नदियों की उदासी का छन्द रचती कविताएँ

 

नदी हमारी चेतना का अभिन्न अंग

नदियों की उदासी का छन्द रचती कविताएँ

नदी हमारी चेतना का अभिन्न अंग है | इतिहास साक्षी है कि मानव सभ्यता और संस्कृति का उत्स नदियों के किनारे हुआ | नदियों के बिना मानव जाति के विकास की परिकल्पना असंभव थी | नदियों ने मानव जाति के साथ सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाकर मानव जाति के विकास में पूरा सहयोग किया | उसकी दैन्दिनी की हर जरूरत को पूरा किया | परंपरागत समय में मानवजाति ने नदियों के इस आत्मीय सहयोग को पूरा मान-सम्मान दिया किन्तु आज लोभ और लाभ की मनोवृत्ति की वजह से नदियाँ संकट में है | कहीं नदियाँ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए बिलख रही है तो कुछ अतिशय प्रदूषण से ग्रसित अपनी अस्मिता और सौन्दर्य को बचा पाने में असमर्थ दिख रही है | सेंटर फॉर साइंस अंड एनवायरमेंट द्वारा प्रकाशित ‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका के संपादक सुनिता नारायण लिखती है – “जो समाज अपने सर्वाधिक कीमती प्राकृतिक खजाने –अपनी नदियों को खो देता है, वह समाज निश्चित रूप से अभिशप्त है | हमारी पीढ़ी अपनी नदियों को खो चुकी है |”1

प्रकृति को अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा माननेवाली मनीषा झा समकालीन दौर की महत्वपूर्ण कवयित्री है | उनकी कई कविताएँ नदियों पर केन्द्रित है जिसके मार्फ़त वह नदियों के प्रति मनुष्य की असंवेदनशीलता, अतिशय भोगवादी मानसिकता, स्वार्थवृत्ति, औद्योगीकीकरण, बाजारीकरण, प्राकृतिक प्रदूषण की ओर ध्यानाकर्षित करती है | नदियों के प्रति उनमें एक गहन आत्मीय लगाव है | वह जानती है “पानी से पलती है संस्कृति / पानी के तट पर / बहती है सभ्यता”2 | बालासन नदी को संबोधित इन पंक्तियों में नदियों के प्रति कवयित्री की भावना सहज समझी जा सकती है – “एकांत की साथिन / मेरे कितने ही विचारों को संवारा होगा तूने / कितने ही आवेगों को / दिया होगा सहारा / कितनी ही पंक्तियां जन्मी होंगी / तेरे सान्निध्य में और समा गई होंगी/ किसी कविता में / जैसे बहते-बहते तू मिल जाती गंगा में”3

कवयित्री प्रकृति के इस महत्त्वपूर्ण अंग के साथ तदाकार हो जाती है | ऐसा प्रतीत होता है कि नदियों के बिना कवयित्री एकांगी है और नदियों को भी कवयित्री की निश्छल आत्मीयता पर पूरा भरोसा है | उनकी कविता में नदियाँ मानों सखी बनकर अपना दुःख-सुख बतियाने आती है | कवयित्री भी पूरी ईमानदारी के साथ इस नि:शब्द आत्मिक मैत्री संबंध का निर्वहन करती हुई दिखाई पड़ती है |

शहरीकरण की आँधी में नदियों का अतिक्रमण किया जा रहा है | खासकर शहरी क्षेत्रों में बहनेवाली नदियाँ अतिक्रमण का शिकार हो अस्तित्वहीन हो चुकी है या होने की कगार पर हैं | कवयित्री ‘उसके सिकुड़न की भाषा को पढ़’ लेती है – “पानी का सोता सूख जाने से /

सिकुड़ी पड़ी हैं तमाम नदियाँ  / मेरे बिल्कुल पास से बह जाने वाली / तीस्ता हो महानंदा या बालाशन की अंगडाइयां”4 (शिशिर का आना )

नदियों की इस दुर्दशा के मूल में शहरीकरण और व्यावसायिक मनोवृत्ति है | तथाकथित सभ्य  शहरी मनुष्यों के लिए नदियाँ धन उगाही का जरिया बन चुका है | जल प्रदूषण एक गंभीर समस्या बनी हुई है | विडंबना यह है कि नदियों का जल पीने योग्य नहीं रहा | न मानव के लिएन मानवेतरों के लिए | नदियों की इस दुर्दशा से आहत कवयित्री असंवेदनशील शहरी सभ्य मनुष्य से प्रश्न करती है –

“नदी की आँखों में केवल एक उबाल है / समझो / दूध उबल-उबल के हो जाए भूरा / फिर दूध का दूधियापन कहाँ खोजते हो ! / क्या खोजते हो ! / पानी में दूध या दूध में पानी / नगर में बसनेवालो, तुम नागरिक हो ! / नागर हो !”5

नदियों की महत्ता को अगर कोई समझता है तो वह है – ग्रामीण | शहरी लोग इन ग्रामीणों को गँवार मानते हैं | मनीषा झा मानती है कि ये गँवार कहे जाने लोग ही वास्तव में नदियों के रक्षक है | नदी उनके लिए पूजनीय है, नदी का मर्म वे बखूबी जानते हैं | वह लिखती हैं  –

“नदी का मर्म जानते हैं वे / जो रहते हैं तुमसे दूर / करते है उसे प्रणाम / नदी मिले तो मिले / नहीं तो जलाशय को ही / वे कहलाते हैं गँवार“6

मनीषा झा नदियों की महत्ता पर दो दृष्टियों से विचार करती है | शहरी लोगों के लिए नदी सौन्दर्य का साधन मात्र है | वे भोगवादी दृष्टि से प्रकृति को देखते हैं जबकि ग्रामीण लोगों के लिए नदी उनके जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है | नदियों का जल है तो खेतों में अन्न है, हरियाली है, आरोग्य है, समृद्धि का सौन्दर्य है |

मनीषा झा ने अपनी कई कविताओं में नदियों की दुर्दशा का आख्यान रचा है | नदियों का उत्खनन भयावह रूप ले चुका है – “अब परिदृश्य में थी नदी / उत्खनन से उग आया घाव / जहाँ –तहाँ”7 अपनी पीड़ा से आहत कवयित्री जब नदी के पास पहुँचती है, तो “देखती हूँ उसके शरीर पर सैकड़ों घाव /  उत्खनन कर किसी ने बांध दिया था उसे”8 | जब से ‘रियल स्टेट’ का कारोबार बढ़ा है, नदियों का गैरकानूनी तरीके से उत्खनन बढ़ता जा रहा | जल, रेत, बालू आदि सब पर पूँजीवादियों का कब्जा है | नदी बेबस और लाचार दिख रही है | नदी की सिसकी को महसूसते हुए कवयित्री मनुष्य की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा का दृश्य खिंचती है – “रेत और बालू को पाना / रिक्त हो जाना नहीं उस आदमी के लिए / पूँजी के समन्दर में डुबकी लगा लेना है / बहुत सफाई से कोई खुंदवा रहा है / नदी की आत्मा / नदी सिसक रही है घायल होकर”9  

मनीषा झा की नदी केन्द्रित कविताओं में नदियों का बहुआयामी यथार्थ उभर आया है

मनीषा झा की नदी केन्द्रित कविताओं में नदियों का बहुआयामी यथार्थ उभर आया है | हमारी सभ्यता और संस्कृति की पहचान, सबके पापों को धोनेवाली, सहनशील, पूजनीय गंगा नदी मानवीय स्वार्थपरता की बलि चढ़ चुकी है | ‘माँ’ का संबोधन देकर भी उसे स्नेह, करूणा और सम्मान से वंचित किया जा रहा है | धर्म और आस्था का केंद्र गंगा नदी, पूँजी और व्यापार का केंद्र बन चुका हैं | गंगा नदी की धवलता और शुद्धता नष्ट हो चुकी है | इस विडंबना पर कवयित्री लिखती है – “गंगा तेरे नाम पर पूँजी अपार है / शोर है व्यापार है / धर्म है नीति है दंड है राजनीति है / श्रद्धा भी है थोड़ी बहुत / सिर्फ कमी है करूणा की / प्रेम का अभाव है तो क्या हुआ / गंगा तेरे नाम पर / कितना कुछ है व्यवस्था में / तू माँ है, सहना ही चाहिए तुझे / कहते हैं वे / और करते हैं मौज |”10

इस सन्दर्भ में सुनिता नारायण का कथन उल्लेखनीय है –“हम नदियों को चूस कर सूखा छोड़ देते हैं | नदियों को पूजते हुए भी हम उनमें कूड़ा-करकट, प्लास्टिक और न जाने क्या-क्या डाल देते हैं | हम यह सब करते हैं और फिर भी विश्वास है कि नदियां पूजा लायक हैं | या इसका अर्थ यह है कि हम एक मरी हुई या मरणासन्न नदी की पूजा करते हैं, उनकी दुर्दशा को नजरंदाज करते हुए | आज हमारी नदियाँ मर रही है –इनके कई हिस्सों में पानी में घुली हुई आक्सीजन की मात्रा शून्य है | इस कारण इनमें जीवन नहीं है |”11

दरअसल कुछ लोगों के लिए ‘धर्म’ और ‘धन’ में पार्थक्य नहीं है | यही कारण है कि ‘माँ’ तुल्य नदी को मारकर भी लोग मौज में है |

गंगा नदी के माध्यम से मनीषा झा ने पूँजीवादी शक्तियों के बढ़ते वर्चस्व और नदियों के प्रति मनुष्य की बढ़ती असंवेदनशीलता और अमानवीयता को बखूबी उजागर किया है | असल में गंगा नदी का घाट आज धर्म और पाखंड का अड्डा बन गया है जहाँ आस्था के नाम पर पूँजी का घिनौना खेल खेला जा रहा है – “गंगा तेरे नाम पर / गिरती जा रही मुद्रा / साधुओं –कीर्तनियों की झोली में / तेरे घाटों पर उछल-कूद कर / देखो कैसे चले जा रहे / गाते हुए गरदन फुलाकर”12

नदियों के विनाश में बाजारवाद का बढ़ता प्रभाव

नदियों के विनाश में बाजारवाद का बढ़ता प्रभाव भी एक प्रमुख कारक है | गंगा नदी की शुद्धता ही बाजारवाद की बलि नहीं चढ़ गयी है बल्कि जलचर प्राणियों का अस्तित्व भी खतरे में हैं  क्योंकि कवयित्री के शब्दों “ दरअसल पानी नहीं रहा पानी / सभी के लिए / कि दिन–दहाड़े विष घुलाए जा रहे हैं”13 प्लास्टिकों का बढ़ता प्रयोग, कल-कारखानों का कचरा, केमिकल नदियों में जहर घोल रहा है जिसके परिणामस्वरूप – “बीमार हो गयी कारखानों का मल खाकर / सिर्फ कुछ मछलियाँ / पॉलीथीन में फँसकर घुट गयी / कुछ / छोटे जलचर / केमिकल का रस पीकर / चल बसे जल की दुनिया से”14

मनीषा झा की दृष्टि व्यापक है | यही वजह है कि वह तथ्य की गहराई में उतरती है | नदियाँ सिर्फ जल-संसाधन नहीं, रेत या बालू प्रदाता नहीं बल्कि जलजीवों के लिए उनका सर्वस्व है | सिर्फ जलजीव ही नहीं, पेड़-पौधे, वन्यप्राणी और आकाश सभी की जीवन-रेखा है | आकाश के साथ नदी की आतंरिक संबद्धता को केवल मनीषा झा की सूक्ष्म और संवेदनशील दृष्टि ही देख सकती है – “आकाश काँप उठता है / पानी को झकझोरने से / चाहे नदी का हो / चाहे तालाब का / चाहे तलैया का / या अँजुरी का….”15

इसी तरह एक कविता है – ‘उदासी का छन्द’, जिसमें हवा की उदासी का सुन्दर बिम्ब खींचा गया है | मनुष्य द्वारा प्रकृति के अतिशय दोहन-शोषण से हवा उदास हो गयी है – हवा गा रही / उदासी / पृथ्वी अप्रसन्न लग रही / बसन्त में भी / समुद्र में सभ्यता का शोर है/ नदियाँ हो चली बेसुरी / सिमट रहा है झरनों का वेग”16

मनीषा झा ने अपनी कविताओं में कई नदियों का उल्लेख किया है |  हुगली नदी उनमें एक है | इस नदी के प्रति कवयित्री का विशेष अनुराग दिखाई देता है | घर और ऑफिस के बीच बहती हुगली नदी कवयित्री की भागदौड़ भरी जिन्दगी का एक अहम् हिस्सा है | इस नदी के साथ उनका एक सहज आत्मीय संबंध स्थापित हो चुका है तभी तो – “फिर चाहे जितनी भी जल्दी हो / काम पर जाने की / रोक ही लेती है नदी / और दे देती है/ थोड़ी फरहर नमी / ताकि मुस्करा सके हम / कामों के बीच”17  हुगली नदी की ‘फरहर नमी’ भरी आत्मीयता कवयित्री में न केवल शारीरिक ऊर्जा बल्कि मानसिक ऊर्जा का संचार भी करती है ताकि वह अपने कर्तव्य का निर्वहन अच्छे से कर सकें |

यह कहना गलत नहीं है कि जल प्रदूषण की स्थिति चिंतनीय है | मनीषा झा ‘हुगली नदी-2’ शीर्षक कविता नदियों की इसी समस्या का आख्यान है | साफ-सुथरी नदियाँ आज रक्तवर्णा हो रही है | कल-कारखानों से निकला कचरा नदियों के सौन्दर्य को ही नष्ट नहीं कर रहा अपितु उसे विषैला भी बना रहा है | उसकी धारा को अवरूद्ध कर रहा है जिससे उसमें रहनेवाले प्राणियों का जीवन संकट में है | नदी जो पेय जल का एक बड़ा संसाधन है मनीषा झा नदियों की इस दुर्दशा से चिंतित है – “देखो / नदी का पानी साफ था पहले / पानी की तरह / हो गई है नदी / अब मिट्टीवर्णा / नदी लगती है यह / धारा के कारण ही/ वरना यही लगेगा / कि मिट्टी का थक्का /  और देखो रक्तवर्णा / हो रही है नदी धीरे-धीरे / फिर मत कहना / कि खून बह रहा है |”18

अंतत: यह कहा जा सकता है कि प्रकृति प्रेमी, पर्यावरण सजग कवयित्री मनीषा झा की कविताओं में नदियों का बहुआयामी परिप्रेक्ष्य वर्णित है | वह नदियों की भाषा को समझती है, उनकी सिसकी को महसूस करती है | उनके साथ अंत:करण से आबद्ध होती है | नदियों को लेकर उनकी दृष्टि संवेदनात्मक है | वह अपनी कविताओं में नदियों की दुर्दशा का आख्यान ही नहीं रचती, मानव जीवन के सन्दर्भ में नदियों की महत्ता और आवश्यकता पर गहन चिंतन करती है | आज नदियों के संरक्षण के लिए कई योजनाएँ लागू की गयी है, फिर भी नदियों की आत्मा सिसक रही है | मनीषा झा इस तथ्य पर जोर देती है कि नदी और मनुष्य का पुरातन आत्मिक संबंध है, उस संबंध को पुनर्जीवित कर ही हम अपनी इस धरोहर का संरक्षण कर पायेंगे | नदियों को बचाना हमारा कर्तव्य ही नहीं हैं, हमारी जरूरत है– यह समझना बहुत जरूरी है |

 

सन्दर्भ :

  1. सं. सुनिता नारायण, डाउन टू अर्थ, सेंटर फॉर साइंस अंड एनवायरमेंट, नयी दिल्ली, 2020, पृ.3
  2. मनीषा झा, कंचनजंघा समय, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2017, पृ. 91
  3. धूमकेतु, कोलकाता, डिजिटल अंक, 2022, पृ. 14
  4. सं. शंभुनाथ, वागर्थ, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता, जून 2022 अंक, पृ. 49
  5. मनीषा झा, कंचनजंघा समय, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2017, पृ.108
  6. वही, पृ. 108
  7. वही, पृ. 108
  8. सं. शंभुनाथ, वागर्थ, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता, जून 2022 अंक, पृ. 49
  9. मनीषा झा, कंचनजंघा समय, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2017, पृ.61
  10. वही, पृ. 88
  11. सं. सुनिता नारायण, डाउन टू अर्थ, सेंटर फॉर साइंस अंड एनवायरमेंट, नयी दिल्ली, 2020, पृ.3
  12. मनीषा झा, कंचनजंघा समय, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2017, पृ.61
  13. वही, पृ. 93
  14. वही, पृ. 88
  15. मनीषा झा, शब्दों की दुनिया, आनन्द प्रकाशन, कोलकाता, 2013,पृ. 9
  16. मनीषा झा, कंचनजंघा समय, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2017, पृ 102
  17. मनीषा झा, शब्दों की दुनिया, आनन्द प्रकाशन, कोलकाता, 2013,पृ.18
  18. वही, पृ. 19

 

 

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