बहुरिया रामस्वरूप देवी

प्रियंका प्रियदर्शिनी
बिहार बलिदान की वह ऐतिहासिक धरती है जिसने जंग-ए-आज़ादी में ईंट का जबाब पत्थर से दिया है। आज़ादी के दीवानों ने गांधी के सत्याग्रह को तो अपनाया ही साथ में क्रांतिकारी तेवर को भी अपनाए रहे। यही कारण रहा की बिहार की धरती पर गांधी व भगतसिंह दोनों के कदम पड़े।
1857-1947 के बीच हुए स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न आंदोलनों में महिलाएं मजबूती से डटी रही हैं। हजारों-हजार महिलाओं ने शहादत दी तब जाकर देश ने आज़ादी पाई है। भारत की आज़ादी के लिए देश में दो प्रमुख रास्ते बन गए थे। एक रास्ता गांधी व कांग्रेस के साथ जाता था तो दूसरा भगतसिंह के हथियारबंद क्रांतिकारी मार्ग पर। बिहार की महिलाएं दोनों रास्तों पर चलीं। क्रांतिकारी मार्ग पर चलने का ही नतीजा था कि बिहार के छपरा जिले के मलखाचक गांव के क्रांतिकारी पुरुष राम विनोद सिंह का घर डायनामाइट से उड़ा दिया गया और छपरा की ही क्रांतिकारी तेवर की महिला ‘बहुरिया रामस्वरूप देवी’ के घर को भी अंग्रेजों ने आग के हवाले कर दिया था।
देश के इतिहास में केवल एक लक्ष्मीबाई की चर्चा की गयी और बाकियों को भुला दिया गया। बिहार की महिलाओं के इतिहास को उठाकर देखने पर पता चलता है यहां हजारों लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ और हजारों बलिदान दिए गए। यहां शहादत देने वाली महिलाओं के समक्ष कोई राज-पाठ नहीं था, थी तो केवल देशभक्ति की भावना। अन्याय के विरुद्ध लड़ने का साहस और निःसंकोच आज़ादी की बलि बेदी पर प्राण न्योछावर करने का दृढ़ संकल्प। बिहार में ऐसी ही क्रांतिकारी तेवर की एक महिला हुईं ‘बहुरिया रामस्वरूप देवी’। बहुरिया रामस्वरूप देवी वह महिला थीं जिन्होंने बिहार में क्रांतिकारी तेवर की अगुआई की। उस निडर और बहादुर महिला ने न तो कभी स्वयं को अंग्रेज़ो के समक्ष झुकने दिया न ही उनसे डरकर अपने प्रण से पीछे हटी। अपने लक्ष्य में दृढ़ता से लगी रही और 18 अगस्त 1942 को छपरा के मढौरा थाने पर राष्ट्रीय ध्वज(तिरंगा) फहराया। गंगा जिस धरती को सिंचित करती हो वहाँ की फसलें और नस्लें दोनों कमाल करती हैं। शायद यही कारण रहा कि पर्दे में रहने वाली महिलाएं जब घरों से निकलीं तो गंगा का ओज और वेग साथ लिए निकलीं। रूढ़िग्रस्त और सामंतवादी ताकतें भी उनकी धारा नहीं मोड़ पायीं।
बहुरिया का जन्म भागलपुर जिले के कहलगांव थानांतर्गत बसे मुहान गांव में हुआ था। पिता श्री भूपनारायण सिंह भागलपुर जिले के ज़मीदार थे। बहुरिया का बचपन तो जमीदारी ठाट-बाट में बीता लेकिन बड़ी होने पर उन्होंने अपने लिए क्रांति का कठिन मार्ग चुना। अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी भाषाओं की प्रारंभिक शिक्षा उन्हें दी गयी थी। पिता अपनी पुत्री को शिक्षित करना चाहते थे इसलिए उन्होंने बहुरिया को आगे भी पढ़ाया-लिखाया। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण किया और व्यवहारिक विषयों की शिक्षा में भी निपुण हुईं। बाल विवाह के उस दौर में रामस्वरूप देवी का विवाह भी नौ वर्ष की आयु में छपरा स्थित अमनौर के श्री हरमाधव प्रसाद से करा दिया गया। पिता के घर की ही तरह पति का घर भी सम्पन्न माना जाता था। अमनौर के जमींदार परिवार में उनका विवाह हुआ था। पति हरमाधव बाबू देशभक्त निकले, वे आज़ादी के आंदोलनों में भाग लेते थे व आज़ाद ख़याल व्यक्ति थे। लेकिन ससुराल के बाक़ी सदस्य परंपरागत पर्दे को मानने वाले थे। ससुराल में पति के प्रगतिशील विचार व व्यक्तित्व ने बहुरिया जी को सहज बनाया। ऐसा माना जाता है कि वह बचपन से ही क्रांतिकारियों की टोली में रहती थीं और उनके कामों में हाथ बटाती थीं। उन्होंने क्रांतिकारी साहित्य भी पढ़ रखा था। शादी के पश्चात वह पति के साथ भी हर सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने लगीं।
विभिन्न आंदोलनों में बहुरिया जी की भागीदारी
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ब्रिटिश गुलामी के ख़िलाफ़ भारत में महत्वपूर्ण आंदोलन हुए, उन आंदोलनों में महिलाएं सक्रिय रूप से अपना योगदान दे रही थीं। रामस्वरूप देवी ने हुकूमत के विरुद्ध हुए तीन महत्वपूर्ण आंदोलनों में भाग लिया। उन्होंने सन 1921 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में, 1931 के नमक सत्याग्रह व 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था।
1921 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में रामस्वरूप देवी ने अपनी साहस और शिक्षा का परचम लहराया। ऐसा माना जाता है कि पूर्व बिहार से लेकर पश्चिम बिहार के कई क्रांतिकारी दलों के साथ उनका संबंध था, वे गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की मदद करती थीं व उन्हें संरक्षण देती थीं। इस आंदोलन में वो खुलकर सामने आयीं और अंग्रेजी शासन को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए सत्याग्रह में शामिल हो गयीं। उन्होंने गांव-गांव में जाकर युवकों व महिलाओं के बीच राष्ट्रीय चेतना की चिंगारी भड़काई। इस अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के दौरान उन्हें बंदी बनाकर भागलपुर जेल में डाला गया था। बाद में जब उन्हें रिहा किया गया तब वे और अधिक जोश के साथ आंदोलनों में सक्रिय हो गयीं। 1921 ई. में गया जिले में अखिल भारतीय नारी कांग्रेस अधिवेशन का आयोजन किया गया था। बहुरिया जी के मजबूत इरादों व कुशलता से लोग पहले ही प्रभावित थे, उन्हें इस सभा के संचालन की जिम्मेदारी दी गयी। उन्होंने अधिवेशन में उत्तेजक भाषण दिए और लोगों को अंग्रेज़ो के विरुद्ध एकजुट होने को कहा। भारत की औरतों के लिए बहुरिया का संदेश था, “मर्दों की गुलामी से मुक्त होने के लिए यह आवश्यक नहीं कि उद्दंडता से काम लें। अपने कर्तव्य को पहचान कर आगे बढ़ो। यह मत भूलो कि तुम नारी हो और ममतामयी मां हो। हां! नारी व मां की आड़ में सुरक्षा ओढ़कर बेकार मत बैठो। एक पहिये की गाड़ी कितना रास्ता तय करेगी? दूसरा पहिया उसमें जुड़ना ही चाहिए। वह इतने स्वस्थ रूप में जुड़े कि जरा सा भार पड़ने पर चरमरा न जाए।”
बहुरिया के ये शब्द महिलाओं में ऊर्जा भर रही थी और अंग्रेज सिपाहियों के दिलों में खौफ़। एक महिला से खौफ़ खाने का ही वह मंजर था कि अधिवेशन के बाद उन्हें तीक्ष्ण व भड़काऊ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।  गिरफ्तारियां बहुरिया को कभी डरा नहीं सकी न ही उन्हें उनके लक्ष्य से डिगाने में सफल हुईं। वे छपरा जिले में लगातार सक्रिय रहीं। अंग्रेजों के विरुद्ध होने वाली लड़ाइयों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल रहीं। 1930 के नमक सत्याग्रह आंदोलन के वक्त वे अपने जिले में एक प्रभवशाली महिला के रूप में उभरीं। यह वह समय था जब सम्पूर्ण भारत में नमक आंदोलन ने क्रांति की लहर पैदा कर दी थी। महात्मा गांधी ने दांडी से सत्याग्रह की शुरुआत की थी और वह सत्याग्रह दक्षिण से शुरू होकर पूरे उत्तर भारत में फ़ैलने लगा था। अनेक सत्याग्रहियों पर लाठी बरसाए जा रहे थे, उन्हें जेलों में बंद किया जा रहा था। आंदोलनकारियों व नमक कानून भंग करने वालों को बंदी बनाया जा रहा था। इस क्रांति की लहर में क्रांतिकारी तेवर वाली बहुरिया जी का पीछे रहना मुश्किल था। वे पति के साथ नमक सत्याग्रह में शामिल हुईं। इस आंदोलन में उनके पति श्री हरिमाधव प्रसाद की गिरफ्तारी हुई। पति की गिरफ्तारी ने उन्हें आक्रोशित किया और उनके सब्र का बांध तोड़ दिया। अब बहुरिया गांवों में घूम-घूमकर लोगों को आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने को कहने लगीं। उन्होंने महिलाओं को आह्वान किया और कहा “उठो, जागो मेरी बहनों। जब देश पर संकट आ पड़ा हो तो हमें घर के भीतर रहना शोभा नहीं देता।” बहुरिया के इन प्रयासों और ख़िलाफ़त से अंग्रेजी सरकार घबराने लगी थी, अतः उसने बहुरिया को भी 1 जनवरी 1931 को जेल में डाल दिया।
इस बार जब बहुरिया जी को गिरफ्तार करके भागलपुर सेंट्रल जेल ले जाया जा रहा था तब एक ऐसी घटना घटी जिसे इस बात का सबूत माना जाना चाहिए कि रामस्वरूप देवी के विराट व्यक्तित्व की गहरी छाप जनता के मन पर थी-
आशारानी व्होरा ने अपनी पुस्तक ‘महिलाएं और स्वराज्य’ में लिखा है कि रामस्वरूप देवी को गिरफ्तार कर के जिस गाड़ी से जेल ले जाया जा रहा था, जनता उसके आगे लेट गयी और गाड़ी को रोक लिया। अंग्रेजी सिपाहियों के बहुत कोशिश के बाद भी जब जनता हटने को तैयार न हुई तो उनके अफसर ने भीड़ को कुचलकर गाड़ी निकाल लेने का आदेश दिया। अब स्थिति इतनी गंभीर हो गयी थी कि बहुरिया जी से चुप न रहा गया। उन्होंने उस अंग्रेज अफसर से चीखकर पूछा, ‘क्या मेरी इच्छा के बिना आप मुझे एक कदम भी आगे ले जा सकते हो? जब अंग्रेजी अफसर ने कोई जबाब नहीं दिया और निरुत्तर खड़े रहे तब उस दृढ़ संकल्पित महिला ने जनता का आह्वान किया, “मेरे वीर भाइयों, यह कैसी वीरता दिखा रहे हैं आप? यह वीरता नहीं नादानी है। सोचो तो, स्वर्ग से बढ़कर हमारी मातृभूमि आज गैरों के क़ब्जे में है। उसे छुड़ाने के लिए हजारों-लाखों नश्वर शरीरों के बलिदान की जरूरत है। यह मेरी गिरफ्तारी तो बहुत मामूली सी बात है। जाइये आपलोग भी आज़ादी की बलिबेदी पर न्योछावर होने के लिए तैयार रहिए।”
बहुरिया जी के कहने पर लोग उठकर एक तरफ खड़े हो गए। श्रद्धा से लोगों का माथा झुक गया और अंग्रेजी गाड़ी आगे बढ़ गयी। उनकी गिरफ्तारी से लोगों में क्षोभ था लेकिन अच्छी बात यह हुई की इसबार उन्हें अधिक दिन तक जेल में नहीं रहना पड़ा। गांधी-इरविन समझौते के तहत अन्य कैदियों के साथ उन्हें भी रिहा कर दिया गया।
छपरा क्रांतिकारियों की धरती रही है। यहाँ के महिला-पुरुष भगत सिंह के क्रांतिकारी विरासत के उत्तराधिकारी रहे हैं। यही कारण रहा कि रामस्वरूप देवी बलिदान की बातें इतनी सहजता के साथ कहा करती थीं।। उन्होंने मानो अपनी जान हथेली पर लेकर चलना मंजूर कर लिया था।  1937 ई. में बहुरिया जी के पति श्री हरिमाधव प्रसाद की मृत्यु हृदयाघात से हो गयी। पति की मृत्यु उनके लिए सिर्फ़ सुहाग का जाना नहीं था बल्कि उन्होंने अपना सबसे क़रीबी साथी को खोया था। पति की मृत्यु का दुःख असहनीय तो था लेकिन इस दुःख को बहुरिया ने कभी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। क्योंकि वो जानती थीं की उन्होंने जो रास्ता चुना है वो बलिदानों की मांग करती है। उस विराटा स्त्री को अभी अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य की प्राप्ति करनी थी जो अंग्रेजों को भारत से भागकर ही पूरी की जा सकती थी।
1942 का वह वर्ष भारतीय इतिहास में अगस्त क्रांति के नाम से भी मशहूर है। यह वह साल था जब भारत की सम्पूर्ण ताकत अंग्रेज़ो के विरुद्ध एकजुट हो गयी थी और विद्रोह अपने उच्चतम स्तर तक जा पंहुचा था। न सिर्फ पुरुष बल्कि देश की महिलाएं,बड़े-बूढ़े, बच्चे,छात्र-नौजवान आदि ने ठान लिया था कि अब स्वराज्य लेकर ही मानेंगे। 1942 ई. के भारत छोड़ो आंदोलन में ‘करो या मरो’ के नारे के साथ पूरे देश में एक ज्वाला भभक उठी थी। बिहार में इसकी लपटें बहुत ऊंची उठी।
9 अगस्त 1942 ई. को लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पटना की सड़कों पर हजारों छात्र-नौजवान सर पर कफ़न बांधकर निकल पड़े। रामस्वरूप देवी छात्र-नौजवानों के उस जुलूस में शामिल हुईं और इंकलाब जिन्दाबाद, वन्दे मातरम, भारत माता की जय आदि नारे लगाते हुए आगे बढ़ीं। बिहार के घर-घर से निकले उन वीर सपूतों को डराना और उनका हौसला तोड़ना अंग्रेजों के लिए एक चुनौती हो गयी थी। सात नौजवानों की एक टोली हाथों में तिरंगा लिए पटना के सचिवालय से यूनियन जैक का झंडा उतारकर तिरंगा फहराने को जब आगे बढ़ी तो अंग्रेज अपने क्रूरतम रूप में सामने आए। बौखलायी अंग्रेज़ी सेना ने सीधे नौजवानों के  सीने पर गोलियां दागी। एक-एक कर सातों नौजवानों ने बलिबेदी पर चढ़कर शहादत दी। इस घटना ने पूरे बिहार की जनता को भाव विह्वल किया। चारो ओर असंतोष की लहर दौड़ गयी। लोगों ने आर-पार की लड़ाई के लिए कमर कस ली। बहुरिया उन सात शहीदों के मौत का बदला लेने का ठान चुकी थीं। इस घटना के बाद वे आरा, छपरा, बलिया आदि जिलों में लोगों के बीच जाकर क्रांति की चिंगारी सुलगाने लगीं। छपरा जिले में क्रांति का मशाल लेकर वो अगली पंक्ति में खड़ी हो गयीं।
18 अगस्त 1942 ई. का दिन था रामस्वरूप देवी ने अपने हाथों से छपरा जिले के मढौरा थाने पर तिरंगा फहरा दिया। तिरंगा फहराने के बाद निकट स्थित उधोग परिसर के बाहर हो रही जनसभा में शिरकत किया। वहां वो जनसभा को संबोधित करने लगीं कि अंग्रेजी पुलिस दल वहां आ पहुंची और बिना बात किये ही सभा में मौजूद स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सबपर गोलियां चलाने लगी। हथियारों से लैस विदेशी सिपाहियों ने अंधाधुंध गोलियों की वर्षा की। लोग भागकर आस-पास के खेतों में छिपने लगें, जो न भाग सके वे मारे गए। लेकिन बहुरिया मैदान में डटी रहीं तभी गोलियों की बौछार से पेड़ की एक डाल टूटकर गिरी। लोगों ने जाना बहुरिया को गोली लग गयी। इस भ्रम ने लोगों के खून में उबाल भर दिया। देखते ही देखते फसलों में छिपे हजारों लोग बाहर निकल आये। क्रोध में तिलमिलाए लोगों ने जो कुछ ईंट-पत्थर मिला उससे गोरे सिपाहियों पर टूट पड़े। क्रुद्ध भीड़ ने सात गोरे सिपाहियों को मौत के घाट उतार व शेष को मैदान से भगाकर पटना में हुए सात शहीदों की शहादत का बदला लिया।
मारे गए सिपाहियों की लाशों को तुरंत उठाकर पत्थरों से बांधकर लोगों ने नारायणी नदी में डूबा दिया। प्रकृति ने भी क्रूर अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीयों का साथ दिया। उस दिन खूब वर्षा हुई जिससे खून के सभी धब्बे मिट गए। सारे सबूत नष्ट कर दिए गए थे जिस कारण मुकदमा नहीं चल सकता था। बदला लेने के लिए अंग्रेजों का दमन चक्र शुरू हुआ। 22 अगस्त 1942 को अंग्रेजों द्वारा बहुरिया जी के घर में आग लगा दी गयी। उनके सभी सामान जला दिए गए। पूरे गांव में अंग्रेजी सिपाहियों ने डेरा डाल दिया था। दिन भर वे घरों, खेतों और बागों में बहुरिया को ढूंढते रहते थे पर उन सिपाहियों को बहुरिया कहीं नहीं मिलीं क्योंकि जनता अपनी जान पर खेलकर भी उनकी रक्षा के प्रति कटिबद्ध थी।
अंत में अंग्रेजी सत्ता ने कांग्रेस पर दबाब बनाना शुरू किया। कांग्रेस का गुप्त संदेश पाकर बहुरिया समर्पण के लिए सामने आ गयीं। उनपर मुकदमे चलाकर उन्हें लम्बी सज़ा काटने के लिए भागलपुर जेल में भेज दिया गया। आख़िरकार 15 अगस्त 1947 ई. का वह दिन भी आया जिसके लिए जाने कितने देशप्रेमियों ने अपने लहू बहाए, शहादतें दी और जेलों की यातनाएं सही। आज़ादी की ख़बर सुन बहुरिया ने अपने स्वप्न को साकार पाया। जेल से बाहर आने के बाद वे फिर से राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हो गयीं। आज़ाद भारत के 1952 में हुए प्रथम आम चुनाव में रामस्वरूप देवी विधानसभा के लिए खड़ी हुईं। इस चुनाव में उनके ख़िलाफ़ छः प्रतिद्वंदियों ने चुनाव लड़ा। स्थिति यह हुई की छहों प्रतिद्वंदियों की जमानतें जब्त हो गयीं। बहुरिया के व्यक्तित्व ने जो छाप जनता के दिलों में छोड़ी थी उसी का नतीजा था कि वे अपार बहुमत से जीतकर विधानसभा की सदस्य हुईं। उन्नत भारत का स्वप्न देखने वाली और उसके लिए काम करने वाली उस महान वीरांगना को दुर्भाग्यवश आगे देश सेवा का अवसर प्राप्त न हो सका। वो चुनाव तो जीत गयीं लेकिन प्रकृति के नियमों के अनुसार उन्हें जीवन से हार जाना पड़ा।
संघर्ष के रास्तों पर चलकर कभी उनका हौसला नहीं टूटा लेकिन नश्वर शरीर कमजोर पड़ता गया। चुनाव के बाद वो बीमार पड़ गयीं और 29 नवम्बर 1953 की सुबह बिहार की उस सिंहनी के प्राण टूट गए।
राजद समाचार से साभार 

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