आलोक आज़ाद की ‘ईश्वर के बच्चे’ और अन्य कविताएं

  1. ईश्वर के बच्चे

क्या आपने,
ईश्वर के बच्चों को देखा है?

ये अक्सर
सीरिया और अफ्रीका के खुले मैदानों में
धरती से क्षितिज की ओर
दौड़ लगा रहे होते हैं

ये अपनी माँ की कोख़ से ही मज़दूर हैं
और अपने पिता के पहले स्पर्श से ही युद्धरत हैं

ये किसी चमत्कार की तरह
युद्ध में गिराये जा रहे खाने के
थैलों के पास प्रकट हो जाते हैं
और किसी चमत्कार की तरह ही अदृश्य हो जाते हैं

ये संसद और देवताओं के
सामूहिक मंथन से निकली हुई संतानें हैं
जो ईश्वर के हवाले कर दी गयी हैं

ईश्वर की संतानों को जब भूख लगती है
तो ये आस्था से सर उठा कर
ऊपर आकाश में देखते हैं
और पश्चिम से आए देवदूतों के हाथों मारे जाते हैं

ईश्वर की संतानें
उसे बहुत प्रिय हैं
वो उनकी अस्थियों पर लोकतंत्र के
नए शिल्प रचता है
और उनके लहू से जगमगाते बाज़ारों में रंग भरता है

मैं अक्सर
जब पश्चिम की शोख चमकती रात को
और उसके उगते सूरज के रंग को देखता हूं
मुझे उसका रंग इंसानी लहू- सा
ख़ालिस लाल दिखाई देता है।

2- राष्ट्रहित में

वो जंगल में
लकड़ी बटोरती है

वो नहीं डरती शेर के दहाड़ से
खूंखार भेड़िया उसे रत्ती भर नहीं डराता

पर उसे डर लगता है
मेरे मुल्क के पुलिसिया तंत्र से
सरकारी आदमी और सरकार से

वो खौफ़जदा है
इस ख़्याल से
कि उसकी नदियाँ, उसके पहाड़
और वो खुद

एक दिन मार दिये जायेंगे
“राष्ट्रहित” में

3- प्रेम कथाओं के खिलाफ़

ये प्रेम में
अपना सर्वस्व सौंपने
वाली कथाओं के
खंडन का वक़्त है

तुम अपने हिस्से का
सूरज और चाँद
बचाए रखना

मेरे और तुम्हारे
एक हो जाने में

तुम्हारी मृत्यु की
अपार संभावनाएँ हैं

तुम जीना मेरे साथ
जैसे जीती है
एक समूची देह
अपनी आत्मा बचाए हुए।

4- आधुनिकता

मैं इक्कीसवीं सदी के
आधुनिक सभ्यता का आदमी हूँ

जो बर्बरता और जंगल
पीछे छोड़ आया है

मैं सभ्य समाज में
बेचता हूँ अपना सस्ता श्रम
और दो वक़्त की रोटी के बदले में
मैंने हस्ताक्षर किया है

आधुनिक लोकतंत्र के उस मसौदे पे
जहाँ विरोध और बगावत
दोनों ही सभ्यता का उल्लंघन है

इस नए दौर में
सब ठीक हो चूका है
हत्याओं के आंकड़े शुन्य हैं
और मेरे ऑफिस में लगी टीवी में
हताश चेहरे अब नज़र नहीं आते हैं

पर ये बात
मैं उस आदमी को नहीं समझा पाता
जिसे कोसो दूर जंगल में
लोकतांत्रिक राज्य की
लोकतांत्रिक पुलिस की गोलियों से
छलनी कर दिया गया है

मैं
एक सभ्य नागरिक हूं
जिसमें पीड़ाएं यात्रा नहीं करती
वो घड़ी की सुइयों की भांति
अनुशासन से चलती रहती हैं

और मैं भी
भागता रहता हूँ
सुबह से शाम

जैसे लहराती हो
कोई लाश
अपने जिन्दा होने के भ्रम में ।

5- डायन और बुद्ध

कुछ औरतें
अपने पतियों
और बच्चों को सोते हुए
अकेला छोड़ चली गईं,
ऐसी औरतें
डायन हो गईं,

कुछ पुरुष
अपने बच्चों और बीवियों
को सोते हुए
अकेला छोड़ चले गए,
ऐसे पुरुष
बुद्ध हो गए,

कहानियों में
डायनों के हिस्से आएं
उल्टे पैर
और बच्चे खा जाने वाले
लंबे, नुकीले दांत,

और बुद्ध के
हिस्से आया
त्याग, प्रेम,
दया, देश,
और ईश्वर हो जाना।

मां का प्रेम

मेरी माँ ने कभी,
प्रेम किया होगा,
लेकिन ब्याही गयी,
वो मेरे पिता से,

कभी -कभी याद आता होगा,
उसे उसका प्रेमी,
कभी -कभी वो पत्नी नहीं,
प्रेमिका होती होगी।

आलोक आज़ाद . अलोक आज़ाद के दो काव्यसंग्रह प्रकाशित हैं।
‘दमन के खिलाफ’, ‘ईश्वर के बच्चे’। कुछ कविताएँ मराठी भाषा में अनुवादित हुई हैं।
संपर्क : 8826761692

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ISSN 2394-093X
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