चमकीला का स्याह समाज  

   चमकीला का स्याह समाज  

रंगों की बात करते हुए चटकीले रंगों को हम विशेष अवसरों और लोगों के लिए जोड़ कर देखा करते हैं।स्याह ब्लैकबोर्ड पर हमें चमकीला के जीवन के चटक रंग दिखाई पड़ते हैं जो इसी समाज की देन है।‘ब्लैक बोर्ड’ यानी समाज और समाज का एक ख़ास वर्ग जिसे जीवन की “रंगीनियां” या कि खुशियाँ ‘चमकीला’ के गीतों में मिलती है। चमकीला “आज भी चमक रहा है” संभवतः इम्तियाज भी जानते हैं कि ‘चमकीला’  ही वो कलाकार है जिसकी लोकप्रियता को ‘चमकीली पन्नी’ की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। इम्तियाज उसकी इसी लोकप्रिय छवि को भुना रहा है हालाँकि  ‘भुनाया’ शब्द कहना ठीक नहीं होगा। असल में चमकीला जिस “ब्लैक बोर्ड” पर आज भी चमक रहा है, इम्तियाज उस “ब्लैक बोर्ड” की कहानी कह रहें है जो चमकीला के गीत सुनकर रंगीन होना चाहता है। चमकीला के बहाने  इम्तियाज कला-क्षेत्र के उस काले सच को भी दिखा रहें है जिसमें प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने पर ईर्ष्या के वशीभूत षड्यंत्र हत्याएँ की जाती रहीं है, ‘कला’ फिल्म से पता चला कि जगन का किरदार उस समय के वास्तविक गायक मदन से प्रेरित है जिसे मात्र 14 -15 वर्ष कम उम्र में, उसकी बढ़ती लोकप्रियता देखकर उसके ही साथी गवैयों ने दूध में पारा देकर हत्या कर दी। एक साक्षात्कार में स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने बताया था कि उन्हें धीमा ज़हर देकर मारने की कोशिश की गई। स्थापित कलाकारों द्वारा नए कलाकारों को उभरने न देने के किस्से भी हम सुनते ही रहते हैं। पंजाब में कला क्षेत्र में जातिगत भेदभाव पर पंजाब के हमारे मित्र ‘सत्येन्द्र मट्टू’ याद करते हुए बताते हैं कि उस समय भी चमकीला हर घर में सुना जाता था अखाड़ें में भी और छिप छिपकर भी। ‘चमकीला’ की हत्या के संदर्भ में लिखतें है- यहां (पंजाब) जातिवाद और गायकों की आपसी रंजिश भी एक बड़ा कारण रही थी। चमकीला आज से करीब 30 साल पहले भी अपने शीर्ष पर था और आज भी है। उसके गीतों में समाज का ताना-बाना भी है और आदमी औरत के सम्बन्धों पर गीत और मज़ाकिया प्रश्नोतरी भी है। उसने क्या गाया, इसे एक तरफ रखें तो ऐसे कलाकार विरले ही होते है”। कहा जाता है कि अमरजोत से दूसरी शादी करने के बाद दोनों की लोकप्रियता अधिक हो गई कनाडा,यूएस, दुबई बहरीन जैसे देशों में लाइव शो किये और अब शादी में गाने के लिए 4000 रूपये लिया करते थे। उनकी लोकप्रियता का ग्राफ फिल्म में बताया भी बताया गया है कि कनाडा के जिस हॉल में उन्होंने पेर्फोर्मेंस करना था ठीक उसके पहले अमिताभ बच्चन का शो था जिसके लिए 137अतिरिक्त सीटें लगवानी पड़ी थी जबकि चमकीला के शो के लिए उसे 1024 अतिरिक्त सीटें लगवानी पड़ी। फिल्म इंडस्ट्री का काला सच ‘चमकीला’ के सन्दर्भ में भी काला ही है। मूसेवाला को भी आपसी रंजिश की वजह से कत्ल किया गया उनके अंतिम गीत के बोल थे “उम्र दे हिसाब नाल दूना” यानी इतनी कम उम्र में दुगनी शोहरत मिली। हमें गुलशन कुमार की हत्या भी याद है जिसने एच. एम. वी.जैसी कंपनी को टक्कर दी थी, खूब पैसा और शोहरत और उसकी लोकप्रियता ही उसकी दुश्मन बन गई ? सुशांत सिंह की दर्दनाक मौत से कौन वाकिफ नहीं

इसमें पितृसत्ता में फल-फूल रही ओनर किलिंग’ के संकेत भी छिपे हुए हैं चमकीला की साथी गायिका तथा दूसरी पत्नी अमरजोत जो उससे ऊँची जाति की थी । भाई और पिता द्वारा होने वाले अपने आर्थिक शोषण और कैद-सी जिंदगी से परेशान थी क्योंकि भाई-पिता उसकी सारी कमाई लेकर उसे अपने हिसाब से रहने भी नहीं देते थे, उसका पिता कहता भी “लड़का कुँवारा है नज़र रखना” जब उसे शक होता है वह चमकीला से अलग होने की बात करता है लेकिन अमरजोत ने चमकीला से शादी कर लेती है ज़ाहिर है अब उसकी कमी पर पति का पहला हक़ हो गया था। फिल्म का अंत जिस गीत ‘विदा…करो’ से होता है वो ‘प्यासा’ तथा ‘कागज़ के फूल’ में कलाकारों की शोचनीय स्थिति को बयां करती है। उसके गीतों की लोकप्रियता पूरे पंजाब में बिना किसी भेदभाव के थी जो आज भी कायम है लेकिन कलाकारों में तो भेदभाव था चम्कीला जिस लोकप्रिय और सीनियर गायिका के साथ गाना शुरू करता है जनता उसमें भी चमकीला ही को पसंद किया करती थी चमकीला गीत लिखता,धुन तैयार करता लेकिन फिर भी उसे बहुत कम पारिश्रमिक दिया जाता यहाँ तक कि जो लोग ख़ुशी और आनंद से झूमते हुए पैसा लुटाया करते थे वह भी मैनेजर रख लिया करता था उसने जब बराबर का पैसा माँगा तो उसे उसकी जाति के नाम पर दुत्कारा गया।तब एक पंथ दो काज करने वाला यह संवाद  कहता है कि चमार हूँ भूखा तो नहीं मरूँगा  यह वास्तव में आत्मविश्वास से लबरेज़ ‘कलाकार’ की आवाज़ है जो मानता है, कला का कोई जाति-धर्म नहीं होता क्योंकि शादी के बाद भी चमकीला और अमरजोत के प्रशंसकों में कोई कमी नहीं आई भले ही यह चमकीला की दूसरी शादी थी,पर पंचायत ने कुछ रुपये जुर्माना लेकर उसे माफ़ कर दिया,चमकीला की पत्नी ने भी पति को माफ़ कर दिया उसका कहना है कि चमकीला ने उससे और दोनों बच्चों की तरफ से कभी मुँह नहीं मोड़ा और वह उन्हें हमेशा खर्चा दिया करता था और बच्चों से मिलने भी आया करता था वैसे भी हम जानते हैं फ़िल्मी दुनियां में यह बहुत आम होता आया है, जनता की पसंद में कहाँ फर्क आता है वे उतने ही जोश से अपने नायक को पसंद करतें हैं यह ‘मास’- मनोविज्ञान  है कि दर्शक अपने आइकॉन को अपने से बहुत दूर होने के यथार्थ को समझतें हुए भी उसके प्रति असीम प्रेम लुटाता है।अपने कलाकारों विशेषकर पुरुष कलाकारों की निजी जिंदगी पर वे कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाते बल्कि समाज उन्हें फॉलो करता है जबकि स्त्री कलाकारों के विषय में उनकी प्रतिक्रिया कुछ और ही रहती है जिसे वास्तव में अश्लील कहा जाना चाहिए।     

धर्म और राजनीति में आई विकृति पर भी इम्तियाज़ इशारों-इशारों में हस्तक्षेप कर जाते हैं जैसे विशेष नरेटिव स्थापित करने के लिए प्रोपेगैंडा के तहत फिल्मों का निर्माण किया रहा है वही तो  संगीत की दुनिया में चमकीला के साथ हो रहा था, उसकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए? उस पर धार्मिक गीत गाने के लिए दबाब डाला गया पर चमकीला की गायिकी की विशेषता ही थी कि वे टेप भी खूब हिट हुए। लोक की माँग, प्रतिद्वंद्वी अथवा अवांछनीय ग्रुप्स की धमकियाँ, जाति का समीकरण, गाँव की सवर्ण जातियों का दुर्व्यवहार व्यवहार तो नहीं दिखाया लेकिन चमकीला के पिता का शराब पीकर जमींदार के घर पर उसके जातीय दंभ को पैसों के बल पर चुनौती देना, ये भी कहीं लुका-छिपा कारण हो सकता है उसकी हत्या का तो प्रेमविवाह के विरोधी भी शक के दायरे से बाहर नहीं है! कुल मिलाकर चमकीला चौतरफ़ा घिरा हुआ था लेकिन अपने गायन को उसने विराम नहीं लगाया क्योंकि वह खुद भी अपनी लोकप्रियता को अंत तक निचोड़ लेना चाहता था “आज अखाड़ो में मेरी मांग है कल का कुछ पता नहीं जितना कमा सकतें है कमा लो” इसलिए एक समय आया कि उसने डरना छोड़ दिया तो उसका बेख़ौफ़ रवैया लोगों को रास न आया । उसने डरना बंद कर दिया “चमकीला पागल हो गया अब उसे डर नहीं लगता”  ये संवाद बताता है कि समाज हमें भय में रहने की आदत डालता है और जो इससे विपरीत जाता है उसे पागल करार कर दिया जाता है। अत: इम्तियाज अली “चमकीला” की कहानी नहीं कह रहा बल्क़ि यदि उसे गोली न लगती तो उसकी कहानी में किसी को दिलचस्पी थी भी नहीं, हाँ, उसके गीतों में आज भी सबकी दिलचस्पी है, वस्तुत: गीतों की विषय वस्तु में, जिसे हर वर्ग,वर्ण और लिंग समान रूप से लिक-छिप कर ही सही सुनता है झूमता है और अपनी कामेच्छाओं को अभिव्यक्त करने का साधन मानता है। फिल्म समीक्षक तेजस पुनिया के ठीक कह रहें हैं  सच तो ये है कि चमकीला आज भी उतने ही जोश और खुशी से सुना जाता है हर उम्र के लोगों द्वारा पंजाब और स्थानीय राज्यों में। रही कहानी की बात तो उसे भी बहुत से लोग जानते हैं हां आज की पीढ़ी न जानती हो ये हो सकता है

इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि चमकीला के माध्यम से यह भी रेखांकित किया गया है कि क्योंकि पितृसत्ता में यौन इच्छाओं, किशोर सुलभ जिज्ञासाओं और उनकी अभिव्यक्ति पर मौन कर दिया जाता है इसलिए बढ़ते किशोर युवक युवतियों से लेकर बुजुर्गों तक अपने आधे-अधूरे ज्ञान आपस में बांटकर आधा-अधूरा आनंद प्राप्त करतें है और उसे ही विरासत में सौंपता है जो विविध सामाजिक सेंसरों,टैबुओं के साथ फैन्तासियों से युक्त हो विकृत भी होता जाता है। पहले ही दृश्य में जब बालक चमकीला “खड़ा” शब्द पर जब जिज्ञासा प्रकट करता है तो उसे थप्पड़ मिलता है, यौनाचारों पर समाज की चुप्पी से उत्पन्न मानसिकता के चलते ही द्विअर्थी गीत लोकप्रिय होतें है फिल्म का एक यह उद्देश्य भी समझ आता है, जो OMG का भी था।यदि जिज्ञासाओं को मारपीट कर दबाया जाएगा तो लाभ उठाने वाले नीम हकीमों, नौसीखियों के पास जाकर ये युवा ग़लत दिशाओं में अपना समाधान करतें हैं जो कई दफा उनका भविष्य भी स्वाह कर देता है।  अश्लील गीतों की धूम के सन्दर्भ में हमें याद आता है, भदेस, भदेसपन जिसका अर्थ है भद्दा,भौंडा,कुरूप ,बदशक्ल,अंग्रेजी में जो अन्सोफिस्टिकेट्ड डिसअप्रिप्रिअट है यानी अपरिष्कृत, असंगत है समाज जिस सभ्यता का आवरण ओढ़े हुए है उसमें इस भदेसपन को स्वीकार नहीं जाता जबकि ये भी सच है कि इसी समाज में भाई-भाई एक दूसरे से बात करते हुए माँ-बहन की गालियाँ तकिया कलाम की तरह देते हैं, जिसे सभा में वर्जित माना जाता है। अब आप कहेंगे कि एक ग़लत बात को दूसरी गलत बात से काटा नहीं जा सकता। वास्तव में चमकीला ने वही लिखा और गाया जो पहले से भी लोग गा रहे थे जिसकी बहुत डिमांड थी उसने दर्शकों की पसंद के हिसाब से वही लिखा जिसे वह अपने आस पास देख सुन रहा था। फिल्म चमकीला का संघर्ष सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दिखाती है जिसमें समाज भले ही संकेतों में आया लेकिन चमकीला को बनाने में इस समाज महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

लैंगिक भेदभाव भी फिल्म में सीधे-तौर पर नहीं आता लेकिन लड़की को लेकर पितृसत्तात्मक अश्लील सोच जगजाहिर है तभी चमकीला के द्विअर्थी गीतों पर सभी आयु वर्ग के पुरुष झूमतें है, अखाड़े में धार्मिक गीत गाने पर लोग चिल्ला-चिल्ला कर उन्ही अश्लील गीतों की मांग करतें हैं जबकि लड़कियों में यौनिक इच्छाओं को व्यक्त करने की पाबंदी है तो वे जब छत पर छिपकर लडकियाँ उसे सुनने को आईं तो छत ही गिर गई और उसका नाम छत फोड़-चमकीला हो गया एक गीत की शूटिंग के दौरान अलग-अलग जगहों पर हर वर्ग शहर गाँव की कोई 300 लड़कियों पर फिल्माया गया है जो इस बात की गवाही देता हैं कि चमकीला के गीत को लडकियाँ भी लोकप्रिय है यानी स्पष्ट है अपनी यौनिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति की तीव्र आकांक्षा उन्हें भी है लेकिन उन्हें अपने देह पर ही अधिकार नहीं दिया गयाइसलिए छिप कर उसके गीत सुनती है।

फिल्म आने के बाद सोशल मीडिया पर चमकीला को लेकर मिली जुली प्रतिक्रियाएं आई जिसमें समाज के वीभत्स अथार्थ को स्वीकार करतें हैं जबकि कुछ का मानना है कि इम्तियाज़ चमकीला के बहाने अश्लील गानों को जस्टिफाई करतें है! स्त्री पुरुष संबंधों के बहुते लोक गीत हैं तो क्या उनका महिमामंडन किया जाए,बॉलीवुड हो या भोजपुरी गीत इन्हें खूब सुना जाता है सिर्फ इसलिए चमकीला के जीवन का फिल्मीकरण सही नहीं ठहराया जाना चाहिए लेकिन जैसे मैंने पहले भी लिखा कि यह चमकीला की बायोपिक नहीं है बल्कि चमकीला की चमक में  समाज के विविध स्याह पक्षों को संकेतों में रेखांकित किया गया है जो आज भी लगभग ज्यों की त्यों विद्यमान है । ओनर किलिंग हो या समाज और सिनेमा में जातिवाद होकहाँ खत्म हुए? सोशल मीडिया पर पोर्न साइट्स की भरमार, लड़के लड़कियों दोनों का देह व्यापार की और आकर्षित होने के क्या कोई अलग से कारण है वे भी इसी समाज से उपजे है ये सभी आज  हमारे समाज की मानसकिता की बखिया उधेड़ रहें है, हम हमारी नई पीढ़ी को सेक्स रेकेट्स के जंजाल में फंसने से नहीं बचा पा रहें । वास्तव में सिनेमा के साथ साथ लोकगीतों में भी विकृतियाँ आई हैं जिन्हें नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता परम्परागत लोकधुनों को चुरा कर उन्हीं की तर्ज पर जनता की ही माँग पर उन्हें अश्लील और भौंडा बना दिया जाता है जो शादी ब्याहों में खूब धड़ल्ले से ऊंची आवाज़ में गाये जाते है जिन पर घर भर के लोग मदमस्त नाचतें है यह मशहूर है कि चमकीला के पास अगर डेट नहीं होती थी तो लोग अपनी शादी की डेट बदल दिया करते थे ।आज जबकि बिग बॉस कपिल शर्मा जैसे शो की टी. आर.पी. यानी लोकप्रियता देखकर लोगों की पसंद पर तरस आता है हालाँकि इसका एक कारण लोगो में सामाजिक डिप्रेशन बढ़ना भी एक कारण बताया जाता है जिसमें आज के लोगों के पास करने को कुछ भी क्रिएटिव नहीं बेरोजगारी चरम पर है और बुजुर्ग भी अपना समय काट रहें हैं उनकी आज सुनाता कौन है? समाज के इसी मनोविज्ञान को फ़िल्म वाले भुनाते आयें हैं ।अत:

चमकीला तो एक प्रतीक भर है उसके गीत समाज मनोविज्ञान का सूक्ष्मता से विश्लेषण कर रहें हैं, अश्लील समाज की सोच है चमकीला जैसे लोग तो उस सोच का फायदा उठाते हैं फ़िल्म समाज की हिप्पोक्रेसी का उदाहरण है,चमकीला के गीत उसकी लोकप्रियता फिर उसकी हत्या और अंत में गीत की पंक्तियाँ आपको निश्चित ही रुलायेंगी ।तुम सभी साफ सही, हूँ मैं मटमैला”  समाज की मानसिकता और चमकीला के गीतों में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है हर राज्य क्षेत्र में आपको कई कई चमकीला आज  भी मिल जायेंगे और उनको सुनकर आनंद से झूमने वाले भी । जब मंटो हो या उग्र अथवा इस्मत आपा समाज का काला सच दिखाते हैं तो उन्हें भी साहित्य समाज से बहिष्कृत किया गया उन पर केस चले लेकिन उनके और इम्तियाज़ के प्रस्तुतीकरण का अंतर सिनेमा और साहित्य का ही अंतर है क्योंकि साहित्य यथार्थ को बिना किसी लाग लपेट के प्रसुत किया जबकि इम्तियाज़ ने समाज के स्याह पक्ष के लिए चमकीला की चमक को आधार बनाना व्यावसायिक विवशता लेकिन फिल्म का अंत और उसका गीत विदा करो चमकीला के व्यक्तित्व तमाम कमजोरियों के बावजूद उसे नायकत्व के उच्च पद पर प्रतिष्ठित कर जाता है लगभग शहीद की तरह जो फ़िल्मी दुनिया की विशेषता है । फिल्म के अंत में इंस्पेक्टर की जीप में से चमकीला की कैस्सेट निकालती है तो घर पहुँचने पर उसका बेटा भी वही गीत सुन रहा है तो उसकी हत्या से भावुक होने वाला पिता जब कहता है, “जब कभी मन करे चमकीला को सुन लिया करो” ये चमकीला के सुनने की बात से कहीं ज्यादा “अपने मन की सुन लिया करो” पर ख़त्म होती है फिल्म के पहले दृश्य में बच्चे को थप्पड़ पड़ता है जबकि अंतिम दृश्य के बच्चे को पिता का साथ जिसे समझना ज़रूरी है कि जैसे मन के भाव शाश्वत है वैसे ही तन की आवश्यकताएँ जिन्हें दबाने का अर्थ है समाज और व्यक्ति दोनों के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध करना ।

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ISSN 2394-093X
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