आजादी के 75 साल बाद भी मूलभूत सुविधाओं से कोसो दूर है रुंघूडेरा
सिमडेगा जिले से करीब 40 किमी दूर केरसई प्रखंड स्थित है। वहाँ से करीब 25 किमी दूर रुंघुडेरा गाँव है जो केरसई प्रखंड अंतर्गत ही आता है। चारों ओर से जंगल- पहाड़ और पथरीली भूमियों से घिरा यह गाँव प्राकृतिक दृष्टिकोण को से तो संपन्न है लेकिन मूलभूत सुविधाओं को देख लगता है मानो यह गाँव भारत के नक्शा में आता ही नहीं।
करीब 300 जनसंख्या वाले इस गाँव में पहुंचने के लिए अभी भी आपको पथरीली पगडंडियों और उबड़- खाबड़ वाले रास्ता से ही गुजरना पड़ेगा वह भी करीब 10 किमी। सरकारी जन महत्वाकांक्षी योजना कहें या नेताओं का भूलभुलैया वाला वाला भाषण दोनों यहाँ नगण्य रूप से ही पहुँच पाता है। अब तो गाँव वाले सरकारी योजनाओं को महत्व भी देना बंद कर दिये हैं और कहते हैं आश्वसन और भरोसा से तो अच्छा हमारा जंगल – पहाड़ है जो कभी झुट नहीं बोलता।सरकारी अफसर गाँव विजिट के लिए निकलते हैं तो गाँव पहुँच से 10 किमी दूर से ही मुँह मोड़ लेते हैं यह हम नहीं कह रहे गाँव वालों का कहना है।
अगर किसी महिला का प्रसव कराना हो यह बीमारी का इलाज, सब गाँव के दाई और वैध-विद्या पर ही निर्भर हैं। चाहे इसे अंधभक्ति कहें या अंधविश्वास लेकिन हकीकत यही है। शहर तक पहुँच का रास्ता खराब होने के कारण अस्पताल का ख्याल ही नहीं आता इन लोगों को। कुछ महीने पहले ही गाँव में भीषण व्रजपात हुआ था इलाज के नाम पर उन्हें गाय के गोबर में गाड़ दिया गया था जहाँ दो महिलाओं की मृत्यु हो गई थी। लोग दोष किसी को लगाने भी छोड़ दिये है पूछने पर ‘कहते हैं होनी को कौन टाल सकता है!’ लेकिन शायद कुछ मूलभूत सुविधा देश के होने के नाते मिल जाता तो कई जानें बचाई जा सकती है यह सच्चाई है।
विकास के नाम पर इस गाँव में मात्र एक प्राथमिक विद्यालय है वह भी खंडहर। छत टूट- टूट कर गिर रहा है बरसात के दिनों में पानी रिसता है। जान जोखिम में डाल बच्चे अपनी पांचवी तक की कक्षा मात्र एक पारा शिक्षक के सहारे पुरा करते हैं। 5वीं से 8वीं तक के लिए करीब 8 किमी दूर सफर कर मकरघरा आते हैं। अगर इससे भी आगे कोई आगे पढ़ना चाहे तो करीब 15 किमी पथरीले पगडंडी का सामना करना पड़ता है तब तक हिम्मत टूट जाती है और बच्चे पढ़ाई छोड़ रोजगार के लिए महानगरों की ओर पलायन कर जाते हैं। गाँव में आज तक बिजली नहीं पहुंची है।लालटेन और डिबरी से आगे बढ़कर और टॉर्च जरूर हो गए हैं। अपने पैसे से खरीदे गए सोलर पैनल और छोटे बैटरी के सहारे मुश्किल से तीन घंटा रोशनी में रहते हैं फिर वही अंधेरी रात। रात में बच्चे पढ़ाई के लिए उठें यह कल्पना भी नहीं किया जा सकता।
जंगलों के बीच होने के कारण हाथियों और जंगली जानवरों का प्रकोप अलग ही समस्या है। खेतीबारी के दिनों में आजकल गाँव के युवा- बुजुर्ग हाथियों के डर से रातजागा करने को मजबूर हैं। गाँव के ही हीराधार मांझी कहते हैं जंगल विभाग वाले कुछ दिन पहले कुछ पुलिस फोर्स के साथ आये थे पूछे और चले गए। गाँव में कुछ सुविधा नहीं है। अब तो हाथियों के डर से लोग खेती करना भी छोड़ने लगे हैं।
गाँव के ही एक बुजुर्ग महिला नाम न लिखने की शर्त पर कहते हैं पानी पीने के लिए अभी भी हमलोग डोभा और चुआँ पर ही निर्भर हैं। करीब 200 मीटर दूर से सिर और टिंग भार में पानी भर कर पानी लाना पड़ता है। गर्मी के दिनों में समस्या और गंभीर हो जाती है। जब डोभा और चुआँ सुख जाता है तो एक सार्वजनिक तालाब को श्रमदान से चुआँ खोदते है वहाँ का पानी को ओन्जरा में निकाल- निकाल पीने और खाना बनाने के लिए ले जाते हैं। गंदा पानी पीने से बिमारी होती है कहने पर कहते हैं- “नी पी के मरेक से अच्छा तो पी के मेरक बेस आहे।”
गाँव में मनोरंजन के लिए कोई सुविधा नहीं है ऐसे में गाँव के ही लोग श्रमदान कर गोंडवाना की महारानी दुर्गावती के नाम पर एक खेल मैदान का निर्माण किये हैं जहाँ गाँव के बच्चे हॉकी खेलते हैं। कुछ महीने पहले गोंडवाना वेलफेयर सोसाइटी नामक सामाजिक संस्था बच्चों के पढाई के लिए एक रात्रि पाठशाला शुरू किया था लेकिन बिजली और नेटवर्क की असुविधा के कारण वह भी बंद हो गया।
आज भले ही देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा हो लेकिन इस गाँव के लिए आजादी का परिभाषा ही अलग है। गाँव के लोग अभी भी अपने घरों में धार्मिक झंडा से कहीं अधिक तिरंगा झंडा लगाए हुए हैं। जाने- अनजाने में ही सही लेकिन लेकिन देशभक्ति से प्रेरित इस गाँव के लिए पता नहीं मसीहा कौन होगा!