‘स्‍त्री’ : एक सार्थ‍क हॉरर फिल्‍म

प्रमोद मीणा

किसी परंपरागत विधा या कलागत प्रवृत्ति का सृजनात्‍मक इस्‍तेमाल करके बदलते हुए समय में कैसे प्रासंगिकता की कसौटी पर खरा उतरा जा सकता है, इसी का एक उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है – अमर कौशिक निर्देशित फिल्‍म ‘स्‍त्री’। ‘स्‍त्री’ को अगर सिनेमाई जेनर के अंतर्गत रखना हो तो हमें इसे संत्रास पैदा करने वाली भूतहा फिल्‍मों की श्रेणी में रखना होगा लेकिन यह फिल्‍म भूत-प्रेत और चुड़ैल आदि पर केंद्रित हॉरर फिल्‍मों से इस मायने में अलग है कि इसमें निर्देशक ने रामसे बंधुओं की जैसे ए और बी ग्रेड की फिल्‍मों की भांति बॉक्‍स ऑफिस पर अंध विश्‍वासों की जड़ों को और गहरा करते हुए भोले-भाले दर्शकों के अवचेतन में बैठे भूत-प्रेत के डर को भुनाया नहीं है। ‘स्‍त्री’ फिल्‍म तो हॉरर फिल्‍मों की परंपरा में एक अपवाद सरीखी है जो स्‍त्री भूत के अपने केंद्रीय चरित्र के बहाने अपने ढंग से स्‍त्री विमर्श में हस्‍तक्षेप करने की कोशिश करती है। आधुनिक होते भारतीय समाज में फैले प्रतिक्रियावादी सामंती युग के अंधविश्‍वासों को अपना विषय बनाते हुए भी फिल्‍म प्रगतिशील मूल्‍यों की ओर हमें ले जाने की एक कोशिश है।

फिल्म का एक पोस्टर

यह फिल्‍म लोकमानस में प्रचलित उस पुंसवादी अंधविश्‍वास पर आधारित है कि स्‍त्री के पास एक रहस्‍यमय ताकत होती है और वह पुरुष को अपनी काम-वासना का शिकार बनाने या बदला लेने के लिए इस क्षमता का इस्‍तेमाल करती है। आज की 21वीं सदी में भी देश के किसी न किसी कोने से जादू-टोने के आरोप में डायनमारी की घटनाएँ प्रकाश में आती रहती हैं। भूत-प्रेत और डायन-चुड़ैलों के कारनामों से भरे किस्‍से-कहानियों ने हमारे अवचेतन को काफी हद तक आज भी जकड़ा हुआ है। यह फिल्‍म जहाँ हमें इस प्रकार के अंधविश्‍वासों से ऊपर उठकर तार्किक बनने की ओर प्रवृत्‍त करती है, वहीं यह एक स्‍त्री भूत को केंद्रीय पात्र बना प्रेम की आजादी चाहने वाली लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ आज के दौर में लगातार बढ़ते खाप पंचायतों सरीखे आतंक और सामूहिक बलात्‍कार जैसे पाश्विक अपराधों की ओर भी इशारा कर जाती है। फिल्‍म उस भय और आतंक की ओर दर्शक का ध्‍यान ले जाने में सफल रही है जिससे आज एक-दो साल की अबोध बच्‍ची से लेकर सत्‍तर-अस्‍सी साल की बुजुर्ग स्‍त्री तक समान रूप से ग्रसित है। अकेली लड़की या महिला को बलात्‍कार की संभावित शिकार के रूप में देखने की मानसिकता का पुरुषों में घर कर जाना हमारे आज के समय की भयावह सच्‍चाई है। बलात्‍कार और छेड़छाड़ के माध्‍यम से स्‍त्री पर अपनी ताकत की मुहर लगाना आज हमारी कथित महान भारतीय संस्‍कृति की पहचान बन चुकी है। निर्भया बलात्‍कार कांड के बाद स्‍त्री पर होने वाले इस अमानवीय अत्‍याचार के खिलाफ नागरिक समाज के सड़कों पर उतर आने और बलात्‍कार के मामलों में सख्‍़त से सख्‍़त सज़ा के प्रावधानों के साथ कानूनी प्रक्रिया को सरल और गतिशील बनाने की कोशिशों के बाद भी बलात्‍कार रुक नहीं पा रहे हैं और डिजिटल माध्‍यमों तक पहुँच के बीच पोर्नोग्राफी आदि के कारण पुरुषों के बीच स्‍त्री द्वेष और भी क्रूर रूप में सामने आने लगा है। इस परिप्रेक्ष्‍य में यह फिल्‍म एक भूतहा कहानी के माध्‍यम से हमारे पुरुषों की बीमार-बीभत्‍स मानसिकता को उजागर कर देती है।यह फिल्‍म स्‍त्री को काम-वासना की खान मानने वाले नैतिकता के ठेकेदार पुरुषों के दोगले चरित्र को उजागर करने के साथ-साथ दिखाती है कि ‘स्‍त्री इजाजत के बगैर हाथ नहीं लगाती’ जबकि पुरुष स्‍त्री की इच्‍छा –अनिच्‍छा की परवाह करना अपनी तौहीन समझता है।

इस फिल्‍म को लोकप्रिय संस्‍कृति के नारीवादी संस्‍करण के रूप में भी देखा जा सकता है। जैसे-जैसे स्‍त्री साक्षरता बढ़ी है और भारतीय स्‍त्री घर की चार दीवारी से निकलकर अपने जीवन और सपनों से जुड़े मुद्दों को उठाने लगी है, वैसे-वैसे हिंदी फिल्‍मकारों ने भी नारीवादी बहसों को उठाना आरंभ कर दिया है। आज हिंदी फिल्‍में भारतीय समाज में प्रचलित पुंसवादी पूर्वाग्रहों पर सवाल उठा रही हैं। ‘स्‍त्री’ को भी ‘कहानी’, ‘गुलाब गैंग’, ‘पिंक’ और ‘क्‍वीन’ जैसी स्‍त्री विमर्श वाली फिल्‍मों के वर्ग में रखा जा सकता है। ये तमाम फिल्‍में नारीवाद को नारेबाजी के शोरगुल में उलझाकर अपने कर्तव्‍य की इतिश्री नहीं मान लेती हैं अपितु दर्शक को अंदर ही अंदर बदलकर उसे लैंगिक रूप से कहीं ज्‍यादा समतामूलक समाज को अपनाने के लिए कायल करती हैं। बिना किसी उपदेश और नारेबाजी के आहिस्‍ता से पूर्व प्रचलित स्‍त्री विरोधी अंधविश्‍वासों पर चोट करके स्‍त्री भूत किवां डायन आदि के प्रति विद्यमान नकारात्‍मक पुंसवादी मानसिकता में एक सकारात्‍मक तब्‍दीली लाने की ही एक कोशिश है यह फिल्‍म ‘स्‍त्री’।

जिस प्रकार फिल्‍म में संत्रास के साथ-साथ स्‍थान-स्‍थान पर हास्य और व्‍यंग्‍य की योजना की गई है, उससे दर्शक शुरु से लेकर अंत तक भूतादि के अंविश्‍वासों के विरुद्ध संदेह से मुक्‍त नहीं हो पाता और यही कारण है कि शुक्‍ल जी की शब्‍दावली में जिसे भय की शीलदशा कहेंगे, उससे बचा रहता है। आम हॉरर फिल्‍मों की जैसे यहाँ अज्ञान पर आस्‍था की मुहर लगाकर दर्शकों को डराने की जगह अंध आस्‍था और अंध मान्‍यताओं पर सवाल उठाना सिखाया गया है। राजनीति में अंध भक्ति की जो वर्तमान अलोकतांत्रिक लहर चल रही है, उस पर भी यह फिल्‍म व्‍यंग्‍य करती है। फिल्‍म में आये इस प्रकार के संवाद इसे हॉरर फिल्‍मों के खांचे से बाहर निकालकर राजनीतिक व्‍यंग्‍य की दिशा में भी ले जाते हैं – ‘अंध भक्ति बुरी चीज है, किसी को भक्‍त नहीं होना चाहिए।’

फिल्‍म मध्‍यप्रदेश राज्‍य के चंदेरी नामक एक छोटे से कस्‍बे के इस अंधविश्‍वास के इर्द-गिर्द केंद्रित है कि स्‍त्री नाम की एक आत्‍मा पुरुष देह की भूखी है और यह इस कस्‍बे में मनाये जाने वाले सालाना चार दिवसीय धार्मिक त्‍यौहार के मौके पर पुरुषों को उठा लेती है और पीछे सिर्फ उनके कपड़े ही शेष छोड़ती है। त्‍यौहार के दौरान कस्‍बे के पुरुष इस स्‍त्री से इतने भयभीत रहते हैं कि वे दिन ढलने के बाद घर से बाहर कदम नहीं रखते। और किसी जरूरी काम से बाहर निकलना ही पड़े तो उनकी मान्‍यता है कि इस स्‍त्री आत्‍मा से नज़रें नहीं मिलानी चाहिए। लोगों में यह अंधविश्‍वास है कि स्‍त्री पीछे से तीन बार पुकार कर व्‍यक्ति का अपहरण कर लेती है। जब इस स्‍त्री के साथ कस्‍बे में महिलाओं के वस्‍त्र सिलने वाले एक लोकप्रिय दर्ज़ी विक्‍की और उसके दो अन्‍य दोस्‍तों बिट्टू और जना का सामना होता है तो हास्‍य और व्‍यंग्‍य की विभिन्‍न स्थितियाँ जन्‍म लेती हैं। फिल्‍म के क्‍लाइमेक्‍स में स्‍त्री द्वारा अपहृत जना को छुड़ाने के क्रम में विक्‍की और बिट्टू कस्‍बे के ही एक विद्वान रुद्र और एक बुजुर्ग लेखक की सहायता से स्‍त्री के रहस्‍य पर से पर्दा तो उठा देते हैं लेकिन स्‍त्री का जो अतीत सामने आता है, वह कस्‍बे के मर्दों के स्‍त्री विरोधी दोगलेपन और सड़ी-गली पुंसवादी मान्‍यताओं को भी अनावृत कर जाता है। अंत तक आते-आते स्‍त्री के कथित अनैतिक वासनामय चरित्र को लेकर फैलाये गये पुंसवादी पूर्वाग्रहों पर से भी पर्दा उठ जाता है। इस प्रकार आतंक और रहस्‍य से ओत-प्रोत यह फिल्‍म मर्दों के लंपट अनैतिक चरित्र को व्‍यंजित कर जाती है।

अपनी तमाम संवेदनशीलता और प्रगतिशीलता के बावजूद इस फिल्‍म में एक लोकपिय कला माध्‍यम की सीमाएँ भी साफ देखी जा सकती हैं। इस फिल्‍म में आये उस आइटम नम्‍बर को हटाया जा सकता था जो स्‍त्री देह का वस्‍तुकरण करने वाला है। कुछ जगह आये द्विअर्थी संवादों को भी बदला जाना चाहिए था। हस्‍त मैथुन करने वाले व्‍यक्ति के लिए ‘स्‍वयंसेवक’ शब्‍द का प्रयोग इसी प्रकार के संवाद का उदाहरण है। फिल्‍म के नायक का महिलाओं के वस्‍त्र सीने वाला दर्ज़ी होना कामुकता-अश्‍लीलता से ओत-प्रोत दर्ज़‍ियों की द्विअर्थी कहानियों की याद दिलाने वाला है। वैसे शुक्र है कि फिल्‍म का नायक एक सीमा से ज्‍यादा आगे नहीं जाता और स्‍त्री के साथ उसकी दोस्‍ती प्रेम संबंधों पर टिकी है। 

फिल्म का एक दृश्य

पुरुषवादी भारतीय समाज में स्‍त्री को अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में जिस दैहिक और मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है, यह फिल्‍म हास्‍यास्‍पद विडम्‍बना के साथ उसी यंत्रणा से होकर एक छोटे से कस्‍बे चंदेरी के पुरुषों को गुजारती है। फिल्‍म में साल में एक बार धार्मिक त्‍यौहार के मौके पर चार दिनों के लिए स्‍त्री भूत के डर से कस्‍बे के मर्द उसी असुरक्षा और घुटन को महसूस करने को बाध्‍य होते हैं जिससे स्त्रियों को सालभर गुजरना पड़ता है। आतंक और हास्‍य, दोनों के मिले-जुले प्रभाव से होकर दर्शक स्‍त्री-पुरुष समानता का महत्‍वपूर्ण पाठ भी मनोरंजन के साथ-साथ अनायास ग्रहण करते जाते हैं। इन चार दिनों के दौरान कस्‍बे के मर्दों को रात में घर से बाहर अकेले न निकलने की बार-बार हिदायत दी जाती है। घर की स्त्रियों द्वारा उन्‍हें दिन ढलने से पहले ही घर वापिस लौट आने की याद दिलाई जाती है। उन्‍हें कहा जाता है कि वे घर के खिड़की-दरवाजे बंद रखें। अजनबी स्‍त्री से और छिप-छिपकर पीछा करने वाली स्‍त्री से दूर रहने की नैतिकतावादी सीख भी उन्‍हें जब-तब सुननी पड़ती है। फिल्‍म में ‘नये भारत की चुड़ैल’ इस स्‍त्री भूत के कारण कस्‍बे के मर्दो पर छाया यह आतंक हमारे पुंसवादी परिवेश में 24×7 रहने वाले उस चिरपरिचित भय से साम्‍य रखता है जिसे पुरुषों के कारण स्त्रियों को झेलना पड़ता है। फिल्‍म का उद्देश्‍य कोई उपदेश देना नहीं है किंतु हास्‍य की स्थितियाँ सृजित करने के लिए जिस प्रकार पुरुष-स्‍त्री के परम्‍परागत द्वंद्व और संत्रास के परिवेश को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है, उससे स्त्रियों के मन में कहीं गहरे तक बैठे पुरुष के भूत को रेखांकित करने में निर्देशक को सफल्‍ता मिली है।

बचपन से जिस प्रकार लड़कों का पालन-पोषण होता है, उसमें वे स्‍त्री लिंग को पुरुष लिंग के समकक्ष समझने का संस्‍कार कभी अर्जित ही नहीं कर पाते हैं। बचपन से ही स्‍त्री को खतरे के रूप में दिखाये जाने से एक तरफ जहाँ ब्रह्मचर्य के मिथक को बल मिलता है, वहीं दूसरी तरफ स्‍त्री के ऊपर अविश्‍वास करने को भी बढ़ावा मिलता है। यही डर और अविश्‍वास स्‍त्री को डायन समझने की उर्वर भूमि तैयार करता है। विक्‍की और उसके दोस्‍तें के माध्‍यम से यह फिल्‍म स्‍त्री लिंग के प्रति पुरुषों में विद्यमान इसी प्रकार की गलत और भ्रामक मान्‍यताओं को समझने का अवसर प्रदान करती है। धार्मिक प्रथाओं और उत्‍सवों में निहित स्‍त्री विरोधी पूर्वाग्रहों की पड़ताल भी इस फिल्‍म में हम पाते हैं। कस्‍बे के चार दिवसीय सालाना धार्मिक त्‍यौहार के अवसर पर स्‍त्री नामक चुड़ैल को घर में घुसने से रोकने के लिए घर की दीवार आदि पर ‘स्‍त्री कल आना’ लिखना जैसी अंधविश्‍वासी प्रथा विभिन्‍न रूपें में हम अपने आस-पास भी देख सकते हैं। स्‍त्री दिवस के उपलक्ष्‍य में स्‍त्री विमर्श पर आयोजित किसी कार्यशाला या नारीवाद पर आयोजित किसी भी व्‍याख्‍यान के बनिस्‍पत ‘स्‍त्री’ जैसी फिल्‍में स्‍त्री विरोधी पुरुष मानसिकता पर चोट करने और हमें स्‍त्री के प्रति कहीं ज्‍यादा संवेदनशील बनाने की दिशा में कहीं ज्‍यादा सफल हो पाती हैं। अस्‍तु, पुरुष की हिंसा और आक्रामकता को प्रभावी ढंग से काबू में करने में फिल्‍म की ‘स्‍त्री’ का भय काम करता नज़र आता है।

डॉ. प्रमोद मीणा, सहआचार्य, हिंदी विभाग, मानविकी और भाषा संकाय, महात्‍मा गाँधी केंद्रीय विश्‍वविद्यालय, जिला स्‍कूल परिसर, मोतिहारी, जिला–पूर्वी चंपारण, बिहार–845401, ईमेल – pramod.pu.raj@gmail.com, pramodmeena@mgcub.ac.in; दूरभाष – 7320920958

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