कंचन कुमारी की कविताएं स्त्रीकाल के ताजा अंक में प्रकाशित हुई हैं तथा इनका पाठ कंचन ने स्त्रीकाल यूट्यूब पर भी किया है।
1. बंदूक की गोली
पत्थर होना नहीं चाहती
नहीं चाहती फूल होना
नहीं चाहती
गुल होना
गुलदान होना
नहीं चाहती कोई
मृगनयनी ,चंद्रमुखी कहे
लाल अधर रसाल या
खंजन कटारी नैन कहे
आनंद की निधि कहे
केवल श्रद्धा कहे
कलगी बाजरे की
या कहे जूही की कली
इन आवरणों से उतारों मुझे
मनुष्य हूँ
मनुष्य की तरह स्वीकारों मुझे ।
नहीं चाहती
आब-ए-तल्ख़
बनकर गिर जाना
घर का गहना
बनकर रह जाना
नहीं चाहती
गंगा मईया
नीम देवी
गाय माता
होना
नहीं चाहती
घर की दाई
पुरुषों की जुबान होना
पापा की पगड़ी और
भाई की आबरू होना
चाहती हूँ
आग होना
पहाड़ होना
पखेरू होना
जानती हूँ
अधिकार अपना
पहचानती हूँ
अपनी अस्मिता
होना चाहती हूँ
मूक इतिहास की बोली
ज़रूरत पड़े तो
बंदूक की गोली….
2.हिसाब मांगती है
जिसे कल तक
वे सब चाहते थे
बिस्तर और स्टेटस सिंबल बनाकर रखना
अब वह
हिसाब मांगती है
अपने लिए एक मुकम्मल जगह
और अपने सवालों का
जवाब मांगती है
इतिहास में हुए अन्याय के लिए
न्याय चाहती है
जाति-धर्म के नाम पर
हो रहे शोषण से
मुक्ति चाहती है
उसने तोड़ दिया है
तुम्हारे बनाए पिंजरे को
अब वह
लोगों को जुटा रही है
उसकी दबी हुई आग को सुलगा रही है
तुम्हारे साजिशों के ख़िलाफ़
आवाज उठा रही है
हमेशा से
सहजीविता का
पक्षधर रही है
आज वह
चुप नहीं बैठेगी …
जगह, जाति,धर्म व जेंडर का
भेद मिटाकर
मनुष्य व मनुष्यता के लिए
लड़ेगी वह
अब वह
दृश्य-अदृश्य गुलामी की
साजिशों के खिलाफ
एकजुट होकर
लड़ाई लड़ रहे लोगों के साथ मिलकर
सहजीविता व साझेदारी की
एक नई दुनिया बसा रही है….