महाश्वेता देवी की जंग का फ़ैसला , 25 साल बाद

महाश्वेता देवी की जंग का फ़ैसला , 25 साल बाद बुधन सबर को इंसापस थाने में टॉर्चर कर मारने वाले पुलिस कर्मी को 8 साल की सजा
महाश्वेता देवी की जंग का फ़ैसला , 25 साल बाद बुधन सबर को इंसापस थाने में टॉर्चर कर मारने वाले पुलिस कर्मी को 8 साल की सजा
25 साल और 10 दिन । ना बुधन ज़िंदा है और ना अन्याय के खिलाफ जंग करने वाली महाश्वेता देवी । ज़िंदा है तो इंसाफ और दोषी । पुरलिया के जज साहब ने तमाम बीमारियों से ग्रसित 71 साल के पुलिस अधिकार अशोक रॉय जैसे ही सजा सुनाई वैसे ही बुधन सबर की आत्मा को शांति मिल गई । 35 साल पुराना ये मामला डिनोटिफाइड ट्राइब्स के लिए मील का पत्थर है । पहली बार ऐसा हुआ है जब पुलसिया अत्याचार के शिकार किसी डीएनटी के मामले में दोषियों को सजा मिली है । बुधन सबर जैसा की नाम से ही ज़ाहिर है की कथित सभ्य समाज से उसका कोई लेना देना नहीं था । बुधवार को पैदा हुआ इसलिए माँ-बाप ने बुधन ही नाम रख दिया । बुधवार को पैदा हुआ और बुधवार 1998 को ही मौत की खबर आई । बुधन की मौत बहुतों के लिए सामान्य थी । पुलिस कस्टडी में मौत । 20वीं शताब्दी में बहुत आम बात थी । और आदिवासियों और आदिम जनजातियों के लिए तो बहुत ही सामान्य बात । ऊपर से अगर किसी जमाने में डिनोटीफाइड ट्राइब्स का दाग रहा हो तब तो जरा भी फ़िक्र की बाद नहीं । मगर बुधन थाने में मार डाला गया था । बुधन की पत्नी श्यामली सबर को बर्दाश्त नहीं हुआ । उसने ऐसी जंग की शुरुआत की जिसमें जीतना नामुमकिन जैसा था । मैग्सेस पुरस्कार से सम्मानित और आदिवासियों के लिए जीवन समर्पित करने वाली महाश्वेता देवी का साथ नहीं मिलता तो ये जंग कब की खत्म हो जाती। थका देने वाली ये लंबी लड़ाई 35 साल तक पुरलिया की अदालत में चलती रही । 10 फ़रवरी 1998 को बुधन को बेवजह पुलिस ने पकड़ कर थाने में पाँच दिनों तक रख इतना टॉर्चर किया कि उसकी मौत हो गई । बुधन के लिए इंसाफ की माँग करने वाले दक्षिण छारा बजरंगे ने बुधन थियेटर के ज़रिए डिनोटिफाइड ट्राइब्स की आवाज बहरी दुनिया के कानों तक पहुँचाने की शुरुआत की । मगर मुख्यधारा की मीडिया के लिए ये कोई खबर नहीं है । कस्टोडियल डेथ में पुलिस वाले को सजा मिली है । बुधन को इंसाफ मिला है । खबर कहीं नहीं ।

कहानी शुरु होती है आज से पच्चीस साल पहले 10 फ़रवरी 1998 को । पुरलिया के बामुंडिया में बुधन सबर अपनी पत्नी श्यामली के साथ साइकिल पर बैठ अपने रिश्तेदार के घर भंगारडीह किसी समारोह में जा रहा था । क़रीब तीन चार बजे जैसे ही उसने पान खाने के लिए साइकिल दुकान पर साइकिल रोकी बाइकसवार पुलिस वाला ने उसे कॉलर से पकड़ कर खींच कर थाने ले जाने लगा । बुधन की पत्नी ने रोकने की कोशिश की लेकिन वो नहीं रूका । किसी तरह निजी बस से बुधन की पत्नी श्यामली बड़ा बाज़ार थाने पहुँची तो देखा कि बड़ी बेरहमी से पिटाई की जा रही है । उसने गुहार लगाई । मगर पुलिस वाले नहीं रुके । वो घर आ गई । सबर समिति से मदद की गुहार लगाई । इसी बीच 13 फरवरी 1998 को पुलिस बुधन के घर आई और डकैती और चोरी के सामान की तलाशी के नाम पर घर अस्त व्यस्त कर दिया । बुधन की पत्नी मना करती रही लेकिन पुलिस वाले नहीं माने । चोरी का कोई सामान घर से बरामद नहीं हुआ। पुलिस लौट गई । इस बीच श्यामली ने डीएम, एसपी समेत जिले के तमाम अधिकारियों से गुहार लगाई मगर किसी ने नहीं सुनी। इसी बीच 18 फरवरी 1998 को बुधन के घर पुलिस आती है और जानकारी देती की बुधन ने थाने में सुसाइड कर लिया है । हंगामा हुआ । विरोध हुआ तो 27 फरवरी को थाने में हत्या समेत कई धाराओं में केस दर्ज किया गया। फिर भी कार्रवाई नहीं होते देख लेखिका महाश्वेता देवी कोलकाता हाईकोर्ट पहुँची तो जाँच सीबीसआई को सौंपी गई । साल दर साल बीतते गए । फ़र्ज़ी गवाह, दस्तावेज और तमाम हथकंडों के सहारे तारीख पर तारीख़ मिलती गई । बांस की टोकरियाँ बनाने वाले एक सबर के लिए इतने दिनों तक अदालतों के चक्कर लगाने कितना मुश्किल होता अगर इसमें अभियोजन पक्ष के गवाह और सबर कल्याण समिति के प्रशांता रक्षित और महाश्वेता देवी की पहल नहीं होती । महाश्वेता देवी तो अब इस दुनिया में नहीं रहीं, फिर अदालत ने सत्तर पन्ने के फैसले में उनके योगदान का जिक्र करते हुए माना है कि वो अगर नहीं होती तो इंसाफ की ये लड़ाई जारी नहीं रहती । पुलिस ने बुधन के शव को जला सबूत नष्ट करने की भी कोशिश की लेकिन सबर कल्याण समिति की जागरूकता ने अहम सबूत नहीं मिटने दिया । 25 साल 10 दिनों के बाद बुधन सबर के दोषी अशोक रॉय को अदालत ने आईपीसी की धारा 306 के तहत 8 साल की और धारा 330 के तहत 5 साल की सजा सुनाई । दोनों धाराओं में कुल मिलाकर 50 हज़ार रुपए का जुर्माना भी लगाया गया ।
25 साल और 10 दिन । ना बुधन ज़िंदा है और ना अन्याय के खिलाफ जंग करने वाली महाश्वेता देवी । ज़िंदा है तो इंसाफ और दोषी । पुरलिया के जज साहब ने तमाम बीमारियों से ग्रसित 71 साल के पुलिस अधिकार अशोक रॉय जैसे ही सजा सुनाई वैसे ही बुधन सबर की आत्मा को शांति मिल गई । 35 साल पुराना ये मामला डिनोटिफाइड ट्राइब्स के लिए मील का पत्थर है । पहली बार ऐसा हुआ है जब पुलसिया अत्याचार के शिकार किसी डीएनटी के मामले में दोषियों को सजा मिली है । बुधन सबर जैसा की नाम से ही ज़ाहिर है की कथित सभ्य समाज से उसका कोई लेना देना नहीं था । बुधवार को पैदा हुआ इसलिए माँ-बाप ने बुधन ही नाम रख दिया । बुधवार को पैदा हुआ और बुधवार 1998 को ही मौत की खबर आई । बुधन की मौत बहुतों के लिए सामान्य थी । पुलिस कस्टडी में मौत । 20वीं शताब्दी में बहुत आम बात थी । और आदिवासियों और आदिम जनजातियों के लिए तो बहुत ही सामान्य बात । ऊपर से अगर किसी जमाने में डिनोटीफाइड ट्राइब्स का दाग रहा हो तब तो जरा भी फ़िक्र की बाद नहीं । मगर बुधन थाने में मार डाला गया था । बुधन की पत्नी श्यामली सबर को बर्दाश्त नहीं हुआ । उसने ऐसी जंग की शुरुआत की जिसमें जीतना नामुमकिन जैसा था । मैग्सेस पुरस्कार से सम्मानित और आदिवासियों के लिए जीवन समर्पित करने वाली महाश्वेता देवी का साथ नहीं मिलता तो ये जंग कब की खत्म हो जाती। थका देने वाली ये लंबी लड़ाई 35 साल तक पुरलिया की अदालत में चलती रही । 10 फ़रवरी 1998 को बुधन को बेवजह पुलिस ने पकड़ कर थाने में पाँच दिनों तक रख इतना टॉर्चर किया कि उसकी मौत हो गई । बुधन के लिए इंसाफ की माँग करने वाले दक्षिण छारा बजरंगे ने बुधन थियेटर के ज़रिए डिनोटिफाइड ट्राइब्स की आवाज बहरी दुनिया के कानों तक पहुँचाने की शुरुआत की । मगर मुख्यधारा की मीडिया के लिए ये कोई खबर नहीं है । कस्टोडियल डेथ में पुलिस वाले को सजा मिली है । बुधन को इंसाफ मिला है । खबर कहीं नहीं ।

कहानी शुरु होती है आज से पच्चीस साल पहले 10 फ़रवरी 1998 को । पुरलिया के बामुंडिया में बुधन सबर अपनी पत्नी श्यामली के साथ साइकिल पर बैठ अपने रिश्तेदार के घर भंगारडीह किसी समारोह में जा रहा था । क़रीब तीन चार बजे जैसे ही उसने पान खाने के लिए साइकिल दुकान पर साइकिल रोकी बाइकसवार पुलिस वाला ने उसे कॉलर से पकड़ कर खींच कर थाने ले जाने लगा । बुधन की पत्नी ने रोकने की कोशिश की लेकिन वो नहीं रूका । किसी तरह निजी बस से बुधन की पत्नी श्यामली बड़ा बाज़ार थाने पहुँची तो देखा कि बड़ी बेरहमी से पिटाई की जा रही है । उसने गुहार लगाई । मगर पुलिस वाले नहीं रुके । वो घर आ गई । सबर समिति से मदद की गुहार लगाई । इसी बीच 13 फरवरी 1998 को पुलिस बुधन के घर आई और डकैती और चोरी के सामान की तलाशी के नाम पर घर अस्त व्यस्त कर दिया । बुधन की पत्नी मना करती रही लेकिन पुलिस वाले नहीं माने । चोरी का कोई सामान घर से बरामद नहीं हुआ। पुलिस लौट गई । इस बीच श्यामली ने डीएम, एसपी समेत जिले के तमाम अधिकारियों से गुहार लगाई मगर किसी ने नहीं सुनी। इसी बीच 18 फरवरी 1998 को बुधन के घर पुलिस आती है और जानकारी देती की बुधन ने थाने में सुसाइड कर लिया है । हंगामा हुआ । विरोध हुआ तो 27 फरवरी को थाने में हत्या समेत कई धाराओं में केस दर्ज किया गया। फिर भी कार्रवाई नहीं होते देख लेखिका महाश्वेता देवी कोलकाता हाईकोर्ट पहुँची तो जाँच सीबीसआई को सौंपी गई । साल दर साल बीतते गए । फ़र्ज़ी गवाह, दस्तावेज और तमाम हथकंडों के सहारे तारीख पर तारीख़ मिलती गई । बांस की टोकरियाँ बनाने वाले एक सबर के लिए इतने दिनों तक अदालतों के चक्कर लगाने कितना मुश्किल होता अगर इसमें अभियोजन पक्ष के गवाह और सबर कल्याण समिति के प्रशांता रक्षित और महाश्वेता देवी की पहल नहीं होती । महाश्वेता देवी तो अब इस दुनिया में नहीं रहीं, फिर अदालत ने सत्तर पन्ने के फैसले में उनके योगदान का जिक्र करते हुए माना है कि वो अगर नहीं होती तो इंसाफ की ये लड़ाई जारी नहीं रहती । पुलिस ने बुधन के शव को जला सबूत नष्ट करने की भी कोशिश की लेकिन सबर कल्याण समिति की जागरूकता ने अहम सबूत नहीं मिटने दिया । 25 साल 10 दिनों के बाद बुधन सबर के दोषी अशोक रॉय को अदालत ने आईपीसी की धारा 306 के तहत 8 साल की और धारा 330 के तहत 5 साल की सजा सुनाई । दोनों धाराओं में कुल मिलाकर 50 हज़ार रुपए का जुर्माना भी लगाया गया ।
बुधन के मुक़दमे में पुलिस किस कदर बर्बर हो चुकी थी इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बुधन के शव को जबरन जलाने जब पुलिस पहुंची तो पत्नी और केरिया सबर कल्याण समिति ने पुरज़ोर विरोध किया । बुधन की पत्नी श्यामली ने शव को झोपड़ी में ही दफ़ना दिया और रात भर उसपर सोई रही । बाद में कोर्ट के आदेश के बाद शव निकाला गया पोस्टमार्टम किया गया । बुधन की मौत के बाद ही फ़िल्मकार और डिनोटिफाइड ट्राइब्स के लिए संघर्षरत दक्षिण छारा बजरंगे ने महाश्वेता देवी की पहल पर बुधन थियेटर बनाया और नाटकों के ज़रिए पुलिसिया अत्याचार की कहानी लोगों तक पहुँचाई। पच्चीस साल बाद आए इस फ़ैसले ने जहां सबर समेत तमाम दलित आदिवासियों के खिलाफ हुए सरकारी अत्याचार के लिए सबक़ है वहीं इस समुदाय के लिए बहुत बड़ी जीत । श्यामली सबर अभी भी अपने दो बेटों , एक बेटी और पोतों के साथ पुरूलिया में रहती है।

बुधन के मुक़दमे में पुलिस किस कदर बर्बर हो चुकी थी इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बुधन के शव को जबरन जलाने जब पुलिस पहुंची तो पत्नी और केरिया सबर कल्याण समिति ने पुरज़ोर विरोध किया । बुधन की पत्नी श्यामली ने शव को झोपड़ी में ही दफ़ना दिया और रात भर उसपर सोई रही । बाद में कोर्ट के आदेश के बाद शव निकाला गया पोस्टमार्टम किया गया । बुधन की मौत के बाद ही फ़िल्मकार और डिनोटिफाइड ट्राइब्स के लिए संघर्षरत दक्षिण छारा बजरंगे ने महाश्वेता देवी की पहल पर बुधन थियेटर बनाया और नाटकों के ज़रिए पुलिसिया अत्याचार की कहानी लोगों तक पहुँचाई। पच्चीस साल बाद आए इस फ़ैसले ने जहां सबर समेत तमाम दलित आदिवासियों के खिलाफ हुए सरकारी अत्याचार के लिए सबक़ है वहीं इस समुदाय के लिए बहुत बड़ी जीत । श्यामली सबर अभी भी अपने दो बेटों , एक बेटी और पोतों के साथ पुरूलिया में रहती है।

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ISSN 2394-093X
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