अनुराधा ओस की कविताएँ

  1. यहाँ तालिबान नहीं बसता

    मुझे काबुल की सड़क
    की तरह
    नहीं इंतजार रौंदे जाने का,
    मैं हिज़रत नहीं चाहती
    मुझे इंतजार की सड़क पर
    अकेले ही चलना होगा।
    हमारे हाथों में बंदूकें हों
    या प्रेम के पत्र,
    ये कौन तय करेगा?
    मैं इंतजार करूंगी
    आखिरी दम तक
    उम्मीद की लौ जलने तक।
    प्रेम के आरण्यक में
    हाथ कुछ भी नही,
    साथ बहुत कुछ है
    यहां तालिबान नहीं बसता।

    2. कलपती स्मृतियाँ

    जबकि तमाम गाड़ियाँ
    गुज़र गई होंगी,
    तमाम पाँव उन सड़कों
    पर चल चुके होंगे,
    बुहार दी गई होगी सड़क पर बिखरी धूल और पत्तियाँ
    उस शहर की सड़क आज भी
    बाट जोह रही होगी,
    कालिदास की नायिका-सी!
    आषाढ़ के उस दिन कि

जब दो अनजान हाथ
एक दूसरे को स्पर्श कर रहे थे,
तमाम फूलों को खिलने की जमीन
तैयार हो रही थी
चिकनी सड़क पर हवा के साथ हिलती
कोई सूखी पत्ती,
उस स्पर्श को याद कर आज भी
इंतज़ार कर रही होगी।
और हम
समय के प्रवाह में बहकर,
न जाने कहाँ की यात्रा पर निकल चुके होंगे
अलग-अलग दिशाओं में
फिर न मिलने के लिए।
हम अपनी यात्राओं में
न जाने कहां चले जाते हैं,
अपनी स्मृतियों में गुम हुई
तमाम गुजरते दिनों के बीच
कोई तस्वीर ढूँढने ।


3.एक स्त्री की रात

अभी अभी सोई ही थी कि
दो हाथ झंझोड़कर जागते हैं
तब जब
आँखें किसी सपने की आगोश में
खोने ही वाली होती हैं ।
उन सपनों की चमक
आंखों में रंग भरने ही वाली होती हैं
तुम्हें चाहिए
सुख,चरम सुख
औरतें की रात की
परिभाषा बदल जाती है अक्सर,
तमाम जुड़े हाथ
उनकी प्रार्थनाओं को नेस्तनाबूत करने की कोशिश करते हैं ।
मेरी हथेलियां कितनी पपड़ाई हैं
मेरे बदन में कितना दर्द है
क्या तुम जानते हो?
मेरे मना करने पर तुम्हारी गद्दी
फिसलती नज़र आती है तुम्हें
रात आँखों का काजल नहीं  बनती
बल्कि कभी-कभी
मुर्दाघरों की शहतीर बन जाती है।।

4 .सबका कहना है
सबका कहना है कि
आपकी बोली से टपकती है
आपके शहर की गंध
सुधारिए मैडम!
लेकिन मेरे अंदर बसी
उस गाँव की गंध,उस गांव की हवा
रंग,पानी,मिट्टी सब-
एक साथ हमला कर देते हैं मुझ पर
मैं मोह में पड़ जाती हूँ ,
जैसे मिट्टी के ढेले पर गिरे
महुआ फूल अपनी सुगंध दे देते हैं उसे
कहीं न कहीं बची रह जाती है
आदिम गंध
मैं निखालिस शहरी नहीं हो पाती।  
मैं चाहती हूं
ये गंध बची रहे सबके अंदर
पहचान पत्र की तरह।

5. तुम वहीं रहना

सुनो तुम वहीं रहना
जहाँ खड़े रहना
जहाँ तुम हो
आगे बढ़ोगे तो
मेरा वज़ूद
पिघलकर तुम में
समा जाएगा ।
फिर कैसे निकलोगे मुझे खुद से
मैं नही चाहती तुम
मैं हो जाओ
मैं तुम हो जाऊं।


6. बुलाना
 
बुलाना
जितना आसान
विदा करना
उतना ही मुश्किल
बुलाने और विदा
के बीच में जो
रिक्ति है-
वही स्मृतियों के
कंधे पर टिका
 रहता है।


7.छिली हुई हथेलियाँ

जो औरतें
छिली हुई हथेलियों से
सहला रहीं हैं
अपनी ही पीठ
उन्हें समय की आँच
सिंझाती है
उनकी शिराओं में जमा नमक
उन्हें जीवन का
स्वाद बढ़ाने में उर्जा देता है
और अंगुलियों में
कातने और सीने के गुन
दुख को कातना
सीखा देता है
अपने लहू की आंच से
जीवित करती स्त्रियां
धरती से न जाने कहाँ चली गयी हैं
अपनी छिली हुई पीठ को
ढंक कर आँचल से
सहला रहीं हैं
शिलाओं का दुःख।

अनुराधा ओस

प्रकाशन : विविध पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित – हंस, वागर्थ, आजकल, लमही,समकाल,बनास जन ,स्त्री लेखा,दोआबा, पाखी,समय संज्ञान, पंजाबी पत्रिका:राग,समय साक्ष्य,भाषा,
संपादित किताब आँचलिक विवाह गीतों के संग्रह ‘मड़वा की छाँव में’



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