गुंजन उपाध्याय पाठक की पाँच कविताएँ

1.धूर्त जून


सारी इच्छाएं कामनाएं
धूर्त जून के हाथों ठगी गई हैं
इक बूंद के लिए तरसती जमीं पर
ख्वाबों के बादल मंडराते हैं
मगर बरसते नही हैं
दो क्षत विक्षत शव
गवाही बन चुके हैं कि अंधेरों की साजिश से ख्वाबों की नाजुक डाल पर
बिजली सी गिर पड़ी है

यह उजाड़ वक्त और हम तुम
अपनी झुलसी हुई हसरतों के साथ जिंदा हैं

टूट पड़े कांच के ग्लास का रंग
धच से गड़ पड़ता है तलुवों में और
चोटिल हो पड़े लम्हों की
करते हैं शिकायत
तुम तक पहुंचने वाले सारे रास्ते

आकाश गायब हो गया हो
आंखो में इंतजार की जगह मवाद भर गए हैं

अर्धविक्षिप्त सी ढूंढती है उस देहगंध को
कि नाक से खून टपकने लगे हैं

लकीरों से गायब है वो जगह
जहां पल दो पल को
इस सफर से थके हुए सुस्ता सकें हम

गाहे बगाहे हथेलियों में ढूंढती है
तसल्लियो की वो नदी ,
दो घूंट जिसकी
रूह की तपिश को कम कर सके

कुछ धुएं ज़रूरी रहे जिंदगी में
अरमानों की भट्टी में
खौलते ताप को
देह की ताप से
मुक्त करने को

2.एक और दिन


माघ की किसी रात जब बरसता है मेह
इक टीस सी उठती है
अश्रु और आकांक्षाएं थमती नही हैं
पूरा पलंग जैसे एक ग्लोब हो
देशांतरो के अंतर को वह
करवटो से नापती है

दूर कहीं टिटहरी
छन्न छन्न बरसते मेह के दुख से भींझती है
और सबकुछ शांत और अक्षुण्ण दिखता हुआ भी
कहीं न कहीं सकपकाया हुआ सा
तड़पता रहता है
कितनी निरीह हैं ये बूंद

जो सावन भादों की तरह नही करती है क्लेम कि
पिया लौट आए परदेश से
या फिर बाबुल का बुलावा आए झूलों के लिए

ये सिसकती हैं
और उन्मादित ज्वार को
रूमाल से भींगाकर
भुलाने के जतन करते हुए
गिनती हैं अभी और कितने दिन बाकी है फरवरी के
इस बार निर्मोही ने
एक और दिन की सौगात दी है
बिसूरने के लिए
या सचमुच बसंत ने अपनी
मूड स्विंग के भरोसे
रख छोड़ा है एक दिन

इस बार लौट आया है प्रेम
और ठूंठ पड़े पेड़ पर सेमल के फूल भी
कल हम तुम चांद फूल सब गवाही बने थे
हमारे सर्वश्रेष्ठ अभिनय के
जब हम बेसबब से लिपट जाना चाहते थे एक दूसरे से और मुस्कुराते हुए कर दिया था विदा

रात ने अपने अंदाज से
धुल दिया था सबकुछ पारदर्शी रंगो में
और कुम्हलाती चाहनाए पकड़ी गई थीं
माघ की किसी रात जब
बरसता है मेह
इक टीस सी उठती है

3.चौरासी


इस बेतुके जीवन के
अंत के ठीक पहले
इश्क की इनायतें
शायद लुका छिपी से हार कर
उमड़ पड़ी हैं मन के आंगन में
छीजती दीवारों पर अल्पनाएं उभर आई हों

सांझ की बेहयाई में
कोई उतारता है अपना खोल
दिन और रात दहलीज पर ठिठके खड़े रहे हैं

चांद की कुबड़ पर तड़प की
नर्गिसी खिल उठी है
समर्पण का यह अंदाज
ऐसा कुछ है कि जानते हुए भी कि
इन चौरासी सिद्ध कलाओं का
जोग नही है मेरी हथेलियों में
मैं बाट जोहती हूं उस बेला की जब
धड़कनों में उन्माद की लय बहे

इश्क का धुंआ कुछ ऐसे उतरे धमनियों में कि
वैद्य तक को गुमान न हो
अप्सराएं रश्क करें

सारे झूठ सारे भरम
तुम्हारे स्नेहसिक्त शब्दों में परिवर्तित
वास्तविकता की तरह मेरे भाग पर टपके
अवांछनीयता की चोट पर
तुम्हारे शब्द छलकते रहे किसी मरहम की तरह

जानते हो
जेठ की दुपहरी में
इश्क की अठखेलियां तपती नही हैं
बरसती हैं

4.सिलेक्टिव गड़बड़ी
————————-
उसकी देह में यूं सिमट गई थी
अलबेली हसरतो की झांस
कि अलग होने पर भी
वह साथ उसके भीतर करवट लेता रहा
कितनी ही बार तो
बिल्कुल पास का धोखा सा हो गया
जबकि पास में खड़ी वास्तविकता
अजगर की तरह साबुत निगल लेना चाहती थी
उसका वजूद

वह वहीं कहीं छूट गई थी
जहां ब्रेड के कुछ टुकड़ों को
कुतरे जाने का इंतजार था
जहां दो घड़ी वक्त भी
बियर को होठों से छू कर रश्क कर रहा था
सिलवटो में प्रेम खिलखिला पड़ा था

निकटवर्ती नदी
उन लम्हों के दरमियान तैरती रही
और दो लोग मानचित्र से गायब हो गए थे
किसी को कानोकान इसकी कोई खबर तक नहीं
यह मुहब्बत की क़िस्सागोई भर नही थी
यह बेयकीनी का यकीं के रंग में बदलना सा था

जिसे चूमा गया छूआ गया और
वह लम्हा सुहागन हुआ था

ग्रह नक्षत्रों की आंखे जितनी देर में मिचमिचाती
या फलक देता सूचना
किसी भी तरह की सिलेक्टिव गड़बड़ी का

यह फरवरी था
या सिर्फ एक अलसाया हुआ दिन
याकि जिंदगी से एक दिन चुराया हुआ
या फिर यह जिंदगी ऋणी हुई थी तुम्हारी
तुम्हारी पीठ की तिल की गिनती में
आर्यभट तक चौंक गया था
या कि इनकी तिलिस्म से चांद जल गया था
यह अंकगणित और चांदनी की शर्तो में बंधे
नियमों को मुंह चिढ़ाता हुआ सा सोफे पर पड़ा था

अब रात अपनी बेरहमी पर शर्मिन्दा थी
जोगी !
तुम्हारी हथेलियों का हरहराता हुआ स्पर्श
मोक्ष की कामनाओं को रद्द करता हुआ
मांग लेना चाहता है फिर से
कोई ऐसा ही बेखुद लम्हा

5.पटना
————-

भागती दौड़ती सड़कों का जुनून
अब मेरी नसों में धड़कता है
“पटना”अब कोई बस एक शहर भर नही
मेरे जुनूं का सबब बन गया है
गांधी मैदान कहते ही एक रोमांच खिंचता है सांसों में

और बोरिंग रोड में बसी एक कॉफी शॉप में
मेरा दिल पहलू बदलता रहता है
बेली रोड की लंबी जाम में
बेसबब भटकता रहता है
अशोकराजपथ में
पुरानी मुहब्बत की अज़ान गूंजती है
कंकड़बाग में हृदयगति का आरोह अवरोह सिमटा है
राजा बाजार के एक हॉस्पिटल में
कितनी रातें बिखरी पड़ी हैं

कई कश बेसबब है
होठों पर खिलने के लिए
तुम्हारा नाम सुनते ही पार्श्व में छिपे अवसाद के
कानों तक में एक हंसी घुलती है

इश्क की बिल्लियां घात लगाए बैठी हैं
चांद बार बार मेरी खिड़कियों पर दस्तक देता है
सितारों ने मेरी चुगली लगाई है
रक्तवाहिकाओं की मद्धिम चाल में
फंसती नही है आकांक्षाएं
देह में नीले पीले फूल उतर आए हैं
इश्क की अठखेलियों में बरामदी हुई है
कुछ मुड़े तुड़े ख्वाबों की, चॉकलेट के रैपर की, कुछ
मुरझा चुके फूलों की पखुड़ी और सिगरेट के धुंए की
कुछ पैबंद लगे नींद की, कुछ मोच पड़े जाग की

बेकसी में ख्वाहिशों का घुंघरू बांध कर
नाचती हैं अब रात
विक्षिप्त सा धंसा हुआ संताप
धीरे धीरे पिघलता है तुम्हारी गंध में डूबकर
मेरी जां
कैसे तो पुकारता है यह शहर मुझे
कि धड़कन एक बिट स्किप कर जाती है
अब जब इस शहर के हर मायने
नए अंदाज में टोकते हैं मुझे फिर भी यह पटना
मेरे घिसे तलवों में अब वह
गीत नही रच सकता है

गुंजन उपाध्याय पाठक

गुंजन उपाध्याय पाठक की रचनाओं का सदानीरा, समकालीन जनमत, इंद्रधनुष , दोआबा ,हिन्दवी, पोएम्स इण्डिया आदि में भी प्रकाशन हुआ है।
संपर्क : gunji.sophie@gmail.com

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ISSN 2394-093X
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