प्रश्नचिह्न

अहा! कैसा मनहर दृश्य है, चलो उस शहरी कलौंछ से कुछ क्षण का तो छोह हुआ। देखो तो कैसी निरभ्र मुंडेर है इस गांव की, इस अछोर आकाश पर  कपास की चटकीं कलियों सी नन्ही-नन्ही सफेद बदलियां छिटकी पड़ी हैं। इन बदलियों की ओट में मानो सैकड़ों रजत घण्टिकायें अपनी वेणी से छिटककर किसी स्पंदन से छिपी फिर रही हैं। पर किससे? चंदा मामा से क्या? पर वह तो  करवट लिये सोया सा लगता है। चलो देखूं तो! अरे इस सौंधी सी उसास में ऐसा उतराया कि  स्वयं से मिलाना तो बिसर ही गया। मैं हूं न्याय! आज इस गांव में मेरी ज्योंनार है । देखो  वोऽऽऽ वहाँ….जहाँ प्रश्नचिह्न-सा दिखाई पड़ रहा है वही मैं हूं। सब कुछ यहां कितना निश्छल सा है पर न जाने यह कैसा नाड़ी तत्व है जो मुझे इस प्रश्नचिह्न में बांध रहा है? धरती से देखने में ये भले सुहावना लगता हो लेकिन मेरी धमनियां इसी धरती पर निश्चेष्ट न हों। आज शायद मैं यहाँ स्वयं के अस्तित्व की गहराई मापने आया हूँ। इस स्पंदन को भी जानता हूं ! चलिये आप लोग मुझे अपनी-अपनी दृष्टि से निहारिये अथवा परखिये लेकिन आज तो मेरा रूप यही प्रश्नचिह्न है, मेरे लिये भी और आपके लिये भी।  चलिये उस स्पंदन को भी देख लूं जिसने मुझे इस प्रश्न में बांधा है। वोऽऽ…रही…. वहाँ पृथ्वी पर माँ के आँचल में दुबकी सोई ये नन्ही सी बिटिया है बिरदा। अभी ही मिला हूँ इससे बिल्कुल हमारे माखनचोर सी श्यामल दिखती है, शरारती है, पर इसकी शैतानियों पर कोई नहीं रीझता। बिरदा को छाती में छुपाये आकाश ताकती ये है बिरदा की माँ बिन्नो, और वहाँ आँगन के दूसरे छोर पर जो करवट बदल रहे हैं वो हैं बिरदा के पिता किसुन। किसुन और बिन्नो के बीच की तीन खाटों पर बिरदा की चार बहनें और दादी सोई हैं। 

सभी सो रहे हैं, झींगुरों के खर्राटे बिल्कुल साफ सुनाई पड़ रहे हैं, हवा की बातें भी समझ आ रहीं हैं  लेकिन हम तीनों जाग रहे हैं बिन्नो, किसुन और मैं! शायद हमारे भीतर का कोलाहाल इस रात पर भी भारी है। मैं प्रश्नचिन्ह बना यहाँ बादलों से झांक रहा हूँ और मेरी परछाई बिन्नो की आँँखों में दिख रही है, उसके बुदबुदाते होंठ सोते चांद की टहनियों पर अपनी मनोतियों के काले-काले धागे बांध रहे हैं, और पूछ रहे हैं कि  ‘हे कान्हा! तुमने तो ब्रज की कितनी ही मटकियां नहीं फोड़ीं, कितना माखन चुराया पर जरा बताओ तो तुम्हारे बिरज में तुम पर भी कभी पंचायत बैठी थी क्या?’

भुनसारे से इस पांच बरस की बिरदा पर पंचायत बैठने वाली है। पंचायत में मुझे परिभाषित किया जाना है, मेरे ही नाम की बेडि़यों में शायद बिरदा को जकड़ा जाना है या शायद नहीं पर फिर भी बिरदा के पाप पर न्याय तो होना ही है। पाप…कितना भारी शब्द है ना, ये नौनिहाल क्या इस शब्द के लायक है? क्या ये नन्ही बालिका इसे वहन कर सकेगी? बिरदा की माँ की दशा तो ऐसी है जैसे कोई उसे रेत रहा हो, उसकी आँखें पिघलकर बही जा रही हैं। बिन्नो का बस चलता तो अपनी बिटिया को छाती के भीतर ऐसे छुपा लेती जैसे रात ने चांद को छुपा लिया है लेकिन अब वो भी तो पांच बरस की हो गई है माँ के आँचल की कसावट से छटपटाकर दुनिया की दौड़ के साथ भागना चाहती है, चहकना चाहती है लेकिन इतनी बड़ी भी नहीं हुई कि न्याय और पाप जैसे शब्दों का बोझ उठा सके उसे तो दुनिया का शोर झुनझने सा लगता है जिसकी तरफ खिंचती चली जाती है पर सच तो यह है कि बिरदा के इस झुनझुने के भीतर इसे बनाने वाले ने कितने सारे आडम्बरों की पथरियां भर रखी हैं। वो नहीं जानती कि वो जरा सा जोर से इसे झटकेगी तो पथरियां झुनझुने से छिटककर सीधे उसी पर वार करेंगी। 

अरे! देखो ना ईश्वर से मनुहार और शिकायतों में लिपटी रात बीत चली है और मुझे पता ही नहीं चला, बिन्नो को शायद लग रहा होगा कि काश! ये रात ऐसे ही ठहर जाती, मुझे भी ऐसा ही लग रहा है, पर भोर तो स्वर्णाभूषित होकर निखर आई है लेकिन ये स्वर्णाभा ऐसा मृग बनकर आई है जिसकी प्रतीक्षा में आखेटक घात लगाये बैठा है। 

बिन्नो ने चाय का गिलास किसुन के हाथ में दिया और चूल्हे पर बैठ गई, कभी कढ़ाई गिरती है, कभी थाली, कभी लोटा, ऐसा लगता है ये बेजान बर्तन भी विद्रोही हो रहे हैं पर सच तो ये है कि भय ने बिन्नो के हाथों से शक्ति निचोड़ ली है। हर एक बर्तन की खनक पर ऐसे चौंक उठती है जैसे किसी ने अचानक वार कर दिया हो। दीवार से टिका किसुन बिन्नो को एकटक देख रहा है चाय के गिलास से उठकर धुआँँ किसुन के चश्मे से लिपट रहा है, चश्मे पर लिपटे घने धुएं को तो वह अपने अंगौछे से पोंछ लेता है लेकिन मस्तिष्क की उधेड़बुन पर छाई घनी धुंध किस विध हटाये ये सोच-सोचकर हारने लगा है। भय उसकी कनपटियों पर पसीना बनकर बह रहा है। बिन्नो की सिसकियां जैसे किसी पिघले शीशे की तरह किसुन के कानों में पड़ रहीं हैं, स्टील के गिलास को हाथों से खरोंचते हुये देर तक अपने क्रोध को दांतो से मीसकर चबा जाना चाहता था लेकिन इस क्रोध के वेग ने उसकी शक्ति का बंध तोड़ डाला। किसुन चाय का गिलास दीवार पर फेंकते हुये चिल्लाया –

‘बिसूर ले जित्तो बिसूरने हैं, इन टसुअन से पंचायत टर जाती तो मैं नदी नारे भर देतो।’

माला जपतीं किसुन की अम्मा भी नाराज हो पड़ीं- ‘ऐसे बासन भांड़े फेंके से बिटिया घर में आ जाये तो जे सब भीतें फोर डारो और बिरदा की महतारी तैं अपने अंसुअन में जो घर घोर डार’

सच ही तो है समस्याओं पर चीखने से वे कभी रास्ता तो नहीं बदलतीं उनके सामने तनकर खड़े होना ही एकमात्र मार्ग होता है। सुबह के नौ बज चुके हैं, मौसम कुछ तल्ख है। मुखिया के बाड़े में गाँव भर इकट्ठा हो गया है, रंग-बिरंगी मोर, चिडि़यों और बिलइयों के चित्रों से सजे बरामदे में तीन तखत हैं  जिस पर पंच बैठे हैं, बाकी चार तो कुछ ठीक-ठाक से डीलडौल वाले दिखते हैं, बाल मूछें सब अधखिचड़े हैं लेकिन जो खिजाब रंगे बालों वाले बीचों-बीच पांव पर पांव चढ़ायेे बैठे हैं वे हैं मुखिया, डीलडौल में पहलवान से लगते हैं उम्र ढल रही है लेकिन उम्र की भी इतनी औकात नहीं जो सामने झलक पड़े, लकड़ी से दांत ऐसे कुरेद रहे हैं जैसे मसूड़ों में कोई खदान मे गड़ा सोना खोजते हों, बीच-बीच में डकारें भी ले रहे हैं, कुर्ता और लुंगी एकदम भकभके हैं जैसे बगुलों के पर नोंचकर चिपका लिये हों लेकिन मन…पता नहीं!

 बीचों-बीच नीम का बड़ा पेड़ है, टिटिहरियां, गौरइयां, कउवे, कोयलें सब के सब चुपचाप बैठे हैं पता नहीं वादी हैं, प्रतिवादी हैं, समर्थक हैं या फिर दर्शक खैर जो भी हों। हवा कुछ गर्म है, लोगों की फुसफुसाहट मिलकर एक अजीब सा शोर गढ़ रही है। बिन्नो बिरदा को चपेटे एक कोने में सिकुड़ी बैठी है, पेट में कुछ खौल रहा है जिसकी तमतमाहट उसके चेहरे पर साफ झलक रही है, चारों ओर से उसकी बेटियां जैसे कोई सुरक्षा घेरा ताने बैठी हैं किसुन और उसकी अम्मा मुखिया के सामने हैं। किसुन की अम्मा न्याय अन्याय का संशय गुटकते हुये हथेलियों में छोर दबाये बोलीं-

‘मुखिया जी! जो भी पाप भओ हम सब भोगें के लाने तैयार हैं, जीवन भर चाहें अपने बच्चन खें भूखों राखें लेकिन चुनइयां मुनइयां चुनवा हैं, कहो तो हम सब एक बेरा को उपास कर लै हैं, भगवान के दरी खाने में रोट चढ़ा हैं, जो कछु कहो सब प्रासचित कर हैं, बस बिटिया की दया बिचारो अभे महताई की ओली से नईं उतरी उको काहे को पाप पुण्य बताओ तो।’ 

 बऊ – ‘जो कहतीं हो सब ठीक है लेकिन तनक सोचो जैसें तुमाई सन्तान है वैसई तो ऊ जीव की हती, ऊ पे का बीती हो है, ऊको दरद बटा सकतीं हो का, बोलो?’

कहीं से कोई आवाज नहीं, देर तक सन्नाटा छाया रहा बस कुछ सिसकियां अकेली यहाँ से वहाँ दस्तक देती दौड़ रही हैं, कि तभी सफेद लम्बी मूछों के बीच से मुखिया की खरखराती आवाज फिर गूंजी- 

‘किशन की मौड़ी बिरदा आज से जात बाहर है, गाँव बाहर है, जिस किसी ने इसे छत दी यहाँ तक कि छुआ भी तो वो भी गाँव और बिरादरी से बाहर होगा’

पंचायत ने फैसला सुना दिया, सारा गाँव मौन है, लेकिन पेड़ बैठीं सारी चिडि़यां एकसाथ फरफराकर उड़ीं तो ये मौन टूटा पर बिरदा कहाँ उड़ जाती वो तो सहमी सी माँ से लिपटी न्याय की कुर्सियों पर बैठे न्यायाधीशों को देख रही है, इस न्याय-अन्याय के पतेली में क्या खौला उसे कुछ नहीं समझ आया, सुनाई दिया है तो बस अपना नाम – ‘अम्मा! दद्दा बुलाते हैं?’ बिन्नो ने उसे अपने बाजूओं में कसकर चपेट लिया है, उसकी देह थरथर कांप रही है। ऐसा लगता है जैसे उसकी सारी धारणायें मौन हो गईं हैं, विचार सुन्न पड़ गये हैं। अब तक बिन्नो अपने भय और पीड़ा को गले में ही रौंदे डाल रही थी लेकिन अब वो भय उसके बंध की मर्यादायें तोड़कर बाहर आया तो बिन्नो फफक पड़ी, और बेसुध होकर धरती पर गिर पड़ी, बिरदा माँ की छाती से चिपकी जोर-जोर से अम्मा…अम्मा…करके बिलख रही है, सबेरे उसके माथे पर माँ ने जो नजर का डठूला लगाया था वो मिटने लगा है, काजल आँखों से निकलकर गालों पर पनीली धारें बनकर बह रहा है।  बिरदा को रोते देख वहाँ खड़ी महिलाओं ने घूंघटों में आँसूओं को छुपाकर बिरदा को उसकी माँ से अलग कर बिन्नो को सम्हाला।

 पुरुषों के समूह में किसुन के अलावा कोई ऐसा नहीं, जिसके मुख से एक शब्द भी फूटा हो। चारों तरफ छाये सन्नाटे से बस बिरदा के आँसू लड़ाई लड़ रहे हैं। मैं यानि न्याय कोने में खड़ा थरथरा रहा हूँ। कैसे इस नन्ही सी बच्ची से जाकर लिपट जाऊं, जिसके लिये अभी मेरा शाब्दिक अर्थ भी कुछ नहीं, जी चाहता है छोड़ जाऊं इस सभा को पर कैसे? मैं न्याय होकर भी इस सभा का बन्दी हूँ, इन न्यायाधीशों की सफेद चादरों तले दबा पड़ा हूँ। क्या यहाँ बैठे किसी जीव में इतनी हिम्मत नहीं जो मेरे थरथराते हाथों को पकड़कर झटक दे और इस स्वयं को परमेश्वर समझने वाले इन मिट्टी के जीवों से कह दे कि ‘नहीं ये अन्याय है, ये चिरइयां भी अपनी भाषा में विरोध कर रही हैं पर जब ये इंसान इंसानी भाषा नहीं समझता तो तुमको कौन सुनेगा, पर मैं जानता हूँ इस न्यायादेश को सुनकर माँ कभी मौन नहीं हो सकती, वो जरूर कुछ बोलेगी क्योंकि जब पीड़ायें सन्तान का वरण करने आई हों और महतारी मौन हो जाये, ऐसा तो सम्भव नहीं आखिर सन्तान की पीरें केवल जन्म के समय नहीं होतीं वे तो उम्र भर के लिये माँ की गठौटी में बांध दी जाती हैं। पर ये बिरदा की माँ क्यों कुछ नहीं बोलती? ये कैसे सुन्न हो गई? नहीं…नहीं…ये संभव नहीं! शायद इसके प्राणों से निकलकर कोई ईश्वर मुख के रास्ते बाहर आना चाहता था लेकिन इन कमबख्त दांतों की सख्त पहरेदारी ने उसे भीतर ही रोक दिया है। बिरदा की अम्मा…ओ बिरदा की अम्मा…उठ तुझे यूं बेसुध होने का अधिकार नहीं है।’ 

गाँव कि महिलाओं ने उसके मुंह में लकड़ी डालकर भींचे दांतों को खुलवाया, पानी छिड़का तो बिन्नो धीरे-धीरे होश में आई। उसने देखा बिरदा छाती से चिपकी बिलख रही है। बेटी को बेसुध रोते देख जैसे उसके भीतर किसी ने शक्ति संधान कर दिया हो। झटके से उठी घूंघट सम्हालते हुये बेटी को चिपकाये आगे बढ़ी और बोली – ‘मुखिया जी राई भरी मौड़ी खें इतनी बड़ी सजा, ऐसो बड़ो पाप कर दओ का, इसें बड़े-बड़े पाप रोज गली चलत करत गाँव भर।’

इससे आगे कुछ कहती मुखिया चीख पड़े – ‘ऐ…मरजादा में रह…घूंघट को मान बनायें राख किसुन की दुलैन इसें आगे एक सबद भी बोली तो मौड़ी संगे सब घर गाँव बाहर कर दओ जैहे।’

बिन्नो कुछ कहती उससे पहले किसुन ने आकर उसे आँखें दिखाईं और बोला – ‘जादा फौजदारी को कछोटो ना खेंच, मैं अभे मर नहीं गओ।’

बिन्नो दांत मीसकर रह गई उसने बिरदा को इस तरह छाती से जकड़ लिया जैसे उसकी बाहों के घेरा कोई व्यूह रचना हो जिसके भीतर मानव तो क्या देव भी प्रवेश ना कर सकेंगे।

अब मैं बिन्नो के आँचल से छुटककर किसुन के कांधे पर सवार हो गया हूँ , इस आशा के साथ कि ये मेरे नाम पर होने वाला यह प्रपंच रोक लेगा।  

 किसुन पंचो के आगे अपना अंगौछा पसारे रोते हुये गिड़गिड़ाया – ‘हा हा… बिनती करत हों महराज, ऐसो ना करो, तुम औरें पंच परमेसुर कहाउत हो इतने कठोर नईं हो सकत तनक सी मौड़ी खें इतनी कड़ी सजा ना सुनाओ, कहाँ जैहे बिटिया, ऐसो ना करो…ऐसो ना करो…’

‘देख किसुन बाल बच्चा दुसमन हमाये भी नईयां लेकिन न्याय तो न्याय है बो कोऊ के लानें दो नईं हो सकत, न्याय खें पालबो बहुत कठोर होत, राम तक नें बिधाता होत भये हत्या को पाप भुगतो हतो कि नईं, अगर मौड़ी के पाप खें छोड़ दओ और गाँव पे कौनऊ बिपत आई तो को जिम्मेदार हो है, और फिर जो भी बता फिर तो हर दिन कोऊ ना कोऊ काण्ड कर है, ऐईसें सजा तो मिल है।’

न्याय थरथराते हुये बोला – ‘क्या कहते हो मुखिया! मैं कब इतना कठोर हुआ जिसने नन्हें फूलों को रौंदने का फल दिया हो, अपने स्वार्थ की पूर्ति का पत्थर फेंकने के लिये तुमने मुझे अस्त्र बना रखा है। इस नन्हें फूल से जो हुआ अनजाने में हुआ पर तुम तो जानबूझकर पाप कर रहे हो। अरे! मैं तो सिर्फ निर्दयी और निर्ममों के लिये अस्त्र बनाया गया था तुम जो कर रहे हो वो क्या है? देखो उस मासूम नौनिहाल की ओर उसे दण्ड देने में तो ईश्वर के हाथ भी ठहर जायेंगे। इस बाप को देखो जो एक वक्त भूखा रहता है लेकिन कभी अपने बच्चों को भीख मांगना नहीं सिखाता आज उसे न्याय की अनदेखी वेदी पर होमने जा रहे हो। उस माँ ने क्या बिगाड़ा है, उसके उन पाँच बच्चों ने क्या बिगाड़ा है जो इतने वज्र हुये जाते हो। याद रखना वो वज्र भी त्याग की हड्डियों से मिलकर ही बन पाया था जिस दिन वह अन्याय करता उसी दिन पिघलकर बह जाता।’ 

किसुन, बिन्नो और उनके बच्चे मुखिया के पैरों तले पड़े दया की गुहार लगा रहे थे, इस करुण क्रन्दन पर क्रूर की आत्मा भी विद्रोह कर उठती लेकिन मानवी आत्मा पर लोभ और कलुषता का ऐसा खोल चढ़ाया गया है कि हर लहर उससे टकराकर लौट आती है।

‘फैसला अभी से लागू होता है, मेंढ़ बाहर मौड़ी को ले जाओ रे लौंडो’ – मुखिया ने ऐंठते हुये कहा

हाथ कांपे भी तो क्या लड़कों ने माँ की कमर से लिपटी बिरदा को छुड़ाया तो सारे बच्चे और बिन्नो उससे लिपटकर चीखने लगे लेकिन इस क्रन्दन की तीव्रता इतनी नहीं थी जो यहाँ खड़े किसी एक के हृदय में भी घाव कर सके।

मुखिया हट्कारते हुये बोला – ‘रे किसुन! छोड़ दो मौड़ी खें नईं तो तुम सब भी अभईं निकार दये जै हो।’

‘हा…हा…बिनती मुखिया ना करो ऐसो ना करो मौड़ी कहाँ जैहे’- किसुन गिड़गिड़ाया

‘जैसी तेरी इच्छा गाँव बाले समझा लें ई किसुना खें नईं तो ईकी जात के सब गाँव बाहर कर दये जै हैं’

इस एक वाक्य ने जैसे किसी मरे में जी डाल दिया हो, डाले भी क्यूं ना आखिर हम सब हैं तो स्वार्थ की पुतरियां ही, जब तक स्वयं तक आँच ना पहुँचे तब तक कौन बोले। लेकिन अब ये धुआँ उड़कर जब उनके आँगन की तरफ मुड़ने लगा तो बोल पड़े हैं – 

‘किसुन! हम सबके बाल बच्चा हैं, अभे मौड़ी खें जान दे फिर सोच हैं का करने तोरे हाथ जोरत भइया मान जा’

एक साथ जैसे सैकड़ों अस्त्र किसुन पर चला दिये गये हैं। बिन्नो धरती पर गिर पड़ी रोते-रोते चिल्लाई- ‘जाओ जीखें जहां जानें मैं अपनी मौड़ी खें नईं छोड़ सकत, दद्दा अपनी दुधमुंही मौड़ी खें नईं छोड़ सकत, ऐसो कौनऊ पाप नईं करो मोरी मौड़ी नें, नईं छोड़ सकत…..’ कहते-कहते बिन्नो फिर बेहोश हो गई।

किसुन ने थरथराते हाथों से बिरदा को उठाया तो वो सहमी सी पिता के गले से कसकर चिपक गई। किसुन उसे उठाये लम्बे-लम्बे डगों से रोता हुआ निकल गया पीछे-पीछे मुखिया के आदमी, गाँव वाले और उसकी अपनी बच्चियां दौड़ी जा रही हैं – ना पापा! ना ले जाओ हम कसम खात कभऊं इस्कूल की देहरी पे ना चढ़ हैं, छोड़ दो…छोड़ दो पापा’

गाँव के बाहर वाले मन्दिर पर खटिया बिछा दी गई, बिरदा को किसुन ने उस पर बैठाना चाहा तो किसुन के गले से किसी सख्त लता सी लिपट गई, नन्ही-नन्ही हथेलियों की जकड़न इतनी सख्त तो नहीं थी लेकिन पिता के हाथों का बल शायद इस फैसले के तले दबकर मर गया था। बिन्नो भी धूल में सनी दौड़ती आई और बिरदा को अपनी गोद में लेकर चीखी-

‘भग जाओ! सब इते सें ऐसे गाँव ऐसे इंसानन से अच्छे हम गाँव बाहर ही हैं, चले जाओ सब’ बिन्नो बेतहाशा चीख रही है कि किसुन ने उसे सम्हाला- ‘मैं अकेले में बात कर हों मुखिया सें तनक चिन्ता ना कर, अभईं जात हों, बस थोड़ी धीरज रख, देख मौड़ी हमें देख-देख सीझी जा रही।’ बिन्नो चुप होकर सहमी सी पीपल तले बिरदा को चपेटे बैठ गई। किसुन मुखिया के घर की तरफ दौड़ गया। 

इधर पंचायत विसर्जित होने के बाद तमाखू बीड़ी रगड़ी जा रही थी।

‘महाराज निरनय तो सुना दओ लेकिन मौड़ी जैहे कहाँ?’

‘सरग में जाय लेकिन गाँव बिरादरी के सामने छोड़ तो नईं सकत ते बताओ’

‘बो सब तो ठीक है लेकिन फिरऊं एक बार किसुना की तरफ सें भी सोचो चहिये हतो, अकेलो आदमी पांच-पांच बिटियां लुगाई और महतारी खें कहाँ डुरयायें फिर है, इते तो उकी पुरखयांत है तो मजूरी धतूरी करके चला लेत बाहर कहाँ जैहै? और सोचो कहूं कुआ-बहर कर गओ तो थाना तसीली को चक्कर ना फंस जाये।’

‘इतनी हिम्मत अभे नईयां कोऊ की कि हमाये खिलाप थाना तसीली कर डारे, रही बात किसुना की तो अभे झक मार खें नाक रगड़न आ है, जाये के लाने माया रची है, बस अपने हिसाब को निपटारो कर लैबी, काये महाराज का कहत हो, है कि नईं, पंचायत की गद्दी खुरखुरा रही बहुत दिना सें’ आँख दबाकर मुखिया बोला, इतना सुनते ही पंचों का जोर का ठहाका गूंज उठा।

‘इन ठहाकों के बीच सिसकियां पता नहीं कौन सुनेगा, पर फिर भी मैं फरियादी बना किसुन के कांधों पर सवार होकर दोबारा इस देहरी पर चला आया हूँ।’ 

‘मुखिया जी! कौनऊ तो रास्ता हो है, जो कहो बो कर हैं बस अपनो फैसला रोक दो’ किसुना गिड़गिड़ाते हुये बोला 

‘हमें पता हतो कि तू जरूर आ है, पर भई देख किसुन! और कौनऊ जात होतो तो कछु सोचते पर तुम तो…. तुम्हाओ पाप तो दसगुना भओ कि नईं, अब बता भाई का करें?’

‘मुखिया जी! तुम जो कहो सब ठीक लेकिन थोड़ी तो दया बिचारो कहाँ जै हैं हम सब, तनक-तनक से बच्चा हैं, बूढ़ी महतारी है।’ 

मुखिया ने तुनकते हुये मूछों पे हाथ फेरा, कांधे पर रखा गमछा फटकारा और बोला – ‘पूरो गाँव हतो मौजूद कि नईं, पर एक जीभ पंचायत के बिरोध में डुली, मतलब का है ई बात को, समझ में आई कछु कि नईं?’

किसुन हाथों को रगड़ता हुआ सुनता रहा, फिर माथा जमीन पर रखते हुये बोला – ‘कौनऊ तो मारग हो है, जो है सो कहो प्राण दे के पूरो कर हों, पर ई फैसला सें उबार दो, बा मौड़ी भी तो हमाये खेंजुला की चिरैया है, उके प्रानन को पाप न चढ़ है का?’

‘अच्छा अब तू हमें पाप पुण्य को पिरबचन दै है, हम प्रान ले रहे का मौड़ी के, हम हत्यारे नईयां, ऐसे ठनगन करने होवे तो भग जा यहां सें’

‘ना…ना…बाल बच्चन खें बिलखत देख मति फिर गई कछु भी बकत जात, माफी देओ तुम जो कहो सो करों, मैं कछु नईं कहत’ किसुन अपने गालों पर थपडि़यां देते हुये बोला  

‘हम्म…ठीक है..देख तू भी हमाये लरका बच्चा सम है ऐईसें बतायें दे रहे, चुपचाप एक रास्ता है अगर कर सके तो?’ मुखिया कान में आके बुदबुदाया

किसुन की बुझती आंखों में एकाएक जैसे किरणें फूट निकलीं – ‘जो कहो बो कर हों मुखिया जी’ 

‘तो सुन चुपचाप ग्यारा हजार रुपैया हमाई देहरी पे धर जा, रही बात गाँव वालन की तो कह दे हैं कि नये खेंजुला धरवाये हैं किसुन ने, और हां कछु बीड़ी पानी को इन्तजाम कर, अपने चूल्हे पे बढि़या मटन को इन्तजाम कर तो कछु सोच सकत।’

आकाश कि चिडि़यां चिचियाती हुई मंडरा रहीं थीं, ना जाने हंसती थीं या रोती थीं, ग्यारह हजार रुपये इतनी कीमत तो कभी सोच की देहरी पर भी नहीं आई थी, और उस चूल्हे पे मटन जिस पर कभी चिटिया भी मर जाये तो चार दिन तक पीपल के नीचे चून बिछा दिया जाता है। ये सब सुनकर किसुन की धमनियों का रक्त जैसे रेत बनकर भरभराकर गिर गया हो, सारी देह में जैसे ग्लेशियर बन गये हों, चेहरे पर फक्क सफेद बादल बैठ गया हो। कुछ देर बाद मुखिया ने उसे झकझोरकर अपनी बात फिर दोहराई तो किसुन एकटक मुखिया को देखता रह गया, फिर धीरे से उठा और बिना कुछ कहे पांव घसीटता हुआ बिरदा की खाट के पास लौट आया, पीला पड़ा चेहरा और बोझ भरे पांवों को देखकर बिन्नो कुछ सहमी लेकिन अपनी आशंका को गुटककर उसने पूछा – ‘का हुआ? का कहा मुखिया ने?’

किसुन पहले तो डबडबाई आँखों से उसे देखता रहा फिर बोला- प्राण मांगे हैं!

प्राण?

‘का कहते हो साफ-साफ काहे नहीं कहते?’ 

किसुन चीख पड़ा- ‘का साफ-साफ कहूं जो मांगा है वो हम सब बजार में बिक जायें तभऊं नहीं चुका सकत, हम सूखे हाड़ मांस वालन को मोल भी ककरा पथरा सें गओ बीतो होत, ग्यारह हजार और मटन चिकन वो भी हमाये चूल्हे…..’ 

बिन्नो किसी स्तम्भ सी जड़ हो गई, जी तो चाहा कि अभी अपनी हड्डियों में गांठें बांध ऐसा बज्र बना डाले जो इन खिजाबी पंचों को न्याय और अन्याय का अर्थ बता दे, चेहरे की मांसपेशियां किसी लाल जलते कोयले सी हो गई थीं, थरथराती खाल जैसे कोई प्रज्वलित अग्नि हो, आँखें ऐसे सूख गई थीं जैसे  आँँसू वापस अपने क्षीरसागर में लौट गये हों। बिन्नो क्रोध में डूबी हंसी हंस दी और जोर से हथेलियां भींचकर – ‘बाह रे ईसुर, का न्याय है, एक अजन्मे पक्षी को इतनो मोल और सांस लेत जान इतनी सस्ती?’ 

‘हाँ तुम ही सही कहती हो बिन्नो मुझे न्याय नहीं कहा जाना चाहिये, पर मैं क्या कहूं, मैं भी तो तुम्हारी ही खाट पर बेडि़यों में जकड़ा बैठा हूँ, शिकायत किससे करती हो बिन्नो, काश! मैं भी अपने पर हुये अन्याय के खिलाफ कोई पंचायत बैठा सकता।’

रात हो चुकी है, मन्दिर की मढि़या से एक छोटा सा दिया अब भी टिमटिमा रहा है, किसुन और मैं कुछ दूरी पर धरती पर पड़े एकटक उस दिये को जलता देख रहे हैं। बिन्नो बिरदा को लिये खाट पर पड़ी आकाश ताक रही है, शायद वो दिन ढूंढकर मिटाने की कोशिश कर रही है जिसने आज की इबारत लिखी थी। उस दिन की इबारत को पढ़ते हुये बिन्नो धीरे-धीरे बुदबुदा रही है- ‘आखिर काये मति मारी गई थी मेरी जो मौड़ी को ऊ नासमिटे इस्कूल में भेजा, ना भेजती ना जे सब होता। अरे दुनिया भर में जो दूध नहीं पीयत वे मर थोड़ी जात हैं, छटाँक भर दूध को लोभ इतनो भारी पड़ है पता होतो तो जीवन भर ना दूध की शक्ल देखती ना ऊ इस्कूल की।’

उस रोज गुरुवार का दिन था बिरदा की बड़ी बहन घर से खाना लेकर आई तो देखा स्कूल में दूध बंट रहा है। वो दौड़ी-दौड़ी आई और हांफते हुये बोली- अम्मा ओ अम्मा…आज इस्कूल में दूध और केला मिल रहो।

कण्डे पाथती बिन्नो के हाथ एकाएक ठहर गये – दूध…केला…

बिरदा ने इतना सुना ही था कि डब्बा उठाकर स्कूल की तरफ भाग खड़ी हुई। बिन्नो पीछे से चिल्लाई पर फिर सोचा चलो बिटिया को दूध केला मिल जायेगा। 

स्कूल में बच्चे अपने-अपने ग्लास, कटोरे, डब्बे लिये कतारबद्ध खड़े थे, एक हेडमास्टर कुर्सी पर छड़ी लिये बैठे मुंह में पान लिरबिराते हुये बोले- ‘जे देखो खाने-पीने की बेरा ऐसो लगत है मच्छों के छत्ता में पथरा दे मारो होय, और पढ़ाई की बिरियां सबके सब ऐसें गायब होत जैसें कोऊ ने मछरियन खें सिल्फास सुंघा दओ होवे, पूरे कुटुम्ब के संगे लैकें भगे चले आते हैं, अरे ए किसुना की मौड़ी तेरा नाम नईं लिखा इस्कूल में फिर कैसें यहाँ आई, भग यहाँ से नईं तो छटइया उठाऊं’

मास्टर ने बिरदा की बांह पकड़कर लाइन से बाहर धकेल दिया लेकिन इस समय बिरदा को कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था। दूध का बड़ा भगौना देख उसकी आँखों में जैसे क्षीर सागर उमड़ आया था, केले जैसे किसी अमृत फल से जान पड़ते थे, लाइन के बगल में चार पेड़ों का गुच्छा था जिनके बीच में कुछ-कुछ जगह थी। बिरदा ने जुगत लगाई और पेड़ों के बीच से निकलने को हुई कि तभी टिटहरी के चिचियाने की आवाज के साथ-साथ पंछियों का बड़ा सा गुच्छा फरफरा कर बच्चों के बीच से उड़ पड़ा। अचानक इतने पंछियों को उड़ते देख सबकी निगाह पेड़ों के बीच पहुंची तो देखा बिरदा सहमी खड़ी थी। मास्टर दांत किटकिटाते आगे आये और उसका कान खींचते हुये गाल पर एक तमाचा जड़ दिया- 

‘अरे ओ किसुन की मौड़ी भगाया था ना तुझे और जे का किया तूने जानती है?’ मास्टर चिल्लाया

बिरदा की बहनों ने कसके जकड़ लिया – ना मास्टर जी ना मारो, अब कभऊं ना आयेगी बस ई बार छोड़ दो, गलती हो गई।

लेकिन मास्टर ने कुछ नहीं सुना बिरदा का श्यामवर्णी चेहरा थरथराकर लाल हो गया, मास्टर उसकी कलाई पकड़कर खींचकर सीधे मुखिया के द्वारे ले गया- ‘अरे मुखिया जी! बहुत बड़ो अनरथ कर दओ ई किसुन की मौड़ी ने’

का करो?

हमाये इस्कूल के पीपरा तरें टिटिहरियन को खेंजुला हते उमें कम से कम छह अण्डा हते, जा मौड़ी सीधे-सीधे उनपे पांव धर के चढ़ गई, बिचारीं चिरईयां रोउत किलपत उड़ गईं।’

पीछे से किसुन, बिन्नो भी दौड़े आये- मास्टर के पास से बिरदा को छुड़ाया तो मुखिया झिड़कते हुये बोले – ‘जानता है रे तू, तेरी बिटिया का कर आई, जीव हत्या का पाप किया है इसने, टिटिहरियन के अण्डा फोड़ डारे हैं, ई बात को तो कल पंचायत में ही फैसला हो है?’

‘टिटहरी के अण्डन में ना पता जीवन परो तो कि नईं कोऊ नई जानत पर उनके फूट जाबे पे पंचात बैठ है, पर ई चिरैया में तो जीवन है इखें कछु भओ तो कौन पंचात में फैसला हो है जो भी बता दो मुखिया जी!’ बिन्नो घूंघट के भीतर से बुदबुदाई

‘देखो तो मुखिया जी अब तो जा किसुना की लुगाई भी मुखियायिन हो रही है अब तुमाई जरूरत नईयां ई गांव बिरादरी में’ – मास्टर व्यंग्य भरी हंसी हंसते हुये बोला

मुखिया की आंखें चौड़ी हो चलीं थीं और यही काफी था ये बताने के लिये कि किसुना को क्या करना है। जब प्रश्न का उचित उत्तर नहीं होता तब अक्सर ऐसा ही होता है।

रात का चौकीदार डण्डा ठोंकता निकला तो बिन्नो आकाश में उबरते डूबते पिछले दिन के दृश्य से बाहर आई और बुदबुदाते हुये बोली – जीव हत्या, वाह रे ईसुर का दोहरे जीव बनाये हैं तुमने भी, जो खुद अभी माँ की गोद में पनप रही है उसके लिये जीवहत्या के पाप में गांव निकाला और उनके लिये क्या जो कल आँँतों की तृप्ति करेंगे….उनके लिये न्याय कहाँ है? कौन करेगा?

‘सच ही तो है मैं न्याय हूँ, पर क्या सच में मैं हूँ यहां? आज मैं इस नौनिहाल की छाती से लिपटा औंधा पड़ा स्वयं का विश्लेषण कर रहा हूँ कि मेरी वास्तविक आवश्यकता कहाँ है? पर नहीं मैं अपनी शक्ति कम कैसे आँँक सकता हूँ , कहीं ना कहीं तो अब भी मुझमें जीवन की कोई ज्योति तो होगी ना? आखिर मैं न्याय हूँ , इस तरह मेरी हत्या तो नहीं हो सकती।’

भोर गूंज उठी थी, एक टिटहरी बिरदा की खटिया के पाट पर आकर मौन बैठ गई है। उसकी मूक भाषा भले इन इंसानों को समझ ना आई हो पर मैं जानता हूँ कि वह क्या कह रही है, वो बिरदा को दुलारने आई है उससे कहने आई है कि ‘तुम मेरी पंचायत में दोषी थी ही नहीं, इसलिये तुम्हारी सजा में मैं भी बंध गई हूँ।’

लेकिन मेरा न्याय कौन करेगा, मैं स्वयं न्याय किसके दरवाजे पर जाऊं, अब किसके कांधों पर बैठूं, ईश्वर के दरवाजे बंदी बना बैठा हूँ। आरती की घण्टियां बज रहीं हैं, शंख घडि़याल सब बजाये जा रहे हैं। प्रकृति की इस वन्दना में एक और सुर शामिल हो रहा है, वो है मेरा! मैं निराश हो सकता हूँ पर मेरी उम्मीद सदैव सांस लेती रहती है उसी सांस की डोर थामे फिर मैं अपनी ही राह देख रहा हूँ।’ 

कीर्ति दीक्षित की लहरिया और जनेऊ उपन्यास सहित कई रचनाएं प्रकाशित हैं।

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ISSN 2394-093X
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