सावन और काँवर

0
239

बचपन की यादों में, कुछ धुंधली यादें हैं काँवड़ से संबंधित। 1 जुलाई से स्कूल खुलते। दो महीने की गर्मियों की छुट्टियों का अलसाया शरीर पन्द्रह- बीस दिन बाद ही रूटीन में आता। तब तक सावन की आहट होने लगती। कक्षा की सहेलियाँ दाहिने हाथ में एक-एक हरी चूड़ी पहन कर आती। दसवीं- बारहवीं की दीदियाँ सोमवार का व्रत करने लगती। पूछने पर कहतीं- माँ ने कहा है, सावन के सोमवार करने से अच्छा वर मिलता है। एक दिन घर जाकर मम्मी से पूछा तो मम्मी ने सख्त हिदायत दे डाली “हमनी किहाँ कुआँर लड़की संकर जी के ना पूजेला। संकरे जी जइसन अड़भंगी दूलहा मिली।” यह कैसा विरोधाभास ! उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इतना सम्मान, और बिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश में एकदम अड़भंगी! आज सोचती हूँ तो लगता है, ऐसा शायद इसलिए क्योंकि आज भी बिहार का लोक पार्वती के चयन से नाराज है। आज भी शिव को भोला, अड़भंगी और एक कन्या के अयोग्य वर मानता है। लड़कियों के ब्याह में आज भी गीत गाया जाता है- “ए अड़भंगी बर से गौरा नाहीं बियहब, भले गौरा रहिहें कुआँर….”। अधिकांश घरों में मांसाहार बंद हो जाता, पर सभी घरों में नहीं। हाँ, हम बच्चे लंच में अंडा वगैरह ले जाने से परहेज करते। इसी दौरान एक और हल्ला उठता काँवड़ ले जाने का। पूरी कॉलोनी के बड़े-बड़े लड़के, जो पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए थे, जो किसी काम धंधे में भी नहीं लगे थे, उनका बैचलर गिरोह काँवड़ लेकर जाता। इस बैचलर गिरोह के माता-पिता उनसे परेशान थे। वो चाहते थे दिनभर घूमता रहता है, कोई काम धंधा पकड़ ले, तो इसकी शादी करवा दें। घर वाले 15 दिन चैन की साँस लेते । पड़ोसन आंटी कहती- “जाने दो! जाएगा तो इतने दिन किसी से झगड़ा झंझट तो नहीं करेगा। क्या पता भोले बाबा इसे सद् बुद्धि ही दे दें।” शादीशुदा, बाल बच्चे वालों को तो काँवड़ ले जाने की ना फुर्सत थी, ना हौसला।

मोहल्लो में मेहंदी प्रतियोगिता होती। समूह में बैठकर, दूध वाली प्लास्टिक की थैलियों से बनी कीप से मेहंदी लगती। छोटे बच्चे भी जिद करने लगते, तो उनकी हथेलियों पर मेहंदी की बूंदे रख दी जाती। बैठे बैठे गीत भी होते- “नन्हीं नन्हीं बुंदिया रे सावन का मोरा झूलना….” हरे कपड़े पहने जाते। हाथों में हरी चूड़ियाँ। बसंती आंटी चूड़ी पहनते हुए मौज में गा उठती- “गोरी है कलाइयाँ, दिला दे मुझे हरी हरी चूड़ियाँ….” पेड़ों पर तो झूले नहीं लगते, परंतु पार्क में लटके झूलों पर भीड़ लग जाती। हलवाई की दुकानों पर घेवर की बहार होती। मन आश्चर्य चकित रहता, यह कैसी मिठाई है जो केवल सावन में ही बनती है। फिर एक दिन शोर होता काँवड़िये आ गए। सभी लोग उनके स्वागत के लिए तैयार रहते। महिलाएँ शिव भजन गाते हुए, काॅलोनी के गेट तक जाती। वह हरिद्वार से लाया जल, मंदिर में शिवलिंग पर चढ़ाते , फिर घर आते। हम बच्चे उनके हाथी जैसे फूले पैरों को देखकर डर जाते। फिर शुरू होती पैरों की मालिश और सिकाई। कुछ दिनों बाद रक्षाबंधन आ जाता, और सावन के उत्सव का समापन हो जाता। आँखें बंद करके पीछे मुड़कर देखने पर सावन में जरा सा काँवड़ दिखता है, पर आज आँखें खोल कर देखती हूँ तो काँवड़ में जरा सा सावन दिखता है।

आज काँवड़ यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी है। जो हरिद्वार जाने में सक्षम नहीं, वह अपने नजदीक की नदियों से काँवड़ में जल लाकर, शिवलिंग पर चढ़ा रहे हैं। बिहार में देवघर की काँवड़ यात्रा प्रसिद्ध है। महिलाएँ भी काँवड़ लेकर जा रही हैं। इसी बहाने देवघर का मेला देखकर आ रही हैं। सावन में हरी चूड़ियाँ और काँवड़ के लिए केसरिया चूड़ियाँ। अब क्या करें? महिलाओं ने एक उपाय निकाला है। दो हरी और दो केसरिया मिलाकर डिजाइन बनाकर पहनने लगी हैं। पिछले वर्षों खबर देखने को मिली कि, पुत्र और पुत्रवधू माता-पिता को काँवड़ में बिठाकर ले जा रहे हैं। रेल यात्रा के दौरान देखा श्रावण स्पेशल केवल काँवड़ियों से भरी हुई है। पता चला सब काँवड़ लेकर जा रहे हैं। प्लास्टिक के काँवड़ ऊपर की बर्थ पर बांध कर रखे गए थे। एक सज्जन कह रहे थे- “काँवड़ यात्रा को आप लोग धर्म से ना जोड़िए। यह एक अभ्यास है, जो हर वर्ष दोहराया जाता है। मीलों पैदल चलने का अभ्यास। मशीनों के इस युग में तो, हम लोग पैदल चलना भूल ही गए हैं।” पिछले वर्ष खबर मिली कि उत्तर प्रदेश के कई जिलों ने काँवड़ यात्रियों की सुविधा के लिए विद्यालय बंद कर दिए हैं। इस वर्ष सुन रही हूँ कि, काँवड़ यात्रा के मार्ग में पड़ने वाली दुकानों, होटलों, फल की रेहड़ी वालों को अपना नाम लिखा बोर्ड लगाना होगा। कहा जा रहा है कि काँवड़ियों की शुद्धता, पवित्रता और शुचिता भंग ना हो इसलिए ऐसा आदेश दिया गया है। समझ नहीं आ रहा है कि केवल नाम जानने से, कैसे ज्ञात होगा कि अमुक व्यक्ति शुद्ध, पवित्र है और अमुक व्यक्ति अशुद्ध और अपवित्र!! सोच रही हूँ कि काँवड़ के बीच मनभावन सावन कहाँ खो गया है?