जनादेश की दिशा को कब समझेगा विपक्ष

पिछले 20 दिनों में दर्ज़नो इलाकों में मुसलमानों पर भीड़ द्वारा बर्बर हमले किए गए हैं.इन हमलों का दायरा अखिल भारतीय है,क्या दक्षिण क्या उत्तर,हर तरफ़ ये आग फैलती ही जा रही है.हिमांचल,तेलंगाना, मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, गुजरात,उत्तर प्रदेश,हर जगह एक ही तरह का पैटर्न हैं मुसलमानों को सबक़ सिखाना,हत्या कर देना,घर गिरा देना या दूकान लूट लेना.
अगर आप ध्यान से देखें,तो क्या इस मसले पर भारतीय महादेश के किसी कोने से कोई आवाज उठ रही है-बिल्कुल नही-इतने गंभीर मसले पर नये जनादेश के बावजूद,नयी संसद में भी पुराने तरह का ही सन्नाटा पसरा हुआ दिख रहा है,सदन के अंदर संविधान तो लहराया जा रहा है,संविधान को बचा लेने की कसमें तो खायी जा रही हैं.पर सड़क पर मुसलमानों की हत्या भी, आराम से होने दिया जा रहा है,सहजता से दुकाने लूटने दी जा रही है,और उनके घरों को बुल्डोज कर दिया जा रहा है.यह सब ऐसे हो रहा है,जैसे हिंदुत्व की ताकतों को यह संवैधानिक अधिकार मिल चुका है कि वे मुसलमानों को उनकी हद में रख सकें,उन्हें उनकी हैसियत बता सके.
यह सब उन राज्यों में भी,उतनी ही बर्बरता से होने होने दिया जा रहा है,जहां पर विपक्ष की सरकारें हैं, हिमाचल में कांग्रेस की सरकार है और नाहन में संगठित भीड़ ने पीड़ित की दुकान लूट ली,बहुत सारे लोगों को नाहन छोड़कर भागना पड़ा,पर हिमाचल के मुख्यमंत्री ने अभी तक अपना मुंह नही खोला है,मोहब्बत की बंद पड़ी है.
तेलंगाना में भी,संगठित भीड़ नारे लगाती हुई,तैयारी के साथ आती है और कुर्बानी की तैयारी कर कर रहे मुसलमानों के एक समूह पर हमला कर देती है,दर्जनों लोग बुरी तरह घायल होते हैं,उन्हें अस्पताल ले जाया जाता है,अस्पताल के बाहर भी,नफ़रती भीड़ को हिंसक नारे लगाने दिया जाता है, दहशत पैदा करने दिया जाता है,इस मसले पर भी संविधान की कसमें खाने वाले लोकप्रिय कांग्रेसी मुख्यमंत्री, बोलना जरूरी नही समझते हैं,यहां भी मोहब्बत,नफ़रत का जबाब देती हुई नही दिखती है.
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में एक मुस्लिम नौजवान पर चोरी का इल्ज़ाम लगाया जाता है,एक संगठित भीड़ द्वारा उसे पीट-पीटकर मार दिया जाता है,पूर्वांचल में जहां चुनाव में जनता ने भाजपा को इस बार जोर का झटका दिया है वहां पीछले 15 दिनो के अंदर,दर्जन भर मसीही समुदाय के लोगों को धर्मांतरण का फर्जी आरोप लगा जेल भेज दिया गया है. वही सारा पैटर्न यहां भी दोहराया जाता है,यह सच है कि यहां पर योगी की सरकार है,जहां पर इस तरह के हमले लगातार होते ही रहते हैं..
पर यह भी तो एक नया सच है,कि अभी-अभी इस राज्य में इंडिया गठबंधन,ताकतवर होकर उभरा है,खासकर समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश की सेकुलर जनता ने खासकर अल्पसंख्यकों ने,नफ़रती राजनीति को शिकस्त देने के मकसद से,लगातार अलगाव झेलते हुए भी,भारी समर्थन दिया है,और कांग्रेस को भी मजबूत किया है..
ऐसे में लोग यह मानकर चल रहे थे,कि अब उत्तर प्रदेश में भी सपा व कांग्रेस की देह भाषा बदलेगी,वे अपने कोर्स का करेक्शन करेंगे,अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन लाएंगे,पर यह भी होता हुआ नही दिखा है.
जनता का जनादेश,बेहद स्पष्ट था,भारतीय मतदाताओं ने कोई द्वंद नही रहने दिया.
संविधान,सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म के पक्ष में, जनता ने 18वीं लोकसभा चुनाव को एक जनमत संग्रह में तब्दील कर दिया था,हर तरह की विभाजनकारी और नफ़रती राजनीति को जोर का झटका देते हुए सामाजिक न्याय के बुनियादी प्रश्नों को संभवतः पहली बार चुनाव के केंद्र में ला दिया था.
आप इस जनादेश को इस तरह से भी समझ सकते हैं कि नफ़रत,घृणा व विभाजन की राजनीति को कमजोर किए बगैर संविधान,सामाजिक न्याय, आरक्षण व रोजगार के प्रश्न को केंद्र में लाया ही नही जा सकता था,और फिर इस चुनाव में यही हुआ भी,चरण दर चरण नफ़रती तापमान कम होता गया और सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक असमानता से पीड़ित समुदायों की एकता बढ़ती ही गई,जिसके चलते हिंदुत्व के गढ़,अयोध्या सहित आस-पास की सभी सीटें भाजपा हार गई,वाराणसी के आस-पास की ज्यादातर सीटों को भी भाजपा ने खो दिया,और खुद ब्रांड मोदी भी हारते-हारते बचे,
इस चुनाव के जरिए जनता ने स्पष्ट इशारा कर दिया कि भारत की जो, बहुसांस्कृतिक,बहुधार्मिक, बहुजातीय या बहुभाषी विविधता है,वो उसकी कमज़ोरी नही उसकी ताकत है,यानि भारतीय गणतंत्र की केंद्रियता,बहुसंख्यकवाद में नही बल्कि बहुलतावाद में है,और सामाजिक न्याय व धर्मनिरपेक्षता असल में वो दो बुनियादी खंबे हैं,जिन्हें कमजोर करने की कोशिश, भाजपा लंबे समय से कर रही थी,जिसके चलते ही भारतीय मतदाताओं ने उसे दंडित कर, एक नया एक संदेश दिया है.
पर इस संदेश को विपक्ष कैसे ग्रहग कर रहा है,जब हम इसकी पड़ताल करने की तरफ बढ़ते हैं,तो यहां भी उत्साह के बिंदु कम मिलते हैं
लंबे समय से मुख्यधारा के विपक्ष का एक हिस्सा बहुसंख्यक सवर्ण हिंदू दायरे के अंदर ही राजनीति करता रहा है,और इस लिए सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म के सवाल को केंद्रिय प्रश्न मानते-समझते हुए भी,बार-बार सतही रुख़ लेता रहा है,इन बेहद गंभीर मसलों के गहराई में जाने से बचता रहा है,द्विज जातियों को नाराज़ करने का साहस नही जुटा पाता है,इसी लिए आप देखेंगे कि उन्हें A To Z का नारा देना पड़ता है, इडब्ल्यूएस का समर्थन करना पड़ता है और पसमांदा व समग्र अल्पसंख्यकों के सवालों पर चुप रहना पड़ता है.हालांकि इस विचार का असर विपक्ष के दूसरे हिस्से पर भी है,पर विपक्ष के इस दूसरे हिस्से का एक वैचारिक संकट भी है.
विपक्ष का यह दूसरा हिस्सा,मजदूर-किसान आंदोलन के ताकतवर विस्तार के जरिए,जाति और सांप्रदायिकता के प्रश्न को हल कर लेने मंसूबा पाले रहता है, बुनियादी बिंदु के बतौर इन मुद्दों को देखता ही नही है,सो अलग से इन प्रश्नों पर उसके पास कोई कार्यक्रम ही नही होता है.इसी लिए यह हिस्सा भी भारतीय गणतंत्र के इन दो बुनियादी मुद्दों के समर्थन में तो रहता है,पर इन्हें सड़कों का केंद्रीय मुद्दा बनाने या जनता के बीच ले जाने बचता रहता है.
18 लोकसभा चुनाव को भी अगर ध्यान से देखने की कोशिश करें तो पाएंगे कि भारतीय मतदाताओं ने तो जरूर अपने सामुहिक प्रयासों के जरिए,सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के सवालों को,चुनाव के केंद्र में ला दिया था,पर विपक्ष अपने वैचारिक-राजनीतिक संकटों के चलते,जनता के इस मूड को,ठीक-ठीक समझने में असफल रहा.विपक्ष यह बिल्कुल ही नही समझ पाया कि जिस समय सामाजिक अस्मिता का प्रश्न चुनाव के केंद्र में आ रहा था,ठीक उसी समय धार्मिक अस्मिता का प्रश्न उसी अनुपात में हाशिए पर जा रहा था.विपक्षी नजरिए में इस असंतुलन के चलते ही,कई चरण बीत जाने के बाद,सामाजिक अस्मिता के प्रश्न को तो जरूर एक स्तर पर संबोधित करने की कोशिश की गई,पर अंततः यह चुनाव भी विपक्ष द्वारा हिंदू दायरे में रह कर ही लड़ा गया.
ज्यादातर विपक्ष के घोषणापत्रों में,भाषणों में मुसलमानों-ईसाइयो का नाम तक लेने से परहेज़ किया गया.उन्हे सार्वजनिक दायरे से लगभग ओझल कर दिया गया.
चुनाव के बाद भी समूचा विपक्ष अपनी पुरानी रणनीति पर ही क़ायम है जब कि भारतीय मतदाताओं ने अपना पाठ्यक्रम बदल लिया है,जनता अपने मूल व बुनियादी प्रश्नों की ओर लौट रही है.उसे इतंजार है और उम्मीद भी है कि भारत का विपक्ष भी अपने पुराने पाठ्यक्रम को बदलेगा,एक नया कोर्स तैयार करेगा,पर ऐसा दिख नही रहा है.
ये अनायास नही है कि ठीक चुनाव के बाद लिंचिंग की घटनाएं बढ़ गई है और पटना हाईकोर्ट ने अतिरिक्त आरक्षण को रद्द कर दिया है.
असल में दोनो ही मसलों पर विपक्ष को चेक किया जा रहा है,कि क्या उनकी सड़कों पर उतरने की या जनता के बीच जाने की कोई तैयारी है,पर ऐसा कुछ भी नही दिख रहा है, विपक्ष की ऐसी कोई तैयारी नही दिख रही है.
यह तय है कि आने वाले समय में भाजपा,विपक्ष के सामने इस तरह की चुनौती बार-बार पेश करती रहेगी,क्यों कि उसे ये अंदाजा है कि बदली हुई परिस्थितियों के बावजूद,विपक्ष,इन चुनौतियां का सामने आकर,आगे भी जबाब देने से बचता रहेगा.
और वास्तव में अगर आने वाले समय में भी विपक्ष अपनी इसी पुरानी रणनीति पर ही चलता रहा,जनादेश के साथ चलने की हिम्मत नही जुटा पाया,तो निश्चित तौर पर संघ-भाजपा के लिए ताकतवर पुनर्वापसी की संभावना बराबर बनी रहेगी,जो कि भारतीय गणतंत्र के लिए बेहद चिंता का विषय होना चाहिए.

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ISSN 2394-093X
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