नागरिकता, समता और अधिकार के संघर्ष अभी जारी हैं

आधुनिक भारत के  निर्माण में  आज़ादी से पहले  और आजादी के बाद के तमाम जनांदोलनों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है और इन आंदोलनों में  महिलाओं  की  भागीदारी  और ज्यादा  महत्वपूर्ण  है। साथ ही आजादी की लड़ाई जितना पुरुषों ने लड़ी उतनी ही महिलाओं ने भी 1857 में ये सिलसिला अगर  रानी   लक्ष्मीबाई , बेग़म हज़रत महल, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अज़ीज़न बाई, अवंतिबाई लोधी और धार की रानी द्रौपदी से शुरू होता है तो ऐसे अनेकों गुमनाम नामों से भी जिन्हें इतिहास में दर्ज़ नहीं किया गया। दर्जनों स्त्रियों ने आज़ादी के जंग में अपनी कुर्बानी दी अंग्रेजों के द्वारा उन्हें फांसी चढ़ाया गया और जिन्दा जलाया गया।  एक गुमनाम इतिहास उस दौर की तवायफों का भी है जिन्होंने अपनी दौलत और अपनी जान सब इस देश और यहाँ के लोगों के लिए कुर्बान कर दिया, रुडयार्ड किपलिंग ने अपनी पुस्तक  “ऑन द सिटी वॉल ” में  1857 के विद्रोह में वेश्यालयों की सक्रिय भागीदारी और तवायफों के निजी योगदान पर विस्तार से लिखा है।  इसके अलावा “1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पत्रकारिता” किताब में शोभना देवी, इंद्र कौर, आशा देवी, भगवती देवी त्यागी, रहीमी, जमीला ख़ान, मन कौर, बख्तावरी देवी और उम्दा जैसी आम ग्रामीण विद्रोहिणियों के नाम हैं जिन्होंने केवल अपने पतियों और बेटों को ही विद्रोह की जंग में जाने प्रेरित नहीं किया बल्कि खुद भी आगे बढ़कर सक्रिय योगदान दिया।

जबकि आजादी के आंदोलन में भी महिलाओं की बहुत अहम् भागीदारी रही, इससे पहले सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख, पंडिता रमाबाई  जैसी महिलाओं का भी है जिन्होंने मध्ययुगीन प्रथाओं और परम्पराओं को चुनौती देते हुए जाती और लिंग से इतर इस देश में महिलाओं के लिए आधुनिक  शिक्षा की शुरुआत  की, विधवाओं के पुनर्वास पर काम किया। 1947 आजादी के आंदोलन में भी हजारों आम भारतीय स्त्री समेत कस्तूरबा,प्रभावती, मैडम बीकाजी कामा,अरुणा   आसफ अली, विजयलक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी, सरोजिनी नायडू,सुचेता कृपलानी  जैसी तमाम महिला नेताओं ने सक्रिय योगदान दिया।

इस साल 15 अगस्त को  भारत को आजाद हुए 75 साल हो जाएंगे, इन पचहत्तर सालों में इस देश ने दुनिया को दूसरी महिला प्रधानमंत्री दिया, महिलाओं ने संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के साथ अपने अथक संघर्ष से राजनीतिक, सामाजिक स्तर पर और भी बहुत से अधिकार हासिल किया। हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। राजनीति में  सुचेता कृपलानी,  विजयलक्ष्मी  पंडित ,  इंदिरा  गांधी, नंदिनी   सत्पथी ,  मोहसिना   किदवई , सोनिया गांधी,  सुषमा   स्वराज ,  मायावती ,  शीला   दीक्षित ,  ममता   बनर्जी  जैसे नामों का सिलसिला है तो जनपक्षधर समाजिक सरोकारों के लिए लगातार संघर्ष करने वाली मेधा पाटेकर, सोनी सोरी, इरोम शर्मीला, अरुणा रॉय, सुधा भारद्वाज और तीस्ता सीतलवाड़ जैसे नाम हैं, जो तमाम जनपक्षधर मसलों के लिए अभी भी संघर्षरत हैं, इनमें से कुछ पहले से जेल में बंद हैं तो तीस्ता सीतलवाड़ जैसी सामाजिक कार्यकर्त्ता पिछले हफ्ते ही गिरफ्तार कर ली गई हैं।

75 साल के भारत में संविधान के आर्टिकल 243डी के क्लॉज़ (3) के तहत पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गई है। इसके मुताबिक प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान (जिनके अंतर्गत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की स्त्रियों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या भी है) स्त्रियों के लिए आरक्षित रहेंगे और ऐसे  स्थान किसी पंचायत में भिन्न-भिन्न निर्वाचन-क्षेत्रों को चक्रानुक्रम  से आबंटित किए  जा सकेंगे । इस प्रावधान के कारण ग्रामीण स्तर पर भी  राजनीति  में  महिला  भागीदारी   का   संख्यात्मक   प्रतिनिधित्व   बढ़ा  है।महिलाओं  को  नया   आत्मविश्वास  मिला है, उनमें राजनीतिक चेतना का विस्तार हुआ है और समाजिक जारूकता बढ़ी है।  हालाँकि ये और बात है कि संसद और विधानसभाओं  में   महिला  आरक्षण का मामला 1998  से   लंबित   है।  एक और बात का जिक्र महत्वपूर्ण है और वो ये कि नब्बे के दौर के भूमंडलीकरण ने महिलाओं को साठ -सत्तर के दशक के मुकाबले में ज्यादा पब्लिक स्पेस मुहैया कराया, शिक्षा और जागरूकता के साथ उनकी मौजूदगी तमाम सार्वजानिक स्पेस में  बढ़ी इसलिए  उन्हें  अपने मसलों के लिए एकजुट होना,लड़ना और खड़ा होना भी पहले से बेहतर आया है।

बहरहाल, इस भूमिका का उद्देश्य आगे लेख की उस मूल बात के सन्दर्भ में बतौर पृष्ठभूमि है, पिछले कुछ दशकों में हमने लगातार महिलाओं को जनांदोलनों में ना सिर्फ सक्रिय भागदारी करते देखा बल्कि कई आंदोलनों को उन्होंने ही खड़ा किया, उनका नेतृत्व किया और अधिकार हासिल किया। पिछली सदी में आजादी के आंदोलन से अलग महिलाओं  के ये आंदोलन अगर सती प्रथा, बाल-विवाह रोकने, विधवा पुनर्विवाह, दलित महिलाओं के बराबरी के अधिकार आदि मसलों से संबधित थे तो  सत्तर के दशक में पेड़ों को बचाने के लिए मौजूदा उत्तराखंड तत्कालीन उत्तर प्रदेश में महिलाओं ने ही “चिपको आंदोलन ” खड़ा किया था। ताड़ी और शराब के खिलाफ भी महिलाओं ने आंदोलन किये। बांध विरोधी आंदोलन, विस्थापन के खिलाफ आंदोलन के साथ जल -जंगल -जमीन के सवालों से जुड़े तमाम आन्दोलनों के पीछे महिलाओं की ही अहम् भूमिका रही है। नर्मदा बचाओ आंदोलन महिलाओं के द्वारा संचालित आंदोलन रहा है। आंध्रप्रदेश में शराब के विरोध में महिलाओं ने बहुत प्रभावी अर्क -विरोधी आंदोलन किया और उत्तर पूर्व में एएफएसपीए -विरोध का आंदोलन कैसे  भुला जा सकता है जिसे इरोम शर्मिला और मणिपुर की माताओं बहनों ने लड़ा। हाल ही में कृषि बिल को वापस लेने के लिए एक साल से भी ज्यादा चले किसान आंदोलन की ही बात करें तो उसमें महिलाओं की समानांतर भूमिका रही लेकिन बड़े स्तर पर किसान आंदोलन पुरुष किसानों का आंदोलन था, वही उस आंदोलन का चेहरा थे, महिलाएं पूरक अवश्य थीं।

दरअसल, महिलाओं पर घरेलू हिंसा से लेकर, वर्कप्लेस पर सेक्सुअल हैरेसमेंट और बलात्कार के विरोध में प्रभावी कानून को लेकर महिलाओं ने पिछले दो दशक में ही कई महत्वपूर्ण आंदोलन किये हैं और बदलाव को प्रेरित किया है बलात्कार और यौन हिंसा के सन्दर्भ में “निर्भया कानून ” ऐसे ही आंदोलन का हासिल है। बहरहाल,  हम इस लेख में खासतौर पर नागरिकता कानून के खिलाफ महिलाओं के द्वारा हाल ही में किये गए आंदोलन और  केरल में सबरीमला मंदिर में रजस्वला आयु की महिलाओं के प्रवेश के सन्दर्भ में महिलाओं की भागीदारी और भूमिका के बारे में बात करेंगे।

शुरुआत  नागरिकता (संशोधन) कानून के विरोध में शाहीन बाग में हुए आंदोलन से , जिसे लोकतंत्र की एक नई करवट के रूप में भी देखा गया। एक अनजान ,गुमनाम से इलाके में 101 दिन तक चला यह विरोध प्रदर्शन हालांकि कोरोना वायरस और उसके बाद लागू राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के कारण मुकम्मल परिणति से पहले ख़त्म हो गया लेकिन ख़त्म होने से पहले भारतीय लोकतंत्र के सन्दर्भ में महिलाओं और खासतौर पर मुस्लिम महिलाओं की राजनीतिक समझ, उनके साहस और संकल्प की ताकत का अनुभव पुरे देश को करा दिया, शाहीन बाग़ एक राष्ट्रीय परिघटना के तौर पर दर्ज़ हुआ।  इसका असर इतना व्यापक हुआ कि 15 दिसंबर 2019 से 24 मार्च 2020 तक 101 दिन चले  इस विरोध प्रदर्शन के दौरान देश के कई राज्यों में 80 से ज्यादा जगहों पर नागरिकता (संशोधन) कानून का विरोध शाहीन बाग़ की तर्ज़ पर शुरू हुआ, हर शहर में नागरिकता (संशोधन) कानून के विरोध प्रदर्शन की जगह को उस शहर का “शाहीन बाग़ ” कहा गया।  यह अपनेआप में इतिहास दर्ज़ होने वाली बात है जब विरोध का कोई स्थान ही पुरे देश में उस ख़ास मसले पर विरोध का प्रतीक बन जाता हो। हमने देश के तमाम शहरों में “शाहीन बाग़” देखा जो दक्षिण -पूर्वी दिल्ली के जामिया नगर में बसे शाहीन बाग़ का विस्तार बनता  चला गया। दिल्ली के जीडी बिड़ला रोड, शाहीन बाग़ ,कालिंदी कुंज इलाके का 40 फुट का रोड दिल्ली के जंतर -मंतर और रामलीला ग्राउंड से अलग सत्ता के विरोध में खड़े होने का पर्याय बन गया, इसी दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में तुर्कमान गेट, खुरेजी और हौजरानी समेत कुल 66 विरोध प्रदर्शन हुए और ये सब दिल्ली के अलग अलग शाहीन बाग़ थे। गौरतलब है कि इसी दौरान गृह मंत्रालय (एमएचए) के द्वारा लोकसभा में एक लिखित जवाब में बताया गया था  कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ दिल्ली में 66 विरोध प्रदर्शन हुए। इस दौरान कुल 11 मामले दर्ज किए गए हैं और 99 लोगों को गिरफ्तार किया गया।

बहरहाल, शाहीन बाग़ पर जारी विरोध -प्रदर्शन को ख़त्म हुए 2 साल से ज्यादा का समय हो गया है लेकिन अब भी इसकी ताब बाकी है इस आंदोलन पर देश दुनिया में तमाम लेख लिए गए।  कुछ किताबें तक आ गई , आखिर क्यों नागरिकता कानून के विरोध का  शाहीन बाग की महिलाओं का आंदोलन अब तक के बाकी आंदोलनों से अलग है, या  क्यों इसे बहुत गंभीरता से देखे, समझे और विश्लेषित किये जाने की जरूरत है? सबसे पहली बात तो ये कि जब बहुसंख्य समाज इस कानून से सहमति नहीं होने के बावजूद इसे लेकर अपनी प्रतिक्रिया के सन्दर्भ में बहुत गंभीर और जिम्मेदार नहीं दिख रहा था तब शाहीन बाग़ की आम घरेलु महिलाओं ने जो प्रायः पर्दे में, घरों में अपने घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहती थीं, बगैर डरे हुए इस कानून के खिलाफ बोलना और प्रतिरोध करना अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य समझा। जबकि  ये औरतें ना तो कोई एक्टिविस्ट थीं  ना ही किसी पार्टी की नेता कार्यकर्त्ता ना ही कॉलेज विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाली प्रोफेसर। और हाँ ये औरतें अपने घर का काम करके इस प्रदर्शन में शामिल होने आ रही थीं।

वो भी तब जबकि दिसंबर के आखिर के दिन दिल्ली के सबसे सर्द दिनों में से होते है ,उस कड़ाके की ठंड में भी शाहीनबाग में पूरे जोश के साथ आंदोलन जारी रहा। आंदोलन में युवा  लड़कियां और छात्राएं भी थीं तो उनकी माएं भी,गोद में  बच्चे को लेकर आने वाली महिलायें भी थीं सबसे अनोखी बात बड़ी -बुजुर्ग महिलाओं का इसमें शामिल होना उनकी भूमिका रही, 90-100  साल से ऊपर की उम्र ही वृद्धाएं भी यहाँ 101 दिन बैठनेवालों में से थीं।  सभी का लक्ष्य एक था कि सरकार को इस बिल को वापस लेने पर मजबूर करना। ये अपने आप में बहुत खूबसूरत बात थी कि यहाँ हर उम्र की महिलाएं एक साथ नागरिकता कानून के विरोध में मज़बूत तेवर के साथ खड़ी थीं। दूसरी सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात इस आंदोलन  में किसी राजनीतिक पार्टी का सहयोग या संलिप्तता का नहीं होना कह सकते हैं,  यह एक स्वतः स्फूर्त आंदोलन रहा जिसकी नेता व आयोजनकर्ता सब महिलाएं थीं,इसके बावजूद यह आंदोलन भारत के कुछ ऐसे आन्दोलनों में शामिल हो चुका है जिसके दौरान किसी भी किस्म की हिंसा या अराजकता का प्रदर्शन नहीं किया गया।  हाल ही में हमने  केंद्र सरकार की अग्निवीर योजना के खिलाफ छात्रों के विरोध प्रदर्शन देखा, जिसमें दर्जनों ट्रेन को आग लगा दिया गया। हालांकि उनका विरोध करना कहीं से गलत नहीं था लेकिन अराजकता , तोड़-फोड़ का समर्थन नहीं किया जा सकता।  यहाँ इस उदाहरण का जिक्र उस फ़र्क़ को दर्ज़ करने के लिए भी जरूरी है कि कोई भी विरोध प्रदर्शन या आंदोलन का नेतृत्व जब महिलायें करती हैं तो उनका अप्रोच कितना अलग होता है।

इस आंदोलन का महत्त्व लोगों में संविधान की समझ और उसमें भरोसा बढ़ाने का भी आंदोलन रहा और इस लिहाज से इसे लोकतंत्र की समझ व्यापक और मजबूत करनेवाला भी कहा जा सकता है।  जो कि भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अच्छा संकेत है।  इसे थोड़ा और विस्तार से ऐसे समझ सकते हैं कि ऐसे दौर में जब  लोग किसी भी विरोध -प्रदर्शन में शामिल होने से इसलिए बच और डर रहे हों कि पता नहीं उनपर कौन सी धारा लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया जाएगा तब  भी इन औरतों ने   डटे रह कर लोगों की कुंद राजनीतिक -सामाजिक सोच को झकझोरा, उन्हें हस्तक्षेप की जरूरत और महत्त्व का एहसास कराया। घरेलु कही जाने वाली इन सभी महिलाओं की परिपक्व राजनीतिक समझ कई और तरह से भी दिखी जैशाहीन बाग़ के तमाम पोस्टर, बैनर इसकी तस्दीक करने वाले कहे जा सकते हैं मसलन, गाँधी, अम्बेडकर, भगत सिंह, मौलाना आज़ाद, फुले, पेरियार के नारे, कोट्स। सर्व धर्म समभाव के पोस्टर बैनर, ईश्वर, अल्लाह, जीजस, गुरुनानक सभी से जुड़े प्रतीकों का प्रतिनिधित्व।  इसके अलावा बहुत मजबूती से इस पुरे आंदोलन को किसी भी राजनीतिक दल या संघठन से अलग रखना, इसे किसी भी राजनीतिक दल या संगठन के पाले में नहीं जाने देना। साथ ही आंदोलन को पूरी तरह से जनता के सहयोग से संचालित करना किसी पार्टी या संगठन से कोई आर्थिक सहयोग नहीं लेना। ये सभी बातें इस आंदोलन में शामिल महिलाओं की परिपक्व राजनीतिक समझ का परिचय देती हैं।  और साथ ही उनकी दूरदृष्टि का भी क्योंकि इस आंदोलन के बहाने ही वो आनेवाली पीढ़ी को भी  लोकतंत्र, न्याय, प्रतिरोध के पाठ सीखा रही हैं और संविधान के मूल्यों को सुनिश्चित करते हुए लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, बराबरी के भारत की स्थापना के लिए प्रेरित कर रही हैं।

इस आंदोलन का एक सबसे महत्वूर्ण पक्ष महिलाओं के द्वारा पितृसत्तात्मक समाज के द्वारा उनके लिए तय किए गए परदा समेत लैंगिक असमानता के तमाम  नियमों,आचार संहिताओं व वर्जनाओं को तोड़कर इस आंदोलन में शामिल होना भी कहा जा सकता है। जबकि नागरिकता कानून से प्रभावित केवल महिलायें ही नहीं होने वाली थी बावजूद इसके आंदोलन की कमान पूरी तरह से महिलाओं के हाथ में रही।  जबकि अधिकतर राजनीतिक मसलें  अगर वो सिर्फ महिलाओं से जुड़े मसले ना हों तो उनका नेतृत्व पुरुषों के द्वारा ही किया जाता रहा है। साथ ही शाहीनबाग ने मुसलमान औरतों की एक दूसरी ही तस्वीर पेश की, यहाँ ये उल्लेख जरूरी है कि शाहीनबाग प्रदर्शन में समाज के सभी जाति धर्म के लोगों की भागीदारी रही लेकिन मुसलमान औरतों की संख्या बढ़चढ़ कर रही। इस मौके पर उन्होंने अपनी भागीदारी व प्रबंधन से इस देश की अपनी नागरिकता का शानदार क्लेम पेश किया उसे साबित किया। उन्होंने स्टेट के द्वारा किये जा रहे राजनीतिक फैसलों में अपने स्पेस और अपने अस्तित्व दोनों की दावेदारी पेश की और ऐसा करने के लिए वो खुद मैदान में उतरी, जनांदोलन के मार्फ़त जिसका संचालन, प्रबंधन और नेतृत्व सब उनके ही हाथ में था। इस तरह उन्होंने पितृसत्ता के बरक्स भी अपनी लड़ाइयों को खुद लड़ने की लकीर खींची। हालाँकि इससे पितृसत्ता के उनपर नियंत्रण की कहानी इतनी जल्दी नहीं बदलती लेकिन इसे एक शुरुआत तो कह ही सकते हैं।

आंदोलन में शामिल महिलाओं की प्रगतिशील सोच का इससे भी पता चलता है कि वो किसी भी धार्मिक मसले पर इस तरह से गोलबंद नहीं हुई थी हमने ढाई साल बाद नूपुर शर्मा और पैगम्बर साहब पर अपमानजनक टिप्पणी के मामले में भी मुसलमान महिलाओं का यही स्टैंड देखा जब वो इस तरह के धार्मिक मसले पर गोलबंद नहीं हुई जैसे वो सीएए और एनआरसी पर हुई थीं। हालाँकि ये आन्दोलन ख़त्म हो गया लेकिन बेशक इस विरोध प्रदर्शन ने भारतीय लोकतंत्र में एक नई इबारत तो लिख ही दिया है, आंदोलन ने अपनी शुरुआत में ही सत्ता को इस कदर दवाब में डाल दिया कि इस निजाम के द्वारा इस आंदोलन को बदनाम करने, ख़त्म करने की साजिशें और षड्यंत्रों की लगातार कोशिशें होती रहीं। लेकिन इस मामले में सरकार की मदद कोरोना वायरस और लॉक डाउन की घोषणा ने की। इसका असर इस तरह भी देख सकते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के तहत सरकार ने अभी तक किसी भी अल्पसंख्यक शरणार्थी को भारत की नागरिकता प्रदान नहीं की है क्योंकि इस कानून पर अमल के लिये जरूरी नियमों को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है, इसके लिये जरूरी नियमों को अभी तक अधिसूचित नहीं किया जा सका है। दूसरी ओर इस कानून के तहत नियम बनाने के मामले में सरकार की ढिलाई भी काफी कुछ बयां करती है.नागरिकता संशोधन विधेयक संसद से पारित होने और उसे राष्ट्रपति की संस्तुति मिलने के साथ ही इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में एक एक करके करीब 140 याचिकाएं दायर हुई हैं, तो मामला इतना आसान भी नहीं रहा है सरकार के लिए।

महिलाओं के द्वारा हाल ही में किये गए आन्दोलनों में दूसरा महत्वपूर्ण आंदोलन  केरल में पथनमथिट्टा जिले के पश्चिमी घाटी में संरक्षित वन क्षेत्र में स्थित सबरीमला मंदिर में रजस्वला आयु की महिलाओं के प्रवेश के सन्दर्भ में है, महत्त्व की दृष्टि से केरल का सबरीमाला मंदिर को दक्षिण भारत का काशी विश्वनाथ नंदिर या अयोध्या  मंदिर कह सकते हैं, इस मंदिर में हर साल आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या दुनिया में कहीं भी किसी धार्मिक स्थल पर जाने वाली सांख्य से ज्यादा है। अनुमानतः प्रति वर्ष यहाँ 4 -5 करोड़ लोग आते हैं। एक और जरूरी बात इस मंदिर का शैव और वैष्णव दोनों मतों का मेल होना भी है।अयप्पा स्वामी जिनकी यहाँ पूजा की जाती है वो शिव और विष्णु के स्त्री रूप मोहिनी की संतान हैं इसलिए अयप्पा स्वामी की आराधना शैव और वैष्णव दोनों के द्वारा होता आया है।  एक और ख़ास बात इस मंदिर परिसर के कुछ मंदिरों का दुनिया में किसी भी धर्म के लोगों के लिए खुला होना है।  लेकिन दूसरी ओर ये वही मंदिर है जहाँ रजस्वला स्त्री यानि 10 -50 साल की स्त्री का प्रवेश प्रतिबंधित रहा था और इस  प्रतिबन्ध को  धार्मिक परंपरा के तौर पर सामजिक स्वीकृति प्राप्त थी।धार्मिक मान्यताओं के अनुसार  सबरीमाला मंदिर में पूज्य ईश्वर का स्वरूप नैश्तिका ब्रह्मचारी का है। परंपराओं और पुराणों के अनुसार इसी को आधार बनाकर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाई गई थी।

दरअसल, पिछली आधी सदी में सबरीमला मंदिर में लैंगिक भेदभाव के मसले से ज्यादा लैंगिक ध्रुवीकरण वाला मसला शायद ही कोई और रहा हो। लेकिन ये भी सच है कि महिलाओं का एक हिस्सा लगातार मंदिर में प्रवेश से जुड़ें इस लैंगिक भेदभाव को लेकर सक्रिय रहा। इस पूरी मुहिम में महिलाओं की भागीदारी और भूमिका की बात है तो इसके मूल में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित होना और तमाम महिलाओं का इस प्रतिबन्ध के खिलाफ खड़े होना और कानूनन इस लिंग आधारित  भेदभाव पर रोक लगवाना रही है। दरअसल, मंदिर में महिलाओं के  प्रवेश को लेकर विवाद दशकों पुराना रहा है। लेकिन विवाद की शुरुआत तब हुई जब मंदिर के मुख्य ज्योतिषि परप्पनगडी उन्नीकृष्णन के द्वारा कहा गया कि भगवान अयप्‍पा की ताकत मंदिर में किसी महिला के प्रवेश करने की वजह से कम हो रही है। उनके  इस बयान के बाद कन्नड़ अभिनेत्री जयमाला ने कहा कि 1986 में 27 साल की उम्र में वो सबरीमाला अय्यप्पा मंदिर गई थीं और उन्होंने अय्यप्पा भगवान की मूर्ति का चरणस्पर्श किया था। उनके इस बयान के बाद  मंदिर का शुद्धिकरण करवाया गया और उनके  इस दावे के बाद ही सबको ये मालूम चला कि मंदिर में रजस्वला महिलाओं का प्रवेश वर्जित है।  ये भी हैरान करने वाली बात है कि जयमाला जैसी अभिनेत्री जो इसी पत्रकार को 2016 के इंटरव्यू में कहती हैं कि भारत में सती प्रथा, देवदासी प्रथाएं भी हुआ करती थीं, दलितों को अब भी सामाजिक, धार्मिक भेदभावों का शिकार होना पढ़ता है, लेकिन हमने समय के साथ ऐसी परंपराओं और प्रथाओं की अमानवीयता को समझा और उन्हें हटाया। सबरीमाला मंदिर में भी 10 से 50 साल के बीच की महिलाओं के प्रवेश पर रोक को जितनी जल्दी हटाया जाए एक प्रगतिशील समाज और देश बनाने  के लिए ये बहुत जरूरी है। 2019 में इस मसले पर कोई टिप्पणी करने से इंकार कर देती हैं।  इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का यह मामला कितना संवेदनशील रहा है।

बहरहाल, इसी प्रकरण के बाद मंदिर में हर उम्र की महिलाओं के प्रवेश दिए जाने को लेकर 1990 में प्रतिबन्ध के  खिलाफ केरल हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की गई। 1991 में केरल हाईकोर्ट ने अपने फैसले में महिलाओं के प्रवेश को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर मंदिर के फैसले को सही ठहराया था। और कहा कि  मासिक धर्म की उम्र वाली महिलाओं का मंदिर में प्रवेश निषेध न तो संविधान का और न ही केरल के कानून का उल्लंघन है। 2006 में हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ पांच महिला वकीलों का समूह केरल के यंग लॉयर्स असोसिएशन जिसमें भक्ति पसरीजा, प्रेरणा कुमारी, लक्ष्मी शास्त्री, सुधा पाल, अलका शर्मा शामिल थीं, सुप्रीम कोर्ट में गए। इसके बाद जुलाई 2016 में  सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को मौलिक अधिकारों का हनन कहा और मामले को  2017 में पांच सदस्‍यीय संवैधानिक पीठ को सौंप दिया गया।

सितंबर 2018 में सबीरमाला मामले पर  तत्कालीन मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने महिलाओं के मंदिर में प्रवेश के पक्ष में  ऐतिहासिक फैसला सुनाया जबकि एक सदस्य महिला न्‍यायधीश इंदु मल्होत्रा की प्रवेश के फैसले से असहमति थी इस फैसले ने जैसे पुरे दक्षिण भारत खासतौर पर केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु  में महीनों तक तनाव का माहौल पैदा कर दिया, सड़क पर दोनों समूह के लोग थे एक वो जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में थे और वो भी जो इस फैसले का स्वागत कर  रहे थे बात इस फैसले के वास्तविकता में भी उतरने की थी।  एक ओर प्रवेश के विरोध में 600 किलोमीटर से ज्यादा लम्बी ज्योति श्रृंखला बनायीं जा रही थी  दूसरी ओर मंदिर में प्रवेश के समर्थन में पचास लाख औरतों के द्वारा निर्मित 620 किमी लम्बी लैंगिक समानता की मानव श्रृंखला भी थी, इस मानव श्रृंखला में सभी धर्मों की महिलायें साथ आयी थीं, एक और अंतर इस समूह पर प्रतिबन्ध के समर्थक समूह के लोगों का आक्रामक होना था।  लैंगिक समानता की मानव श्रृंखला के दौरान  एक फोटो जर्नलिस्ट शाजिला अली फातिमा की एक तस्वीर वायरल हुई थी काम के दौरान उनपर हमला होने की और आँखों में आंसू के बावजूद शाजिला अली फातिमा का अपने कैमरे पर मजबूत पकड़ बनाये रखने और अपना काम करते रहने की। ये भी उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उन पत्रकारों और एक्टिविस्टों पर भी हमले हुए जिन्होंने मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश की मसलन  फैसले के बाद नारीवादी कार्यकर्ता रेहाना फातिमा, पत्रकार कविता जक्कल और एक महिला भक्त मैरी स्वीटी ने जब सबरीमाला में प्रवेश करने की कोशिश की तो उन्हें फैसले के खिलाफ भक्तों द्वारा मंदिर के प्रवेश के बजाय पुलिस सुरक्षा में लौटने  के लिए मजबूर किया गया। सच ये है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी यथस्थितिवाद हावी है, धार्मिक परंपरा का पालन करने वालों की मर्जी अघोषित रूप से प्रैक्टिस में है इसकी तस्दीक इस बात से होती है कि 2018 में प्रतिबन्ध हटने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद सिर्फ 2 महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश किया जिनमें पहली महिला हैं बिंदु अम्मिणी जो एक वकील, व्याख्याता और दलित सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं, और दूसरी उनकी दोस्त कनकदुर्गा।  लेकिन मंदिर में इन दोनों का प्रवेश इतना सहज नहीं रहा सबसे पहले तो इनके प्रवेश और निकलने के बाद मंदिर कर शुद्धिकरण किया गया, इन दोनों के प्रवेश से मंदिर अपवित्र माना गया। बाद में बिंदु के घर पर हमला हुआ, तोड़ -फोड़ के गई और उन्हें लगातार जान से मार डालने की धमकी मिलती रही।कनकदुर्गा को मंदिर में प्रवेश करने के कारण उनके पति के द्वारा तलाक दे दिया गया। 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब  2022  है लेकिन अभी तक सिर्फ इन्हीं दो महिलाओं के मंदिर में प्रवेश करने की आधिकारिक जानकारी है हालाँकि जनवरी 2019 में केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को कुल 51 औरतों के मंदिर में प्रवेश की जानकारी दी लेकिन बाद में इससे मुकरते हुए केवल दो महिलाओं के मंदिर में प्रवेश की पुष्टि की।

जाहिर है सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के मामले में सालों के संघर्ष के बावजूद सफलता अभी कागज पर मिली है जमीन पर नहीं, जमीनी हक़ीक़त ये है कि कांग्रेस जैसी पार्टी का इस मसले पर स्टैंड मौजूदा मुख्यमंत्री पिनरई विजयन से उलट सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप का है।  यानि अभी संघर्ष बाकी है, लैंगिक बराबरी के संवैधानिक मूल्य और स्त्रियों को लेकर प्रगतिशील फैसलों का व्यावहारिक धरातल पर उतरना अभी भी चुनावी राजनीति और वोट बैंक के नफा नुक्सान के हवाले हैं।  केरल जैसे अधिकतम साक्षरता वाले राज्य में ये हाल है जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 4 साल होने के बावजूद केवल 2 महिलाएं मंदिर में प्रवेश करती हैं और वापस आने के बाद उसकी सजा या दुष्परिणाम झेलती हैं।

पुनश्च:

यहाँ ये जान लेना भी जरूरी है आखिर नागरिकता संशोधन कानून 2019 है क्या?

दरअसल, देश में घुसपैठियों का मामला काफी समय से चर्चा में रहा था और घुसपैठियों को देश से बाहर करने की दिशा में सबसे पहले असम में एनआरसी (NRC) यानी नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस पर काम हुआ। लेकिन एनआरसी ने बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को भी नागरिकता की लिस्ट से बाहर रख दिया जो देश के ही मूल निवासी थे। इसी के जवाब में या समाधान में  सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून, 2019  पेश किया गया।

नागरिकता संशोधन कानून 2019 में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और क्रिस्चन धर्मों के प्रवासियों के लिए नागरिकता के नियम को आसान बनाया गया है। पहले किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए कम से कम पिछले 11 साल से यहां रहना अनिवार्य था। इस नियम को आसान बनाकर नागरिकता हासिल करने की अवधि को एक साल से लेकर 6 साल किया गया है यानी इन तीनों देशों के ऊपर उल्लिखित छह धर्मों के बीते एक से छह सालों में भारत आकर बसे लोगों को नागरिकता मिल सकेगी। आसान शब्दों में कहा जाए तो भारत के तीन मुस्लिम बहुसंख्यक पड़ोसी देशों से आए गैर मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता देने के नियम को आसान बनाया गया है।इस कानून को लेकर विवाद की वजह इसके प्रावधानों के द्वारा खासतौर पर मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया जाना है जो सीधे -सीधे संविधान के अनुच्छेद 14  जो समानता के अधिकार की बात करता है का उल्लंघन है। एक धर्मनिरपेक्ष देश किसी के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव कैसे कर सकता है?

यह आलेख स्त्रीकाल प्रिंट के ताजा अंक में प्रकाशित है

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ISSN 2394-093X
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