मीरा का काव्य और स्त्री अस्मिता का प्रश्न

वर्तमान समय में स्त्री अस्मिता का प्रश्न चिंतन के केन्द्र में है। युगों से संघर्षरत नारी अपने हिस्से की ज़मीन और अपने हिस्से के आकाश को तलाश रही है और आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता का शंखनाद कर रही है। किंतु अभी भी बहुत सारी गाँठें हैं जिनका खुलना बाकी है, तभी इस पितृसत्तात्मक समाज में नारी सफल, सक्षम और सुरक्षित हो पाएगी। एक स्त्री द्वारा स्त्री अस्मिता की, उसकी दृष्टि, सोच, मनःस्थिति एवं समस्याओं की पड़ताल और विश्लेषण है स्त्री विमर्श। स्त्री विमर्श के प्रवाह में संत कवयित्रि मीरा पर चर्चा करते हुए यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या भक्तिकालीन मीरा का काव्य आधुनिक स्त्री विमर्श का अंग हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर हमें भक्ति आंदोलन के उद्भव तथा विकास की पृष्ठभूमि और स्वयं मीरा के काव्य से मिल जाता है। भक्त मीरा का काव्य केवल भक्तिभाव की अभिव्यक्ति नहीं है। उनके काव्य में भक्ति की गहनता के साथ ही तत्कालीन दमनकारी सामंती व्यवस्था में घिरी एक स्वतंत्रचेता  नारी के प्रतिरोध के तीखे स्वर हर कदम पर विद्यमान हैं।

भक्ति युग को व्यापक लोक जागरण का युग कहा जाता है। भक्तिकाव्य में मध्ययुगीन सामंती जड़ताओं के विरोध के साथ-साथ समाज और संस्कृति के पुनर्निमाण की चेतना विद्यमान है। भक्त कवियों की सबसे बड़ी शक्ति ईश्वर की सर्वव्यापकता व सर्वसुलभता की प्रतिष्ठा कर सामान्य जनता में आत्मगौरव बोध जगाना है। इसके लिए उन्होंने जनता को सामंती समाज के धार्मिक-सामाजिक अन्तर्विरोधों के प्रति सचेत किया। उनके द्वारा निरूपित ईश्वर के स्वरूप में सामान्य जन के विषमतापूर्ण जीवन के प्रति गहरी करुणा और इससे मुक्ति का प्रयत्न था। यही कारण है कि समाज के दलित-वंचित वर्गों की भक्ति-आंदोलन को अखिल भारतीय स्वरूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मीरा के काव्य को पढ़ते हुए हमें इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना अनिवार्य है। मीरा-काव्य में निहित परिवार, कुलकानि, राजसत्ता के विरुद्ध विद्रोह की प्रवृत्ति को अनदेखा कर अलौकिक ईश्वरीय सत्ता से जुड़ने की अभिलाषा के रूप में उनके काव्य को पढ़ा गया, जबकि यह मीरा के काव्य का केन्द्रीय स्वर नहीं है। मीरा के भीतर की स्वतंत्रचेता स्त्री उनके काव्य के केन्द्र में है, जो पितृसत्तात्मक समाज की चौकस दृष्टि तथा दबाव से मुक्त होना चाहती है। इस संबंध में प्रख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी पुस्तक “मीरा का काव्य” में लिखते हैं-

“मीराबाई की कविता भी भक्ति आंदोलन, उसकी विचारधारा और तत्कालीन समाज में नारीस्थिति से उनकी टकराहट का प्रतिफलन है।… भारत में मानवीयता और दलितोध्दार का संबंध वर्णव्यवस्था और नारी पराधीनता से रहा है। इसीलिए भारत में जब-जब कोई मानवीय विचारधारा लोकप्रिय और व्यापक आंदोलन को जन्म देती है, तब-तब उससे प्रेरित साहित्य वर्णव्यवस्था और नारी पराधीनता पर प्रहार करता है।…भारत की आधुनिकता वस्तुतः मध्यकालीनता का विरोध करने वाली मध्यकालीन प्रवृतियों का विकास है।“1.

भक्ति आंदोलन की विशेषता यह थी कि यह भावना के धरातल पर सबको समान मानता था। इस आंदोलन के रूढ़िविरोधी रूप को समझने के लिए इस बात पर गौर करना ज़रूरी है कि विश्व भर में जहाँ भी सामंती व्यवस्था रही वहाँ शूद्र और नारी हाशिए पर रहे हैं, उत्पीड़ित रहे हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है-

“सामंती व्यवस्था जहाँ ज़्यादा पुरानी और मज़बूत होगी वहाँ जाति-पांति के भेद-भाव की तरह स्त्री और पुरुष में छोटे-बड़े का भेद भी ज़्यादा होगा।2.

भक्ति आंदोलन नारी को भी घर से उसी तरह बाहर आने का निमंत्रण देता था जिस प्रकार पुरुष को। लेकिन सामंती व्यवस्था नारी को विशेषतः-उच्च वर्ग की नारी को घर से बाहर निकलने की आज्ञा नहीं दे सकती थी। मीरा के भक्त जीवन का यही मूल भौतिक संघर्ष था। मीरा की कविता का परिवेश सीमित और व्यक्तिगत है। लेकिन वह इस व्यक्तिगत और सीमित परिवेश को तोड़‌कर बाहर आना चाहती हैं, बाहर आने से रोकी जाती हैं- बाहर न आ पाने की व्यथा का वर्णन -चित्रण करती हैं, तो परिवेश अपनी विषमता से युक्त बाह्य समाज का भी संकेत कर देता है। मीरा के काव्य में सर्वाधिक मुखर है, विवाह संस्था के प्रति असन्तोष का भाव, जो राणाजी के जानलेवा षड्यन्त्र और सास-ननद के उत्पीड़न के जरिए उभरता है। सास लड़ती है, ननद खिजाती है, पहरा लगा दिया है, ताला जड़ दिया है-

“हेली म्हासूं हरि बिन रह्यो न जाय।

सास लड़े मेरी ननद खिजावै राणा रह्या रिसाय।3.

पहरो भी राख्यो चौकी बिठार्यो, तालो दियो जड़ाय।“

मीरा घर की चारदीवारी में रहकर सामान्य विधवा जीवन नहीं बिताना चाहती थीं। वह साधु संगति तथा कृष्णगुण कीर्तन द्वारा भावजगत में कृष्ण मिलन चाहती हैं और यही समाज में उनकी निंदा तथा राणा के कुपित होने का कारण है। आ. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं-

“मीरा का काव्य उन विरल उदाहरणों में है जहाँ रचनाकार का जीवन और काव्य एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं, परस्पर संपर्क से वे एक-दूसरे को समृद्ध करते हैं।…… उनका काव्य सूर द्वारा विस्तार में चित्रित गोपियों की विरहोन्मुखता का ‘डिटेल’’ या ब्यौरा है।“4.

मीरा का समूचा काव्य उत्पीड़ित स्त्री के आर्त्तनाद और विरहिणी प्रिया के करुण हाहाकार का प्रामाणिक दस्तावेज है। मीरा का अपना कोई नहीं, केवल गिरधर गोपाल हैं। मीरा ने भाई बंधु, सगे-साथी सबको छोड़ा। साधुओं के साथ बैठे-बैठ कर लोकलाज खो दी। मीरा को लगन लग गई, अब जो होना है, हो :

“भाया छांड्‌या बन्धा छांड्‌या छांड्‌या सगा सूयां।

साधा ढिग बैठ-बैठ, लोकलाज खूयां।

……………………………….

मीरा री लगण लग्यां होणा हो जो हूयां ।“.5

इस पद में मीरा ने बाह्यांतर स्थितियों का सम्यक् परिचय दिया है। वे इस जगत में अकेली हैं। कोई उनका नहीं है, पति मृत हो चुका है। विधवा स्त्री के साथ नाते-रिश्तेदारों का व्यवहार सर्वविदित है। हरि के प्रति समर्पित हृदय ने बहुत वेदना सहकर प्रेम को पल्लवित किया है। वह प्रेम में हैं, उनका साधन साधुसंगति है, राणा का महल नहीं। अस्मिता को तलाश के क्रम में ही इस प्रकार का प्रेम और समर्पण घटित होता है, एक ऐसे प्रकाश-बिंदु से जो आदर्श जान पड़ता है और एक लम्बे संघर्ष तथा साधना के बाद मिलता है। अपनी पुस्तक “कहती हैं औरतें” में अनामिका जी ने इस बात को बड़े सुलझे हुए तरीके से बताया है-

“सिमिऑटिक स्तर वाला यह समर्पण ‘सिंबॉलिक’ व्यवस्था के कोमल-सहिष्णु-लज्जालु-कांतासम्मत समर्पण से बिलकुल भिन्न होता है क्योंकि इसमें एक (आदर्श) के स्वीकार में पूरी व्यवस्था का निषेध शामिल होता है। एक प्रेमी/भक्त और मिस्टिक की आत्मा इसी अर्थ में बागी होती है। जब मीरा कहती है- ‘मेरो तो गिरिधर गोपाल/दूसरो न कोय ‘तो एक के स्वीकार में पूरी व्यवस्था के निषेध का क्रांतिकारी दर्शन घटित होता दिखाई देता है।“6.

मीरा को अपनी असहायता का तीव्र बोध है। यह बोध जितना तीव्र है उतना ही हरि के प्रति समर्पण की भावना भी। पति की मृत्यु, सास-ननद की ताड़ना, पिता की मृत्यु, देवर राणां के षड्यंत्र और दुर्जनों की निंदा-इन सबने निश्चित ही मीरा को बहुत मानसिक यातना दी होगी। मीरा अनायास ही राजसत्ता, पितृसत्ता, कुलकानि को ठोकर मारती विद्रोहिणी नहीं बनी हैं। तिरस्कार से अधिक दमन और उत्पीड़न ने उनके भीतर की कोमलता और मनुष्यता को आहत किया है। इसलिए वो पूरी निर्भीकता से कहती हैं। “जो कोउ मोको एक कहोगो, एक की लाख कहोंगी।“ वे पूरी स्थिति का विश्लेषण कर सोचती हैं कि क्या अपने उत्पीड़क के साथ संबंध निर्वाह करना चाहिए? यदि नहीं तो क्या उसके भौतिक-सामाजिक संरक्षण में रहना चाहिए? आत्माभिमान से भरी मीरा आधुनिक विद्रोहिणी नारी से कम नहीं। “खीर खांड”, ‘दखणी चीर’, ‘माणक माती’ का परित्याग तो उन्होंने कब का कर दिया, फिर दो मुठ्ठी अन्न के लिए राणा की क्या धौंस। लोक में घुलने-मिलने, साधुसंगति करने तथा अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु उन्होंने सामंती वैभव का परित्याग किया। राणा के देश में सब कुछ था–गहना, गांठी, हाथ का चूड़ा, काजल, महल, अटारी नहीं थे तो साधु। इसीलिए मीरा ने सब कुछ छोड़कर भगवा चादर पहन ली-

“महल अटारी हम सब त्यागे, त्याग्यो थारो बसनों सहर

काजल टीकी राणा हम त्यागा भगवी चादर पहर।“ 7.

अपने इस चुनाव के लिए मीरा को भारी लोकनिंदा सहनी पड़ी। असहिष्णु भारतीय समाज ने उन्हें क्या कुछ न कहा होगा, किन्तु अपनी धुन की पक्की मीरा पूरी ठसक के साथ कहती हैं-

“राणा जी म्हाने या बदनामी लगे मीठी। 8.

कोई निंदो कोई बिंदो मैं चलूंगी चाल अनूठी।“

वैराग्य मीरा को लोक और जगत दोनों से जोड़ता है। उन्हें सामाजिक पदानुक्रम में सबसे छोटे व्यक्ति के साथ संवाद की स्वतंत्रता देता है और वे पाती हैं कि दोनों के सुख-दुःख कितने समान हैं, तभी वे कहती हैं ‘घायल की गति घायल जाने।‘ वैराग्य ने मीरा के विद्रोह को नया आयाम देकर घर से बाहर स्त्री की अस्मिता और प्रतिष्ठा को स्वीकृति दी है। मीरा के काल तक स्त्रियों के लिए धर्मपरायणता का अर्थ था पति की सेवा, ग्रहस्थिक दायित्वों की पूर्ति, धार्मिक अनुष्ठानों में यथानिर्दिष्ट भागीदारी और साधु-सेवा। अध्यात्म से जुड़े दार्शनिक प्रश्नों पर विचार करने की छूट उसे नहीं थी। तीर्थाटन, संन्यास आदि को स्त्रियोचित धर्म के प्रतिकूल माना जाता था। मीरा इस वर्जना को तोड़ती हैं। आज की स्त्री विमर्शकारों की तरह मीरा जानती हैं कि स्त्री-मुक्ति का रहस्य उसकी स्वतंत्र निर्णय क्षमता में निहित है। निर्णय लेना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण और जोखिम भरा है उस निर्णय की जवाबदेही के लिए स्वयं को तैयार करना। मीरा अपने हर निर्णय के लिए जवाबदेह हैं। साधु संगति की लालसा में वृन्दावन और काशी की गलियों में विचरती मीरा को साधु नहीं पुरुष मिले। यही कारण है कि मोहभंग के पश्चात मीरा साधुओं के संबंध में चुप्पी साध लेती हैं और बस इतना भर कहती हैं “कासी को लोग बड़ो बिसवासी, मुख मैं राम बगल मैं फाँसी।“

वस्तुतः मीरा मध्यकालीन वर्जनापूर्ण सामंती व्यवस्था की पीड़ित नारी, भक्त कवयित्री हैं। इस पीड़ित नारीत्व को भूलकर उनकी कविता को हृदयंगम नहीं किया जा सकता। यह उस बंधनग्रस्त नारीमन की अभिव्यक्ति है जिसके विषय में तुलसी ने लिखा था-

“कतविधि सृजी नारि जग माहीं 9.

पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।।“

निस्संदेह मीरा ने आत्मनिवेदन किया है। लेकिन उनका आत्म सामाजिकता और संघर्ष युक्त है। इसीलिए वह इतना प्रभावशाली है। सच्चाई की बहुत बड़ी पहचान यह है कि वह संघर्ष और विरोध आमंत्रित करती है। मीरा एक आत्माभिमानिनी, संवेदनशील, जागरूक स्त्री की तरह इस संघर्ष और विरोध का सामना करती हैं और स्त्री अस्मिता से जुड़े तमाम पक्षों को भक्ति, प्रेम, रहस्य आदि की अनुभूति के साथ अपने काव्य में अभिव्यक्त करती हैं। मीरा का व्यक्तित्व अपने समय का सबसे क्रांतिकारी व्यक्तित्व था। उनका काव्य और उसमें निहित स्त्री अस्मिता के प्रश्न आज के स्त्री विमर्श के लिए प्रेरणास्त्रोत और अनिवार्य कड़ी का काम करते हैं।

संदर्भ:-

1. मीरा का काव्य, वाणी प्रकाशन, 2021, प्राक्कथन, विश्वनाथ त्रिपाठी

2. निराला की साहित्य साधना, खण्ड 2, प्रथम संस्करण, पृ.सं 34-5, रामविलास शर्मा

3. मीराबाई की पदावली सं. परशुराम चतुर्वेदी, पद 42

4. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, 1994, पृ.सं.59, रामस्वरूप चतुर्वेदी

5. मीराबाई की पदावली, सं परशुराम चतुर्वेदी, पद 18

6. कहती हैं औरतें, वाणी प्रकाशन 2022, पृ.सं 13, अनामिका

7. मीराबाई की पदावली, सं. परशुराम चतुर्वेदी, पद 34

8. वही

9. रामचरितमानस, बालकांड, पृ.सं-66

डॉ. शगुन अग्रवाल

एसोसिएट प्रोफेसर

श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय

ई-मेल shagagar945@gmail.Com

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