दलित स्त्रीवादी इतिहास का उत्सव : पुणे की शैलजा पाइक अमेरिकी मैक आर्थर की ‘जीनियस’ बनीं

प्रत्येक वर्ष अमेरिकी मैकआर्थर फाउंडेशन द्वारा अपने मैक आर्थर फेलोशिप प्रोग्राम के तहत 20 से 30 वैसे व्यक्ति विशेष को जो अपने रचनात्मक कार्यक्षमता से किसी भी क्षेत्र मे अद्भुत कार्य कर रहे है, प्रतिष्ठित मैक आर्थर जीनियस ग्रांट से नवाजा जाता है।

इस वर्ष 2024 के विजेताओं की घोषणा हो चुकी है, जिसमें 22 मैक आर्थर फ़ेलो में पुणे-महाराष्ट्र की शैलजा पाइक का नाम शामिल है, भारतीय मूल की अमेरिकी इतिहासकार और लेखिका शैलजा पाइक को यह खिताब प्राप्त करने वाली भारत की पहली दलित महिला होने का भी गौरव प्राप्त हुआ। पाइक का जन्म पुणे के एक दलित परिवार मे हुआ, जहां उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद सवित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय से स्नातक तथा स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। “द प्रिन्ट” के साथ बातचीत में उन्होंने बताया कि वे आईएएस बनना चाहती थी,परंतु अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने अपना पूरा ध्यान दलित महिलाओ के जीवन पर शोध मे ही लगाया। इसी दौरान उन्हें फोर्ड फाउंडेशन की ग्रांट मिली, जिसकी मदद से उन्होंने वारविक विश्वविद्यालाय, यूके से अपनी पीएचडी पूरी की। अब वे सिनसिनाटी विश्वविद्यालाय अमेरिका में ‘ वुमन, जेंडर और सेक्सुअलिटी अध्ययन एवं एशियाई अध्ययन पढ़ाती हैं।

बीबीसी मराठी से अपने और अपने परिवार के संघर्ष पर बात करते हुए शैलजा कहती हैं, “हमारे पास न तो पीने के पानी की सुविधा थी, न ही शौचालय. यह सच है कि मैं कचरे और यहां तक कि गंदगी से घिरे इलाके, जहां सूअर घूमते रहते थे, वहां बड़ी हुई, सार्वजनिक शौचलायों की वो यादें, मुझे आज भी परेशान करती हैं.” बस्ती में सार्वजनिक नल का पानी ही घर में खाना पकाने या सफाई जैसे कामों का आधार था’

बीबीसी से बात करते हुए वे कहती हैं, “ऐतिहासिक रूप से इतनी बड़ी आबादी को किसी भी प्रकार की शिक्षा, सार्वजनिक बुनियादी ढांचे, सार्वजनिक जल निकायों या कुओं के इस्तेमाल की अनुमति नहीं थी, चप्पल या नए कपड़े पहनने की तो बात ही छोड़ दें, भले ही कोई उनका ख़र्च उठाने की स्थिति में ही क्यों न हो.”

“दलित महिलाएं निस्संदेह सबसे अधिक वंचित और उत्पीड़ित हैं. दलितों में उनकी स्थिति ‘दलित’ जैसी है. यही वह समाज है जहां से मैं आती हूं. यही कारण है कि पिछले 25 वर्षों से मेरे अध्ययन, शोध और लेखन का विषय यही रहा है.”

वे आगे कहती हैं, “सामाजिक, शैक्षिक, भावनात्मक और मानसिक सभी स्तरों पर, इन सबका निश्चित रूप से गहरा प्रभाव पड़ता है. इतना मुश्किल जीवन जीने और येरवडा जैसे इलाके़ में रहने के बाद भी इन हालात से बाहर निकलने में शिक्षा के महत्व को मेरे माता-पिता देवराम और सरिता ने पहचाना और मुझे इसके लिए प्रोत्साहित किया. यही कारण है कि मैं ख़ुद को पढ़ाई के लिए समर्पित कर पायी.

बीबीसी को वे बताती हैं कि “भारत की कुल आबादी में दलित 17 प्रतिशत हैं. मैंने देखा कि दलित महिलाओं की शिक्षा पर बहुत काम नहीं किया गया है. आंकड़े तो हैं लेकिन सटीक स्थिति के बारे में कोई गुणात्मक शोध नहीं है. इन दलित महिलाओं का इतिहास किसी ने ठीक से नहीं लिखा इसलिए मैंने तय किया कि मुझे ये काम करना है.” फ़ैलोशिप के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, “मुझे उम्मीद है कि यह फेलोशिप दक्षिण एशिया और उसके बाहर दलितों और गैर-दलितों दोनों के लिए जातिवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई को मज़बूत करेगी.”

1981 मे आरंभ हुई इस फेलोशिप प्राप्तकर्ताओं में में अब तक 1153 रचनात्मक कलाकारों, विद्वानों, शोधार्थी आदि शामिल हैं। जिसमें विजित प्रत्येक फ़ेलो को 800,000 अमेरिकी डॉलर यानि भारतीय मुद्रा मे लगभग 6.72 करोड़ रुपये पाँच वर्षों मे दिए जाएंगे। “द न्यूयार्क टाइम्स ” मे छपे एक लेख मे मैक आर्थर फ़ेलो जिम कॉलिन्स कहते है कि “इसमें किसी प्रकार की आवेदन की व्यवस्था नहीं है। इसे एक अज्ञात समिति द्वारा विभिन्न क्षेत्रों से विद्वानों को चुना जाता है।”

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ISSN 2394-093X
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