भारतीय स्त्रीवाद जाति,वर्ग,नस्ल,रंग और विषमलैंगिकता के साथ जुड़ा है

स्त्रीवाद,पुरुष वर्चस्व समाज में स्त्रियों के समान अधिकार और समान अवसर की मांग के साथ अस्तित्व में आया। समय के साथ इसके स्वरूप में बदलाव व विविधता देखने को मिलें। परंतु क्या यह स्त्रीवाद सबके लिय समान है क्योंकि जब स्त्रीवाद की बात की जाती  है या महिलाओं के अधिकारों की बात की जाती है तो इसका संदर्भ केवल विषमलैंगिक, सिसजेंडर, सवर्ण व अभिजात वर्ग की महिलाओं से होता है। अखबारों में यौन शोषण और रेप की घटनाओं में भी ज्यादातर जिक्र छोटे शहरों में भी सवर्ण महिलाओं की होती है वही वंचित वर्ग की महिलाओ (दलित व आदिवासी) की यौन उत्पीड़न और शोषण  की घटनाओं को अनदेखा किया जाता है। अगर जेन्डर की बात की जाए तो इसे पुरुष और महिला की बाइनरी तक सीमित रखी जाती है, ट्रांसजेन्डर और इंटरसेक्स लोगों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है।

    “इंटरसेक्शनैलिटी” शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कानूनी विद्वान किम्बर्ले क्रेंशॉ द्वारा 1989 में किया गया था, जो 80 के दशक की अस्पष्ट अवधारणा थी, जिसके तहत मुख्य तौर पर क्रेंशॉ ने विश्लेषण किया और स्पष्ट किया कि अमेरिका में किस प्रकार श्वेत महिलाओं की तुलना में काली महिलाएं ज्यादा शोषित होती है तथा उन पर हो रहे उत्पीड़न को कानून के द्वारा कैसे नजरअंदाज किया जा रहा। कैसे किसी समाज की अलग-अलग शक्ति-संरचना वहां के अल्पसंख्यकों खासकर काले रंग की महिलाओं के साथ किस तरह व्यवहार करती हैं| यह सिद्धांत मूलत: काले स्त्रीवाद की उपज है| इसकी शुरुआत ही यह समझने के लिए की गयी कि आखिर क्यों और कैसे किसी भी समाज के अल्पसंख्यक पिछड़े लोगों को किताबों, सिद्धांतों, इतिहास के पन्नों, आंदोलनों और स्त्रीवाद के अलग रखा गया?

क्रेंशा के अनुसार, इंटरसेक्शनैलिटी एक ढांचा है जिसके माध्यम से यह समझने का प्रयास  किया जाता है कि जातिवाद, नस्लवाद, वर्गवाद, धर्म, लिंग और अन्य मुद्दे कैसे एक दूसरे के साथ ओवरलैप हो सकते हैं और लोगों को विभिन्न तरीकों से प्रभावित कर सकते हैं। अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोगों के अनुभव अलग-अलग होते हैं।  इंटरसेक्शनैलिटी यह स्पष्ट करती है कि हमारे पास कई पहचानें होती हैं जो हमें बनाने के लिए एक-दूसरे से जुड़ती हैं और हमारी पहचान के प्रत्येक हिस्से किस प्रकार एक साथ आते हैं और यह निर्धारित करते हैं कि समाज में किसके पास शक्ति है और किसके पास नहीं है। यह हमें उन उत्पीड़नों और विशेषाधिकारों के बारे में बात करने का एक तरीका भी देती है जो एक-दूसरे को ओवरलैप और सुदृढ़ करते हैं। हमारी पहचान और अनुभवों के तैयार होने में भी कई कारक योगदान करते हैं। किसी भी विषय के एक हिस्से को देख कर निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं ,हमें पूरी तस्वीर को देखनी  होगा और उन सभी कारकों को ध्यान में रखना होगा जो हमारी पहचान और समाज में हमारे अनुभव को प्रभावित करते हैं। सामाजिक पहचान और उससे जुड़ी संरचनाओं के आधार पर होने वाले वर्चस्व, दमन, और भेदभाव को समझता है। इस सिद्धांत के अनुसार, महिलाएं समाज में विभिन्न आधारों पर दमन और भेदभाव का शिकार होती हैं, और यह संरचनाएं न केवल एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं बल्कि लगातार एक-दूसरे को प्रभावित भी करती हैं।

साधारण शब्दों में कह सकते हैं कि इन्टरसेक्शनल स्त्रीवाद इस बात की पुष्टि करता है कि एक स्त्री को कितना शोषण सहना पड़ सकता है यह उसकी सामाजिक पहचान पर अर्थात, जाति, धर्म, वर्ग या नस्ल के द्वारा तय होता है । कोई भी दो स्त्रियों के हालात एक जैसे नहीं होते है भलें ही वो दोनों स्त्री ही हों। भारतीय संदर्भ में इसे देखें तो कह सकते हैं कि इंटरसेक्शनल स्त्रीवाद का अर्थ इस बात को स्वीकारना है कि एक संभ्रांत, सक्षम, सिसजेन्डर्ड   विषमलैंगिक और  सवर्ण हिंदू महिला के पास ज्यादा अधिकार व शक्ति है उन महिलाओं की तुलना में जो इन पैमानों में खरी नहीं उतरती।  इनमें शामिल दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, एलजीबीटीक्यू और विकलांग महिलायें, जिन्हें महिला होने के अलावा भी अलग तरह का सामाजिक शोषण सहना पड़ता है क्योंकि उनके पास विशेषाधिकार कम हैं। अतः जाति, नस्ल असमानता, लिंग, वर्ग, सेक्सुअलिटी के आधार पर असमानताओं को अलग-अलग देखने की बजाय यह देखना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक इन सभी का अनुभव कैसे करते हैं।

इंटरसेक्शनल स्त्रीवाद विभिन्न तत्वों को ध्यान में रखकर स्त्रीवाद से लेकर शोषण के अलग-अलग कारकों व तत्वों का विश्लेषण करता है| यह स्त्रीवाद के उस प्रमुख विचार को चुनौती देता है जिसने साफतौर पर स्त्रीवाद को समाज के श्वेत, उच्च वर्ग व जाति, या सक्षम, योग्य लोगों तक सीमित कर इसे समाज के हाशिये में रहने वालों तक पहुंचने में रोड़े का काम किया है| इंटरसेक्शनल स्त्रीवाद , समाज की सभी महिलाओं की बजाय केवल हाशिए पर होने वाली महिला-संबंधित मुद्दों को रेखांकित करता है| इस सिद्धांत में इस चुनौती का सामना किया जाता है कि किस तरह सामाजिक संरचना में अलग-अलग आधारों पर महिलाओं के साथ भेदभाव के समावेशन को आकार देकर उन्हें लागू किया जाता है| महिला और अल्पसंख्यक पिछड़े वर्गों के संबंध में वे अलग-अलग आधारों पर स्वयं को परिभाषित करते हैं और ये आधार एक दूसरे से पूरी तरह अलग होते हैं| इन्हीं ‘आधारों’ का अध्ययन स्त्रीवादी विश्लेषण में किया जाता है| इंटरसेक्शनल स्त्रीवाद को उन सभी आधारों पर लागू किया जा सकता है जो एक-दूसरे से जुड़कर शोषण को प्रभावित करते और उन्हें बनाये रखने में सहायक होते है, क्योंकि उनमें से एक भी कारक स्वतंत्र रूप से काम नहीं करता है|

1980 में इसे अश्वेत महिलाओं के संदर्भ में देखा गया कि किस प्रकार अश्वेत महिलाओं के अनुभव अश्वेत पुरुषों और श्वेत महिलाओं के अनुभवों से कैसे अलग हैं। और कैसे अश्वेत महिलाएं दोनों लिंग भेदभाव और नस्लीय भेदभाव सहन करती हैं। वहीं भारत में 1990 के दौरान इसे दलित महिलाओं के संदर्भ में मुख्यधारा के स्त्रीवाद के आलोचनात्मक स्वरूप में आया।

भारत के संदर्भ में इंटरसेक्शनल स्त्रीवाद  

भारतीय स्त्रीवाद बेहद नजदीकी रूप से जाति, वर्ग, नस्ल, रंग और विषमलैंगिकता के साथ अंतरसंबंधित् है। एक सक्षम, शिक्षित और सवर्ण महिला की तुलना वंचित समूह की महिलायें, दलित महिलायें व आदिवासी महिलायें ज्यादा शोषित होती है।

एक दलित महिला न केवल महिला होने की वजह से शोषित होती है बल्कि इसलिय भी शोषित होती हैं कि वह दलित है साथ ही वह गरीब है। वह अपनी सामाजिक परिस्थिति की वजह से तीन कारणों से शोषित होती हैं। उदाहरण के लिए भवरीं देवी का केस  (1992) का विश्लेषण किया जा सकता है,जिसमें भवरीं देवी पर यौन हिंसा सिर्फ उसके महिला होने की वजह से सिर्फ नहीं हुआ था बल्कि उसके दलित होने व नीचे जाति की होने की वजह  पूरे दलित समुदाय पर उच्च वर्ग द्वारा अपना वर्चस्व व शक्ति स्थापित करने के लिए किया गया था। 

जाति, लिंग और अन्य पहचान श्रेणियों को अक्सर मुख्यधारा के उदारवादी डिसकोर्स  में पूर्वाग्रह या प्रभुत्व के अवशेषों के रूप में देखा जाता है- अर्थात, ऐसे अंतर्निहित नकारात्मक ढाँचे जिनमें सामाजिक शक्ति उन लोगों को बाहर निकालने या हाशिए पर डालने के लिए काम करती है जो भिन्न होते हैं। पहचान राजनीति को मुख्यधारा के उदारवादी प्रवचन में सामाजिक न्याय की प्रचलित अवधारणाओं के साथ तनाव में देखा गया है। फिर भी, कुछ स्त्रीवादी और नस्लीय मुक्ति आंदोलनों की कुछ धाराओं में यह विचार निहित है कि अंतर को चिह्नित करने में सामाजिक शक्ति प्रभुत्व की शक्ति नहीं होनी चाहिए; यह राजनीतिक सशक्तिकरण और सामाजिक पुनर्निर्माण का स्रोत हो सकती है।

कई महिलाओं का अनुभव की जाने वाली हिंसा उनके पहचान के अन्य आयामों, जैसे कि जाति और वर्ग, से आकार लेती है अंततः महिलाओं के खिलाफ हिंसा के संदर्भ में, यह अंतर का नजरअंदाज करना समस्याग्रस्त है।  इसके अलावा, समूहों के भीतर अंतर को नजरअंदाज करना अक्सर समूहों के बीच तनाव में योगदान देता है, जो पहचान राजनीति की एक और समस्या है जो महिलाओं के खिलाफ हिंसा को राजनीतिक बनाने के प्रयासों को निराश करती है।

महिलाओं के अनुभवों को राजनीतिक बनाने के स्त्रीवादी प्रयास और रंग के लोगों के अनुभवों को राजनीतिक बनाने के विरोधी नस्लवादी प्रयास अक्सर इस तरह से चलते हैं जैसे कि वे मुद्दे और अनुभव एक दूसरे के अनन्य क्षेत्र पर होते हैं। हालाँकि नस्लवाद और लिंगवाद वास्तविक लोगों के जीवन में आसानी से जुड़ जाते हैं, जैसा  वे स्त्रीवादी और विरोधी नस्लवादी प्रथाओं में शायद ही जुड़ते हैं। और इसलिए, जब ये प्रथाएं पहचान को “महिला” या “रंग का व्यक्ति” के रूप में एक या दूसरे प्रस्ताव के रूप में पेश करती हैं, तो वे रंग की महिलाओं की पहचान को एक ऐसी स्थिति में डाल देती हैं जो बताने के खिलाफ प्रतिरोध करती है।

विभिन्न श्रेणियों के बीच का इंटरसेक्शन से तात्पर्य है लिंग (जेन्डर) का जाति, वर्ग, पहचान और अन्य कई श्रेणियों के साथ प्रतिच्छेदन। यह व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक प्रथाओं, संस्थागत व्यवस्थाओं और सांस्कृतिक विचारधाराओं में शक्ति के परिणामों को कैसे आकार देता है, कैसे यह हमारे अनुभवों, समुदायों और महिलाओं के अनुभवों को कैसे आकार देता है, इस पर केंद्रित होता है। कैसे महिलाओं के जीवन में विभिन्न और बहुस्तरीय भेदभाव होते हैं। इंटरसेक्शनालिटी को इस प्रकार समझा जा सकता है कि विभिन्न शक्ति संरचनाएं, जैसे जाति और पहचान, कैसे परतदार और बहुस्तरीय भेदभाव उत्पन्न करती हैं। कैसे विभिन्न पहचान जैसे जाति, वर्ग और लिंग महिलाओं के सशक्तिकरण के संघर्ष को प्रभावित करते हैं। उत्तर-आधुनिक सैद्धांतिक दृष्टिकोण से प्रेरित होकर, यह महिलाओं के अनुभवों और उत्पीड़न को समझने में द्विआधारी विरोध और यह मानता है कि वंचित समूहों के भीतर भी, शक्ति और अनुभव के विभिन्न स्तर हो सकते हैं।

यह विचार इस बात को नहीं नकारता कि केवल सामूहिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों के साथ हो रहे भेदभाव महत्वपूर्ण हैं, बल्कि यह भी समझाता है कि इन समुदायों के भीतर भी कई और भिन्न-भिन्न अनुभव और उत्पीड़न होते हैं, जो एक महिला को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, एक शिक्षित शहरी महिला और एक आदिवासी महिला बिना भूमि के अलग-अलग प्रकार के अनुभव और चुनौतियों का सामना करती हैं।

लिंग और इंटरसेक्शनालिटी को एक एकीकृत दृष्टिकोण के रूप में समझा जा सकता है, जो कई प्रकार के भेदभावों की पहचान और विश्लेषण करता है। यह केवल विभिन्न पहचानों या भेदभावों का योग नहीं है, बल्कि उनके संयोजन से अधिक जटिल और बहुस्तरीय भेदभाव उत्पन्न होते हैं।

इंटरसेक्शनालिटी हाशिए पर रहने वाली महिलाओं को कई दिखाई देने और अदृश्य भेदभावों का अनुभव करने के रूप में पहचानती है। उदाहरण के लिए, कई आदिवासी आंदोलनों में महिलाओं की स्थिति के बारे में बात नहीं की जाती है क्योंकि समुदाय पहले से ही सामूहिक रूप से हाशिए पर है और महिलाओं के भेदभाव के मुद्दे को उठाने से आंदोलन में विभाजन हो सकता है।

इस प्रकार, इंटरसेक्शनालिटी सिद्धांत महिलाओं के अनुभवों को समझने और उनके साथ होने वाले भेदभाव को देखने के लिए एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करता है। यह लिंग, जाति, वर्ग और अन्य पहचान श्रेणियों के बीच के संबंधों को समझने में मदद करता है और यह दिखाता है कि कैसे ये संबंध महिलाओं के जीवन को प्रभावित करते हैं।

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ISSN 2394-093X
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