प्रीति प्रकाश की कहानी “ईना, मीना और अकिला फुआ” के बहाने आज अकिला फुआ पर बात की जाए। यह कहानी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका “हंस” में छपी थी। यूपी, बिहार में अकिला फुआ बहुत प्रसिद्ध चरित्र है। हालांकि वह कोई विशेष पात्र नहीं, बस अक्ल से अकिला बना लिया गया है। अकिला यानी जो ज्यादा बुद्धिमान हो, जिसके पास ज्यादा अक्ल हो। गौर तलब है कि यह प्रशंसा में नहीं बल्कि व्यंग्य में दी जाने वाली पदवी है। जैसे हर पुरुष अपनी पत्नी को व्यंग्य से “ज्यादा बुद्धिमान हो??” कहना अपना हक समझता है। चाहे वह चौथी फेल और पत्नी मैट्रिक ही क्यों ना हो (याद करें ‘दृश्यम्’ फिल्म) और यह भारतीय समाज में पूरी तरह स्वीकार्य है। पत्नी है तो कमअक्ल होगी ही।
हाँ तो पुनः आते हैं अकिला फुआ पर। अकिला फुआ ही क्यों है? चाची, काकी, दादी या मौसी क्यों नहीं? इसका जवाब है- जिसकी शादी नहीं हुई, होकर टूट गई, विधवा हो गई, अर्थात जो पति के साथ नहीं है, संतानहीन अकेली स्त्री! वही अकिला हो सकती है। ज्यादातर ऐसी स्त्रियां मायके में आश्रय लेती हैं। अपने भाई के यहाँ आश्रय मिले तो ठीक, वरना मायके के गाँव में ही दूसरा घर बना कर रहती हैं। इसलिए रिश्ते में गाँव भर की फुआ लगती हैं। ज्यादातर ऐसी महिलाएँ दबंग, वाचाल, निडर और सशक्त होती हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी। जीवन यापन के लिए खेतों में काम करना, सब्जियाँ बेचना, बकरी पालन, से लेकर सिलाई कढ़ाई कुछ भी करती हैं, पर दूसरे के भरोसे नहीं रहती। अकिला फुआ होने की दूसरी शर्त मुँहफट और निर्भीक होना है। इसी निर्भीकता से डर कर व्यंग्य से अकिला फुआ की उपाधि दी जाती है। अकिला फुआ का परिवार नहीं होता। बाकी महिलाओं की तरह दस तरह के झंझट नहीं होते। इस बात की ईर्ष्या से सामान्य महिलाएँ उन्हें ताना भी देती हैं (याद करें फणीश्वर नाथ रेणु की “लाल पान की बेगम” की मखनी फुआ) “बिरजू की माँ के आगे नाथ और पीछे पगहिया ना हो तब ना”01 कभी-कभी अकिला फुआ को भी घर परिवार की अभिलाषा होती है। किसी बच्चे की मालिश कर देना, दस्त लग रहे हैं तो अजवाइन की फंकी बना कर दे देना, किसी का आचार बनवा देना, शादी ब्याह में सारा इंतजाम देखना, गाँव भर के कार्यों पर नजर रखकर, वह अपनी इन अभिलाषाओं की पूर्ति कर लेती हैं। ऐसी अकिला फुआएँ हर गाँव में मिल जाएंगी।
अब बात करते हैं प्रीति प्रकाश की अकिला फुआ के बारे में। प्रीति ने पहले भी अकिला फुआ से संबंधित छोटे-छोटे प्रसंग अपने फेसबुक वाल पर पोस्ट किए हैं। यह प्रसंग तत्कालीन समस्याओं से संबंधित होते थे। 3 जुलाई 2023 की फेसबुक पोस्ट देखिए- “सर्वधर्म सर्वजाती यूपी बिहार एकीकृत पति सम्मेलन का आज आयोजन हुआ। जिसमें बहुमत से सभी पतियों ने यह निर्णय लिया कि बजाय अपनी पत्नियों को पढ़ाने के वह खुद पढ़कर एसडीएम बनेंगे। अकिला फुआ- ई मरकी लगौना सन के त बुझाता कि एसडीएम बनल दूल्हा बने खानी आसान बा।”02 “ईना मीना और अकिला फुआ” कहानी में अकिला फुआ न सिर्फ दो युवा लड़कियों को मानसिक शोषण से मुक्त करवाती हैं, बल्कि उनकी पढ़ाई भी नहीं छूटने देती। जैसा कि अकिला फुआ होती हैं, वह भी बहुत सख्त हैं। मोहल्ले वाले उन पर व्यंग्य करते हैं “अपना सुख चैन प्यारा हो, और अगर शहर में कोई भी दूसरा घर खाली हो, तो उस महिला के आसपास से गुजरो भी मत।”03 ईना और मीना द्वारा छेड़खानी की शिकायत करने पर, एक और ईना की माँ ने वापस घर आ जाने के हिदायत दी, तो वहीं दूसरी ओर अकिला फुआ संघर्ष करने की प्रेरणा देती हैं। ईना और मीना अनुसूचित जाति से आती हैं, इसलिए उनकी राह और कठिन है। उनके सपने, उनकी माँ के सपने रौंद दिए जाते, अगर अकिला फुआ नहीं होती। मोहल्ले में, घर में, बल्कि हर महिला में अकिला फुआ का होना आवश्यक है। रिश्तो में बंधी महिलाओं को भी अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की हिम्मत होनी चाहिए। परिवार और बाल-बच्चों वाली महिलाएँ भी अन्याय के खिलाफ बोलें। अपनी बेटियों को चुप रहना और सहना नही बल्कि बोलना और गलत का विरोध करना सिखाएँ। आज के समय में भी अकेली औरत को अपने निर्णय स्वयं लेते देखकर, उसे दबाने के लिए समाज निकल पड़ता है। अकिला फुआ जैसी दबंग महिला को देखकर, चढ़बाक, झगड़ालू, घमंडी कह कर उसे हतोत्साहित करता है। ऐसे समय में हम सबको अकिला फुआ बनने की आवश्यकता है। छोटे या बड़े अन्याय का सामना करना है। संघर्ष करना है ।प्रीति प्रकाश की कहानी यही संदेश देती नजर आती है।
संदर्भ सूची
1. “लालपान की बेगम”, फणीश्वरनाथ रेणु https://hindwi.org
2. प्रीति प्रकाश की फेसबुक वाल 03-07-2023
3. “ईना मीना और अकिला फुआ” हंस पत्रिका, अंक- दिसम्बर 2023
सुनीता मंजू