कविता का जोखिम: मियां कविता के विशेष सन्दर्भ में

प्रीति प्रकाश
तेजपुर विश्वविद्यालय, आसाम में शोधरत हैं

कोई कविता कितनी खतरनाक हो सकती है? इतनी कि पढने वाले को झकझोर सके, या इतनी की पूरी सत्ता को उससे खौफ हो जाये. इतनी कि कवि की जान को खतरा हो जाये या इतनी कि क्रांति की लहर चल पड़े. साल 1985 में जब पकिस्तान की मशहूर फनकारा इकबाल बानो ने लाहौर के अलहमारा ऑडिटोरियम पचास हजार लोगो की भीड़ के सामने में  सिल्क की साडी पहन कर फैज अहमद फैज की नज्म “हम देखेंगे” गाया तो इस एक नज्म ने हुकूमत की जड़े हिला दी. नज्म की पंक्तिया कुछ इस तरह थी-
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल[1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे.

“हम देखेंगे” इस एक नज्म ने जिया- उल- हक़ जैसे कठोर शासक के खिलाफ जैसे पूरे देश को खड़ा कर दिया| जिया – उल – हक़ ने कई तानाशाही फरमान जारी किये थे जिनमे फैज अहमद फैज को देश निकला देना और साडी पहनने पर पाबंदी लगाना शामिल था. पर इस एक कोशिश ने जैसे सब कुछ बदल कर रख दिया.

पिछले दिनों कविता की कुछ ऐसी ही ताकत का एहसास हुआ भारत के असम राज्य में जब 10 जुलाई 2019 को एक एफ. आई. आर. दर्ज हुई , दस मियां कवि और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ जिन्होंने वरिष्ठ मियां कवि “ हाफिज अहमद” की कविता “write down, I am miyan” का वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड किया था. जो लोग “मियां कविता” से परिचित नहीं हैं उनके लिए यह सारा वाकया कई सवाल खड़े कर सकता है. एक- एक कर हम इन सारे सवालों के जवाब को जानने की कोशिश करते हैं.

आखिर कौन हैं ये मियां-  मियां, मुस्लिम समुदाय में लोगो को सम्मान पूर्वक संबोधित करने वाला एक शब्द है. जैसे बंगाल में बाबु मोशाय या अंग्रेजी में जेंटलमैन. पर, असम में बंगाली मूल के मुसलमानों को पहचान के लिए अपमानजनक रूप में मियां शब्द से बुलाया जाता है. “अहमद मियां है”, असम में इस वाक्य को कहने का तात्पर्य हुआ कि अहमद बंगाली मूल का मुसलमान है. ब्रह्मपुत्र नदी के मैदानी भागों में बसे इस समुदाय से असम के मूल निवासियों जो असमिया भाषी हैं, में विवाद चलता रहता है. इतिहास में इस विवाद की जड़े बहुत गहरी हैं जिसके मूल में यही बात है कि कौन असम से है और कौन बाहर से. भाषा इस विभाजन का एक प्रमुख कारण है.

इसकी कई वजहें हैं. मसलन चूंकि इस समुदाय की आबादी बड़ी तेजी से बढ़ रही है इसलिए असम की संस्कृति को इस बढ़ रही “मियां” संस्कृति से खतरा महसूस होता है. इसलिए ये कईयों की आँख में गड़ते हैं. चूँकि इनमें से अधिकांश किसी सम्मानजनक पेशे से नहीं जुड़े हैं इसलिए इस समुदाय को सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता. इनकी भाषा बंगला के ज्यादा करीब है इसलिए भी असामी बोलने वाले लोगो का कोपभाजन इन्हें बनना पड़ता है.  बांग्लादेशी माइग्रेंट की पहचान करने हेतु ही असम में NRC, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार की जा रही है. NRC ने पहले से पहचान का संकट झेल रहे इस समुदाय की पहचान पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया. क्योंकि इस समुदाय में काफी बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जिनका नाम अभी तक इस लिस्ट में नहीं है.

इस समुदाय को यह बात सबित करनी पड रही है  कि वो इस देश के नागरिक है. पर उनकी नागरिकता अभी भी दोयम दर्जे की चीज है. साल दर साल यह समुदाय बाढ़ की विभीषिका झेलता है. विकास जैसे इन इलाकों में पहुंचा भी नहीं है. अब भी इस समुदाय से आने वाले अधिकतर लोग निम्न पेशा जैसे रिक्शा चलना, दिहाड़ी मजदूरी करना या फिर बड़े शहरों में तमाम छोटे काम करना कर रहा है. उस पर से तथाकथित सभ्य समाज द्वारा अपमानजनक रूप से इनके लिए मियां शब्द का इस्तेमाल करना इनकी नाराजगी की वजह है. अपने खिलाफ हो रहे इस भेदभाव को दर्ज करने के लिए ही इस समुदाय ने “मियां कविता” को हथियार बनाया. बंगला, असमिया, हिंदी, और उर्दू आदि मिश्रित भाषा में लिखी गयी इन कविताओं में यह समुदाय अपने खिलाफ हो रहे अत्याचार को अभिव्यक्त करता है. यानि ये मियां समुदाय द्वारा उनकी अपनी बोली में लिखी गयी, अपने शोषण के खिलाफ लिखी गयी कविता है. एक उदहारण है-

लिखो,
लिखो कि मैं मियां हूँ,
NRC में मेरा नंबर 200543 है.
मेरे दो बच्चे हैं,
और तीसरा,
आने वाली गर्मियों में आने वाला है.
क्या तुम उससे भी,
उतनी ही नफरत करोगे,
जितनी मुझसे करते हो.”
(मूल कविता, मियां भाषा में हाफिज अहमद द्वारा लिखी गयी है. यहाँ उसके हिंदी अनुवाद की चेष्टा की गयी है. यह वही कविता है जिसके खिलाफ FIR दर्ज की गयी जिसमें आरोप लगाया गया कि यह कविता असम के लोगो को XENOPHOBIC घोषित कर रही है और इस तरह राष्ट्र हित में नहीं है. XENOPHOBIC का अर्थ हुआ वे लोग जो विदेशियों से नफरत करते हैं.)

अब यह समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर यह आन्दोलन कैसे शुरू हुआ? पहचान का संकट मानव सभ्यता की शुरुआत के साथ है. हर कोई अपनी पहचान चाहता है. अंग्रेजी शासन जब भारत में था तब अपने निजी लाभ हेतु उन्होंने कई बसावटे बसायी. जैसे बिहार से कुछ मजदूरों को मॉरिशस, फिजी ले जाया गया, झारखंड के आदिवासियों को असम के चाय बागानों में काम करने के लिए ले जाया गया वैसे ही वर्तमान बांग्लादेश के कुछ हिस्सों जैसे चिटगाँव, बोरिसाल आदि हिस्सों से मुसलमान आबादी को लाकर ब्रह्मपुत्र के मैदानी हिस्सों में बसाया. अपने साथ ये लोग अपने अपने क्षेत्र की बोलियों को भी लेकर आये. बंगला भाषा के करीब होने के बावजूद इन सारी बोलियों में आपस में कुछ विभिन्नताए थीं. ये सारी बोलियों ने मिल जुल कर एक नयी बोली का निर्माण कर लिया जिसे अब तक कोई विशिष्ट नाम नहीं मिला. कुछ लोग इस बोली को बबुनिया कहते हैं, कुछ किसी और नाम से पुकारते. लेकिन धीरे धीरे यह भाषा और समृद्ध होती गयी और एक बड़े समुदाय के बीच विचारों के आदान प्रदान का माध्यम बन गयी.

धीरे-धीरे इस समुदाय में शिक्षा की ज्योत जली और फिर ये लोग अपने शोषण के खिलाफ अपनी बोली में कवितायेँ लिखने लगे. ये नए कवि दूसरी भाषाओँ के कवियों को भी पढ़ रहे थे और अपने हको- हुकूक की लडाई में उनसे भी सीख रहे थें. उसी समय उन्होंने एक फेसबुक पेज बनाया इटामुगुर (itamugur) के नाम से. इस पेज ने सभी मियां कवियों को लगभग आपस में जोड़ दिया और उसका दायरा विस्तृत कर दिया. इटामुगुर का मतलब होता है लकड़ी का एक औजार जिसका उपयोग खेती से पहले मिटटी को फोड़ने और बारीक करने के लिए होता है.

साल 2016 में फिलिस्तीनी कवि “मोहम्मद दरवेश” की कविता “ आइडेन्टिटी कार्ड” से प्रेरणा लेकर  मियां कवि हाफिज अहमद ने एक कविता लिखी “ हाँ, लिखो, कि मैं मियाँ हूँ”. कविता के हिंदी अनुवाद की यहाँ चेष्टा की जा रही है-लिखो,
लिखो कि मैं मियां हूँ,
NRC में मेरा नंबर 200543 है.
मेरे दो बच्चे हैं,
और तीसरा,
आने वाली गर्मियों में आने वाला है.
क्या तुम उससे भी, उतनी ही नफरत करोगे,जितनी मुझसे करते हो.”

थोड़े ही समय में यह पोस्ट वायरल हो गया और फिर सात अलग अलग मियां कवियों ने इसके जवाब में अपनी कवितायेँ लिखी जिनमे एक थी – हाँ नाना, मैंने लिखा. इसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है-

हां नाना, मैंने लिखा.
(सलीम एम् हुसैन)

हां नाना, मैंने लिखा!
ठप्पा लगाया, दस्तखत किये और सरकारी मुहर भी लगवा ली
कि मैं…… मियाँ…….. हूँ.
अब देखो मुझे,
उठते हुए बाढ़ के पानी से,
लांघते हुए, फट रही धरती को.
देखो मुझे,
गुजरते हुए,
कभी रेत, कभी कीचड और कभी सांपो के बीच से.
देखो मुझे,
इस धरती पर अपने फावड़े से लकीरे खीचते,
देखो मुझे,
मेरे बचपन को,
खेलते हुए इन धान और ईंख के खेतो,
और
दस्त के बीच,
और सिर्फ दस प्रतिशत साक्षरता के साथ,
हां, मैं मियां हूँ.

शब्दों में अपने दर्द को ढालते हुए मियां कविता आगे बढ़ने लगी और बढ़ने लगा यह आन्दोलन भी. शुरुआत में इन कविताओं को चौर चपोरी का नाम दिया गया. चौर चपोरी यानि असम के ब्रह्मपुत्र नदी का किनारा. चूँकि ये समुदाय इसी क्षेत्र में बसा था इसलिए ये नाम ठीक था लेकिन इस कविता की पहचान के लिए जो नाम लोगो के जेहन में बसा वह था-  “मियां कविता”. सिर्फ दो वर्षो में यह कविता अपनी पहचान को बुलंद करती गयी. कई नए कवि इससे जुड़ते गए जिनमे मुख्य थें- हाफिज अहमद, सालिम एम. हुसैन, अब्दुल कलाम आजाद, अशरफुल हुसैन, रेहाना सुल्ताना, काज़ी नील आदि| साल 2018 में “write down- I m Miya” कविता का वीडियो रूपांतरण  किया गया. फिर तो उस वीडियो को वायरल होते देर नहीं लगी और उसकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ी कि FIR तक पूरा मामला पहुंचा.

क्या सच में मियां कविता इतनी पाक साफ़ है- असम के वरिष्ठ पत्रकार “हीरेन गोहेन” ने मियां कविता को लेकर कई सवाल खड़े किये. जो थें-
१. जब मियां कविता इतनी नयी है. तो यह नयी पीढ़ी उस इतिहास को बार-बार अपने कविताओं में क्यों दर्ज कर रही है जिसमे मियां समुदाय के साथ ज्यादती हुई है, जैसे नील जनसंहार. 1983 में हुए इस जनसंहार में मियां समुदाय के तीन हजार लोगो को मार दिया गया था. क्या बार-बार कविता में इसे दर्ज करना आपसी नफरत को नहीं बढ़ाएगा?
२. दूसरा सवाल मियां बोली को लेकर है. ये नयी पीढ़ी जो असम की पीढ़ी है वह असमिया भाषा में क्यों नहीं लिखती, क्यों वह एक ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रही है जिसका कोई व्याकरण तक नहीं? वे जानते हैं कि अगर वो असमिया भाषा में लिखे तो कविता ज्यादा लोगो तक पहुँच पाएगी तो फिर एक बहुत सीमित भाषा में क्यों ये कवितायेँ लिखी जा रही है.
३. अगर सच में मियां कवि अपने प्रति हुए अन्याय को लेकर सजग है, तो बाहर उन पर हो रहे अत्याचार के साथ उस अन्याय के बारे में क्यों नहीं लिखते जो उनके अपने समाज के बीच है? जैसे औरतों पर अत्याचार, बाल विवाह, पलायन आदि.
असमिया समाज इस समुदाय द्वारा शुरू किये गए इस आन्दोलन को अपनी अस्मिता के लिए एक खतरे की तरह महसूस कर रहा है. चूँकि इस समुदाय की आबादी बड़ी तेजी से बढ़ रही है इसलिए उन्हें लगता है की असामी संस्कृति और भाषा जो खुद ही सिमटती जा रही है वह विलुप्ति के करीब न पहुँच जाये.

इन तमाम बातों को लेकर मेरी बातचीत युवा मियां कवि काज़ी नील से हुई. उन्होंने हर सवाल का जवाब दिया-
उनका कहना था कि
हाँ, हम लिखते हैं नीली नरसंहार के बारे में, क्योंकि हमें आज तक न्याय नहीं मिला. न किसी ने सामूहिक रूप से इस कृत्य के लिए माफी मांगी और न ही आज तक दोषियों के सजा मिली. तो फिर हम क्यों न लिखे उस जनसंहार के बारे में. दुसरे सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हम उतने ही असामी है जितने बोडो असामी, बंगाली असामी या सामान्य असामी. असम का निवासी होना हमारी पहचान है पर मियां होना भी हमारी ही पहचान है. फिर ये वो बोली है जो हम बचपन से बोल रहे है तो फिर हम अपना दर्द उसमे नहीं लिखे तो फिर किस बोली में लिखे.
तीसरे सवाल का जवाब देते हुए वो कहते हैं कि मियां कविता में इन सारे मुद्दों को उठाया गया है. पर चूँकि आपने नहीं पढ़ा इसका मतलब यह नहीं कि हम इन मुद्दों पर बात नहीं करते. मियां कविता का बहुत सीमित अनुवाद होने की वजह से लोग इस पहलू से अनजान हैं.

फिलहाल वाद विवाद का यह दौर जारी है| दोनों पक्षों से लगातार बहस हो रही है, लेकिन इन तमाम बातो से फिर से यह संशय शुरू हो रहा है कि असम राज्य फिर से भाषा को लेकर किसी खुनी क्रांति की ओर तो नहीं बढ़ रहा है| अगर ऐसा हो रहा है तो फिर मामला काफी संगीन है और यहाँ तुरंत ध्यान देने की जरूरत है| पर फिलहाल सारे प्रकरण से एक जो बात उभर कर आ रही है वो यह कि वाकई “कविता” एक बहुत ही धारदार हथियार है जिसे बहुत ही संभाल कर इस्तेमाल करने की जरूरत है| यह क्रांतियाँ भी ला सकती है, तो गुमराह भी कर सकती है| यह अन्याय के प्रतिकार का एक माध्यम बन सकती है तो कई बार अन्याय का एक रूप भी| लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी का दमन कहीं से भी उचित नहीं है| फिलहाल इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है पूरे मसले को ठीक तरीके से समझना और फिर शांतिपूर्वक हल करने की कोशिश करना|

1.https://scroll.in/article/930416/i-am-miya-why-poetry-by-bengal-origin-muslims-in-their-mother-tongue-is-shaking-up-assam

2. https://www.indiatoday.in/india/story/miya-poetry-why-is-it-creating-noise-in-assam-now-explained-nrc-citizenship-bill-1570048-2019-07-16

3. http://sunflowercollective.blogspot.com/2016/12/poems-miyah-poetry-series-curated-by.html

4. https://www.facebook.com/itamugur/?epa=SEARCH_BOX

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