पत्रकारिता जगत में जातीय भेदभाव से जूझ रहे दलित-पिछड़े पत्रकारों की कहानी

वरिष्ठ पत्रकार जितेंद कुमार ने अपने फेसबुक पोस्ट में पत्रकारिता जगत में जातिगत भेदभाव का एक मुद्दा वरिष्ठ पत्रकार अजित शाही के एक पोस्ट के बहाने उठायी है। स्त्रीकाल के पाठकों के लिए साभार।

“अमेरिका रहते हुए दो साल हुए थे. मैं एक इंटरव्यू पैनल में था. कैंडिडेट से सवाल जवाब चल रहे थे. मैंने पूछ लिया, “How old are you?” क्योंकि एप्लिकेशन पर डेट ऑफ़ बर्थ नहीं लिखी थी.
इंटरव्यू ख़त्म होने के बाद फ़ौरन इंटरव्यू पैनल के चीफ़ मुझे बोले, “ये अमेरिका है. यहाँ आप किसी भी उम्मीदवार से उम्र, वैवाहिक स्टेटस, धर्म, परिवार, आदि के बाबत कोई पर्सनल सवाल नहीं कर सकते. आइंदा ऐसा मत करिए.
लखनऊ से चौवालीस साल पहले अमेरिका आए एक प्रोफ़ेसर साहब से पिछले दिनों बातचीत हुई. अपने करियर में प्रोफ़ेसर साहब बहुत सफल हैं. उनको बाइडेन सरकार में डेपुटेशन पर रखा गया है.
प्रोफ़ेसर साहब मुझे बोले,

“अजित भाई. चालीस सालों से यहाँ अमेरिका में काम कर रहा हूँ. काम करने की जगह पर आज तक किसी ने मुझसे नागरिकता नहीं पूछी. हम यहाँ किसी की भी नागरिकता नहीं पूछते हैं.”

कहने लगे,

“जिन मुल्कों से अमेरिका की दुश्मनी रही है जैसे ईरान वहाँ से भी आए लोगों के साथ मैंने काम की जगह भेदभाव नहीं देखा है. हमें अंदाज़ा है कि फ़लाना ईरानी मूल का है लेकिन न हमें पूछने का हक़ है और न ही सरकारी तौर पर ये शेयर किया जाता है कि उनका मूल क्या है.”

मेरा निज अनुभव यही है. चार साल से अमेरिका में रह रहा हूँ. किसी दफ़्तर में, दुकान में, पड़ोस में किसी ने आज तक इनडायरेक्टली भी जानने की कोशिश नहीं की कि मैं किस मूल का हूँ.
मेरी पोस्ट पर आपत्ति जताने वाले मित्रों को पहले ही बता देता हूँ कि ये मेरा निजी अनुभव है. आप मुझे गैसलाइट न करें कि मेरा अनुभव ग़लत है और अमेरिका के बारे में आपके आयडियोलॉजिकल पूर्वाग्रह ही सही हैं.
Ajit Sahi के पोस्ट को आगे बढ़ाते हुए

‘मी टूः’ न्यूज रुम में जाति

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अपने देश, खासकर गर्व करनेवाले गोबरपट्टी में हम नाम इसलिए पूछते हैं कि सामने वाले की जाति व धर्म का पता चल जाए (वैसे भी, धर्म तो पहले से ज्ञात ही रहता है). पूछनेवालों को पहली दिक्कत तब होती है जब नाम से उसकी जाति का पता नहीं चलता है, फिर वह महान आत्मा बाप (मां का नहीं) का नाम पूछता है, उससे भी पता नहीं चलता है तो प्रांत, जिला या उस सामनेवाले के लोकल रिहाइश तक पहुंचता है, फिर वहां के जातीय समीकरण का अनुमान लगाकर आपकी जाति जानने की भरसक कोशिश करता है, फिर भी असफल होता है तो अंत में यह कहते हुए पूछ ही लेता हैः ‘वैसे मेरा इस सबमें कोई विश्वास नहीं है, और हम बिल्कुल नहीं मानते हैं लेकिन आप कौन जाति या समाज से आते हैं?’
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मैं अपना एक निजी अनुभव यहां शेयर करना चाहता हूं.

साल ठीक से याद नहीं (शायद 2002-03 हो सकता है), लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे. मैं एक सज्जन से नौकरी के सिलसिले में उनसे मिलने उनके दफ्तर गया था. उपर लिखी सारी बातें मेरे साथ भी हुई. अगर उनमें धैर्य होता तो शुरु में ही पता चल जाता कि मेरी जाति क्या है, क्योंकि मेरे बायोडेटा में इसका जिक्र है, चूंकि मैंने अपना सीवी उनको मेल पर भेजा था और अटैचमेंट में था और शायद वे सज्जन उस समय तक इतने भिज्ञ नहीं थे कि तत्काल सीवी को खोलकर देखा जा सकता है इसलिए इनको काफी कवायद करनी पड़ी और अंततः मुझसे पूछकर मेरी जाति जान ली गयी थी!
तब तक लगभग दस मिनट का वक्त गुजर चुका था, उन्होंने मेरे लिए चाय भी मंगवा ली थी और वास्तव में इंटरव्यू का सिलसिला शुरु हो गया था.

उन्होंने मुझसे पूछ लिया था कि मेरा वैचारिक रूझान क्या है और मैंने उन्हें बता भी दिया था कि मैं वामपंथी हूं या कह लीजिए कि अति वामपंथी हूं. चूंकि उनको पता चल गया था कि- मैं यादव हूं- इसलिए उनका सवाल था कि मुझे लालू यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव में कौन पसन्द है? इसपर मेरा जबाव था-तीनों. मेरे इस जबाव से उन्होंने आश्चर्य वक्त किया और चौंकते हुए पूछा-क्यों? इसपर मैंने उनसे कहा, ‘ठीक वैसे ही, जैसे आपको अटल बिहारी वाजपेयी पसन्द है!’

मेरे इस वाक्य पर उन्होंने हल्के से प्रतिवाद किया और कहा कि यार देखो, पूरी तरह मैं उन्हें पसन्द नहीं करता हूं लेकिन यह बताओ, उनके स्टेचर का नेता अभी देश में कोई है क्या? लेकिन आपको तीनों क्यों पसन्द है? इसपर मैंने उनसे कहा कि सर, आपको वाजपेयी तो सिर्फ जातीय आधार पर पसन्द है न, वैचारिक रुप से तो आप कांग्रेसी है और आप जानते हैं कि वाजपेयी न सिर्फ घटिया राजनीतज्ञ है बल्कि बहुत ही अलोकतांत्रिक व अलोकतांत्रिक संगठन से जुड़ा है जो देश में एक समुदाय के रहने के पूरी तरह खिलाफ है, जो संविधान विरोधी काम है (शब्द पूरी तरह याद नहीं है लेकिन भावार्थ बिल्कुल यही थे). लेकिन लालू यादव ने संविधान की रक्षा के लिए लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया था और मुलायम सिंह यादव ने संविधान को बचाने के लिए कार सेवकों पर गोलियां चलवायी थीं (मैंने शरद यादव के बारे में कुछ नहीं कहा क्योंकि तबतक वह एनडीए का हिस्सा बन चुके थे और उनके बचाव में मेरे पास कोई तर्क नहीं था सिवा इसके कि शरद यादव ने मंडल आयोग को लागू करवाया था).

वैसे वे तीनों ऐसे लोग हैं जिन्होंने गैरसंवैधानिक कुछ भी नहीं किया है. आपको यह भी पता है कि वामपंथी हूं फिर भी आप मुझसे मेरी जाति से जोड़कर सवाल पूछ रहे हैं और अपेक्षा करते हैं कि मैं आपके नजरिए से तीनों को बदमाश, भ्रष्टाचारी व अपराधियों को शरण देनेवाला बताऊं? आपलोगों की जातिवादी सोच जाती ही नहीं है. इतना सुनाने-सुनने से शायद वे दंग रह गये थे. उन्हें शायद कल्पना ही नहीं थी कि कोई याचक (हिन्दी पत्रकारिता में पत्रकारों की हैसियत उस समय तो याचक की होती ही थी, संभवतः आज भी पुराने लोगों के सामे यही है) नौकरी की परवाह किए बगैर इतना खरी-खरी बोल सकता है!
मैंने उनसे चाय पिलाने के लिए उन्हें धन्यवाद भी कहा और बाहर निकलने लगा, फिर उन्होंने मुझे बैठाने की कोशिश की और कहा कि आपके साथ काम करके मजा आएगा, बताइए आप क्या-क्या करना चाहेंगे? मैंने विनम्रता से नहीं लेकिन साफगोई से कह दिया कि मुझे आपके साथ काम करने में बड़ी परेशानी होगी और मैं परेशानी में काम नहीं कर पाता हूं. फिर मैं वहां से निकल आया.

बाद में तो ‘न्यूज रुम में जाति’ को लेकर अनिल चमड़िया और योगेन्द्र यादव के साथ जो सर्वे किया उसके बाद तो अपवादों को छोड़कर हिन्दी के सभी सवर्ण पत्रकारों का जानी दुश्मन ही बन गया. हां, अंग्रेजी वालों ने उस रुप में मेरे साथ जातीय भेदभाव नहीं किया जो हिन्दी के बड़े-बड़े व ‘प्रखर’ पत्रकारों, संपादकों व बुद्धिजीवियों ने की है! एक बात और, इस जातीय भेदभाव को मैंने सहा है, एक ओबीसी होकर, तो दलितों के साथ कितना भेदभाव होता होगा, इसका अंदाजा लगाइए!
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सभी के कुछ न कुछ अनुभव होंगे-खासकर पत्रकारिता में जूझ रहे पत्रकारों की. अगर मीडिया में मौजूद न्युनतम दलित-पिछड़ों की अपनी कोई कहानी हो तो उसे शेयर करें जिससे कि बात अधिक लोगों तक पहुंचे!

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