‘कुतों के रूपक’ में इंसानियत का प्रतिबिम्ब

नासिरा शर्मा के उपन्यास अल्फ़ा बीटा गामा की समीक्षा कर रही हैं शिवानी सिद्धि।

लेखक का अवलोकन और पर्यवेक्षण अभिव्यक्ति और विश्लेषण में कितना सूक्ष्म, गहन और विस्तार पा सकती है, इसका अद्भुत उदाहरण है, नासिरा शर्मा का उपन्यास अल्फ़ा बीटा गामा शीर्षक कथानक के साथ अपनी बुनावट में कई परतों में खूबसूरती से गुँथा हुआ, संवेदना के स्तर पर बहुआयामी है । जबकि अभिव्यक्ति पर पहरे हो, घुटन से चीख भी न पायें तो साहित्यकार ही ‘अभिव्यक्ति के ख़तरे’ उठाने का जोखिम ले सकता है! फ्लैप पर वे लिखतीं हैं-“जीवन अधिकार की विभिन्न श्रेणियों के प्रति बड़ी काग़ज़ी जागरूकता के बावजूद जीवन के अनेक पहलू आज भी हमारी संवेदनहीनता के शिकार है। कोरोना की पृष्ठभूमि में रचा यह उपन्यास भूखे,लाचार, बेघर (आवारा नहीं ) जानवरों पर हुए अत्याचारों के साथ ही एक झटके में बेघर हुए गरीब मजदूरों, वंचित-शोषितों की दुर्दशा को बताता है। इसके साथ ही हाशिये पर जाते मुस्लिम समाज की दशा पर भी चिंता व्यक्त करता है कि किस तरह धर्म के आधार पर इन्हें      अलग-सा महसूस करवाया जा रहा है, उनके अधिकारों में सेंध लगाईं जा रही है। क्यों उन्हें ही देश के प्रति ईमानदार होने का बार-बार प्रमाण देना पड़ता है? इन सबके बीच विश्व के ज्वलंत मुद्दे पर्यावरण और प्रकृति को भी रेखांकित करती हैं । शीर्षक किसी साइंस फिक्शन की तरह लग सकता है लेकिन यह अनोखे ढंग का ‘सोशल-फिक्शन’ है जो बेजुबान जानवरों के माध्यम से‘समाजवैज्ञानिक दृष्टिकोण’ सामने रखता है। कोरोना काल और उसके बाद तमाम आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, और धार्मिक यथार्थ की विकृत तस्वीर अधिक स्पष्ट होती गई जिसमें भूख, भय, असुरक्षित जीवन, संवेदनाओं का निरंतर पतन सांस्कृतिक ह्रास और महत्वाकांक्षाओं ने युद्ध का स्थायी वातावरण बना दिया।बस सारा मामला जीने के संघर्ष का है।’ इस संघर्ष के भीतर से जीवन अमृत खोज लाने का सुंदर प्रयास यह उपन्यास है।

मनुष्य के पास पाँच प्रकार की ब्रेन वेव्स होती है अल्फा, बीटा,थीटा, डेल्टा और गामा। ये ब्रेन-वेव्स ही जीवन निर्धारित करती हैं, जिंदगी बदल सकती हैं, बेहतर, बेहतरीन या बर्बाद कर सकती हैं, इसमें सबसे महत्वपूर्ण और ताकतवर है, ‘गामा वेव्स’ लेकिन इसे अर्जित करना आसान नहीं। हमेशा क्रियाशील हमारे मस्तिष्क में कुछ रिद्म या पैटर्न पैदा होते हैं, इस प्रक्रिया में  डेल्टा और थीटा हमारे गहन अवचेतन में बैठी रहती हैं यानी गहरी नींद के समय हमारे शरीर को आराम देती हैं। जब ‘अल्फा वेव्स’ मस्तिष्क को प्रभावित कर रही होती हैं तो इमेजिनेशन और क्रिएटिविटी पावर अच्छी हो जाती है, ‘बीटा वेव’ से जुड़ने के बाद इसमें लॉजिक या तर्क-वितर्क क्षमता भी जुड़ जाती है। अल्फा और बीटा में तमाम सकारात्मक, नकारात्मक ऊर्जा शक्तियाँ निहित रहती हैं, इन शक्तियों का सही इस्तेमाल कैसे किया जाए इसकी जिम्मेदारी ‘गामा वेव’ के पास है। उपन्यास की यात्रा इन्हीं ‘गामा वेव्स’ को पकड़ने के उपक्रम में इंसानियत की खोज करती है जो कुत्तों की कथा में साकार होती है।     

उपन्यास विविध घटनाओं, दृश्यों,वर्तमान परिप्रेक्ष्य-परिदृश्यों को कुत्तों के माध्यम से, मनुष्य की प्रतिक्रियाओं के साथ जोड़कर वाईस-वरसा प्रस्तुत करता है। मनुष्य जीवन से जुड़ी विविध घटनाएँ, इन  पशुओं के जीवन को कैसे प्रभावित करती हैं, जिस पर हमारी नज़र नहीं जाती अथवा हम नजरंदाज़ कर देते हैं, इसका उल्लेख नासिरा जी ने आरम्भ में ही कर दिया। जिस घूरे या कूड़ेदान पर कितने ही जानवरों का जीवन निर्भर है, चुनावों के चलते ‘स्वच्छता अभियान’ ने छिन्न-भिन्न कर दिया, सभी जगह बड़े-बड़े लाल-नीले कूड़ेदान रख दिए गए, परिणामत: कुत्तों की भीड़ बाजारों में लगी हुई है, गायों का हाल अच्छा नहीं था, पहले वे कूड़े के ढेर पर खड़ी मिल जाती थी, अब सड़कों पर भटकती हैं, यही हाल सुअरों का है। नासिरा जी का यह सूक्ष्म विश्लेषण विचारोत्तेजक है कि सफाई बेसहारा (आवारा नहीं) जानवरों के लिए अनजाने ही भुखमरी ले आई तिस पर जब भूख से ये जानवर रात में रोते हैं कहा जाता है कुत्ते-बिल्ली का रोना अपशकुन माना जाता है। तिवारी जी ने सर्दी में ठंडा पानी और सारी बर्फ इन कुत्तों पर फेंक दी” सुरक्षा के नाम पर अपनी सहूलियत के लिए जानवरों को मार देना मनुष्य की फितरत है। 216 पृष्ठों में समाया उपन्यास जितना फैला हुआ दीखता है, उससे कहीं अधिक गहन अर्थ देता है। पढ़ते हुए परत-दर-परत आप जीवन से जुड़े कई पक्षों पर विचार करने को विवश होते हैं। ऐसे ही पृष्ठ संख्या 42 से लेकर 44 तक कुत्तों की तमाम जातियों का विस्तार से वर्णन है, और उनकी तुलना लड़कियों या आदमियों से करना भी इस बाद की पुष्टि करता है कि कथा कई परतों में गुँथी हुई है, जैसे मोती जो स्वतंत्रता प्रेमी है, बाकी कुत्तों से अलग-अलग रहता था, उसकी नज़र में पालतू कुत्ते अपने सम्मान को गिरवी रखने वाले, हरेक के पीछे दुम हिलाने वाले चापलूस होते हैं, इंसानों में भी ऐसी प्रजातियाँ बहुतायत में है ।

‘भय’ जानवर को ही नहीं, इंसान को भी मारने-काटने पर मजबूर कर देता है वे बताती हैं कि 2015 में पड़ोसी देश ने एक साथ हज़ार कुत्ते मारे थे, इसी गद्यांश का अंतिम वाक्य है कि जबर्दस्ती लादे गए युद्धों में सैकड़ों जवान मारे जाते हैं या एक साथ दफना दिए जाते हैं,कोरोना में अज्ञानवश कहे या पूर्वाग्रह के चलते अथवा हमेशा से कुत्तों के प्रति एक घृणा रखने वाले लोग कुत्तों को जहर का खाना दे रहे थे, क्योंकि वे जाने क्यों मान बैठे थे कि कुत्ते कोरोना फैला रहे हैं। यहाँ हमें कोरोना टाइम में मार्च 2024 में तबलीगी समाज के प्रति घृणा भाव और सोशल मीडिया पर फैलाये गई नफ़रत का ज़हर याद आ गया वे संकेत करती है कि ये वही समय है जबकि विश्व में कोरोना दस्तक दे चुका था उसी कोरोना काल में  20 फरवरी 2024 में राष्ट्रपति ट्रम्प भी तो भारत आये थे। वस्तुत: कोरोना ने आम जनता को उदासीन बनाया, पस्त हो चुकी जनता रील्स देखने में मस्त है, नासिरा जी इन स्थितियों को कुत्तों की कथा के माध्यम सत्ता या शक्ति के विकेंद्रीकरण या ध्रुवीकरण को भी रेखांकित करती हैं । मुठ्ठी भर लोग गली के कुत्तों के पक्ष में हैं लेकिन अधिकतर उन्हें जहर देकर मार देना चाहते हैं, देश में भी नफरत का ज़हर   फैला हुआ है जिससे कोई भी बच नहीं पा रहा, धर्म का झुनझुना आम आदमी के हाथ में दे दिया और पूँजी पूँजीपतियों को, राजनीतिक चेतना का अभाव धार्मिक उन्माद में बदल चुका है, एक व्यवस्था ने जनता को पहले भीड़ में तब्दील किया यही भीड़ अब भेड़िए में तब्दील हो चुकी है, जो एक दूसरे की खून की प्यासी है ।

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता ‘भेड़िये’ अगर आम जनता को भेड़ियों जैसे हिंसक, क्रूर, स्वार्थान्ध लोगों से लड़ने का साहस जगाती है तो आज की व्यवस्था में आपको भेड़िया बनाया जा रहा है, जहाँ भेड़ियों को जंगल की ओर खदेड़ने की बात होनी चाहिए थी, समाज में जंगलराज पनप रहा है । भूख, बेइज्जती, फटकार, मारपीट, भोजन का अधिक भाग ताकतवर के पास चले जाना और कई पूर्वाग्रह के चलते एक उग्रवादी कुत्ता’ मोहल्ले के मासूम बच्चे पर हमला कर देता है जबकि वह बच्चा एक नन्हें पिल्ले को प्यार कर रहा था लेकिन उसकी दुष्टता का भुगतान गली के बाकी कुत्तों को उठाना पड़ा। उनकी जमकर पिटाई हुई, कुत्तों की चीखम-धाड़ में पूरे मोहल्ले की चाम-चाम शामिल हो गए। सभी कुत्तों की मॉब लिंचिंग हुई। मॉब लिंचिंग पर पुलिस का लापरवाह नजरिया देखिए पेट्रोलिंग पुलिस की गाड़ी गुजरी, सारी बात सुनकर पुलिस ने इधर-उधर देखा… यहाँ तो कुछ नजर नहीं आ रहा कहकर हँसा और आगे बढ़ गया जनता नहीं जान पा रही कि यही नियति उनकी भी हो सकती है।कितना दुखद है कि मॉब लिंचिंग करते हुए जनता नहीं मानती कि हम हत्या कर रहे हैं, सत्ता नीतियों ने व्यवस्था को कमजोर, जनता को बेरोजगार, बेबस और हत्यारों में परिवर्तित कर संवेदनहीन, क्रूर, हिंसात्मक और बदले की भावना से पोषित किया है ये किसी से छिपा नहीं । पुलिस-न्याय का बेपरवाह रवैया सत्ता की निरंकुशता को नज़रन्दाज करता है ।

 नासिरा जी लिखती हैं “अपने समाज को दो फाँको में बँटा देखकर कुछ कुत्तेहरदम ताव में रहते।…कुछ चौकीदार कुत्ते हाशिए पर पड़े कुत्तों को मुँह नहीं लगाते थे” तोये संदर्भ हमारे समाज से अलग नहीं,  हमारा समाज कई फाँकों में बंटा हुआ है। यहाँ सड़कों पर सोने वाले लोग भी हैं तो महलों में रहने वाले भी, जिनकी छत पर हेलिकॉप्टर उतरतें हैं।यहाँ खाना फेंकने वाले भी हैं और उसी फेंके हुए खाने को खाने वाले भी। ये समाज का वो वर्ग है जो किसी भी हाशिये के विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाया। शादियों, त्योहारों, उत्सवों तथा होटलों में कितना ‘जूठन’ कूड़े में फेंक दिया जाता है, जो किसी भूखे का पेट भर सकता है लेकिन वे कूड़े से खाना बीनकर खाते हैं। वे लिखती हैं भूख से बड़ा ना कोई सच है ना कोई दर्शन  इसी ‘जूठन’ पर आत्मकथात्मक उपन्यास हमारे सामने है। नासिरा जी भूख, अपमान और उपेक्षा की कहानी ‘कफ़न’ का सन्दर्भ देती हैं जब मोती गरम-गरम समोसे निगल जाता है, उसे क्या पता था कि कहानी सम्राट प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘कफन’ में गरम-गरम भुने आलुओं को कितनी तेजी से बाप बेटे से निगलवाया था, सच तो यह है कि ‘भूख’ न तो मृत पत्नी को याद रख पाती है ना प्रेयसी-सी की याद भूख मार सकती है’। कोरोना ने बेरोजगारी और भुखमरी में इजाफा किया एक ओर सोशल मीडिया पर हर पल व्यंजनों की रेसिपी के वीडियो बढ़ रहे थे दूसरी ओर दो रोटी के जुगाड़ न कर पाने वाला मजदूर पैदल ही गाँव की ओर लौट रहे थे, मर रहे थे, कोरोना से नहीं भूख से । भूख ने देसी कुत्तों के तेवर को गिरा कर रख दिया था। आज उनके अंदर का क्रांतिकारी मर चुका था मरता क्या न करता इस तरह आरंभ से ही समझ में आने लगता है कि उपन्यास सिर्फ कुत्तों की बात नहीं करने वाला बल्कि कुत्तों के समानांतर मनुष्य और मनुष्यता की भी बात करेगा इसलिए पढ़ते हुए अतिरिक्त सावधानी की माँग करता है। मजदूरों,कामगारों से घर खाली करवा किये गए और सरकार कह रही थी घरों में रहो लेकिन घर है कहाँ?  

उपन्यास में कार्तिक कहता है किकहने को हमारे यहाँ कुत्तों और इंसानों के लिए बेहतरीन क्लीनिक व महँगे हॉस्पिटल मौजूद है मगर किस ‘वर्ग’ के लिए?  खुद को ‘डॉग लवर्स’ कहने वालों में अधिकतर के लिए कुत्ता पालना शौक है, शौक महँगे होते हैं, आम आदमी किसी भी कुत्ते को लेकर इन महँगे क्लीनिक या हॉस्पिटल में फटक भी नहीं सकते। इसी तरह फाइव स्टार होटल्स की-सी सुविधाओं से लैस स्कूल और सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों की महँगी सेवा भी पैसे वाले लोग ही लेते हैं। स्लम कॉलोनी में झुग्गी झोपड़ियों में, गंदे नालों के आसपास इन जानवरों की लाश सड़ रही होती है झोपड़-पट्टी और तंग गलियों के लोग इसके आदी हो जाते हैं” यानी गंदगी का आदत में शुमार हो जाना जीवन संघर्ष का हिस्सा बना जाता हैं जहाँ ‘मौत हादसे की तरह’ आकर चली जाती है। गाहे-बगाहे असंवेदनीयता की आदत भी तो विकसित की जा रही है ।

मोती नामक कुत्ता जो आज भी फेंके हुए टुकड़े नहीं खाता’आपको बरबस एंग्री यंग मैन की याद दिलाएगा जो फेंके हुए पैसे नहीं उठाता था, व्यवस्था के प्रति उसका विद्रोह मोती को एंग्री यंग मैन समकक्ष ला खड़ा करता है । प्रेमचंद के दो बैलों में से  विद्रोही प्रवृति का ‘मोती’ है जिसकी वजह से अंत में आज़ादी भी मिलती है। कहानी में मूक पशु मोती और हीरा आपस में बतियातें हैं और दुनिया जहान के मानवीय जीवन से जुड़ी नैतिकताओं या मूल्यों की बात करतें हैं, पशु मनोविज्ञान को समझते हुए उसे मानवीय सरोकारों से भी खूबसूरती से पिरोया है । इस उपन्यास के चिरकुट, लेंडी, उग्रवादी कुत्ते या अन्य बेचारे बीमार, डरे हुए कुत्ते भी वर्तमान परिदृश्य के साक्षी बनते हैं, जो कई स्थलों पर स्पष्ट मुखर है      अथवा मुख्य कथा के भीतर गूँथकर वे उस पक्ष को सामने रखती है जिसे कहना संभवत: आज के परिवेश में आसान नहीं था। “सड़क पर और भी आवारा जानवर गायें, साँड़,सूअर, बिल्ली घूमते फिरते हैं पर उनकी इतनी बेइज्जती नहीं होती जितनी हम ‘कुत्तों’ की होती है, मोती बड़बड़ाता है यह वाक्य    मुस्लिम समाज के दर्द को भी सूक्ष्म संकेतों में समझाता है। जहाँ गायों की सुरक्षा को लेकर लिए इतना संघर्ष हो रहा है, मारकाट, मॉब लिंचिंग हो रही है फिर भी वे कूड़े में मुँह मारती फिरती है, सड़कों के बीच परेशान होती हैं, सड़क पर पड़ा घिन्नाता गोबर क्या ‘गोबरधन’ बन सकता हैं? जो भारत सरकार की एक योजना है जिसमें जैविक कचरे मवेशियों के गोबर कृषि अवशेषों से बायोगैस, सीबीजी, बायो सीएनजी में बदला जाता है, पर ये गायें खेतों में न होकर खुली सड़कों पर घूम रही हैं, जब इनके लिए कोई प्रावधान नहीं तो इन गलियों के कुत्तों के पर कौन ही बात करेगा? नासिरा शर्मा पूरे तर्क के साथ उनके दुःख दर्द को मार्मिकता से उड़ेल कर रख देती हैं । जिस तरह गायें हमारे लिए एक पवित्र पशु है उसी प्रकार से इन कुत्तों से जुड़ी हिन्दू माईथोलोजी की कथाएँ हमारे सामने रखती हैं, जैसे काले कुत्ते को भयानक देवताओं के रूपक के रूप में देखा जाता है, भैरव लोर्ड शिव के अवतार हैं उनकी सवारी है कुत्ता, दीवाली के एक दिन पहले नेपाली कूकुर त्योहार मनाते दार्जलिंग सिक्किम और पूर्वी बंगाल में भी लोग कुत्तों की पूजा करते हैं,यम के पास चार कुत्ते रहते हैं तो युधिष्ठिर ने अपने कुत्ते के साथ स्वर्ग का रुख किया इसलिए धारणा है कि कुत्तों की सेवा से स्वर्ग-मार्ग मिल जाता है,चीन में ड्रैगन डॉग इंसान का रूप धारण कर लेता है हमारे यहाँ तो लड़कियों की शादी की जाती है ताकि बुरे ग्रह बदल जाएँ, बाइबल और दूसरे पवित्र ग्रंथों में भी नूह नामक पैगम्बर का जिक्र है नूह के सामने घायल कुत्ता और उसकी गन्दगी को देखकर जब नूह ने उसे दुत्कारा तब कुते ने कहा कि मैं न अपनी मर्ज़ी से कुत्ता हूँ,न तुम अपनी पसंद से इंसान हो बनाने वाला तो सबका वही एक है नूह उसकी बात सुनकर मुद्दतों रोते रहे, किस्सा रसूल ने खुद फरमाया कि अगर पानी कम हो और कुत्ता प्यासा हो तो वजू का आधा पानी कुत्ते को देकर उसकी प्यास बुझाओ मगर देखता हूं लोगों के दिलों में बेजुबानो के लिए रहम नहीं है कुल मिलाकर इस कुत्ते नाम के जंतु से हमार पुराना अटूट और गहरा रिश्ता है बातचीत में ब्रिगेडियर का संवाद ‘मेरा तो मानना है कि हम इंसानों ने विकास के चलते अपना संतुलन,अनुशासन एवं मानवीय संवेदना खोई है’ वास्तव में भारतीय समाज के विविध धर्म, जाति और समुदायों की ऐतिहासिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को संकेतित करता है कि वे इस देश में आकर यहीं के हो गए,इस देश की संस्कृति को समृद्ध किया है वे  पराये नहीं है, उनके प्रति असंवेदनशील क्यों?   

इन्हीं कुत्तों की बढ़ती जनसंख्या से परेशान मोहल्ले वाले इन्हें ज़हर देकर मामला खत्म’ की बात भी करते हैं तो हमारे सामने वह तथ्य सामने आता है जबकि मुस्लिमों की तथाकथित बढ़ती जनसँख्या से चिंतित मुट्ठी भर नेता हिन्दू महिलाओं से ज्यादा बच्चे पैदा करने की गुहार लगते हैं, गोया कि महिलाएँ ‘बच्चे पैदा करने की मशीन हों! इसी के समानांतर यह प्रश्न भी उठता है कि ‘जनसंख्या विस्फोट’ मनुष्य की देन या कुत्तों की ? लेकिन अफ़सोस तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार दर्जन भर कुत्तों को पटाखों की आवाज के साथ एनकाउंटर कर दिया, लाशों को टैम्पों में भरकर जंगल में फिंकवा दिया, मोहल्ले के लोगों की फैमिली सेफ हो गई सुरक्षित हो गई आगे उग्रवादी कुत्तों के सन्दर्भ में लिखती हैं “नई पीढ़ी के कुत्तों में संकीर्णता एवं उग्रता बढ़ी है तबसे माहौल बदल गया हैन उग्रवादियों की दोस्ती अच्छी न दुश्मनीउग्रवादियों का कोई धर्म या जाति नहीं होती तो यहाँ उपेक्षा और असंतोष से पनपती उग्रता, असुरक्षा और असहनशीलता के माहौल में युवाओं की दयनीय मानसिक स्थिति की ओर भी इशारा है। ऐसे लोगों को हुनर देने की जरूरत है, शेख सदी अपनी हिकायत में कह चुके हैं – “बेहुनर हुनरमंदों को सहन नहीं कर सकते।’  भारत में अलग-अलग कई देशों के शरणार्थी आते रहें हैं जिनके लिए ‘शेल्टर होम’ (जैसे ‘बुलेट शेल्टर होम’)  बनाना जरूरी है यदि आप उन्हें दुत्कारेंगे, मारेंगे तो उनकी प्रतिक्रिया ‘उग्रता’ में बदलेगी ही। 

असलम उसकी पत्नी, सफ़ेदपोश बुज़ुर्ग, खान साहब और उनका मासूम बिल्ला ‘शाहज़ादा’ (जिसे प्रेम के नाम पर शहीद होना पड़ा,) बीबीजान और रिज़वान जैसे किरदार जाति, धर्म संप्रदाय आदि के नाम पर टुकड़े-टुकड़े हो रहे वर्तमान समाज के परिप्रेक्ष्य को गहनता से उभारते हैं। कब तक धैर्य रखा जा सकता है वे लिखती है- जबान पर पहरे बिठाने का अंजाम बड़ा भयानक होता है, ठीक जमीन के नीचे खदबदाते लावे की तरह।” सत्ता और वर्चस्व के मद में इनके खिलाफ ‘पाठ’ या पृष्ठभूमि तैयार करना, उनकी संस्कृति पर प्रहार करना, जिससे आने वाली कई पीढ़ियाँ मुक्त नहीं हो पायेगी, विभाजन की त्रासदी से ही मुक्त नहीं हो पाए कि जख्म कुरेदे जा रहे हैं, उस टीस और पीड़ा को समझना आसान नहीं। हम आज भी देख रहे हैं कि यहूदियों पर हिटलर के अत्याचारों ने उन्हें फिलीस्तीन के प्रति अति क्रूर बना दिया ‘जैतून के साये’ नामक कहानी का यह वाक्य सरहदों के विभाजन में पीढ़ियों के दर्द को रेखांकित करता है धर्मयुद्ध…क्या सचमुच पुराने को मिटाकर नया कुछ आता है और हर इन्कलाब अपने ही बच्चों को निगलने लगता है” भारत के सन्दर्भ में विभाजन के कारणों के लिए एक कौम पर कब तक बार-बार इल्जाम लगेंगे ? विभाजन के बावजूद जिन्होंने हिन्दुस्तान के प्रति प्रेम को भीतर बसाये रखा और यहाँ रहने का फैसला किया उनका क्या कसूर था? विभाजन और साम्प्रदायिकता जैसे संवेदनशील विषयों को उठाने से आज का साहित्यकार बचकर निकल जाता है लेकिन बतौर नासिरा जी जब अभिव्यक्ति न कर पायें हों तो घुट कर नहीं जिया जा सकता’,अल्फ़ा बीटा गामा उपन्यास इस घुटन की भी प्रखर अभिव्यक्ति है। इसलिए अंत में लिखतीं भी हैं अगर अहसास को पढ़नेवाला कोई दार्शनिक दोपाया वहाँ मौजूद होता तो वह ज़रूर लिख देता कि दुःख इंसान और जानवर में फ़र्क नहीं करता।  

‘कुतों के रूपक’ में समाज का प्रतिबिम्ब झाँक रहा है, कुत्ते प्रतीकात्मक और यथार्थवादी दोनों रूप में चित्रित हुए हैं पहला गद्यांश ही है उनकी हैसियत तो सड़क छाप थी, मगर रगों में बहने वाला खून विलायती मिश्रण का था, उनकी चाल-ढाल और शक्ल सूरत अलग तरह की थी। उन्होंने आजादी की कीमत पर गुलामी का पट्टा पहन रखा है”। मोहल्ले के देसी कुत्तों के लिए ‘क्रॉसब्रीड’ शब्द के तार कहाँ जुड़े हैं, अलग-अलग दृश्यों और संवादों से जुड़कर समझ आते हैं– ‘कुछ लोगों का शक असलम ड्राइवर की तरफ गया, जिसका कुत्ता कुछ दिन पहले एक हाजी को काट चुका था ’ इसलिए मोहल्ले वाले असलम को भला-बुरा कहते हैं, असलम तो नर्म स्वर में कहता है ध्यान रखेंगे लेकिन उसकी पत्नी कहती है “शक के नाम पर हमारे कुत्ते पर झूठ-मूठ इल्ज़ाम मत लगाना… सब कुत्ते की मौत मरेंगे! पति के कहने पर कि चुप रह अल्लाह की बंदी वह कहती  है – ‘चुप तो हम हैं यह सारा इलाका हमारे दादा का था, आज हम किरायेदार बने हुए है,लेकिन अब हम नहीं सुनेंगे किसी कुत्ते की बात’!   इस दृश्य में वे अपने ही देश में अपने ही लोगों के बीच बेगाने कर दिए गए लोगों की व्यथा कहती हैं। यहाँ रघुवीर सहाय की कविता याद हो आती है-

20 वर्ष हो गए भरमे, उपदेश में

एक पूरी पीढ़ी जन्मी पली पुसी

बेगानी हो गई अपने ही देश में’ 

मोहल्ले में कुत्तों को मार-मारकर भगा दिया गया, दूसरी ओर असलम की पत्नी का अपने अधिकारों की बात करना शाहीन बाग की जागरूक दृढ़ संकल्प महिलाओं की याद दिलाता है। महिलाओं के नेतृत्व में शाहीन बाग़ अहिंसक के आन्दोलन को कैसे भूला जा सकता है, जो नागरिकता संशोधन अधिनियम CAA के पारित होने के ख़िलाफ़ शुरू हुआ। नासिरा जी समाज में बढ़ते दहशत और आतंक को बड़ी सूक्ष्मता से पकड़ती है । विडम्बना यह भी है कि जो भीड़ पहले ‘तमाशबीन बन’ रामदास की हत्या चुपचाप देख रही थी आज भेड़िये बन वे हत्या में शामिल हो चुकी है। जिसे सत्ता का अघोषित आपातकाल कहा गया, अफ़सोस जनता का एक वर्ग इसे एन्जॉय कर रही है, भेड़िया-धसान चरित्र सत्ता गर्त में धकेल रही है । यह है आज का परिदृश्य इसलिए वे कुत्ते का ‘विशिष्ट रूपक’ रचती हैं, विशिष्ट इसलिए कि मानवीयता के गुण-धर्म आपको कुत्तों में भी मिलेंगे जो सदियों से मानव मित्र है, तो उग्रवादी कुत्ते भी लेकिन नासिरा जी इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि इन्हीं के बीच से हमें मानवीयता के बीज मिलेंगे, वे बड़ी संजीदगी से समाज की नब्ज़ को पकड़ रही है जिसे आज युवा पीढ़ी के लेखक नजरअंदाज कर आगे निकलने की होड़ में लगे हैं, जबकि उपन्यास शिद्दत से चित्रित करता हैं कि किस तरह बिना हत्या के बेमौत मारा जा रहा है, महत्वपूर्ण शब्दों की संकल्पनाओं को नष्ट-भ्रष्ट कर, नए शब्द और अर्थ नई नस्ल को नई जबान दी जा रही है जनता अभिव्यक्ति छीनी जा रही है उन्हें बेरोजगार कर, अनुशासन के नाम पर उनके भीतर इस तरह से डर बैठा दिया गया कि अपने अधिकारों के लिए कभी खड़े ना हो पा रहे हैं ।

ब्रिगेडियर साहब जिन्हें गली के लड़के श्रीमान अनुशासन प्रिय कहकर मज़ाक बनाया करते,सत्ता के प्रतीक हैं क्योंकि इनका ही ह्रदय परिवर्तन होना है,कथानक के साथ-साथ उनके चरित्र में सकारात्मक विकास होता भी है। अनुशासन उनके लिए सर्वोपरि है, वे कहतें हैं- ये सिविलियनस- न अनुशासन है इनमें ,न सफाई से रहते हैं… जिधर देखो ढेरों घूमते कुत्ते…सड़क के बीचों-बीच इस तरह तनकर खड़े हो जाते हैं जैसे शत्रुओं के सामने तोप हों! लेकिन भूख का अनुशासन से क्या लेना देना? ‘प्रेम’ का भी अनुशासन से कुछ लेना-देना नहीं वो किसी भी दायरे को नहीं मानता । घूरे या कूड़ाघर को “डॉग होटल” कहने में हास्य से अधिक विडंबना है कि इस ‘डॉग होटल’ में हमें कई भिखमंगे बच्चे भी दिख जाते हैं, जो इनसे खाना छीनकर खा रहे होते हैं। यह वही समाज है जिसे शुरू में दो फाँको में बंटा’ समाज कहा है लेकिन इस डॉग होटल में कितना कुछ जहरीला होता है, घरों से जो खाना फेंका जाता है, वह सड़ कर जहरीला हो जाता है,गायें-माता पॉलिथीन खा जाती है। ‘भूख’ से बौराएँ कुत्तें गुस्से और उत्तेजना में आने-जाने वालों को काट लिया करतें हैं। जब चौकीदार कुत्तों ने बुलेट पर हमला किया तो ब्रिगेडियर साहब ने अपनी छड़ी कुत्तों पर बरसा दी, उनकी दर्दनाक दशा देखकर कोई आगे नहीं बड़ा इंसान ना जानवरजब आपके पास छड़ी हो, ताकत हो, अनुशासन हो तो आप किसी पर भी अत्याचार कर सकते हैं ! भले ही यह अत्याचार अपने बचाव में क्यों ना हो?  सुरक्षा भाव से किया गया अत्याचार क्या अत्याचार नहीं कहलाएगा?  उधर मौका मिलते ही चौकीदार कुत्तों ने पुनः ब्रिगेडियर लाल के बुलेट पर हमला करना शुरू किया वे भूख से बेचैन थे, ईर्ष्या से वशीभूत थे, और कहीं ना कहीं बदले की भावना तो थी ही”। कुत्तों को मार कर उनके चेहरे पर विजय नहीं खीज भरा अफसोस था, ठीक उस नरम दिल फौजी अफसर की तरह जो जीत गया मगर जमीन पर बिछी असंख्य लाशों को देखकर दहल गया ’। यहाँ एक फ़ौजी के माध्यम से युद्दों की त्रासदी का मार्मिक चित्रण भी मिलता है जब वे अपने बेटे को याद करते हैं जो युद्ध में मारा गया।

ब्रिगेडियर लाल का अनुशासन के प्रति अतिरिक्त आग्रह वास्तव में आत्म-नियंत्रण के रूप में विकसित होता है, कार्तिक के अनुसार अनुशासन सुविधाओं से आता है बाद में ब्रिगेडियर कुत्तों के लिए बुलेट शेल्टर होम बनवाते है अर्थात वंचितों को सुविधाएं देनी होगी तभी आत्म नियंत्रण की स्थितियां पैदा होगी, भूख आपको नियंत्रित नहीं रहने वास्तव में भीतर बैठे भेड़िए या जानवर शैतान कुछ की कहिये उसे नियंत्रित करना है जब आप इस उपन्यास के कुछ दर्दनाक मार्मिक दृश्यों से गुजरेंगे आया होगा कोई कुत्ता, बिल्ली या बच्चा ट्रक के नीचे ” या “यह कैसे हुआ खान साहब? कुत्तों ने हमला कर दिया था क्या?…खान साहब  भर्राई आवाज़ में बोले” इंसानों ने हम कैसे, क्योंकर इतने संवेदनहीन हो चुके हैं!  याद कीजिये सोशल मीडिया जिसके तमाम तरह के वीडियोज़ आपको कुछेक भाव भय, हास्य, अश्लील-फूहड़ता तक सीमित कर रहे हैं या तो आपको डराया जा रहा है या हँसाया ! विडंबना यह कि रोमांच के लिए आप खोज-खोज कर और अधिक रोने वाले, डरने वाले और हँसाने वाले वीडियो खोजते हैं,आपकी संवेदनशीलता और आपके अन्य स्थायी भाव कहीं अंत:स्थल में चले गए हैं! कोरोना में और उसके बाद हालात बद से बदतर होते चले गये । काम धंधे खत्म है, बेरोजगारी अपने चरम पर है, लेकिन मोबाइल सबके हाथों में है, लोग रील बना रहे हैं, रील देख रहे हैं लेकिन रियल लाइफ़ से कहीं कोई नाता नहीं है। खाने के लिए रोटी नहीं लेकिन मोबाइल में पैसा चाहिए। नासिरा जी यहाँ ड्रग एडिक्शन की तरह ख़तरनाक डिजिटल एडिक्शन को रेखांकित कर रही हैं। कई मार्मिक वाक्य जिनके गहन अर्थ समझ आते हैं सरकार आखिर क्या-क्या देखें ? जब पूरी जनता मोबाइल पर दुनिया देखने में लगी हो तो वह अपने आसपास की परेशानियों को कितनी गहराई से भांप पाएगी’ शुरू मेंफ्री में डाटा उपलब्ध करवा कर डिजिटल एडिक्ट बनाया गया है,   उपन्यास में ड्रग एडिक्शन से जूझ रहे व्यक्ति की मौत का दर्दनाक दृश्य हमें देखने को मिलता है, वह दिन दूर नहीं जब हम डिजिटल एडिक्शन के चलते रियल लाइफ में बर्बाद हो चुके होंगे लेकिन तब तक देर हो जाएगी।

इंसानियत की दुहाई देने वाले ब्रिगेडियर साहब को जहाँ इंसानियत का धर्म निभाना होता है, वे देखता है, छोटे-छोटे पिल्लों को नाली में गिरा देखकर उनकी मदद नहीं करता और मदद के लिए आगे आता है, एक बुज़ुर्ग सफेदपोश सफ़ेद कुरता और ऊँचा पाजामा पहने,जालीदार टोपी, दाढ़ी के साथ अधेड़ व्यक्ति उनकी गुहार सुन वहीँ खड़े हो गये थे, …उन्होंने घिनाती हुई नाली में हाथ डाल कर एक के बाद एक पिल्लै को कान से पकड़ बाहर निकाला’ अफ़सोस इस नेक काम के बावजूद जब उसने हाथ धोने के लिए पानी माँगा तो एक औरत उसे देखकर क्यों ठिठकी? वास्तव में वह नफ़रत भरे पूर्वाग्रह की प्रतिक्रिया है जो राजनीतिक मंचों से फैलाई जा रही है कि इन्हें आप इनके कपड़ों से पहचान सकते हैं यहाँ नासिरा जी इसी पूर्वाग्रह को तोड़ती है जबकि कपड़ों की पहचान से उन्हें आतंकवादी घोषित किया जाता है, उसी हुलिए का व्यक्ति इंसानियत बचाने को तत्पर है। सफेदपोश कहता है- अल्लाह सबका पालनहार है’ संकेत कर रहा है, यहाँ कोई किसी को नहीं पाल रहा।

मानव ने प्रकृति को नोंच खाया, अपने बरसों के साथी पशु-पक्षियों पर हिंसात्मक व्यवहार किया,उसकी सुरक्षा में किसी की सेंध ना लगे, जंगली जानवरों को मौत की नींद सुला दिया तिसपर युद्धों की विभिषिका ने भी मानवीयता का हनन किया उपन्यास का केन्द्रीय बिंदु मानव को पुन: सुन्दरतम की ओर ले जाना है।जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी” ये जुमला राजनीतिक गलियारों में गूँज रहा है जिसे कार्तिक के संवाद के माध्यम से नासिरा शर्मा ने एक विशिष्ट सामाजिक संदर्भ दिया है जिन शिकारी कुत्तों को हम जंगल और खेतों से अपने शहर की तरफ लाते हैं, उनके बारे में हम सोचते ही नहीं कि हमारे विकास में उनके हिस्सेदारी का ख्याल रखना चाहिए’।क्या हम हमारे जीवन में शहरों में आने वाले मजदूरों कामगारों की ओर ध्यान देंगे जिन्होंने हमारे मकान बनाए ये प्लंबर, सब्जी-फल बेचने वाले क्या ये हमारे विकास के लिए जिम्मेदार नहीं है तो भागीदार क्यों नहीं है? जिन्हें आगे भी रेखांकित किया गया है। बावजूद इसके कि ये कुत्ते रात भर भौंक-भौंककर पहरा देते हैं ‘अपनी सुविधा और सुरक्षा की खातिर किसी ने एमसीडी को फोन कर दिया…चौकीदार कुत्ते पिटे थे, कुत्ता सभा बंद हो गई, कुत्ते इधर-उधर गलियों में छुपते-छुपाते घूम रहे थे’। इंसानों की बस्ती में भी तो बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों के आसपास जो स्लम्स, झुग्गी झोपड़ियां बनी होती है उन्हें भी जब-तब उजाड़ दिया जाता है, (बुलडोजर कांड ) यह सोचे समझे बगैर कि ये उनके घर हैं!  मानव के कुकृत्यों जिसमें जानवरों के प्रति उसकी हिंसा के चरम रुप को नासिरा जी कई हृदय विदारक दृश्यों में चित्रित करती हैं। इंसान-इंसान में भाईचारा नहीं बचा जबकि इन कुत्तों में इंसानियत है। घूरे पर खाना देखकर चिरकुट ने कहा “क्या ही अच्छा होता हम आवाज़ देकर औरों को बुला लेते, इस बारिश में घूरे पर कौन गया होगा क्या पता! और भौंक भौंक उन्होंने संदेश पहुंचा दिया। चिरकुट और लेंडी जैसे कुत्ते बिन माँ के पिल्लों को एक दूसरी कुतिया के पास पहुँचा देते हैं। जहाँ वे दोनों पिल्ले भरपेट दूध पीते हैं तो कुतिया के चेहरे पर भी सुखद अनुभूति है। मनुष्य भी तो जानवर ही है पर  नफ़रत और घृणा के बीज उसने खुद बोयें हैं, जानवर-जानवर में और इंसान-इंसान के इस भेदभाव को नासिरा जी ने पल-पल रेखांकित किया है जैसे पालतू विदेशी कुत्ते जिन्हें भरपेट खाना मिलता है, ढेर प्यार भी पर अगर इन कुत्तों से इतना ही प्यार है तो इन बेचारों को उनकी माँ से जुदा क्यों किया, पिल्लों की माँ बेचारी कितना तड़पती होगी। दूसरी ओर गली के कुत्तों की जनसंख्या कम करने के लिए ऑपरेशन किए जाते हैं जिससे अक्सर कुतियाओं की मौत हो जाती है, विदेशी नस्ल का एक-एक पिल्ला लाखों में बिकता है। इंसान की ‘यूज़ एंड थ्रो’ प्रवृत्ति मनुष्य, पशु और सामान में कोई फर्क नहीं करती, बहुत शौक, लाड़-चोंचलें या प्रेस्टीज स्टेट्स के लिए महँगे कुत्तों को पालकर सड़क पर फेंक भी दिया जाता है। पलाश को मिलने वाला जर्मन शेफर्ड कुत्ता, जिसे चलती गाड़ी से कोई सड़क पर फेंक गया उसे ब्रेन ट्यूमर था। मोती कहता है कि ‘अगर मैं इंसान होता तो बे-जुबान जानवरों के प्रति बहुत रहम दिल होता है अपनी रसोई में से उनका भी हिस्सा निकलवाता’। हमारी परम्परा में ये होता रहा है लेकिन आज दोनों कूड़ा खाते हैं”…

उपन्यास उन बेजुबान जानवरों और समाज के उस वर्ग समुदाय को अभिव्यक्ति देता है जो चुप रहने  को विवश है, साहित्यकार का काम ही है बेजुबान को अभिव्यक्ति देना एक घटना लड़कियों के प्रति समाज का दोगला व्यवहार घृणा और भ्रूण हत्या से जुड़ी है। यह 2018 की सच्ची घटना है जब कूड़े के ढेर में नवजात शिशु लड़की मिली, कुत्ते देखकर दंग रह गए, सूँघते है तो पता चला शिशु जीवित है लेकिन इसका करना क्या है वह नहीं जानते बच्चा कूड़े के ढेर पर रो रहा था बूढ़ी  कुतिया उसे अपनी तरह से उठाना चाहा लेकिन वह कर नहीं पा रही थी और दूसरी तरफ जो चौकीदार  कटखने कुत्ते थे वह उसे बच्ची को मार डालना चाहते थे, उनके जीवन का उद्देश्य था इंसानों से बदला लेना वे इस मुलायम से गोल मटोल नवजात शिशु को नोंच नोंच कर खाना चाहते थे। बड़ी समझदारी से  कुत्ते को ‘एनिमल फर्स्ट’ के द्वार पर छोड़ आए यह घटना हमें आरंभ की उस घटना से जोड़ती है जबकि बुज़ुर्ग ने नाली में से पिल्लों को बचाया था यानी ये दोनों तरफ की इंसानियत का तकाज़ा है कि एक दूसरे की मदद करे सहयोग करें।

अँधा युग में धर्मवीर भारती लिखते हैं “शासन बदले स्थितियाँ वही रही” लेकिन समय के साथ-साथ जब जब शासक बदलते है, स्थितियाँ बद से बद्तर होती हैं, उपन्यास में अच्छे दिन’ का जुमला भी नासिरा जी दो बार याद दिलाती हैं अच्छे दिन  किसके आए? इतिहास में नये नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं और जनता इन गौरव गाथाओं को सुनकर फूल के कुप्पा हो रही है संभवत: इसलिए ही वे किस्सागोई के दृश्य रचती हैं। इन किस्सों को गढ़ने के लिए वे युवा पीढ़ी का आह्वान करती है कि अपने किस्से अपने यथार्थ अनुभवों के आधार पर गढ़ें जो वर्तमान के दस्तावेज़ बन सके ताकि आने वाली पीढ़ी आज के कटु यथार्थ को जान सकें। मोती की प्रियसी भूरी का आगमन और फिर उसके किस्से बड़े महत्वपूर्ण है। जो इंसान और कुत्तों के जीवन पर अपनी टिप्पणियां कर रहे हैं “किसी ने सच ही कहा है कुछ कुत्ते बोले मित्रों हम पुरानी दस्ताने सुन ली कुछ हमें नहीं कहानी भी सुनो ताकि आने वाली पीढ़ी जान सके कि हम आज कैसे और किस दौर में जीते हैं”। आज के दौर में कमजोर वंचित शोषित और अल्पसंख्यक मनुष्य की क्या स्थिति है? इस पर साहित्यकार को कलम चलानी चाहिए अंत तक आते-आते किस्सागो नासिरा शर्मा कुत्तों की कथा के समांतर मनुष्यता के विनाश को संकेतों में, संवादों से दृश्य-घटनाओं से उसे स्पष्ट करती हैं नए किस्सागों को तो आना ही पड़ेगा,तभी नए अनुभव के साथ आस-पास होती घटनाओं और कुत्तों के दुःख दर्द को हम समझ सकतें है’ यहाँ वे युवा लेखकों को नए विषयों के लिए भी प्रेरित कर रही हैं जिसमें मूक जानवर भी शामिल है और वंचित शोषित समाज जिन पर बात करना जोखिम उठाने की तरह है कुछ न बचेगा लेकिन किस्से रह जायेगे उपन्यास में गीतों का रचनात्मक प्रयोग हुआ है जो मोती गाता है

सब मेरे अपने,

एक-एक करके मुझसे जुदा हुए,

मुझे डर है कि कहीं मैं इस पुरखों के मोहल्ले और

सुनसान पड़ी गलियों में तनहा आखिरी साँस न लूँ

तब, मेरे लिए कोई न रोयेगा, कोई न रोयेगा

वे मानती हैं कि मनुष्यता कहीं न कहीं जीवित रह जाती है इसलिए मोती,चिरकुट लेंडी ब्रिगेडियर,रिज़वान सफ़ेदपोश कार्तिक आदि जो बराबरी के आदर्श को मानते हैं जबकि अभिव्यक्ति पर पहरे है समाज बेबस और हर क्षेत्र में मानसिक तौर पर भी पंगु असमर्थ किया जा रहा है, ये सभी सहिष्णुता और पारस्परिक सहयोग सद्भावना की अवधारणा का बिम्ब प्रस्तुत कर लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति आस्था बनाए रखते हैं, यहाँ कुत्तों में इंसानियत का ज़ज्बा बहुत कुछ सिखाता है कि हम तो हैं ही मनुष्य योनि में हैं लेकिन हमारी इंसानियत विलुप्त हो गई, किस्सागो कुत्तों के माध्यम से वे बहुत महत्वपूर्ण बात कहतीं है जिसका सार है कि कुत्तों की शक्ल में इंसान हैं तो इंसान की शक्ल में कुत्ते हैं जो कहानी का केंद्रीय तत्व है इसका मतलब हम में से इंसानों की नस्ल के भी कुत्ते मौजूद हैं? बिल्कुल, किस्सागो कुत्ते ने कहा तो फिर हम कुत्ते भी इंसानी नस्ल में जरूर मौजूद होंगे यानी कुत्ते की शक्ल में इंसान और इंसान की शक्ल खुदा ने मूसा की शिकायत को ध्यान से सुना और शरारती मुरीदों को कुत्ता बना दिया आज इन्ही इंनसनी कुत्तों की नस्ल हम असली कुत्तों के बीच घुल मिल गई है जिसके कारण हमारे कमजोर दिमाग कुत्ते उनके बहकावे में आकर अपनी विरासत से दूर चले जाते हैं। समाज में कमजोर व्यक्ति का गलत रास्ते पकड़ लेना इसी तरह तो है । हमें मनुष्यता को बचाए रखने के लिए भीड़ या भेड़िये नहीं ‘समाज’ चाहिए जो राजनीतिक चेतना से संपन्न हो, राजनीतिक चेतना का अभिप्राय जनता अपने अस्तित्व, मर्यादा और अपनी रचनात्मक अधिकारों के प्रति जागरूक रहे दलीय या गुटबाजी राजनीति नहीं कि विचारधारा के नाम पर हिंसक हो उठे मारपीट मॉब लिंचिग करे एक मुहावरा है कि ‘क्या कुत्तों की तरह लड़ रहे हो’ उपन्यास में एक वाक्य देखिये“दोनों तरफ के कुत्तों ने शहादत का जाम पी रखा था, अपनी अपनी विचारधारा को लेकर मर मिटने को तैयार थे” हमारे देश में आज विचारधाराओं की टकराहट हिंसक रूप धारण कर चुकी है  कथा में कुत्ते और मनुष्यों की जो तारतम्यता है, आरंभ से अंत तक बनी हुई है आरंभ में जबकि इन गली के कुत्तों से मोहल्ला परेशान है लेकिन अंत तक आते-आते कोरोना से उत्पन्न विकट परिस्थितियों ने, सत्ता के उदासीन तानाशाह रवैये ने और खुद मनुष्य जिसने प्रकृति को नोंच खाया प्राणीमात्र को एक बिंदु-स्थल पर ला खड़ा कर दिया, हम देखते हैं कि कुत्ता और मनुष्य एक ही जगह सो रहे हैं यह दृश्य किसी भी कला फ़िल्म के महत्त्वपूर्ण दृश्य की तरह बहुत कुछ कहता है जिसमें दोनों एक दूसरे को अपनी गर्माहट दे रहे हैं,दोनों परस्पर निर्भर, एक दूसरे के सहयोगी। निस्संदेह आने वाले समय में नासिरा जी के इस उपन्यास का महत्व निरंतर बढ़ता चला जाएगा तो आज भी इस उपन्यास को नज़रंदाज़ नही किया जा सकता क्योंकि यह वर्तमान समाज के विविध आयामों को हमारे सामने रखता है। भाषिक अभिव्यक्ति में निहित विविध रूपक,प्रतिकार्थ प्रतिबिंब अर्थ छवियाँ उपन्यास को विशिष्ट बना रही हैं।

अंत में, मोहन जी का लूडो खेल का बोर्ड जो उन्होंने खुद बनाया है वास्तव में दस्तावेज़ है,जो समय या सिर्फ नियति का खेल नहीं, इसमें साँप की तरह जब चाहे डसने वाले क्या यह अज्ञेय की कविता के  सभ्य साँप है? नहीं, वास्तव सत्ता के ये वे अजदहे हैं जिन्होंने कोरोना का लाभ उठाया, शाहीन बाग आन्दोलन, किसान आन्दोलन को निगल लिया, जिन्होंने अपनी ज़हरीली दुर्गन्ध नफ़रत और दंगों के रूप में फैलाई ‘दंगा समाप्त’ का अर्थ है कि खेल शुरू किया था, जो मकसद पूरा होने पर समाप्त हो गया परिणाम- बेरोजगारी, जीरो आमदनी, घरों में स्त्रियों का दोहरा शोषण, रिज़वान जब किसान आन्दोलन पर टिप्पणी करता है तो तिवारी जी से कहलवाना कि जब से ये नए नए कानून ला रहे हैं जनता सुख की नींद नहीं सो पा रही’कुल मिलाकर कोई धर्म, जाति-विशेष नहीं आम जनता त्रस्त है,दुःख झेल रही है जिसे सत्ताधारियों ने बांट दिया नासिरा जी बेजुबान जानवर कुत्तों के किस्सागो के माध्यम से व्यक्त करती हैं“जब समय नेकी और इबादत का होना चाहिए था तब सियासत के खेल बड़ी मुस्तादी मुस्तैदी से खेले जा रहे थे, सोच विचार के स्तर पर ऑक्सीजन कम होती गई”तब हमारे मस्तिष्क को गामा वेव्स की सर्वाधिक आवश्यकता है जो हकीम लुकमान के अनुसार मोहब्बत से मज़बूत होगीसख्ती का ज़वाब नर्मी से,कडवाहट का जवाब मिठास से ,बदतमीजी का जवाब अदब से,गाली का जवाब धैर्य से!

शिवानी सिद्धि स्वतंत्र लेखक हैं।

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ISSN 2394-093X
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