नारी अस्‍मिता के वृत की त्रिज्‍याएं , चुनौतियां एवं संभावनाएं

नारी अस्‍मिता के वृत की त्रिज्‍याएं , चुनौतियां एवं संभावनाएं

आज के इस लोकतांत्रिक माहौल में स्‍त्री अस्मिता का स्‍वर अभी भी अनुसना ही रह जाता है और यही वजह है कि पितृसत्‍तात्‍मक व्‍यवस्‍था अपने वर्चस्‍व को चुनौती देती इन आवाजों को हाशिए पर धकेलने की साजिशें करने लगती। अब तक नारी अस्मिता का जो वृत्‍त है , उसकी त्रिज्‍याएं क्‍या हैं ? , समग्रता में क्‍या है नारी अस्मिता ? ऊपरी तौर पर हमें नई स्‍त्री दृष्टि या स्‍त्री चेतना में महत्‍वपूर्ण बदलाव नजर तो आ रहा है बल्कि शुरूआती दौर में स्त्रियेां की स्थिति को लेकर बड़े बड़े नामचीन मुक्तिदाताओं ने क्रांतिकारी नारेबाजी की और इस तरह  हमारे देश में स्‍त्री दमन के प्रति विद्रोह व प्रतिरोध की चेतना दिनोंदिन जाग्रत होती गईं। धीरे धीरे जब हम स्‍त्री जीवन की ऊपरी चकाचौंध की अंदरूनी अंधेरी परतों की तरफ देखते हैं जहां पसरी है अनगिनत गैर बराबरी के प्रसंग , शिक्षा व अन्‍य जरूरी चीजों से वंचित कर दी गई इस आधी दुनिया के जीवन में पैठी विसंगतियों व विडंबनाओं की संश्लिष्‍ट तस्‍वीरें नजर आने लगती ।

स्‍त्री की सामाजिक हैसियत , आर्थिक पराधीनता एवं वृहत्‍तर संदर्भो में उसकी भूमिका आज भी दोयम दर्जे की है , इसमें जरा भी संदेह नही। बेशक कुछ मायनों में उसकी बेहतर समझ बनी है व उनकी संवेदना का विस्‍तार भी हुआ है जिसके मूल में था उसका शिक्षित होकर  स्‍वालंबन की दिशा में बढाया गया सेाचा समझा कदम  पर क्‍या सही मायनों में इस आजादी की आंच हमारे सुदूर गांवों , कस्‍बों या दूर दराज के छोटे छोटे कस्‍बों में भी उतनी ही धमक से पहुंच पा रही हैं। क्‍या एक आजाद , स्‍वायत्‍त मनुष्‍य की तरह अपना फैसला खुद लेकर मजबूती से आगे बढ़ने की हिम्‍मत हैं उसमें ? उसके मूलभूत अधिकार व आत्‍म निर्णय की पराधीन स्थितियां तो जस की तस है ।

आधुनिकता की चपेट में बढ़ते पूंजीवाद और विश्‍व स्‍तर पर फैल रहे बाजारवाद ने  स्‍त्री जीवन को चारों तरफ से प्रभावित किया और एक विभ्रम की स्थिति पैदा कर दी जिससे ऐसा आभास होता है कि इस रास्‍ते वे ज्‍यादा आजाद हुईं हैं लेकिन यह बड़ा अंतर्विरोध है कि स्‍त्री आजादी के नाम पर वहां एक बहुत बड़ी साजिश रची गईं यानी उन्‍मुक्‍त यौनाचार वनाम दैहिक स्‍वतंत्रता के नाम पर वे धीरे धीरे पुरूष की भोगवादी लालसा का शिकार होती गईं। कहां कम हुआ इससे पुरूष वर्चस्‍ववाद ? सजग , सचेत व आत्‍मनिर्णय से लैस तेजस्‍वी  स्‍त्री क्‍या यही थी ? स्‍त्री की स्‍वतंत्र गरिमा , उसकी सामाजिक सक्रियता व सरोकारों वाली भूमिका क्‍या समग्रता में हमारे सामने आ पाई है , पूरी तरह तो ये सच नही है । बाजारवाद एवं बढ़ते भौतिकतावाद की चपेट में स्‍त्री की सामाजिक हैसियत या मानसिक धरातल पर कहीं कुछ बदलाव नजर आता है ? क्‍या आज वह अपने बूते अपनी पसंद के करियर का चुनाव कर , अपनी पसंद के साथी के साथ अपनी मर्जी से रहने या सिंगल जीवन बिताने का या स्‍वतंत्रता कायम करने की रहा पर चलने में सक्षम हो पायी है ? शायद नही ,  आए दिन होने वाले मर्डर इस बात के गवाह है कि , आज भी वे अपनी मर्जी से जीवन जीने का जोखिम उठाएंगी तो पुरूष सत्‍ता उनकी हत्‍या कर सकती है ।

बेशक समाज बदल रहा है मगर यथार्थ की परतें कितनी बहुआयामी व जटिल हैं जिन्‍हें भेदकर अंदरूनी सचाई तक पहुंच पाना आसान नही। आज के इस रंगीन समय में नई बढ़ती चुनौतियों से टकराती स्‍त्री की क्रान्तिकारी आवाजें हम सबको सुनाई दे रही हैं मगर यही कमाऊ स्‍त्री जब समान अधिकार और परिवार में लोकतंत्र की अनिवार्यता पर बहस करती य सही मायनों में लोकतंत्र लाना चाहती तो वहां इस बदलाव की राह में तमाम पगबाधाएं मसलन-  धर्म , भारतीय संस्‍कृति , समर्पण , सहनशीलता , नैतिकता या यौनशुचिता जैसे सामंती मूल्‍य ही उसकी स्‍वीकार्यता की कुंजी बनते रहे।

जहां आधिपत्‍य , दमन और अवमानना के इस समूचे पितृसत्‍तात्‍मक मूल्‍य व्‍यवहार से टकराती आजाद देश की नई स्‍वतंत्र स्‍त्री को लगता था कि चलो , अब कामकाजी माहौल में वे आत्‍मसम्‍मान और व्‍यक्तित्‍व की आत्‍मपर्याप्‍तता को मिले स्‍पेस के चलते स्‍त्री स्‍वाधीनता का भरपूर लुत्‍फ उठाएंगी मगर आज के बाजारवाद द्वारा परोसी गई स्‍त्री के बारे में सोचते ही हमारे सामने ढेरों फैसलों के जरिए सुंदर स्‍त्री के नकली चेहरे कौंध जाते हैं जिन्‍हें देखकर तमाम सवाल तेजी से बेचैन करने लगते। आखिर ऐसा क्‍या हैं इनमें ? अपेक्षित दृष्टि सम्‍पन्‍नता  , प्रचुर आत्‍मविश्‍वास या आत्‍मबल से भरी पूरी अस्मिता के नए निशान लगाती आधी दुनियां हैं क्‍या यहां ? नही , कतई नही। जब भी वह अपने लिए मुकम्‍मल स्‍पेस या बाजिब हक की बात छेड़ती , उसे पुरूष विद्रोही या घर तोड़ू जैसे अनर्गल आरोपों से मढ़कर उसका मनोबल तोड़कर आगे बढ़ने से हतोत्‍साहित किया जाता है जब कि ये पूर्वाग्रही सोच सिर से निर्मूल या आधारहीन है। पुरूष वर्चस्‍ववाद से जूझकर अपने जीवन की चुनोतियों से खुद निबटने का बूता उसके अंदर आता है तभी वे बदले सामाजिक , राजनैतिक व आर्थिक मार्चे पर पूरी निडरता व निधड़कता से स्‍वत्‍व की जमीन पर पैर टेक पाएंगी ।

हिंदी साहित्‍य आधुनिकता के दौर में 1960 के बाद उभरे नई कहानी आंदोलन में स्‍त्री से जुड़े सवालों को उठाया जाता रहा। स्‍त्री जीवन के संघर्ष और समस्‍याओं को अनुभव की प्रामाणिकता के साथ उभारने का श्रेय जाता है , हमारी वरिष्‍ठ कथाकार कृष्‍णा सोबती , उषा प्रियंवदा , मन्‍नू भंडारी , मृदुला गर्ग , ममता कालिया , मृणालपांडे , चित्रा मुद्गल , मंजुल भगत , चंद्रकिरण सोनरिक्‍सा , प्रभा खेतान व नासिरा शर्मा जैसी सशक्‍त लेखिकाओं ने पुरूष वर्चस्‍ववाद के खिलाफ परंपरागत रूढि़यों व टिपिकल मर्दवादी मानसिकता को तोड़ने का रचनात्‍मक साहस दिखाया। उन्‍हेांने पुरूष संरचना व पुरूष द्वारा गढ़े एक तरफा मूल्‍येां व मान्‍यताओं को सिरे से नकारते हुए स्‍त्री जीवन को सर्वथा नए कोण से रचा व सालों से दबाई उसकी आवाज को उसी की जुबान में शब्‍द मिले , नई भाषा मिली और नया लोकतांत्रिक  नजरिया भी जिसमें उनकी कठपुतली वाली नकली छवि को पूरी ताकत से तोड़ा गया ।  प्रेम , विवाह व करियर के बीच संघर्ष करती स्‍त्री की एक नयी जीवंत तस्‍वीर सामने आई और स्‍त्री मुक्ति को नयी दिशा मिली ।

स्‍वातंत्रयोत्‍तर देश में एक ओर जहां समूचे सामाजिक आर्थिक शिंकंचे में कैद स्‍त्री की चीखें आजाद हुई , वहीं दूसरी तरफ नारी लेखन में ‘ अनारो , बेघर , शेष यात्रा ‘ सरीखी नायिकाओं के संवेदनशील व्‍यक्तित्‍व ने ‘ मैं नीर भरी दुख की बदली ‘ छवि से टकराकर अपने निजी सपनों व आकांक्षाओं को विस्‍तार दिया। धीरे धीरे स्‍वावलंबी स्‍त्री पुरूष वनाम पति पत्‍नी की सबलता से प्रभावित ‘  बंटी ‘ का सूक्ष्‍म मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण हुआ । कहीं उग्र नारीवाद उभरा तो कहीं यथास्थितिवाद से समझौता करता संस्‍कारों से सीधे न टकराकर समन्‍वय वादी रवैया अपनाया गया , जैसे सूर्यवाला जी की कहानियां । मगर ये एक बड़ी उपलब्धि थी कि नारी चेतना अपनी स्‍वतंत्र सोच व सप्राण संवेदना के साथ रचनात्‍मकता के बहुआयामी रूपों में मुखरित होनी शुरू हो गयी । इस नई स्‍त्री ने आधुनिकता के साथ नई करवट ली और ‘ पचपन खंभे लाल दीवारें ‘ में नए किस्‍म के यथार्थ को उभारा गया ।

घर से बाहर निकल कमाऊ स्‍त्री को आसान आजाद औरत समझ उसे हथियाने के लिए पितृसत्‍ता ने तमाम हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए। लोभ लालच के वशीभूत करने की साजिशें रची गयी या भावात्‍मक दोहन के जाल बिछाए गए जिसे बखूबी उजागर करने के लिए लेखिकाओं की एक नई जमात उभरकर आयीं – सुधा  अरोडा , मेहरून्न्शिा परवेज , निरूपमा सेवती , नमिता सिंह , मैत्रेयी पुष्‍पा जैसी सशक्‍त कथा लेखिकाओं ने सक्रिय स्‍त्री के प्रतिरोध को व्‍यापक संदर्भो में मुखरित किया जिसमें उसकी सामाजिक , आर्थिक व राजनैतिक हैसियत को आंकते हुए उसकी त्रासदी के जिम्मेदार कारकों की सघन पड़ताल की गयी कि वे अब अपनी तरह से सोचने लगीं हैं व तमाम चुनौतियेां से निबटने में सक्षम हैं । बेशक इस प्रक्रिया में कई वर्जनाएं टूटी मगर उस पर लादे गए अनावश्‍यक दबाव भी कमतर होते गए। जिस तरह से उसकी पारिवारिक परिवेश ने सालों तक उसकी मानसिकता को आक्रांत कर रखा था , धीरे धीरे अब वे अपने हकों से वाकिफ होती गई। अपने सपनों व निजी आकांक्षाओं को गतिशीलता से आगे बढ़ाती आज की स्‍त्री पूरी विविधता व समग्रता से अपना आकाश तलाशना सीख रही हैं। क्रमश: आजाद देश  की स्त्रियां आईटी , सेना , एअरफोर्स , चिकित्‍सा , इंजीनियरिंग , वैज्ञानिक , बैंकर , विश्‍वविद्यालय में प्रोफेसर , पुलिस अधिकारी या समाज सुधारक आदि न जाने किन किन भूमिकाओं में कामयाबी के शिखर छू रही हैं। ऐसा कोई क्षेत्र नही जहां आज की महिलाओं ने अपनी छाप न छोडी हो। भारतीय महिला बैंक की सीएमडी उषा अनंत सुब्रहमण्‍यम हों या भारतीय स्‍टेट बैंक की सीएमडी अरूंधति जी या आईसीआईसीआई की अध्‍यक्ष जैसे जितने शानदार नाम , काम में भी वे उतनी ही कुशल , दक्ष व प्रखर मेधा का परचम लहराती हुई। कह सकते हैं कि आधी नही , पूरी दुनियां हमारी हैं। सारा आकाश हमारा हैं।

सच तो ये है कि आधुनिक स्‍त्री की स्‍वाधीन छवि के प्रति समाज / परिवार अभी भी पूरी तरह तैयार नजर नही आते मगर हां , उपभोक्‍ता संस्‍कृति उसे प्रयोज्‍य वस्‍तु की तरह जरूर इस्‍तेमाल करने से नही हिचक रही। सच बताएं तो इस ऊपरी चकाचौंध के पीछे की तस्‍वीरें इतनी कुरूप हैं , इतनी भयावह और वितृष्‍णा जगाने वाली हैं जो हमारी आजादी की सालगिरह पर एक ऐसा तमाचा हैं जहां आज भी अखबार ऐसी जघन्‍य बलात्‍कार की घटनाओं से रंगे रहते। सच है कि आए दिन अखबार महिलाओं के प्रति अपराधों से भरे रहते। फिर ये कैसी आजादी ? कैसा लोकतंत्र ? क्‍या वाकई लोकतंत्र नजर आता है ? चारों तरफ स्‍त्री को लेकर होने वाले अपराधों की खबरें ही खबरें , हत्‍या से आत्‍महत्‍या तक , घर की गली से अगले मोड़ तक , मोड़ों से आगे मिलती लंबी सड़क से राष्‍ट्रीय राजमार्ग तक , सब तरफ बैठे हैं गिद्ध ही गिद्ध , बेहद हिंसक , गैर जिम्‍मेदार , क्रूर एवं प्रभुता के मद में चूर , उन्‍हें अपनी पशुता का अहसास तक नही , मलाल तो दूर की बात हैं , जो अपनी प्रेमिका को पाने की खातिर अपनी मरती हुई पत्‍नी की चीखें सुनना चाहता हैं , ओफ . . सच तो ये है कि महिलाओं के प्रति पुरूषों की सोच इतनी घटिया , संकरी , इकहरी  और पूर्वाग्रही है कि आज भी उनका हंसना , बोलना या अकेले अपनी मर्जी से घूमना फिरना सवालों के घेरे में। आए दिन गैंग रेप की हिंसक वारदातें , स्‍त्री प्रताड़ना के दिल दहलाने वाले खौफनाक सच्‍चे कारनामे इस सभ्‍य सुसंस्‍कृत समाज के माथे पर कलंक का टीका है जो हमारे लोकतंत्र व न्‍यायव्‍यवस्‍था को कटघरे में खड़ा कर देता है।  .

कहने को विश्‍वविद्यालयों में महिला अध्‍ययन केंद्र खुलने लगे हैं मगर लैंगिक भेदभाव कम हुआ क्‍या इससे ? प्रेम , विवाह व करियर के बीच संघर्ष करती स्‍त्री को उसका वाजिब हक कब और कैसे मिलेगा , आज भी एक ज्‍वलंत सवाल है। कई भूमिकाओं का कुशलतापूर्वक निर्वहन करती स्‍त्री पूरे दम खम के साथ आत्‍मविश्‍वास की जलती लौ के सहारे न जाने कितनी पीढि़यों को ऊर्जस्वित रखती आई हैं। आज के बहुआयामी यथार्थ की देहरी पर उसके जीवंत व तेजस्‍वी व्‍यक्तित्‍तव की दस्‍तक सुनाई देने लगी हैं जहां वह अपनी सोच को पर्याप्‍त आधार देते हुए परिवार व समाज में बहुमुखी प्रतिभा की छाप छोड़ने लगी हैं सो अब उसे और ज्‍यादा दरकिनार कर हाशिए पर नही ठेला जा सकता।

स्‍त्री की सच्‍ची स्‍वाधीनता का अहसास तभी हो पाएगा जब वह आजाद मनुष्‍य की तरह भीतरी आजादी को महसूस करने की सुखद स्थितियों में होगी  , तभी सही मायनों में वह एक खुदमुख्‍तार मजबूत इंसान की तरह समाज की मुख्‍य धारा में अपनी सशक्‍त भूमिका निभा पाएगी। न , केवल आर्थिक आजादी सही मायनों में आजादी का पर्याय नही बल्कि सामाजिक , राजनैतिक परिप्रेक्ष्‍य में उसकी ठोस भागीदारी एवं मनुष्‍यता के समान अधिकारों से लैस समानता चाहिए , संरक्षण नही । आज के कथा सहित्य में धीरे धीरे उसे समग्रता में देखा जाने लगा है जो एक सुखद अहसास है , हवा के ताजे झोंके की तरह ।

स्‍त्री लेखन की चुनौतियों के बारे में सोचते ही कई सारे बिम्‍ब स्‍मृतिपटल में मूर्त होने लगे : अलसुबह अधनींद में उठते ही वह बगल में सोए बच्‍चे के लिए दूध तैयार करते करते चाय चढ़ा देती । फिर चाय का कप हाथ में लेकर बमुश्किल मिले एकांत में कुछ समय अपने लिए तलाशती अपनी पसंदीदा किताबों को उलटते पलटते विचारों की आवाजाही में खोयी कि अचानक बच्‍चे के रोने की आवाज सुनकर फिर तेजी से उसके पास चल देती । इन्‍ही क्षणों में उसके भीतर कौधती रचनात्‍मकता के कई बिम्‍बों को परे धकेल वह तेजी से निबटाती है रूटीन काम , मसलन बच्‍चे को स्‍कूल भेजना , नाश्‍ता तैयार करके खुद भी तैयार होकर दफ्तर के लिए निकलना। कामकाजी होने को नाते घर से बाहर तक की दुनियां के अनगिनत कामों की श्रृंखला में उसकी रचनात्‍मकता का स्‍फुरण अंदरूनी जगत में अनवरत होता रहता पर फाइलों पर काम निबटाते निबटाते पूरा दिन निकल जाता और शाम होते ही फिर वही रूटीन काम उसे घेर लेते । सुबह के छूटे शब्‍द उसे कभी कभी शाम या फिर रात तक घेरे रहते यानी चैन से नही जीने देते । तमाम जाने अनजाने , चीन्‍हे अनचीन्‍हे प्रसंग , दिल दहलाने वाली घटनाएं , आसपास के हौलनाक हादसे और आसपास की दुनियां के सच्‍चे किस्‍से उसकी स्‍मृति में लगातार दस्‍तक देते उसे बेचैनी से भर देते फिर तो एक ऐसी स्थिति आ जाती कि लिखे वगैर उसे कैसे भी चैन नही मिलता तब उसके अंदर की रची बुनी दुनियां में शब्‍द बेतरतीबी से जमा हो जाते जिन्‍हें कागज पर उतारने के लिए वह विकल हो उठती । फिर खुद को आश्‍वस्‍त करती – दिन गया , कोई बात नही। अभी पूरी रात तो अपनी है , ये कहां भागकर जा सकती है भला ।

जी हां , अधिकांश स्त्रियों का लेखन इसी जेद्दोजेहद और इसी भागमभाग के बीच अपने लिए अभिव्‍यक्त्‍िा के रास्‍त्‍ेा तलाशते हुए कागजों पर उतरता रहा हैं । मेरा अधिकांश लेखन रात 11 बजे से 1 या 2 बजे तक हुआ है जब मैं अपनी समूची एकाग्रता और तन्‍मयता से दिमाग में फैले विचारों , भावनाओं एवं चोट खायी संवेदनाओं की बिखरी अनुभूतियों को सिलसिलेवार पन्‍नों में गूंथते हुए शब्‍दों को भाषिक व शैल्पिक ताने बाने में पिरेाते हुए कहानी , उपन्‍यास या लेख का जामा पहना देती । इस समय घर की शांति व अटूट सन्‍नाटा मेरी रचनात्‍मकता को संवर्धित करता है । वैचारिक ऊर्जा व अंदरूनी बेचैनी का सहमेल से उपजते हैं शब्‍द जो स्‍वत:स्‍फूर्त आवेग से फर फर चलती हवा की तरह हर पन्‍ने पर उतरने के लिए आवेग से अपने आप दौड़े चले आते गोया नौ महीने के बाद स्‍त्री की कोख से बाहर आने के लिए बच्‍चा खुद अकुलाने लगता है , ठीक उसी तरह होती है सृजन की जमीन जहां शब्‍द किसी जादुई शक्ति से खुद ही रचवा लेते अपने को या उन्‍हें  आकार प्रकार मिल जाता ।

अपनी रचनात्‍मक यात्रा के 15 साल पीछे मुड़कर देखती हूं तो ऐसा लगता है जैसे मेरी हर रचना किसी मायावी दुनियां से अपने आप अवतरित हुई हो । अक्‍सर लेाग पूछते हैं – आपकी इतनी व्‍यस्‍त जीवन शैली में समय कहां से कैसे मिलता है , मेरे पास इस सवाल का यही एकमात्र जवाब होता कि कुछ भी पूर्वनिर्धारित नही होता । मसलन , मैं कहानी का पहले से ही प्रारूप सोचकर बैठूं कि आज एक लंबी कहानी लिखनी मगर जब पन्‍नों पर शब्‍दों की चादर फैलाती तो पता चलता , अरे , ये तो उपन्‍यास रचा जा रहा है । एक लंबी कहानी कब और कैसे अपने अवांतर प्रसंगो से कहानी से औपन्‍यासिकता का ताना बाना पहनने लगती है , खुद रचनाकार को पता नही चल पाता । उंगलियों में फंसा पेन पन्‍नों पर तेजी से चलता दौड़ता रहता है मगर यहां भी वह अपनी मनमर्जी से चलता , किसी तानाशाह की तरह । सच्‍ची में , न तो वह लेखक के पहले से बुने विचारों या भावनाओं की पुकार सुनता है , न ही पहले से तय प्रारूप पर कार्य करने की गुहार सुनता है । यहां वह किसी की नही सुनता , गोया बच्‍चा अपनी जिद के आगे किसी की नही सुनता । । बस , विचार व गहन अनुभूतियां तेजी से पन्‍नों पर उतरती जाती है । शब्‍द अनायास गढ़ लेते अपना आकार प्रकार और रचनाकार का सोचा जस का तस कुछ का कुछ सूरत लेने लगता । बेशक कागज पर सृजित यह शब्‍दलोक उसके पूर्व निर्धारित कल्‍पनालोक से बेहतर होता है , इसी वजह से कहा जाता है कि ये शब्‍द किसी मायावी दुनियां की तरह अपना जादू खुद बिखेरते हैं पन्‍नों पर और रचते जाते एक नयी काल्‍पनिक नयी दुनियां जहां हमारे पाठक विचरते हैं तो वहां वे खुद को एकाकार करते हमसे पूछते हैं – आप यहां कहां पर हो , यानी साधारणीकरण का जादू यहां पूरे सौंदर्य से उतरता है और हम ठगे से देखते रह जाते है खुद की सृजित इस अद्भुत रचनात्‍मकता को , फिर खुद ही आश्‍चर्य से भर जाता है मन ।

पहला उपन्‍यास ‘ कही कुछ और ‘ एक तलाकशुदा इंजीनियर महिला के पुनर्विवाह पर आधृत कहानी थी मगर अंत तक आते आते कथा नायिका खुद ही अकेले रहने का फैसला सुना देती है । इसी तरह ‘ किशोरी का आसमां ‘ सबसे पहले एक लंबी कहानी के रूप में लिखना शुरू किया था मगर जैसे जैसे कहानी ने आकार प्रकार लेती गयी , तुरंत उसको पहनाए गए कहानी के कपड़े कम होते गए यानी कहानी के अंदर परत दर परत अन्‍य कहानियां तेजी से पनपती और विस्‍तार लेती गयी । फिर क्‍या था , कहानी अपने मूल सांचे ढांचे को तजकर दो पीढि़यों के अंतर्दन्‍द , पारिवारिक मूल्‍यों का दो पीढि़यों का संघर्ष क्रमश : दो समय की आवाजाही में बदलता गया । मां बाप व बच्‍चों की दुनियां में बदलते समय के अंदर चल रही रचनात्‍मक यात्रा महीनों मेरे भीतर रचती , बसती फिर उसके किरदार मेरी आंखों के सामने ही रोज लिखाने की अपील करते दिखते जिसे मैं भरसक टालती रहती या बाहरी परिवेश की व्‍यस्‍तताएं मुझे नही लिखने देती । मगर फिर रचना ऐसी जिद पर उतर आती जैसे कोई हठी बच्‍चा अपनी मांग पूरी किए बिना मानता ही नही है । सो एक ऐसा दिन जरूर आ धमकता जब मेरा टालने की प्रवृति पर रचनात्‍मक मांग हावी हो जाती और ‘ अब लिखे वगैर सांस नही ले पाऊंगी ‘  यानी लिखे वगैर चैन नही पड़ता । अंदरूनी दुनियां की आग तेजी से धधकने लगती कि फिर तो हर हाल में बैठना अनिवार्य बन जाता । ‘ एक न एक दिन ‘ उपन्‍यास लिखने के दौरान ऐसी ही अनुभूति हुई थी। पहले सोचती थी , बच्‍चे बड़े होने के बाद लिखेंगे , मगर रचना जब जिद पर उतार आती तो अपने को लिखवाकर ही सुकून से बैठ पाती । घर पर इस तरह का बिम्‍ब बनता , कि बच्‍चे पढ़ रहे हैं और उनके संग हम भी लिख या पढ़ रहे होते । बेटी को हिंदी का डिक्‍टेशन दे रही हूं मगर पढ़ रही हूं हिंदी की साहित्यिक पत्रिका और उसी में से हिंदी के कठिन शब्‍द निकालकर लिखवा रही होती पर बेटी बीच में पूछ बैठती – ‘ पर ,  ये तो हमारी बुक में है ही नही , मैं बताती –  तो क्‍या हुआ , तुम्‍हें आना तो चाहिए न ? ‘

वाकई , स्‍त्री की रचनात्‍मक चुनौती के रूप में सबसे बड़ा अवरोध है – उसकी पारिवारिक या घरेलू मोर्चे पर निरंतर सक्रियता और उसकी रचनात्‍मक अस्त्तित्‍व या लेखकीय महत्‍ता को शून्‍य समझने का पुरूषवादी एकांगी नजरिया । फिर आते हैं बाहरी दुनियां के झंझट झमेलों का घनचक्‍कर । वह हमेशा दो अतियेां के बीच विचरते हुए कैसे भी संतुलन साधने की कोशिश करती रहती । इसी दरम्‍यान उसके अंदर के संसार में मचती खलबली  और अनाम संवेदनाओं की उथल पुथल के बीच शब्‍द पन्‍नों की तलाश में फड़फड़ाते रहते कि कही से , कैसे भी उसे एक झरेाखा तो मिले और वह अपनी एकरस , उबाऊ या नीरस जिंदगी में से कैसे भी हवा का ताजा झोंका महसूस कर लिख सके अपनी सोच व संवेदना की गहन अनुभूतियों को मगर कई बार भीतर की आवाजें अनुसनी रह जाती हैं और कहानी दिमाग व भावनाओं के मकड़जाल में फंसी हवा में उड़ भी जाती है । कई लेखिकाओं के साथ ऐसे रचनात्‍मक हादसे हुए है जब वे चाहकर भी बाद में अपना रचनात्‍मक लेखन नही कर पाती , यानी इस व्‍यस्‍तता से घबराकर जिसने लेखन तज दिया कि बाद में फुरसत में लिखेंगे मगर बाद में  पता नही किन कारणों से उनकी रचनात्‍मकता सूख जाती है और आजादी से , अपने एकांत में लिखने के सपने महज सूखे फूल की तरह गुमनामी के गर्त में चले जाते ।

वैचारिक प्रतिरोध पर रचनात्‍मकता में दखल देने का एक और बड़ा अड़ंगा आता है – तुम ऐसे क्रांतिकारी विचारों वाली कहानी या उपन्‍यास लिखती ही क्‍यों हो  ? बंद करो इस तरह के पुरूष विरेाधी लेख लिखना यानी ऐसे नही , वैसे लिखो जैसा हम चाहते हैं । हां , यहां पर लेखिकाओं को साफ शब्‍दों में अपने घर पर बताना होगा कि ये उसकी अपनी रची नितांत मौलिक दुनियां है जहां उसे किसी का दखल मंजूर नही । हरेक स्‍त्री को ये बात अपने तईं तय करनी होगी कि आजादी से लिखना उसका मूलभूत हक है जो उससे कोई नही छीन सकता , चाहे वह उसका कितना बड़ा हितैषी ही क्‍यों न हो । उसे रचनात्‍मक आत्‍मविश्‍वास के सहारे अपने रचे के प्रति पूरा भरोसा जरूर होना चाहिए । सच तो ये है कि लिखते वक्‍त हम वही नही रह जाते जो हैं यानी रचने के दरम्‍यान हमारा मनोजगत हमें किसी और ही दुनियां में खीच ले जाता है और यही है रचने का अनर्वचनीय सुख कि शब्‍दों के पन्‍नों पर उतरने के बाद मैं किसी खुशबूदार रंगीन फूल सा हल्‍की होकर उन्‍मुक्‍त उड़ान के लिए हाथ पैर फैलाकर निकल पड़ती हूं किसी अनजान से सफर पर , मस्‍ती के कुछ निजी पलों का आनंद लेने । गूंगे के गुड़ की तरह यह होता है वो अनिर्वचनीय आनंद जिसमें अवगाहन करता है रचनाकार और इस अमूर्त अनिर्वचनीय आनंद अहसास के साथ जीता है रचनाकार ।

आज के इस लोकतांत्रिक माहौल में स्‍त्री अस्मिता का स्‍वर अभी भी अनुसना ही रह जाता है और यही वजह है कि पितृसत्‍तात्‍मक व्‍यवस्‍था अपने वर्चस्‍व को चुनौती देती इन आवाजों को हाशिए पर धकेलने की साजिशें करने लगती। समग्रता में क्‍या है नारी अस्मिता ? ऊपरी तौर पर हमें नई स्‍त्री दृष्टि या स्‍त्री चेतना में महत्‍वपूर्ण बदलाव नजर तो आ रहा है बल्कि शुरूआती दौर में स्त्रियेां की स्थिति को लेकर बड़े बड़े नामचीन मुक्तिदाताओं ने क्रांतिकारी नारेबाजी की और इस तरह  हमारे देश में स्‍त्री दमन के प्रति विद्रोह व प्रतिरोध की चेतना दिनोंदिन जाग्रत होती गईं। धीरे धीरे जब हम स्‍त्री जीवन की ऊपरी चकाचौंध की अंदरूनी अंधेरी परतों की तरफ देखते हैं जहां पसरी है अनगिनत गैर बराबरी के प्रसंग , शिक्षा व अन्‍य जरूरी चीजों से वंचित कर दी गई इस आधी दुनिया के जीवन में पैठी विसंगतियों व विडंबनाओं की संश्लिष्‍ट तस्‍वीरें नजर आने लगती । स्‍त्री की सामाजिक हैसियत , आर्थिक पराधीनता एवं वृहत्‍तर संदर्भो में उसकी भूमिका आज भी दोयम दर्जे की है , इसमें जरा भी संदेह नही। बेशक कुछ मायनों में उसकी बेहतर समझ बनी है व उनकी संवेदना का विस्‍तार भी हुआ है जिसके मूल में था उसका शिक्षित होकर  स्‍वालंबन की दिशा में बढाया गया सेाचा समझा कदम  पर क्‍या सही मायनों में इस आजादी की आंच हमारे सुदूर गांवों , कस्‍बों या दूर दराज के छोटे छोटे कस्‍बों में भी उतनी ही धमक से पहुंच पा रही हैं। क्‍या एक आजाद , स्‍वायत्‍त मनुष्‍य की तरह अपना फैसला खुद लेकर मजबूती से आगे बढ़ने की हिम्‍मत हैं उसमें ? उसके मूलभूत अधिकार व आत्‍म निर्णय की पराधीन स्थितियां तो जस की तस है । पुरूष वर्चस्‍ववाद से जूझकर अपने जीवन की चुनौतियों से खुद निबटने का बूता उसके अंदर आता है तभी वे बदले सामाजिक , राजनैतिक व आर्थिक मार्चे पर पूरी निडरता व निधड़कता से स्‍वत्‍व की जमीन पर पैर टेक पाएंगी ।

आधुनिकता की चपेट में बढ़ते पूंजीवाद और विश्‍व स्‍तर पर फैल रहे बाजारवाद ने  स्‍त्री जीवन को चारों तरफ से प्रभावित किया और एक विभ्रम की स्थिति पैदा कर दी जिससे ऐसा आभास होता है कि इस रास्‍ते वे ज्‍यादा आजाद हुईं हैं लेकिन यह बड़ा अंतर्विरोध है कि स्‍त्री आजादी के नाम पर वहां एक बहुत बड़ी साजिश रची गईं यानी उन्‍मुक्‍त यौनाचार वनाम दैहिक स्‍वतंत्रता के नाम पर वे धीरे धीरे पुरूष की भोगवादी लालसा का शिकार होती गईं। कहां कम हुआ इससे पुरूष वर्चस्‍ववाद ? सजग , सचेत व आत्‍मनिर्णय से लैस तेजस्‍वी  स्‍त्री क्‍या यही थी ? स्‍त्री की स्‍वतंत्र गरिमा , उसकी सामाजिक सक्रियता व सरोकारों वाली भूमिका क्‍या समग्रता में हमारे सामने आ पाई है , पूरी तरह तो ये सच नही है । बाजारवाद एवं बढ़ते भौतिकतावाद की चपेट में स्‍त्री की सामाजिक हैसियत या मानसिक धरातल पर कहीं कुछ बदलाव नजर आता है ? क्‍या आज वह अपने बूते अपनी पसंद के करियर का चुनाव कर , अपनी पसंद के साथी के साथ अपनी मर्जी से रहने या सिंगल जीवन बिताने का या स्‍वतंत्रता कायम करने की रहा पर चलने में सक्षम हो पायी है ? शायद नही ,  आए दिन होने वाले मर्डर इस बात के गवाह है कि , आज भी वे अपनी मर्जी से जीवन जीने का जोखिम उठाएंगी तो पुरूष सत्‍ता उनकी हत्‍या कर सकती है ।

बेशक समाज बदल रहा है मगर यथार्थ की परतें कितनी बहुआयामी व जटिल हैं जिन्‍हें भेदकर अंदरूनी सचाई तक पहुंच पाना आसान नही। आज के इस रंगीन समय में नई बढ़ती चुनौतियों से टकराती स्‍त्री की क्रान्तिकारी आवाजें हम सबको सुनाई दे रही हैं मगर यही कमाऊ स्‍त्री जब समान अधिकार और परिवार में लोकतंत्र की अनिवार्यता पर बहस करती य सही मायनों में लोकतंत्र लाना चाहती तो वहां इस बदलाव की राह में तमाम पगबाधाएं मसलन-  धर्म , भारतीय संस्‍कृति , समर्पण , सहनशीलता , नैतिकता या यौनशुचिता जैसे सामंती मूल्‍य ही उसकी स्‍वीकार्यता की कुंजी बनते रहे। जहां आधिपत्‍य , दमन और अवमानना के इस समूचे पितृसत्‍तात्‍मक मूल्‍य व्‍यवहार से टकराती आजाद देश की नई स्‍वतंत्र स्‍त्री को लगता था कि चलो , अब कामकाजी माहौल में वे आत्‍मसम्‍मान और व्‍यक्तित्‍व की आत्‍मपर्याप्‍तता को मिले स्‍पेस के चलते स्‍त्री स्‍वाधीनता का भरपूर लुत्‍फ उठाएंगी मगर आज के बाजारवाद द्वारा परोसी गई स्‍त्री छवियों ने हमारे सामने सुंदर स्‍त्री के नकली चेहरे कौंध जाते हैं जिन्‍हें देखकर तमाम सवाल तेजी से बेचैन करने लगते। आखिर ऐसा क्‍या हैं इनमें ? अपेक्षित दृष्टि सम्‍पन्‍नता  , प्रचुर आत्‍मविश्‍वास या आत्‍मबल से भरी पूरी अस्मिता के नए निशान लगाती आधी दुनियां हैं क्‍या यहां ? नही , कतई नही। जब भी वह अपने लिए मुकम्‍मल स्‍पेस या बाजिब हक की बात छेड़ती , उसे पुरूष विद्रोही या घर तोड़ू जैसे अनर्गल आरोपों से मढ़कर उसका मनोबल तोड़कर आगे बढ़ने से हतोत्‍साहित किया जाता है जब कि ये पूर्वाग्रही सोच सिर से निर्मूल या आधारहीन है।

समकालीन लेखिकाओं ने पुरूष वर्चस्‍ववाद के खिलाफ परंपरागत रूढि़यों व टिपिकल मर्दवादी मानसिकता को तोड़ने का रचनात्‍मक साहस दिखाया। उन्‍हेांने पुरूष संरचना व पुरूष द्वारा गढ़े एक तरफा मूल्‍येां व मान्‍यताओं को सिरे से नकारते हुए स्‍त्री जीवन को सर्वथा नए कोण से रचा व सालों से दबाई उसकी आवाज को उसी की जुबान में शब्‍द मिले , नई भाषा मिली और नया लोकतांत्रिक  नजरिया भी जिसमें उनकी कठपुतली वाली नकली छवि को पूरी ताकत से तोड़ा गया ।  प्रेम , विवाह व करियर के बीच संघर्ष करती स्‍त्री की एक नयी जीवंत तस्‍वीर सामने आई और स्‍त्री मुक्ति को नयी दिशा मिली ।

घर से बाहर निकल कमाऊ स्‍त्री को आसान आजाद औरत समझ उसे हथियाने के लिए पितृसत्‍ता ने तमाम हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए। लोभ लालच के वशीभूत करने की साजिशें रची गयी या भावात्‍मक दोहन के जाल बिछाए गए जिसे बखूबी उजागर करने के लिए लेखिकाओं की एक नई जमात उभरकर आयीं –सशक्‍त कथा लेखिकाओं ने सक्रिय स्‍त्री के प्रतिरोध को व्‍यापक संदर्भो में मुखरित किया जिसमें उसकी सामाजिक , आर्थिक व राजनैतिक हैसियत को आंकते हुए उसकी त्रासदी के जिम्मेदार कारकों की सघन पड़ताल की गयी कि वे अब अपनी तरह से सोचने लगीं हैं व तमाम चुनौतियेां से निबटने में सक्षम हैं । बेशक इस प्रक्रिया में कई वर्जनाएं टूटी मगर उस पर लादे गए अनावश्‍यक दबाव भी कमतर होते गए। जिस तरह से उसकी पारिवारिक परिवेश ने सालों तक उसकी मानसिकता को आक्रांत कर रखा था , धीरे धीरे अब वे अपने हकों से वाकिफ होती गई। अपने सपनों व निजी आकांक्षाओं को गतिशीलता से आगे बढ़ाती आज की स्‍त्री पूरी विविधता व समग्रता से अपना आकाश तलाशना सीख रही हैं। क्रमश: आजाद देश  की स्त्रियां आईटी , सेना , एअरफोर्स , चिकित्‍सा , इंजीनियरिंग , वैज्ञानिक , बैंकर , विश्‍वविद्यालय में प्रोफेसर , पुलिस अधिकारी या समाज सुधारक आदि न जाने किन किन भूमिकाओं में कामयाबी के शिखर छू रही हैं। ऐसा कोई क्षेत्र नही जहां आज की महिलाओं ने अपनी छाप न छोडी हो। कह सकते हैं कि आधी नही , पूरी दुनियां हमारी हैं। सारा आकाश हमारा हैं। कितनी संभावनाओं से लैस है आज की महिला मगर कितनी जकड़बंदियां भी जिन्‍हें उसे सिरे से नकारना होगा । अपनी संभावनाओं के प्रति सचेत रहकर ही वह इस परिवार या समाज व्‍यवस्‍था में अपना बहुमूल्‍य वैचारिक व अन्‍य तरी‍के से सशक्‍त व सार्थक योगदान देकर अपनी जगह बना सकती है ।

सच तो ये है कि आधुनिक स्‍त्री की स्‍वाधीन छवि के प्रति समाज / परिवार अभी भी पूरी तरह तैयार नजर नही आते मगर हां , उपभोक्‍ता संस्‍कृति उसे प्रयोज्‍य वस्‍तु की तरह जरूर इस्‍तेमाल करने से नही हिचक रही। सच बताएं तो इस ऊपरी चकाचौंध के पीछे की तस्‍वीरें इतनी कुरूप हैं , इतनी भयावह और वितृष्‍णा जगाने वाली हैं जहां आज भी अखबार ऐसी जघन्‍य बलात्‍कार की घटनाओं से रंगे रहते। सच है कि आए दिन अखबार महिलाओं के प्रति अपराधों से भरे रहते। फिर ये कैसी आजादी ? क्‍या वाकई लोकतंत्र नजर आता है ? चारों तरफ स्‍त्री को लेकर होने वाले अपराधों की खबरें ही खबरें , हत्‍या से आत्‍महत्‍या तक , घर की गली से अगले मोड़ तक , मोड़ों से आगे मिलती लंबी सड़क से राष्‍ट्रीय राजमार्ग तक , सब तरफ बैठे हैं गिद्ध ही गिद्ध , बेहद हिंसक , गैर जिम्‍मेदार , क्रूर एवं प्रभुता के मद में चूर , उन्‍हें अपनी पशुता का अहसास तक नही , मलाल तो दूर की बात हैं , जो अपनी प्रेमिका को पाने की खातिर अपनी मरती हुई पत्‍नी की चीखें सुनना चाहता हैं , ओफ . . सच तो ये है कि महिलाओं के प्रति पुरूषों की सोच इतनी घटिया , संकरी , इकहरी  और पूर्वाग्रही है कि आज भी उनका हंसना , बोलना या अकेले अपनी मर्जी से घूमना फिरना सवालों के घेरे में। आए दिन गैंग रेप की हिंसक वारदातें , स्‍त्री प्रताड़ना के दिल दहलाने वाले खौफनाक सच्‍चे कारनामे इस सभ्‍य सुसंस्‍कृत समाज के माथे पर कलंक का टीका है जो हमारे लोकतंत्र व न्‍यायव्‍यवस्‍था को कटघरे में खड़ा कर देता है।  . ।  प्रेम , विवाह व करियर के बीच संघर्ष करती स्‍त्री को उसका वाजिब हक कब और कैसे मिलेगा , आज भी एक ज्‍वलंत सवाल है।

कई भूमिकाओं का कुशलतापूर्वक निर्वहन करती स्‍त्री पूरे दम खम के साथ आत्‍मविश्‍वास की जलती लौ के सहारे न जाने कितनी पीढि़यों को ऊर्जस्वित रखती आई हैं। आज के बहुआयामी यथार्थ की देहरी पर उसके जीवंत व तेजस्‍वी व्‍यक्तित्‍तव की दस्‍तक सुनाई देने लगी हैं जहां वह अपनी सोच को पर्याप्‍त आधार देते हुए परिवार व समाज में बहुमुखी प्रतिभा की छाप छोड़ने लगी हैं सो अब उसे और ज्‍यादा दरकिनार कर हाशिए पर नही ठेला जा सकता।

स्‍त्री की सच्‍ची स्‍वाधीनता का अहसास तभी हो पाएगा जब वह आजाद मनुष्‍य की तरह भीतरी आजादी को महसूस करे , तभी सही मायनों में वह एक खुदमुख्‍तार मजबूत इंसान की तरह समाज की मुख्‍य धारा में अपनी सशक्‍त भूमिका निभा पाएगी। न , केवल आर्थिक आजादी सही मायनों में आजादी का पर्याय नही बल्कि सामाजिक , राजनैतिक परिप्रेक्ष्‍य में उसकी ठोस भागीदारी एवं मनुष्‍यता के समान अधिकारों से लैस समानता चाहिए , संरक्षण नही ।

रजनी गुप्‍त

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ISSN 2394-093X
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