मनोसांकृतिक संरचना एवं हिंसा का अंतरसंबंध : हेजेमोनी और दलित स्त्री

किसी भी हिंसक घटना की पृष्टभूमि में उसके मनोसांस्कृतिक आधार का महत्वपूर्ण स्थान होता है ।बिना मानसिक तैयारी के कोई भी हिंसक विचार आकार नहीं ले सकता।हिंसक प्रवृत्ति के लिए लंबे समय तक सामाजिक स्वीकृति का होना अनिवार्य होता है ।यह स्वीकृति ही वर्तमान समय में भीड़ द्वारा हिंसा किए जाने की मनोसांस्कृतिक संरचना का निर्माण कर रही है ।

वर्चस्व के लिए की गयी हिंसा कोई एकाएक घटने वाली परिघटना नहीं है ऐसी घटनाएं पहले भी घटती रहीं हैं लेकिन उसका स्वरूप छोटा था और उसका मीडिया में खबर बनना और निंदा करने का चलन नहीं था क्योंकि यह मान्य कर ली गई हिंसा के श्रेणी में आती थी । विशेष समुदाय पर सुनियोजित हिंसा और खासकर अपराध के सामाजशास्त्र में महिलाएं आसानी से मान्य कर ली गई कोई व्यक्तिनुमा वस्तु ही थी । महिलाएं, विशेष रूप से दमित वर्ग की महिलाएं परंपरागत हिंसा के लिए चुनी गई गुलाम रहीं हैं जिसे न तो दमित वर्ग के पुरुषों से कोई मनोबल मिलता है और ना ही उसके शोषक वर्ग की महिला से । उसके विरुद्ध हिंसा की लड़ाई में कई बार वह अकेली ही दिखाई देती है तब भी जब वह शोषित हो रही होती है और तब भी जब वह न्याय मांग रही होती है । इस पृष्टभूमि को हम निम्न प्रश्नों द्वारा स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे-

  • दलित महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और मनोसंस्कृतिक संरचना का क्या संबंध है ?
  • वर्तमान समय में वर्चस्व वादी जातियों द्वारा किन माध्यमों से हिंसा का मनोशस्त्र गढ़ा जा रहा है ?

और बृहद समाज का ध्यान हिंसा के मनोशस्त्र के बनने के पीछे मनोसंस्कृतिक हिंसा कैसे कम करती है,  जो नेपथ्य में काम करती है उस हिंसा को उजागर करना इस लेख का उद्देश्य है ।

मनोसांस्कृतिक संरचना का पुनर्निर्माण :

पिछले कुछ सालों से भारत की प्रभुत्व वाली जातियों के लोगों द्वारा विभिन्न माध्यमों से उनके अपने वर्चस्व को यथास्थिति में बनाए रखने के लिए हिंसा को एक प्रमुख हथियार बनाए जाने के कई मामले सामने आए हैं । हिंसा के सूक्ष्म स्वरूपों की पड़ताल किए बिना भौतिक हिंसा की प्रकृति की आधी-अधूरी समझ ही विकसित हो पाती है । बलात्कार जैसी दृश्य हिंसाओं को ज़्यादा महत्व देने के कारण इसके नेपथ्य में काम कर रहीं हिंसाओं को कमतर देखा जाता है । यह 70 और 80 के दशक के महिला आंदोलन द्वारा कुछ खास हिंसक घटनाओं को आंदोलन के रूप में चुने जाने के कारण हुआ, जिससे परिवार में हो रही जातीय संरचनात्मक हिंसा की अनदेखी की गई । जेण्डर की हिंसा को बहस के केंद्र में रखे जाने के कारण प्रतिदिन की जाने वाली हिंसा जो कि संरचना में रची-बसी है वह हिंसा की परिभाषा की परिधि से दूर हो गई । भारत में वर्चस्व को बनाए रखने के लिए जाति एक ऐसा सशक्त साधन है जिससे स्वयं नारीवादियों, समाजवादियों तथा स्वायत्त महिला संगठनों से भी इसकी परतों में जाकर इसकी विवेचना करने से चूक हो गयी । जिससे हुआ यह कि [1]पूरे भारत में चल रहे महिला आंदोलन जाति के मुद्दों पर असंवेदनशील दिखायी दिए क्योंकि समकालीन दलित महिलाओं पर हो रही शारीरिक और मानसिक हिंसा पर वें सभी चुप रहे । 70 के दशक में चल रहे दलित संगठनों द्वारा जो मुख्यतः उग्र स्वरूप के थे उन्होंने भी दलित महिलाओं पर हो रही शारीरिक हिंसाओं पर तो आंदोलन किए जो जातिगत हिंसा की श्रेणी में भी आते थे लेकिन अपनी महिला के प्रति वें स्वतः निष्ठुर रहे और उन्होंने अपने परिवार में दलित महिलाओं पर दलित पुरुषों द्वारा की जा रही शारीरिक व मानसिक हिंसा की निंदा भी नहीं की । उनके मुद्दे केवल स्त्री शिक्षा, उन्हें जाति के बंधन और कर्मकांड से मुक्त करने तक ही सीमित रहे ।वर्तमान में भी दलित महिलाओं की मानसिक हिंसा जो सामाजिक संरचना में वर्चस्व के सिद्धांत माध्यम से  प्रभुत्व शाली जातियों द्वारा की जाति है उस पर कम ही बात होती है ।

21 जून 2018 UDHR (मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा 1948) की 76 वीं वर्षगांठ पर जिनेवा में आयोजित ‘संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद’ के 38 वें सत्र में [2]‘ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच’ ने भारत में दलित महिलाओं द्वारा झेली जा रही जाति आधारित हिंसा से जुड़ी रिपोर्ट व वीडियो जारी किया, जिसमें भारत में दलित महिलाओं के विरुद्ध हो रही हिंसा के मुद्दे को चर्चा का विषय बनाया । उनका कहना है कि इस रिपोर्ट को पेश करने का उनका उद्देश्य यह है कि जाति आधारित हिंसा की समस्या से लड़ने के लिये सही नीति और क्रियान्वयन से जुड़े सुझावों को संयुक्त राष्ट्र के भीतर और बाहर खोजना और इस दिशा में अंतराष्ट्रीय स्तर पर साझेदारी बनाना था |  इस परिषद के 38 वें सत्र में ‘जातिगत बर्बरता के विरुद्ध आवाजें : भारत में दलित महिलाओं की कहानियां’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में खुले तौर पर इस बात की चर्चा की गयी है कि किस तरह मोदी सरकार में दलित महिलाओं को अत्यंत क्रूर हिंसा और दोषियों की सुरक्षा के लिए अधिकारियों के बीच मिलीभगत की विशेष संस्कृति का सामना करना पड़ रहा है | इस  रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत के विभिन्न राज्य जैसे बिहार, हरियाणा, उड़ीसा और महाराष्ट्र में दलित महिलाओं के साथ होने वाली घटनाओं के मामलों में पुलिस प्रशासन की कारवाई में ढिलाई तथा जातिगत भेदभाव के खिलाफ वें अपना प्रतिरोध भी दर्ज कराती है |

सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था में प्रतीकात्मक हिंसा वर्चस्वशाली जातियों द्वारा इस व्यवस्था से आरोपित की जाती है जैसे कभी-कभी यह तानाशाही न होकर प्राकृतिक लगने लगती है । यह कई बार शोषितों द्वारा स्वतः अपने अधिकार को छोड़े जाने और अपने अस्तित्व को नकारे जाने से भी लक्षित होता है । इस प्रकार की हिंसा की पृष्ठभूमि में शारीरिक हिंसा होती है । लेकिन यह हिंसा दैनंदिन जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में न सिर्फ साधारणतः स्वीकार कर ली जाती है बल्कि बेदभाव और शोषण की भी पुनरावृत्ति होती है । शोषितों द्वारा इसे स्वतः मौन स्वीकृति दे दी जाती है ।

[3]इटली के प्रसिद्ध समाजवादी अंटोनिओ ग्रामसी ने सत्ता के वर्चस्व के पीछे सांकृतिक तथा विचारधारात्मक रणनीति का होना आवश्यक तत्व के रूप में मान्य किया है । शोषित की सहमति के बिना सांस्कृति और ज्ञान का वर्चस्व जिससे हिंसा की जड़े मजबूती से जमायी जाती हैं वह स्थापित नहीं हो सकता । वें बताते है कि “आर्थिक केंद्रीयता सांस्कृतिक, नैतिक, वैचारिक वर्चस्व का निर्माण करती है और इसे कमजोर तबकों पर आरोपित करती है । यह मात्र राजनीतिक वर्चस्व के कारण ही नहीं होता इसके लिए आर्थिक गैरबराबरी आवश्यक है । इसीलिए यह ‘जबरदस्ती’ और ‘सहमति’ के बीच की बराबरी पर ध्यान देता है” । वर्चस्ववादी और दबंग वर्ग वैचारिक तथा सचेतन बुद्धि से शोषण करता है यह शोषण व्यावहारिक हिंसा को नहीं वरन वैचारिक हिंसा की ओर अग्रसर होता है ।

‘जिस काल में अमरीका जैसे देश में बलात्कार जैसी हिंसाओं के विरोध में प्रदर्शन किए जा रहे थे और अश्वेत नारीवादियों द्वारा अश्वेत महिलाओं के विरुद्ध व्यावहारिक और सांकेतिक हिंसा के रूपों को पहचान कर अपने अस्तित्व के लिए आंदोलन किए जा रहे थे ठीक उससे पहले यह काम भारत में किया जा चुका था’ ।[4] 1972 में महाराष्ट्र राज्य के नागपुर में बलात्कार पर पहली बार भव्य मुक विरोध प्रदर्शन किया गया यह अपने समय का पहला ऐसा मुक मोर्चा था जिसमें शोषित समुदाय की महिला की यौनिक स्वतंत्रता और उसे अपमानित किए जाने के बीच के फर्क को रेखांकित किया गया और लोगों के मानस में इस हिंसा की गंभीरता को मुखरता से स्पष्ट किया गया । ‘1975 में स्यूजन ब्राउनमिलर ने अपनी पुस्तक, ‘अगेन्स्ट अवर वील’ के माध्यम से पहली बार बलात्कार जैसी समस्या पर दुनिया का ध्यान खिंचा तथा इस हिंसा की गंभीरता पर प्रकाश डाला और समाज में स्त्री की शोषित अवस्था से सभी को अवगत कराया । ब्राउन मिलर के अनुसार “बलात्कार मूलतः राजनीतिक प्रक्रिया है और बलात्कार कामुक उत्तेजना से प्रेरित नहीं होता बल्कि राजनीतिक कारणों से प्रेरित होता है यानि वह पुरुष शक्ती की स्थापना और स्त्री-अधीनीकरण के विचार को संप्रेषित करता है’ ।[5] भारतीय संदर्भ में वर्चस्व की पुनरावृत्ति शारीरिक और मानसिक अधीनीकरण की प्रक्रिया के द्वारा दलित महिलाओं पर निरंतर हिंसक यौनिक हमलों के माध्यम से की जा रही है जो लंबी जातिगत घृणा का परिणाम होती है । यह हिंसक हमले किसी भी दमित समुदाय को निरंतर दासता की स्थिति में रखने के लिए उस समुदाय की महिला के विरुद्ध किए जाते रहे है जिससे उनके भीतर दमित मानसिकता की संरचना का पुनर्निर्माण होता रहे ।

बदलते समय के साथ हिंसा के रूप भी बदले हैं जैसे भीड़ द्वारा की गयी हिंसा और उस हिंसा का सामान्यीकरण करना, शिक्षा के क्षेत्रों में छात्र-छात्राओं पर हिंसक हमले, बलात्कारियों के पक्ष में निकाले गए मोर्चे, नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों में महिलाओं की सुरक्षा पर चिंताजनक स्थिति, नेताओं द्वारा दिये गए बयान जिसमें महिलाओं को उनके विरुद्ध की गयी हिंसा के लिए जिम्मेदार बताना जैसे, [6]‘रेप इंडिया में होते हैं भारत में नहीं’, धारा 370 के हटने के बाद हिंसा की खुली छूट देना जिसमें पुरुष प्रभुत्व को स्वीकृति देते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का बयान था कि अब हमारे लड़के वहाँ से लड़कियां ला सकते और हासिल कर सकते हैं । विक्रम सिंग जो मुजफ्फरपुर के एम. एल. ए. है उनके द्वारा कहा जाना कि बीजेपी. कार्यकर्ता वहाँ की गोरी चमड़ी वाली लड़कियों से विवाह करने के लिए उत्सुक है’ । इस तरह के हिंसक बयान के मात्र उच्चारण से ही बड़ी भीड़ को उस प्रतीकात्मक हिंसा का संकेत मिल जाता है । इन बयानों में जो कहा जा रहा है इसका सीधा हिंसक परिणाम गांव की उस दमित जातियों वाली युवतियों की यौनिक स्वतंत्रा पर होता है जो सामूहिक बलात्कार जैसी हिंसा के लिए आसान शिकार बना दी जाती है । जमीनी स्तर की हिंसा जो भौतिक आकार में नजर आती है उसका उपयोग विभिन्न माध्यमों से मानसिक हिंसा जो घृणा की संस्कृति का निर्माण करती उसके लिए जमीन तैयार कर रही होती है ।

आभासी प्रतीकात्मक हिंसा की पृष्टभूमि:

सोशल मीडिया जगत की बात करें तो  [7]‘हिंदु ट्रेड’ नामक एक समूह जो भारत में दलितों के विरुद्ध हिंसक भाषा का उपयोग कर उनके विरुद्ध की जाने वाली अन्य हिंसाओं के मनोशास्त्र को गढ़ता है और एक विशेष जाति समूह के लोगों पर आरोपित करता है तथा हिंसा को सामूहिक सहमति द्वारा अपने जाति समूह में सही घोषित करता है । इस समूह द्वारा जातिसूचक गालियाँ देना, दलितों कों ‘भीमट्या’ कह कर अपमानित करना, और दक्षिणपंथ की सत्ता कों बनाए रखने के लिए आपस में दलितों के विरुद्ध सामूहिक हिंसा के लिए सहमति देना यह सब किया जाता है । इसमें नाज़ियों द्वारा गैस चेंबर में डालकर कर किए गए नरसंहार जैसी हिंसा कों दलितों पर किए जाने की भी सहमति दी जाति है । यह हिंसा इंटरनेट पर  बातचीत का हिस्सा भले ही है लेकिन इस हिंसा की मनोसांस्कृतिक पृष्टभूमि जातिव्यवस्था की विभेदीकरण की राजनीति में तैयार की जाती है । मनोसांस्कृतिक संरचना की हिंसक पुनरावृत्ति इसी तरह के साधनों द्वारा की जा रही है ।

दलितों और उनकी महिलाओं के विरुद्ध हिंसा जैसे उनका अपमान करना, उनके द्वारा की गयी आर्थिक उन्नति और उनके आत्मविश्वास को नष्ट करना, दलित स्त्री की दैहिक स्वतंत्रता को, उनकी यौनिकता को अपनी मर्दानगी के नाम पर नियंत्रित करने के लिए सामूहिक बलात्कार करना और उनकी हर प्रतिरोधी क्षमता को मार-पीट कर दबाना । यह हिंसा के ऐसे रूप है जिन पर बात होती है और लिखा भी जाता है लेकिन इन हिंसाओं ने कैसे पूरी पीढ़ी को मानसिक रूप से तैयार किया जिसमें हिंसा को हिंसा के रूप में देखे जाने के साथ ही जातीय दंभ और इसको शांत करने के लिए अपनायी गयी हिंसा के उत्सव मनाये जाने की संकृति का भी ज्ञोतक बनाया है जिसके घातक परिणाम हम देख चूकें हैं, इस पर बात की जानी जरूरी है ।

[8]उत्तराखंड और रायपुर में हुई धर्म परिषद में मुस्लिम महिलाओं के विरुद्ध लगाए गए हिंसक नारे जिसका तत्काल कोई परिणाम न भी दिखे लेकिन इससे किसी भी हिंसा के लिए  एक तैयार भीड़ का निर्माण किया गया। जो कभी भी किसी ऐसे समुदाय के विरुद्ध मारने-काटने की मासिक तैयारी के साथ आएगी जिससे उनका कोई संबंध भी नहीं होगा । यदि भविष्य में इसी भीड़ द्वारा किसी धार्मिक उन्माद में विशेष जाति समूह और उनकी महिलाओं के विरुद्ध बलात्कार होते हैं, उनकी संपत्ति नष्ट कर दी जाती है, या उनकी पूरी बस्ती को ही आग लगा दी जाती है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि यह हिंसक भीड़ कहा से आयी थी । इस हिंसा की तैयारी ऐसे ही कट्टरपंथियों द्वारा लंबे समय से कभी धार्मिक मंचों से तो कभी चुनावी मुद्दों में जातीय उन्माद को भड़काने का काम करती है जो नेपथ्य में रहकर बड़े नरसंहार का काम करती दिखायी देती है । राज्य की सत्ता समाज में धर्म की सत्ता के साथ मिलकर वर्चस्व को बनाए रखने का काम करती है इसके केंद्र में दलित महिलाओं के विरुद्ध की जाने वाली हिंसा होती है । यह करने के लिए आवश्यक है कि लोगों के मस्तिष्क में शोषित जातियों के विरुद्ध हिंसक भाषा का उपयोग कर उन्हें उकसाया जाए और उनके द्वारा हिंसा करने की जिम्मेदारी सौपी जाए जो पूर्ण रूप से जायज होगी । ऐसा ही हाथरस की सामूहिक बलात्कार की घटना में देखा गया कि कैसे पुलिस प्रशासन राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण मृतक युवती के विरुद्ध काम कर रही थी और बाद के दिनों में सवर्ण समाज के लोगों द्वारा जातीय अस्मिता के नाम पर पंचायत बुलाकर बलात्कारियों को बचाने के लिए, जो उनकी अपनी जाति के थे, सामूहिक सहमति का निर्माण किया गया । ऐसा करना बहुत नया चलन है जो रास्तों पर और सार्वजनिक रूप से बलात्कारियों के पक्ष में जन सहमति बनायी जा रही है । यहां कैसे एक जाति के लोगों द्वारा नीची समझे जाने वाली जाति के लोगों के लिए हिंसा का मनोशास्त्र काम करता है जहां हिंसा में कानून, जातीय दंभ और राज्य के पक्षपाति विचार के आधार पर की गयी राजनीति का अंतरसंबंध देखने को मिलता है । किसी बड़ी हिंसा के किए जाने के पहले की मानसिक तैयारी ही उस हिंसा के घटने की मनोसांकृतिक संरचना का निर्माण करती है । छोटी हिंसाएँ भविष्य में बड़ी हिंसा के लिए कच्ची सामग्री का काम करती है । इस संदर्भ में बात को स्पष्ट करने के लिए कवंल भारती अपने लेख  [9]‘हिंदु हिंसा न भवति’ में कुछ इतिहास के उदाहरण और कुछ वर्तमान से संदर्भ लेकर यह बताते है कि कैसे दलितों के साथ “हिंदुओं की हिंसा उनके समाजशास्त्र का अनिवार्य हिस्सा है”

जो काम जाति व्यवस्था ने पहले से कर रखा है उसे अब धार्मिक आधार पर की गयी राजनीति के माध्यम से राज्य की वे सभी इकाइयां मिलकर कर रही है जिससे जाति के आधार पर एक बृहद तबके को सालों साल शोषित रखा जाए और ब्रम्हणवादी पितृसत्ता का काम जो कि दलित महिला के शोषण को कायम रखना  है, करती हैं । वर्चस्व को दबंग जाति के लोगों द्वारा बनाए रखने के क्रम में मनोसांस्कृतिक संस्कारों के प्रभाव का होना आवश्यक तत्व के रूप में उभरकर आया है । दृश्य हिंसा की परंपरा को लोकतांत्रिक समाज द्वारा नकारे जाने के बाद यह आवश्यक हो गया है कि दमितों की उनके दमन, शोषण के लिए उनसे सहमति ली जाए । और यह सहमति वर्चस्व के विभिन्न माध्यमों (स्कूल) द्वारा प्राप्त करने का कार्य करते है जिसमें मुख्यतः धार्मिक ग्रंथ, सामाजिक परंपराएँ, विश्वविद्यालय, स्थानीय मूल्य, राजनीतिक तथा धनी व्यापारी वर्ग के आर्थिक हित, ज्ञान और विज्ञापन जगत में, सांस्कृतिक जीवन में इन सभी का व्यवहार आदि । वर्चस्ववादी और दबंग वर्ग वैचारिक तथा सचेतन बुद्धि से शोषण करता है यह शोषण व्यावहारिक हिंसा को नहीं वरन् वैचारिक हिंसा की ओर अग्रसर होता है ।

संभावित निष्कर्ष –

सामाजिक स्तरीकरण जो सामाजिक विभेदीकरण की व्यवस्था पर स्थित है जिसमें हिंसक वर्चस्व एक मुख्य साधन है, यह लोगों के दैनंदिन व्यवहार का अंग है जो प्रतीकात्मक हिंसा का प्रस्थंबिंदु है । यह अभिजात्य लोगों द्वारा शोषित पर इस तरह आरोपित कर दिया जाता है कि वह हिंसक वर्चस्व व्यवस्था का एक हिस्सा लगाने लगता है जिसकी स्वीकृति दमित वर्गों में कभी हिंसा के माध्यम से तो कभी हिंसा के सहायक साधनों से भी प्राप्त की जाती है ।

वर्तमान में जातीय वर्चस्व को निरंतर बनाए रखने के क्रम में इंटरनेट जैसे सशक्त माध्यमों का उपयोग एक बलात्कारी, हिंसक भीड़ जिसमें महिलाएं भी शामिल कर ली गयी का निर्माण किया जा रहा है । जिसका उदाहरण हम महाराष्ट्र की खैरलांजी की सामूहिक बलात्कार और हत्या की हिंसा से लेकर हाल-फिलहाल चंद्रपुर में काले जादू का आरोप लगाकर एक ही परिवार के सात सदस्यों को चौराहे पर पीटकर हत्या की, हाथरस में बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार और इसके पक्ष में भौतिक और आभासी साधनों पर जैसे वाट्स ऐप ग्रुप में सहमति तथा हिंसक भाषा का उपयोग तक के हिंसक व्यवहार को देख रहे है । जो लगातार मनोसंस्कृतिक हिंसक संस्कृति की सहमति का निर्माण कर रहे है । जिसमें खासकर दलित समुदाय की महिला और उनके लिए जो आदर्श है डॉ. आंबेडकर को अपमानित करने वाले वाक्य बोले जा रहे है और ऐसा करने वालों की उम्र महज 18 वर्ष से शुरू हो रही है जो भविष्य के दंगाई के रूप में कम करेंगे । इनको ऑनलाइन से ऑफलाइन होने में जरा भी समय नहीं लगेगा । हिंसा में शामिल होकर उस हिंसा का आनंद उठाना एक क्रूर आपराधिक मानसिकता को उजागर करता है जो सामाजिक स्वास्थ को खराब करता है और यह सामाजिक बीमारी ही समाज का विकास अवरुद्ध करती है ।

अशिक्षित, धार्मिक उन्माद में व्यस्त भीड़ हिंसाओं के परिणामों को नहीं देख पाती और यह किस के पक्ष में की जा रही है, इससे किसका फायदा होगा यह सब उनके सोच के परे होता है । हिंसा के मनोशास्त्र में हिंसक प्रवृति का उन्माद आने वाली कई पीढ़ियों को अपना अनुयायी बनाकर रखता है और उस वैचारिक जमीन पर नरसंहारों के बड़े भयानक खेल में उन्हें शामिल किया जाता है । भारतीय संरचना में इसी हिंसक मनोशास्त्रों के पुनर्निर्माण के लिए अब तक की सभी व्यावहारिक और वैचारिक दासता को रोपित किया जाता है इसके बिना हिंसक भीड़ जुटाना संभव ही नहीं क्योंकि घृणा की मानसिकता समय के साथ फीकी भी पड़ जाती है ऐसे में धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक रणनीति ही उस मनोशास्त्र को पोषित करती है । फिर वह हिंसा हिंसा नहीं लगती जाति की सुरक्षा के लिए अनिवार्य हो जाती है ।

 

संदर्भ ग्रंथ सूची:

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[1] Rege, sharmila.(2018). A Dalit feminist stand point:   https://www.indiaseminar.com/2018/710/710

[2] http://www. twocircle.net/2018jun 23/423873 26/022022 कों देखा गया

[3] http://www.powercube.net/other-forms-of-power/gramsci-and-hegemony/date-29-8-2021

 

[4] Colins, patricia hill. (2002), ‘Black feminist thought’: Routledge publication

[5] बैनर्जी सारदा (2017), ‘बलात्कार-संस्कृति और स्त्रीवाद’, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीबूटर्स(प्रा.) लिमिटेड नई दिल्ली, पेज नं.80 प्यारा, 2

[6]  http://zeenews.india  57415

[7] http://youtu.be/IYVnEfCIL4Q, 27/02/2022 कों देखा गया

[8] https://www. bbc./com/hindi/india -59774285

[9] भारती कवंल, संपादक राजकिशोर.(2000). ‘हिंदु हिंसा हिंसा न भवति’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली p.no,56

शिल्पा भगत, पीएच् .डी. शोधार्थी, स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा 

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ISSN 2394-093X
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