सुमित कुमार चौधरी
रघुवीर सहाय ‘दूसरा सप्तक’ में शामिल ऐसे विरले कवि हैं जिनकी कविताएँ स्वतंत्र भारत का दस्तावेजीकरण करती हैं । इनकी कविताएँ यथार्थ का देखा हुआ कटु सत्य का रूप लेकर भारतीय जन मानस की व्यथा का चलचित्र प्रस्तुत करती हैं । यूँ तो रघुवीर सहाय की कविताओं में अक्सर कथा का चित्र उभरता नज़र आता है, पर यह चित्र या चरित्र किसी खास नायक का प्रतिनिधि नहीं होता है । वह आम जनसाधारण के रूप में आया हुआ चरित्र होता है । उनके ईद-गिर्द से लिया गया । यही उनकी कविता का केन्द्रीय तत्व है । नायक है । यह नायक नयी कविता या उसे पूर्व की कविता से बिल्कुल भिन्न है । वह इसलिए कि इनकी कविताएँ अधिकतर घटना प्रधान होकर कथ्य की बुनावट में प्रस्तुत होती हैं । वे लोकतांत्रिक मूल्यों के विध्वंसकारी नीतियों और बिडम्बनाग्रस्त विसंगतियों का वास्तविक चित्र खींचते हैं । ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ कविता कथा की शक्ल में उसी की बानगी है । सुरेश शर्मा ने ‘रघुवीर सहाय रचनावली’ के पहले भाग की भूमिका में लिखा है, “ ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की कविताएँ रघुवीर सहाय के सिर्फ अपने अतीत से मुक्ति की कविताएँ नहीं हैं बल्कि पूरी काव्य परम्परा के यथास्थितिवादी माहौल से मुक्ति की कविताएँ हैं । उनमें नयी कविता के बाद ‘अकविता के ध्वंसवादी मूल्य और आत्महत्य की घोषणाओं के विरुद्ध एक जिम्मेदार हस्तक्षेप है ।”1 ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ कविता अपने पूरे परिदृश्य में इसी विसंगति और विडम्बना को व्यक्त करते हुए जनसाधारण के जीवन को खबर की भाषा में पूरे नाटकीय अंदाज में प्रस्तुत करती है । इसमें चरित्रों का संगठन तात्कालीन राजनैतिक परिवेश को उद्घाटित करते हुए गहरे अर्थों में कथा की निर्मिति में सहायक होकर लोकतांत्रिक मूल्यों की ख़बर लेती है । एकदम खबर की शैली में होते हुए । सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की पेंच को उखाड़कर रख देती है-
“समय आ गया है जब तब कहता है सम्पादकीय
हर बार दस बरस पहले मैं कह चुका होता हूँ कि समय आ गया है ।
एक ग़रीबी, ऊबी, पीली, रोशनी, बीबी
रोशनी, धुन्ध, जाला, यमन, हरमुनियम अदृश्य
डब्बाबन्द शोर
गाती गला भींच आकाशवाणी
अन्त में टड़ंग ।”2
गौर करने वाली बात है कि ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ कविता की शुरुआत पहली पंक्ति से ही अख़बारी बयान से शुरू होती है जबकि कविता की दूसरी पंक्ति में कवि वह सारी बातें पहले कह चुका होता है, जो दूसरी पंक्ति के बाद कविता में आयी है । गरीब, गरीबी से ऊबी जनता, जनता का मटमैला शरीर, घर की स्त्रियाँ या यह कह लें कि परिवार नामक संस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली-बीबी । धुन्ध में सना हुआ परिवेश, जाला लगा हुआ या जाले में फँसा हुआ समाज और अदृश्य ध्वनि शोर में बदल चुके हैं, जिसमें आकाशवाणी भी गला भींचकर जनता से संपर्क करती है । रघुवीर सहाय की यह दृष्टि उनकी कविता का कथ्य होकर कथा के रूप में ढलती है । यह शोख़ी उनकी कविता की कथात्मक में शामिल होकर भारतीय जीवन के रंग-रूप की सूरत बयान करती है । कवि भारतीय राजनीति में व्याप्त धूर्त, भ्रष्ट और काइयाँ लोगों का परिचय करवाता हुआ ‘मुसद्दीलाल’ जैसे पात्र से अवगत कराता है-
“नगर निगम ने त्यौहार जो मनाया तो जनसभा की
मन्थर मटकता मन्त्री मुसद्दीलाल महन्त मंच पर चढ़ा
छाती पर जनता की”3
यानी जनता की छाती पर चढ़ा यह मुसद्दीलाल जैसा व्यक्तित्व हमारे राजनितिक दलाल का भ्रष्ट चरित्र है । वस्तुत: यह भ्रष्ट चरित्र हमारे समाज का प्रतीक मात्र है । इस तरह के चरित्र अपनी हरकतों से कभी बाज नहीं आते । इन्हीं लोगों की पैरवी से अस्पताल से लेकर, कोटा, सुविधाएँ, शिफ़ारिश तक उसी के मातहत होता है । यह स्थिति भारतीय जनमानस बहुत बारीकी से जानता और समझता है-
“दोनों, बाप मिस्तरी, और बीस बरस का नरेन
दोनों पहले से जानते हैं पेंच की मरी हुई चूड़ियाँ
नेहरू-युग के औज़ारों को मुसद्दीलाल की सबसे बड़ी देन”4
मुसद्दीलाल जैसे चरित्र भारतीय राजनीति या नेहरूयुग की राजनीति के लोकतंत्रीय प्रणाली को दीमक की तरह चाट जा रहे हैं । यह अराजक व्यवस्था केवल नेहरूयुग की भयावहता को ही नहीं दर्शाता बल्कि कवि की दूरगामी दृष्टि वर्तमान और भविष्य को भी रेखांकित करती है । इस तरह का अनैतिक चारित्रिक पतन भारतीय परिवेश में इस तरह पसर गया है कि अस्पताल में भी कोई व्यक्ति सुरक्षित महसूस नहीं कर पाता है । एक उदाहरण देखिए-
“अस्पताल में मरीज़ छोड़कर आ नहीं सकता तीमारदार
दूसरे दिन कौन बतायेगा कि वह कहाँ गया ।”5
ध्यान देने वाली बात यह है कि नयी कविता में इस तरह की संवेदनात्मक कविता नहीं मिलती । इस नयी पद्धति या संवेदन शैली की कविता ‘गायब होता देश’ की ओर संकेत करती है । अपने पूरे कथ्य-रूप में यह पूर्व की कविताओं से इकदम भिन्न और नये मिज़ाज की कविता है । ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की इसी अख़बारी विशिष्टता को रेखांकित करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है, “अख़बार, राजनीति, दैनंदिन जीवन-ये सामान्यत: कविता के प्रतिरोधी रूप माने जाते रहे हैं । उनके लिए गद्य और कथा-साहित्य ही उपयुक्त माध्यम समझे गये हैं । रघुवीर सहाय एक साथ इस व्यापक अनुभव परिवेश को बिना किसी ऊपर से दिखते उद्यम या कि प्रदर्शन के कविता बना देते हैं ।
यही चेतना ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में एक नयी अटपटी शैली में फैली है । टूटे फूटे, अलग थलग बिंबों में सामान्य जीवन की व्यवस्था नहीं बल्कि क्रूर अव्यवस्था का चित्र यहां प्रस्तुत किया गया है । रोशनी, धुंध, जाला, यमन, हरमुनियम अदृश्य, ‘अकादमी की महापरिषद की अनंत बैठक’, ‘मंथर मटकता मंत्री मुसद्दीलाल’, ‘एक फटा कोट एक हिलती चौकी एक लालटेन’, ‘अंग्रेजी की अवध्य गाय’, ‘मुन्न से बोले बिनोवा से जैनेन्द्र’, ‘भौचक भीड़ धांय धांय’, ‘समय आ गया है’- ऐसे टुकड़े समकालीन परिदृश्य को उतना उकेरते नहीं जितना सुझा देते हैं । इन टुकड़ों में अर्थ निश्चित नहीं, हां सहानुभूति निश्चित है । पूरी कविता के केन्द्र में जनता या कि लोग हैं जो हर अर्थ में कवि के लिए एक ‘मुश्किल’ हैं ।”6
‘आत्महत्या के विरुद्ध’ कविता में कथा वाचक के रूप में कवि स्वयं उपस्थित है । भारतीय राजनीति के शिकार होते हुए जन की व्यथा को बहुत सजग होकर उद्घाटित करता है । वह अपने चारों ओर घट रही घटनाओं की विद्रूपता को भलीभाँति देख लिया है । तभी उसे बेचैनी छायी हुई है । वह ‘चिकनी पीठ’ वाले उदास व्यक्ति के पीठ पर हाथ नहीं रख पाता । यह बदतर हालत देखकर वह हृदय विदारक हो जाता है । फिर भी वह विद्रोही स्वर में बोल उठता है-
“कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा
न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अन्दर एक कायर टूटेगा टूट
मेरे मन टूट एक बार सही तरह
अच्छी तरह टूट मत झूठमूठ ऊब मत रूठ
मत डूब सिर्फ टूट…”7
कवि की यह निडर भावना कथा की वैचारिक नींव साबित होती है, क्योंकि कवि की यह धारदार ललकार ‘अंदर का कायर टूटने’ से ही ‘सत्ता के तिलिस्म’ को दरारे दे सकता है । कविता में इस तरह का वैचारिक आयाम कथा को समझने में महती भूमिका निभाता है । इस कविता के कथा को समझने के लिए ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ कविता संग्रह के उस वक्तव्य को देखा जा सकता है जिसमें कवि लिखता है कि, “मैं कहानी, कविता या नाटक में बांटकर इस सवाल को आसान नहीं बनाना चाहता लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूँ कि तीनों में शब्द के तीन तरह के इस्तेमाल की वजह से रचना की मुश्किलें हमें तीन तरफ ले जाती हैं ।……सबसे मुश्किल और एक ही सही रास्ता है कि मैं सब सेनाओं में लड़ूँ-किसी में ढाल सहित, किसी में निष्कवच होकर- मगर अपने को अंत में मरने सिर्फ अपने मोर्चे पर दूँ- अपनी भाषा के, शिल्प के और उस दोतरफा जिम्मेदारी के मोर्चे पर जिसे साहित्य कहते हैं ।”8 गौरतलब है कि रघुवीर सहाय के इस वक्तव्य से यह स्पष्ट होता है कि वे ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ के लिए तीन मुश्किलों में से शिल्प का एक अलग रास्ता चुनते हैं । यानी अपनी आँखों-देखी चल-चित्र को व्यक्त करने के लिए ख़बर का रास्ता चुनता है । इस शैली या शिल्प में उपरोक्त वक्तव्य में वे तीनों विधाएँ शामिल हैं जिनको कवि विभेद कर देखने से बचता है, और होता यह है कि ख़बर की शिल्प अपने आवरण में कथा के रूप को धारण करती चलती जाती है । चूँकि कवि की संवेदना लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था के प्रति सचेत है । वह भाषा और शिल्प में यथार्थ को फेटकर जस का तस पेश कर देता है । शोषण, दमन और अत्याचार के गहराते रूप-चित्र को समग्रता में प्रस्तुत कर देता है । डॉ. माहेश्वर ने लिखा है कि, “रघुवीर सहाय कविता के मुख्य आशय के साथ आसपास के परिवेश में से संदर्भित तमाम छोटे-छोटे दृश्यखण्ड एकत्रित करते हैं और उन्हें कविता की केन्द्रीय संवेदना के आसपास फैला देते हैं । कविता का केन्द्रीय आशय उन छोटे-छोटे दृश्यखण्डों के बीच में से कहीं-कहीं चकाचौंध पैदा करता हुआ सा उभर आता है और उसके आलोक में वे तमाम धूमिल दृश्यखण्ड सार्थक तथा संदर्भगत दिखाई देने लगते हैं ।”9 यानी रघुवीर सहाय ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ कविता में या यूँ कह लें कि उनकी कविताओं मे विराट भीड़ से उन चरित्रों और खण्ड-खण्ड दृश्यों का चुनाव करके उसे कथा की सूरत में ढ़ाल देते हैं । वस्तुतः यह स्थिति उनकी कविताओं में समय के मार से उपजी त्रस्त जनता की है, जिसमें लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण से उपजी हुई है । तभी वे कविता के अंत में कहते हैं-
“समय जो गया
मेरे तलुवे से छनकर पाताल में
वह जानता हूँ मैं ।”10
रघुवीर सहाय की कविताओं में चरित्र और चित्र का एक कोलाज देखा जा सकता है । उनके यहाँ घटना प्रधान कविताओं का बाहुल्य है । ऐसा नहीं है कि जिन कविताओं में घटनाएँ प्रमुख रूप से आयीं हैं वह कथा के मानिंद खरी नहीं उतरती । बल्कि इस तरह की कविताएँ कथा का रूप लेकर नये कवियों से भिन्न रूप ली हुई हैं । इसलिए रघुवीर सहाय के यहाँ कथा-नायक की जगह ‘चरित्र’ को केन्द्र में रखकर उसकी सार्वभौमिक महत्ता को पूरी संवेदना के साथ दर्ज़ करते हैं, जबकि अधिनायकवादी चरित्र की महत्ता को अपने पैरो तले रौंदते हुए चलते चले जा रहे है । रघुवीर सहाय की एक कविता है ‘अधिनायक’ जिसमें ‘हरचरना’ भारत-भाग्य-विधाता का गुणगान करता है-
“राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत- भाग्य- विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है ।”11
यह अधिनायकवादी चरित्र भारतीय राजनीति का है जिसमें एक व्यक्ति प्रतीक के रूप में ‘फटा सुथन्ना’ पहनकर पूरे जनसाधारण की व्यथा को व्यक्त करता है । यह साधारण जन अधिनायकवादी शासन व्यवस्था से इतना डरा हुआ है कि उसका ‘बाजा रोज बजाता है’ यानी वह हर क्षण व्यवस्था का शिकार होता है । अर्थात् वह गुलामी प्रथा की बोझ से दबा है । यह छोटी सी कविता, जो सोलह पंक्तियों में सिमटी हुई है, वह हरचरना के माध्यम से आजाद भारत के बेहाली (साधारण जन) की कथा-व्यथा पूरी संवेदन रूप में प्रस्तुत करती है । इतना ही नहीं हत्या, अपराध की असल कथा कविता में रघुवीर सहाय बड़े निडर होकर लिखते हैं । वे ‘रामदास’ कविता में ‘रामदास’ की हत्या का ज़िक्र करते हैं कि हत्यारा ‘उसे बता दिया गया था कि उसकी हत्या होगी’ और यह हत्या, हत्या की शक्ल में बदल गई । यह हत्या किसी धनाढ्य व्यक्ति की नहीं बल्कि साधारण जन की हत्या है । एक की हत्या नहीं बल्कि बहुसंख्यकों को हत्या है । कवि यहाँ ख़ुद वाचक के रूप में होकर इस हत्या-अपराध को हूबहू दर्ज़ करता है । इस सिलसिलेवार कथा की कड़ी में अगर देखा जाय तो रघुवीर सहाय की तमाम ऐसी कविताएँ हैं जो कथा का रूप ली हुई हैं, जिसमें ‘रामदास’, ‘दयाशंकर’, जैसी कविताएँ शामिल हैं । इन कविताओं को सही मायने में हम कथांश के रूप में देख सकते हैं । चूँकि रघुवीर सहाय के यहाँ ऐसे तमाम छोटे-छोटे चित्र, चलचित्र, दृश्य खण्ड, घटना उनकी कविता में कथात्मकता एवं कथांश का आवरण लिए हुए हैं । लीलाधर जगूड़ी ने अपने कविता संग्रह ‘महाकाव्य के बिना’ की भूमिका में लिखा है कि, “पहले और आज की कविता में यह लगभग एक ध्रुवीय अंतर है । अब कविता में नायक नहीं होते, व्यक्ति होते हैं । कोई स्थापित और लोक प्रचलित कथा नहीं होती । अनुभव और अनुभूति का आवेग ही अपने कथानक को रचता चलता है । घटनाएँ और स्थितियां ही बिम्ब बन जाती हैं । मनुष्य का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन कई स्तरों पर विघटित व विकसित होता है । उनकी सघन और गहरी प्रस्तुति लंबे फॉर्म में ही संभव है ।”12 लीलाधर जगूड़ी के इस कथन को रघुवीर सहाय की कथा प्रधान कविताओं के सन्दर्भ में रखकर देखना सार्थक प्रतीत होता है । रघुवीर सहाय ही नहीं बल्कि सारे नए कवियों के यहाँ उक्त कथन की सार्थकता देखी जा सकती है । बहरहाल, रघुवीर सहाय नायक के मिथ को तोड़ते हुए ‘चरित्र’ की केन्द्रीयता को महत्व देते हैं । यह उनकी कवि दृष्टि का संवेदन सूत्र है । चूँकि आजादी के बाद हमारे समाज में ऐसे तमाम चरित्र चारों ओर बिखरे पड़े हुए थे जिस पर गहरी दृष्टि रघुवीर सहाय ने डाली और हुआ यूँ कि साधारण जन कविता की केन्द्रीयता में उचित स्थान पाने लगें । जैनेन्द्र, रामदास, लोहिया, मुसद्दीलाल, बिनोवा, नरेन, प्रधानमंत्री, मंत्री, जैसे तमाम चरित्र कविता में आकर कथा तत्व की बुनावट में सहयोगी सिद्ध हुए ।
संदर्भ सूची-
- संपादक- सुरेश शर्मा, रघुवीर सहाय, रचनावली भाग-1, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ. सं. 19.
- 2. रघुवीर सहाय, आत्महत्या के विरुद्ध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1967, पृ. सं. 19.
- 3. वही, पृ. सं. 19-20.
- 4. वही, पृ. सं. 22.
- 5. वही, पृ. सं. 22.
- 6. रामस्वरूप चतुर्वेदी, नयी कविताएँ : एक साक्ष्य, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2015, पृ. सं. 42-43.
- 7. रघुवीर सहाय, आत्महत्या के विरुद्ध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1967, पृ. सं. 20-21.
- 8. संपादक- सुरेश शर्मा, रघुवीर सहाय, रचनावली भाग-1, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ. सं. 103.
- 9. संपादक- नरेन्द्र मोहन, लंबी कविताओं का रचनाविधान, दि मैकमिलन कंपनी आफ इंडिया लिमिटेड, नई दिल्ली, 1977, पृ. सं. 144.
- 10. रघुवीर सहाय, आत्महत्या के विरुद्ध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1967, पृ. सं. 25.
- 11. वही, पृ. सं. 49.
- 12. लीलाधर जगूड़ी, महाकाव्य के बिना, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996, पृ. सं. 8.
लेखक का परिचय –
सुमित कुमार चौधरी
झेलम छात्रावास,
शोधार्थी- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110067