सीमा सिंह की कविताएं

सीमा सिंह की कविताएं स्त्रीकाल के ताजा अंक में प्रकाशित हुई हैं तथा इनका पाठ सीमा सिंह ने स्त्रीकाल यूट्यूब पर भी किया है।

  1. संभावित उत्तरों की तलाश में 

चिड़िया को देखने से भी पहले 

नहीं थी कोई कल्पना उनके समक्ष 

आकाश हो जाने की

पंखों के अभाव में जाना ही नहीं 

कि उड़ना आख़िर कैसा होता है 

मछलियों को देखने के बाद 

पाल ली थी इच्छा पानी पर चलने की 

जबकि बिना आधार चलने में गिरना तय था ,

किसी ने नहीं बताया कि पानी में उतरने से पहले 

करना होता है खुद को पानी के हवाले 

पानी में सिर्फ़ पानी का हो जाना होता है 

भरोसा ऐसा कि आख़िरी हिचकी भी 

इस यक़ीन में आए कि पानी ने ही किया होगा याद ,

किसी ने नहीं दिखाए रास्ते धूप में निकलने के 

जिस वक्त देखने चाहिए थे हमें अपने पैर 

और नापना चाहिए था दुनिया को नाप के जूतों के साथ 

हमें जान के दूर रखा गया रास्तों की तपिश से 

कि कोमल चेहरों को उनकी आँखों के लिए 

बचाया जाना ज़्यादा ज़रूरी था ,

पहरों भटकने के बाद आख़िर जाना 

धूप का स्वाद ज़बान पर कसैला नहीं 

बल्कि आत्मविश्वासी होता है 

टकीं हों जेबें कपड़ों में तो चेहरे की चमक 

यूँ ही बढ़ जाती है 

नहीं पड़ती ज़रूरत किसी फ़ेयर एंड लवली की 

सौन्दर्य के भार से दबी हम सीख रहीं थीं 

पहचानना अपने वास्तविक रंग 

जबकि किसी ने नहीं बताया कि हमारे प्रश्नों के 

संभावित उत्तर आख़िर क्या होंगे !

सहेजने की आनुवांशिकता में 

कहीं न पहुँचने की निरर्थकता में 

हम हमेशा स्वयं को चलते हुए पाते हैं 

जानते हुए कि चलना एक भ्रम है 

और कहीं न पहुँचना यथार्थ ,

दिशाओं के ज्ञान से अनभिज्ञ 

कर रहें हैं पीछा सूरज उगने वाली दिशा का 

प्रकाश से हमारा संबंध भले ही सदियों पुराना हो 

पर अपनी ही परछाई से हार जाना नियति ,

हम हांक दी गई बकरियों की तरह झुंड में 

चर रहे समय पर गिरी पत्तियों को 

यह जानते हुए कि हवा उड़ा ले जायेगी 

किसी रोज़ अनिश्चित दिशा में जहाँ 

हम खुद को पायेंगे निरीह अकेला ,

जिनके हिस्से नहीं आती कोई निश्चित जगहें 

वे यूँ ही भटकती रहती हैं तमाम उम्र 

और एक रोज़ अंतिम आंसू की तरह गिर कर 

मिट्टी हो जाती हैं 

हम ढूँढते रहते हैं आदिम रास्ते 

और चाही गई मंज़िलों के पते 

बारिश में भीगने की चाह और 

जंगल के उस पार खुद में डूबी एक नदी ,

टेढ़े मेढ़े रास्तों को पार करने की इच्छा 

किसी बच्चे के ज़िद जैसी 

जो रोता है लगातार चाही गई वस्तु के लिए 

हमें जीवन की तलाश में भटकने दिया जाये

निश्चित है कोई न कोई द्वीप 

एक दिन हमसे ज़रूर टकरायेगा 

और तुम्हारा आसमान भरभरा के ढह जायेगा 

हमारे खुले बालों पर

हम सफ़ेद फूल टाँक आसमान को सहेज लेंगी 

जैसे सहेजती हैं जूड़ों में अपने बिखरे बाल !

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ISSN 2394-093X
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