर्म इन्होंने लिया था) तो वहां से गुलज़ार को खलिश शुरू होती है। यह खलिश ही दोनों की जिन्दगी में तूफान ला देता है लेखिका फिर दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह खड़ा होता है कि इन्सान कैसे बदलता है जब उसके रिश्ते बदलते है।

यह खलिश ही जो बाद में एक मनोवैज्ञानिक समस्या बन जाती है । जिसका उदारता और उस तड़प से कोई लेना देना नहीं होता है । यह खलिश इन्सानी जज्बे का नाम है कि वह बांझ है तो अपना बांझपन दूर करना चाहती है । गुलज़ार चूकि फरहाना से मुहब्बत करता है उसे छोड़ना नहीं चाहता है रिश्ते में वह चचाज़ाद बहन भी होती है लेकिन गुलज़ार अपनी मानसिक सन्तुष्टि के लिए कि वह भी बाप बन सकता है इसके लिए वह बेचैन हो जाता है बिना अपनी पत्नी को आहत किये खामोशी से इस्लाम द्वारा दिये गये अधिकारों का प्रयोग कर मुताह कर लेता है क्योंकि इस बार वह इस्लाम के खिलाफ नहीं जाना चाहता है इसलिए वह मुताह करता है और इस शर्त पर करता है कि यदि बच्चा हो जाता है तो यह सबको बता देगा कि वह भी बाप बन गया है । यदि नहीं बना तो वह तलाक दे देगा। लेकिन तलाक जैसी कोई स्थिति ही नहीं आ पाती है और राज खुल जाता है। राज खुलने के कारण गुलज़ार और फरहाना की जिन्दगी में एक ऐसा तूफान आता है जहां औरत के अन्दर की औरत जाग जाती है । औरत की अपनी मनोवैज्ञानिक समस्या है कि वह अपने पति को कभी भी किसी और के साथ बांटना नहीं चाहेगी । फरहाना वकील के कहने पर गुलज़ार के खिलाफ खड़ी हो जाती है। गुलज़ार अर्थिक दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति है इसलिए पैसा के लालच से वकील फरहाना को समझाने के बजाय उसे हवा देता है और कानून का हवाला देकर कि औरत को इंसाफ मिलेगा इस तरह से वह चीज़ो को कूरेदना शुरू कर देता है। उसकी बातों में आकर फरहाना भी गुलज़ार द्वारा दिये गये जख्मों को भरने के लिए अपने पति के विरोध में लड़ने को तैयार हो जाती है । गुलज़ार के बार-बार समझाने और मुहब्बत का वास्ता देने पर भी वह अपने कदम पीछे नहीं हटाती और फौरन केस कर देती है। गुलज़ार फरहाना को चेतावनी भी देता है कि मैंने तुमको स्पर्म के जरिए मां बनाया और इस बात को सबसे छिपाकर भी रखा लेकिन तुम मेरी मदद नहीं कर रही इसलिए हमारे रिश्ते भी खराब हो रहे हैं। एक बार फिर से सोच लो फरहाना, नहीं तो इसका अन्जाम बहुत बुरा होगा फिर मुझे दोष मत देना इसलिए हमारे रिश्ते को बचा लो और नये रिश्ते को अपना लो। गुलज़ार जिस रिश्ते की बात करता है वह रिश्ता गुलज़ार की दूसरी बीवी और उसका बच्चे का होता है। लेकिन फरहाना अपना फैसला नहीं बदलती है । अंततः कोर्ट में वह खुद मुजरिम बनी कैदी की तरह कटघरे में खड़ी रहती है । लेखिका लिखती है कि ‘‘ गुलज़ार के वकीलों ने अचानक केस का पासा पलट दिया फरहाना को मुजरिम बना कटघरे में ला खड़ा किया। पहली बात यह है कि वह स्वयं ‘खुला’ (इस्लाम में पत्नी के द्वारा तलाक लेने की प्रक्रिया ) मांग रही है जिसमें शैहर किसी भी तरह का देनदार नहीं बनता है दूसरे माना कि पति की मर्जी से आई.वी.एफ. द्वारा बच्चा पैदा हुआ यह कोई नई बात नहीं है वर्षो से पूरी दुनिया के मर्द औरत इसका लाभ उठा मां-बाप बनने का सुख प्राप्त कर चुके हैं जो पेच की बात है वह यह है कि यह बच्चा मेरे मोअकिल गुलज़ार नकवीं का न होकर स्पर्म बैंक से लिए गये गैर मर्द के शुक्राणु से हुआ है इस तरह से वह इस्लाम की नज़र से न गुजारे भत्ते की हकदार है न ही उनकी शादी मजहब की नजर से लीगल रह गई है। साथ ही साथ यह कदम उनकी मर्जी से नहीं उठाया गया है । फरहाना ने जो कदम आत्मसम्मान और पत्नी के अधिकार के लिए उठाया था वह भारी अपमान का कारण बन बैठा। ’’(पृ.सं.70) । यहां पर इस्लाम के कायदों पर निष्ठा रखने वाले मुसलमान पुरूषों की सोच साफ जाहिर होती है कि किस तरह से धर्म के नाम पर आज तक यह औरतों को गुमराह करते आ रहे हैं। जो आज तक औरतों को बराबरी का हक कभी नहीं देते हैं । क्योंकि जब वकील चीजों को कुरेदता है तो कहता है कि यह तो इनका बच्चा भी नहीं है लीगल । इस्लाम ‘स्पर्म बैंक’ से स्पर्म लेने और सरोगेसी सबके खिलाफ है क्योंकि उसके नतायज बाई रूल है। उपन्यास में आया है कि ‘‘भाई के अलावा कोई फरहाना के साथ खड़ा नहीं हुआ था। भाई जो खुले शब्दों में कह रहा था कि यह साइंस की करामात है उससे आधा फायदा आप उठा रहे है और पूरा फायदा उठाने पर एतराज क्यों? सारी रूकावटें औरतों के लिए क्यों? मुताह वह कर नहीं सकती, किसी गैर का स्पर्म वह ले नहीं सकती तो फिर यह कैसी बेइन्साफी है आखिर वह अपनी ममता की प्यास बुझाए कैसे? इसके लिए आप सब औरतों को बाआवाज़ बुलन्द अपने हक की मांग करनी चाहिए। ’’(पृ.स.70)

चूकि आज की कहानी है जिस युग में सूचना और संचार का जाल चारों तरफ फैला हुआ है जहां दो मिनट में इन्फार्मेशन्स मिल जाती है, उसमें जो लड़की है फरहाना वह पढ़ी लिखी माडर्न है जोकि मिडलईस्ट में रह चुकी है अन्त में यह फैसला करती है और कहती है कि अब जो यह बची हुई लड़ाई है और उसके जिस बच्चे को नकार दिया गया है वह इस बच्चे के असली बाप को ढूंढेगी। स्पर्म लेते समय हिस्ट्री दी जाती है जिसके सहारे वह पूरी जानकारी इकट्ठा करती है पता चलता है कि वह स्पर्म किसी अन्य देश के व्यक्ति का है फिर जिस मुल्क में वह जाती है वहा यह बहुत बड़ा जुर्म है जहां मौत तक की सजा हो सकती। जब फैमिली में पता चलता है तो मां अपने बेटे की सजा को लेकर बहुत चिंतित होती हो उठती है और तय करती है कि इस झंझट से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि बच्चे को अपना ले और इससे बाहर निकल ले। लड़का बेकारी और गरीबी के कारण यह कदम उठाता है। यहाँ पर मर्द की भी एक तरह की मजबूरी और परेशानी को रेखांकित किया गया है। इस तरह से दूसरे मुल्क में फरहाना को बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। डर के इनकी शादी होती है वहा एक स्थिति यह होती है कि न उस व्यक्ति को इनमें रूचि है और न ही इसको उसमें है लेकिन फरहाना के बच्चे को उनका असली बाप मिल जाता है । फरहाना कहती है कि ‘‘बाप अपने बेटे को हैरत से देख रहा था फिर मुझे । उसकी शादी नहीं हुई थी । वह बेकार था । मामला सुलझ गया । उसने शाद को अपना लिया और मुझे उसकी मां की तरह कूबूल कर लिया । हमारा निकाह हुआ। मेरा और शाद का नाम बदल दिया गया। ……….. फरहाना मर गयी। ’’(पृ.सृ.95-96)

यह नई कहानी की नयी विशेषता मानी जा सकती है कोई यकीन करे या न करे लेकिन जो हैंगओवर है पुराने कानून का उससे वह मुक्त नहीं हो पाते हैं। तो ऐसे लोग जो मुक्त नहीं हो पाते हैं और हर आदमी जिसके पास फरहाना जैसा फैसिलीटी और सहूलियतें नहीं होती है कि इस लड़ाई के बाद भी उसका शौहर भाई की तरह इसकी मदद करता है तब वह लोग क्या करें सवाल यह होता है कि जब नये कानून को नये आविष्कारों के साथ इस्लाम देता है, तो फिर धैर्य का जो हिसाब किताब है वह मर्द औरत दोनों में होना चाहिए न केवल औरत में । गौर करने वाली बात यह है कि यदि इस्लाम में मर्द और औरत दोनों बराबर पैदा हैं तो यह बराबरी मौलाना उन्हें क्यों नहीं देता । इसलिए यहां सवाल उस हुज्जत का है कि आधुनिक समय में किसी समस्या से कैसे निबाह किया जाय। किसी भी समस्या से निजात पाने के लिए जैसा कि इस्लाम में कहा गया है कि अपनी अक्ल का इस्तेमाल करो और इसका जवाब तुम खुद दो । जैसे मेडिकल साइंस अगर उपचार ढूंढ सकती है तो फिर आलिम ‘इतजिहाद’ (जिसका अर्थ पुनर्व्याख्या से है) द्वारा अक्ल का प्रयोग करके कोई हल ढूंढकर फतवा दे ताकि वह औरतें जो समय के बदलते विकास और आविष्कार के बीच सांस ले रही है, इन्हें अकारण प्रताड़ना लांछन और अपमान न सहना पड़े।

अब हमारा सवाल यह है कि स्पर्म बैंक से लिए नुत्फे को किस तरह लीगल बनाया जाय। लेखिका इस बात पर विशेष जोर देती है कि बदलते हुए युग के साथ तकनीकि, धर्म, और कानून में तालमेल बिठाना बेहद जरूरी है । मुस्लिम औरतों की सच्चाई यह कि अक्सर समाज के रूढ़िवादी सोच रखने वाले पुरूष और कठमुल्ला कितनी सफाई से मुस्लिम महिला के अधिकारों में कटौती कर धर्म और कानून के नियमों को अपने हक में मोड़ लेते हैं तो इसलिए जिस तरह तकनीक ने औरतों को बांझपन से निज़ात दिलाने के लिए कुछ नया आविष्कार किया है ठीक उसी तरह धार्मिक मतावलम्बियों एवं धर्माधिकारियों को भी अपने अक्ल का इस्तेमाल करके नये तरीके से किसी मसले का हल ढूंढ़कर बेहतर प्रयास करने की आवश्यकता है। जिससे आधुनिक समाज एवं इस्लामिक शरियत के बीच एक तादात्मय स्थापित हो सके ।

यहां एक ऐसे शिक्षित भारतीय मुस्लिम परिवारों की कहानी है जिनमें भारतीयता है धर्म में भी आस्था है जिसे वह भारतीय संस्कृति में डुबोकर देखते है। उसकी मिसाल यह है कि जो पांच वक्त की नमाज पढ़ते हैं, संगीत के शौकीन है उसको वाकायदा वह कृष्ण लीला में देखते हैं (राधा और कृष्ण के प्रेम) जैसें ‘‘झूला पड़ा कदम की डाली/झूला झूलवें कृष्ण मुरारी। ’’(पृ.सं.27) । वहीं दूसरी तरफ यह है कि गोश्त हर मुसलमान नहीं खाता है। साथ ही, परिवार में कुछ ऐसे हिन्दुस्तानी रस्मो रिवाज है जैसे घर में नई बहू के आने पर गोबर से लीपना जो कि किसान एवं ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा है। यह एक ऐसा आधुनिक मुस्लिम परिवार है जहां घर के लोग पाचों वक्त की नमाज भी पढते हैं, एक ओर शराब भी होती है, बैकलेस भी होता है। इस तरह एक नयी और पुरानी तहजीब का आदान प्रदान चलता रहता है।

1.इसे इस आर्टिकल में नहीं लाया जा सका यहा शिया और सुन्नी के इस मसले पर अगल अगल मन्तव्य और एक लम्बी बहस है। जिसे उत्सुकता हो वह इस पुस्तक को पढ़े।