योनि शुचिता: स्त्री की देह पर पितृसत्ता के नियंत्रण का परिणाम

लेखिका आशा काचरू ने ' देह पर समाज, जाति, धर्म के नियंत्रण और देह शुचिता के कंसेप्ट के कारण महिलाओं पर अतिरिक्त शुचिता और नैतिकता के भार को चिह्नित करते हुए बताया कि योनि पर पवित्रता की जिम्मेवारी थोपने के कारण महिलाओं की दोयम स्थिति बनती है। देह संबंधों के प्रति अजनबियत भी पुरुषों की बलात्कारी कुंठा को बढ़ावा देता है।

देह-स्त्री और पुरुष दोनो की, परिवार, समाज और स्टेट की राजनीति के द्वारा निर्देशित और शासित होती है। स्त्रियों की देह को अधिक राजनीतिकरण का शिकार होना पड़ा है। उनकी यौनिकता पर पितृसत्तात्मक कब्जा और निर्देशन अधिक गहरा है। समाज, राज्य, परिवार, बाजार, सब उसकी निजता और उसकी देह पर उसकी अपनी एजेंसी को खत्म कर अपना प्रभुत्व जमाते हैं।

इस सेंट्रल आयडिया के साथ प्रेस क्लब, नई दिल्ली में 26 मई को देह की वैयक्तिकता और राजनीति पर देर शाम हुई विचार-गोष्ठी में वरिष्ठ स्त्रीवादी लेखिका आशा काचरू की किताब ‘ योनि पवित्रता’ पर बात करते हुए वक्ताओं ने अपनी बात रखी। किताब के विमोचन के बाद लेखिका आशा काचरू ने ‘ देह पर समाज, जाति, धर्म के नियंत्रण और देह शुचिता के कंसेप्ट के कारण महिलाओं पर अतिरिक्त शुचिता और नैतिकता के भार को चिह्नित करते हुए बताया कि योनि पर पवित्रता की जिम्मेवारी थोपने के कारण महिलाओं की दोयम स्थिति बनती है। देह संबंधों के प्रति अजनबियत भी पुरुषों की बलात्कारी कुंठा को बढ़ावा देता है।’ आशा काचरू कश्मीर के अपने शुरुआती जीवन के बाद जर्मनी में अपनी सक्रियता और 9वें दशक से भारत में महिला आंदोलनों के साथ सक्रियता से परिचित कराया। उन्होंने पश्चिम में आज भी भारतीय महिलाओं को एक टाइप्ड नजरिये से देखे जाने को चिह्नित करते हुए कहा कि उन्हें उनकी वास्तविक छवि में देखा जाना जरूरी है, जो वे हैं।

स्त्रीवाद की वैचारिकी में अपने शोधों और हस्तक्षेपों से योगदान कर रहे स्त्रीवादी विमर्शकार विजय झा ने कहा कि ‘ स्त्री की यौनिकता पर पुरुष के नियन्त्रण के लिए फ्रेडरिक ऐंगल्स की अवधारणा से अलग गर्डा लर्नर की अवधारणा रही है। ऐंगल्स ने परिवार, स्टेट और निजी संपत्ति को वजह बतायी है। गर्डा लर्नर निजी संपत्ति की अवधारणा के पहले से ही स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण की ऐतिहासिकता को सामने लाती हैं। विजय झा ने भारतीय स्त्रियों के लिए औपनिवेशिक समझ के जरिये एक खास वर्ग की स्त्रियों की समस्या को सबकी समस्या बना देने को चिह्नित किया- जिसने 19वीं सदी में सती, विधवा विवाह आदि सवर्ण समाज की बीमारियों को भारत के किसान और दलित समाज की स्त्रियों की भी समस्या बता दिया गया था।’

लेखिका और यौनिकता के प्रसंग में साहसिक और रैडिकल स्वर अणुशक्ति सिंह ने इस बात पर जोर दिया कि लिबिडो कारणों से स्त्रियों की यौनिक क्षमता से पुरुषों की यौनिक क्षमता कमजोर होती है। इसे स्वाभाविक न मानकर पुरुषों के भीतर ताकत के साथ खुद को सिद्ध करने की प्रवृत्ति पैदा हुई-बलात्कारी मानसिकता पैदा हुई, जिसे समाज के विविध स्तरों ने एक राजनीतिक तर्क दे दिया, संरक्षण दे दिया।’ अणुशक्ति ने समलैंगिक विवाह के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पक्ष-विपक्ष की चल रही है बहसों के स्त्रीवादी पक्ष पर भी बात की।

स्त्रीकाल के संस्थापक संपादक संजीव चंदन ने कहा कि ‘ देह में प्राकृतिक रूप से जैव वैज्ञानिक स्थितियां ही सिर्फ व्यक्तिगत है-शेष राजनीतिक। जब स्त्री-पुरुष सामाजिक गढ़न हैं तो उनकी यौनिकता भी पूर्ण रूप से एक गढ़न ही है। उन्होंने कहा कि बलात्कारों में जाति और धर्म की सत्ता निहित होती है। लेकिन हर बलात्कार की घटनाओं में सिर्फ धर्म या जाति के अलग होने भर से उन्हें जाति या धर्म आधार के बलात्कार नहीं कहा जा सकता। संजीव ने कहा कि अनौपनिवेशीकरण की कोशिशों में सावधानी जरूरी है, वरना गोलवलकर की विचारधारा के अनुरूप प्राचीन महानता की ग्रंथि में फंसना संभव है। अंग्रेजों ने बेहद जरूरी स्त्रियों दलितों के जरूरी मुद्दों को भी सामने लाया। जैसे कैथरीन मेयो ने मदर इंडिया किताब में अथवा जॉन मिल स्कूल ने।

वक्ताओं ने और अन्य भागीदारों ने जंतर मंतर पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ बैठी महिला पहलवानों के साथ सरकार और समाज के पितृसत्तात्मक रवैये को चिह्नित किया।

भागीदारों में कई लेखक, पत्रकार व संस्कृतिकर्मी शामिल रहे

संचालन करते हुए युवा आलोचक अरुण कुमार ने देह को जाति और धर्म के द्वारा नियंत्रित किये जाने को चिह्नित करते हुए अपनी भूमिका रखी।