
23 जून, 2023 को पटना में इंडिया गठबंधन की पहली बैठक के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में लालू प्रसाद ने कहा कि ‘ नल,नील,कोल,भील सब आए साथ। मेरे सामने सवाल था कि ” कहां हैं फिर ‘ शंबूक, निषादराज!’ इस सवाल के साथ ही यह सवाल भी कि बिना विश्वसनीय नेतृत्व के क्या दलित मतदाताओं को अपने साथ लाया जा सकता है? बड़ा प्रश्न है कि किसी भी पक्ष में न खड़े होकर अपनी राजनीति और अपने राजनीतिक आधार या लक्ष्य के लिए अलग खड़े होने को, अलग निर्णय को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में कैसे देखें? अपने समय के प्रचलित नैरेटिव की बायनरी से, द्विपक्षीय माहौल से अलग स्टैंड क्या महात्मा फुले से लेकर डा. अम्बेडकर तक की एक परंपरा नहीं रही है ?
मायावती के प्रसंग से :
नीतीश कुमार ने जब इण्डिया गठबंधन को स्वरूप देने की मुहीम शुरू की थी तब उन्होंने देश के कई नेताओं से मुलाकात की,लखनऊ में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से मिले,लेकिन बसपा प्रमुख मायावती से नहीं। और तो और बिहार में कुछ ऐसी स्थितियां पैदा की गयीं, या हुईं कि सरकार में शामिल एक मात्र दलित नेतृत्व की पार्टी जीतन राम मांझी की पार्टी हम (सेक्यूलर )अलग हो गयी। जब इण्डिया और एनडीए गठबंधन अपने आखिरी स्वरुप में आया तो लगभग सभी दलित नेतृत्व की पार्टियां या तो एनडीए के साथ दिखाई पड़ीं या इण्डिया और एनडीए से अलग।
दलित नेताओं के फैसलों पर अक्सर इंडिया गठबंधन के लोग अथवा उनके समर्थक, खासकर कांग्रेस के समर्थक पत्रकार,विश्लेषक सवाल खड़ा करते हुए उनकी विश्वसनीयता को ही कटघरे में ले लिया करते हैं। जैसे, मायावती के लिए कहा जाने लगा कि ‘ वे ईडी, सीबीआई से डर कर भाजपा की बी टीम बन गई हैं।’ जीतन राम मांझी को तो खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गवर्नर बनने का लालची तक बता डाला था, वह भी विधान सभा के पटल पर। उन्हें कई अपशब्द भी कहे थे। मैं अपनी गवाही से जानता हूँ कि जीतन राम मांझी का कोई अंतिम इरादा एनडीए गठबंधन की ओर जाने का नहीं था। उनके साथ एक किताब के सिलसिले में मैं उन दिनों कई घंटे बैठकर उनका इंटरव्यू कर रहा था, इसलिए भी जानता हूँ। विडंबना यह कि खुद नीतीश कुमार अंततः इण्डिया गठबंधन से बाहर हो गए।
मान्यवर कांशीराम की राजनीति
1992 में बाबरी मस्जिद को आपराधिक घटना ( सुप्रीम कोर्ट के अनुसार भी ) के तौर पर गिरा दिया गया था। तब भाजपा के खिलाफ एक माहौल था। उस वक्त मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने मिलकर 1993 का चुनाव लडा। नारा लगा ‘ मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम ‘। मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने। उसके दो साल के भीतर लखनऊ का ‘गेस्ट हॉउस कांड’ हुआ। मायावती पर हमले की उस घटना का आरोप समाजवादी वेटरन मुलायम सिंह यादव पर भी रहा है।उसके तुरत बाद ही कांशीराम जी अलग हुए और और भाजपा के समर्थन से बसपा की सरकार बनवाई। मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनीं। तब से ही बसपा की राजनीति के वर्चस्व वादी नैरेटिव में अवसरवादी बताया जाने लगा था। उस वक्त में भी साम्प्रदायिक राजनीति और गैर साम्प्रदायिक राजनीति के खांचे बन गए थे।
1997 में एक बार फिर भाजपा और बसपा के गठबंधन से सरकार बनी। मार्च 1997 में मायावती मुख्यमंत्री बनीं। छः महीने के चर्चित फॉर्मूले की इस सरकार में बाद में कल्याण सिंह ने शपथ लिया लेकिन उसके एक महीने के भीतर ही बसपा ने समर्थन वापस ले लिया। 2001 में मायावती के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद 2002 में भी सरकार भाजपा के समर्थन से बनी। इन अवसरों पर कांशीराम पार्टी के सक्रिय निर्णयकर्ता थे।
कांशीराम पर अवसरवाद के आरोप लगते रहे हैं, जबकि अलग अलग अवसर के अलग अलग राजनीतिक फैसले लगभग सभी दलों के खाते में है। कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले अनेक दल आज कांग्रेस के साथ इंडिया गठबंधन बना चुके हैं। 1989 में वीपी सिंह की सरकार में शामिल या बाहर से समर्थन कर रहे दलों में वाम और दक्षिण धारा के दल सम्मिलित रूप से साथ थे।
डॉक्टर अम्बेडकर की अलग राह
1942 में कांग्रेस जब भारत छोड़ो आंदोलन में कूदी और उस वक्त वायसराय के मंत्रिमंडल से खुद को अलग करने का निर्णय लिया तब मुस्लिम लीग ने इसे ‘ मुक्ति प्रसंग ‘ माना था। डॉक्टर अंबेडकर भी लीग के साथ-साथ मंत्रिमंडल में बने रहे। उस दौर में उन्होंने श्रम मंत्री के रूप में बड़े बड़े काम किए। महिलाओं, हाशिए के समाजों के लिए, भारत के विकास के लिए कई निर्णय लिए और मंत्री मंडल से लागू करवाए। उनमें से दूरगामी थी तत्कालीन बिहार के मैथन में दामोदर वैली कारपोरेशन की परिकल्पना। उनके श्रम मंत्री रहते उसकी योजना साकार हुई। उस दौर में भी डॉक्टर अंबेडकर को काफी निंदा और हमले झेलने पड़े। कांग्रेस समर्थक अखबार उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू बता रहे थे। कांग्रेसी उनके खिलाफ उबल रहे थे इसलिए वे बॉम्बे में अपने घर में रह रहे अपने बेटे भतीजे की सुरक्षा के लिए चिंतित रहते थे।
महात्मा फुले प्रचलित नैरेटिव से
भीमा कोरेगांव में पेशवाओं की हार में अंग्रेजों के साथ महार सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी (500 सैनिक) की महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1 जनवरी 1818 को लड़ी गयी इस लड़ाई ने पेशवा राज को समाप्त किया। उसके 7 साल बाद पैदा हुए (महात्मा) जोतीराव फुले। 1857 में जब सिपाही विद्रोह हुआ तब उस वक्त के पेशवा नाना साहेब को सिपाहियों ने कानपुर में पेशवा घोषित किया,तात्या टोपे उनके सेनापति थे। उस वक्त की प्रचलित नैरेटिव कम्पनी राज के खिलाफ संघर्ष था, वही देशहित था। महात्मा फुले ने उसके विपरीत पेशवाओं के खिलाफ अपने लेखन और आंदोलन को केंद्रित रखा। उस दौर में फुले दम्पति ( जोतीराव और सावित्रीबाई फुले ) लड़कियों के लिए स्कूल खोल रहे थे,गर्भवती ब्राह्मण विधवाओं के लिए आश्रम खोल रहे थे। उन्हें अंग्रेजी राज का लाभ मिला,उन्होंने अंग्रेजों के साथ संवाद और दलितों-किसानों के खिलाफ पेशवा नीति का विरोध की नीति अपनाई। कोरेगांव और महत्मा फुले की नजर से राष्ट्रवाद का नजरिया ही उलट जाता है। नाना साहेब पेशवा का नायकत्व खंडित होता है।
स्वतंत्र दलित राजनीति का संघर्ष
लन्दन में 7 दिसंबर, 1931 को द्वितीय गोलमेज सम्मलेन के पहले से ही भारत में दलितों के पृथक निर्वाचन की बहस डा. आंबेडकर ने छेड़ रखी थी। गोलमेज सम्मलेन के बाद पृथक निर्वाचन क्षेत्र के खिलाफ महात्मा गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। 1932 में डा. अम्बेडकर को दवाब में समझौता करना पड़ा, जिसे पुणे पैक्ट के तौर पर जाना जाता है। इसके बाद संसदीय आरक्षण की नीव पड़ी। लेकिन डा. अम्बेडकर और बाद में बहुत से दलित नेताओं और बुद्धिजीवियों ने स्वतंत्र दलित राजनीति की राह में इस समझौते को एक रोड़ा माना।
आरक्षित सीटों पर चुनकर आये उम्मीदवारों को लालच या अन्य तरीकों से अपने साथ ले आने की नीति कांग्रेस ने बनायी। 20 दिसंबर 1945 को कांग्रेस के नेता और सीपी बेरार यानी आधुनिक मध्य प्रदेश और विदर्भ के प्रीमियर रहे रविशंकर शुक्ल ने सरदार पटेल को यह पत्र लिखकर कहा कि ‘अंबेडकर,गवई,तथा खांडेकर के हरिजन उम्मीदवारों को कांग्रेस हरा नहीं सकती है,इसलिए चुनाव के बाद वह जीते हुए उम्मीद वारों को अपने साथ ले लेगी। ‘इसे डॉक्टर अंबेडकर ने लोभ,लालच और घूस की नीति कहा था।
बसपा के खिलाफ प्रचलित नैरेटिव के बीच लोग यह तथ्य क्यों भूल जाते हैं कि 2018 में बसपा ने राजस्थान सहित कई राज्यों में कांग्रेस को समर्थन दिया, लेकिन अपनी सरकार की सहयोगी पार्टी के ही विधायको को कांग्रेस ने तोड़ लिया। इसपर मायावती का आग बबूला होना स्वाभाविक था।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि कैसे केंद्र में रामविलास पासवान की पहल की तर्ज पर राज्य में सभी पार्टियों के दलित विधायकों का एक असोसिएशन बनाने की उनकी पहल को राजद नेतृत्व ने विफल कर दिया था।
जाति समाज के विश्वसनीय चेहरों, विश्वसनीय व्यक्तियों और विश्वसनीय विचारों के बरक्स अपने द्वारा निर्धारित किसी नेता को दलित प्रश्न का चैंपियन बनाने की रणनीति पहले भी रही है। कभी दलितों को अस्वच्छ रहने के कारण स्कूलों में अलग बैठाने की बात करने वाली एनी बेसेंट को या कभी स्वयं महात्मा गांधी को, जो गोलमेज सम्मेलन में डाक्टर अंबेडकर सहित किसी दूसरे को दलित नेता मानने से इनकार कर देते हैं।
विश्वसनीय चेहरों/ नेतृत्व की भूमिका:
भारत जैसे जाति विभाजित समाज में अपना दाय मांगती जातियां सत्ता में अपना चेहरा भी खोजती हैं। चेहरों का, प्रतिनिधित्व का फर्क पड़ता है। बिहार या केंद्र के स्तर पर कई बार पिछड़ों, दलितों के हक के फैसलों के खिलाफ संघ परिवार और वामपंथी पार्टियों के लोगों का एका देखा गया। दलितों, पिछड़ों को ताकत देने वाली वामपंथी पार्टियां जन समर्थन खोती चली गई और लालू प्रसाद व नीतीश कुमार में अपने समाज का चेहरा देखते हुए 30 सालों से अभी तक जनता ने विश्वास बनाए रखा। लेकिन अब अति पिछड़ी जातियां और दलित जातियां इस बहुजन स्पेस में भी अपना हिस्सा, अपना चेहरा, अपना नेतृत्व खोज रही हैं।
स्वतंत्र दलित नेतृत्व की पार्टियां अपनी न्यूनतम प्रभाव क्षमता के बावजूद सत्तासीन पार्टियों पर दवाब का काम करती हैं। उनके होने से किसी भी रूप में, चाहे सोशल इंजीनियरिंग, चाहे प्रतिनिधित्व के नाम पर अपने यहां अलग अलग जाति समूहों का नेतृत्व खड़ा करने के लिए अथवा उनके मुद्दों को संबोधित करने के लिए बाध्य होती हैं। बसपा की यह ऐतिहासिक भूमिका है और अपनी सीमाओं में यही हम ( सेक्यूलर), रालोजपा अथवा लोजपा ( रामविलास), आरपीआई, बहुजन रिपब्लिकन आदि पार्टियों की। बिहार के मामले में जीतन राम मांझी, पशुपति पारस अथवा चिराग पासवान की पार्टियां दलित राजनीति में यद्यपि वैसी ही उपस्थिति नहीं हैं, जैसी पैन इंडिया पार्टी के तौर पर बसपा अथवा महाराष्ट्र में रामदास आठवले या प्रकाश अंबेडकर के नेतृत्व की पार्टी।
यदि बसपा है तो सत्तासीन पार्टियों के भीतर दलित नेताओं की अहमियत है। यदि डॉक्टर अंबेडकर थे तो कांग्रेस के भीतर बाबूजी जगजीवन राम का बढ़ता महत्व था। प्रचलित नैरेटिव की बायनरी से अलग दलित नेताओं या राजनीति की राह को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। इतिहास बोध आपको पूर्वग्रह मुक्त करता है।
इस चुनाव में कांग्रेस की राजनीति का हश्र
लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद देश भर से कांग्रेस के समर्थक बुद्धिजीवी दलित नेताओं को कोस रहे हैं। दुखद है कि कांग्रेस के नैरेटिव के प्रभाव में कई फुले-अम्बेडकरवादी साथी भी आ जाते रहे हैं। आ जाते हैं। 100 से नीचे सिमट गयी कांग्रेस के नेता की लोग वाहवाही कर रहे हैं और मायावती, प्रकाश अम्बेडकर, रामदास आठवले, जीतन राम मांझी, चिराग पासवान पर इण्डिया गठबंधन की हार का ठीकरा फोड़ रहे हैं। इण्डिया गठबंधन और खासकर कांग्रेस के सामाजिक न्याय के प्रलाप व संविधान खतरे में है कि चेतावनियों के जरिये महाराष्ट्र में जो परिणाम उपस्थित हुआ वह यह कि राज्य के 48 संसदीय क्षेत्रों से कुल चुनकर आये सांसदों में 26 मराठे ( 54%) 9 ओबीसी (19 %) 6 अनुसूचित जाति ( 13 %) 4 अनुसूचित जनजाति (8 %) और 3 ( 6 %) सामान्य वर्ग से आते हैं। इस आईने में बायनरी नैरेटिव में फंसने पर दलित राजनीति का हश्र समझा जा सकता है।
वे लोग बड़े भोले हैं जिन्हें लगता है कि राहुल गांधी सामाजिक न्याय की बात कर बीजेपी से लड़ रहे थे।बीजेपी से लड़ने के लिए उनके पास सॉफ्ट हिंदुत्व का हथियार था, जो बुरी तरह हारा। सामाजिक न्याय, जाति गणना का जुबानी जमा खर्च वे मूलतः बिहार, यूपी और अन्य राज्यों में सामाजिक न्याय की भूमि से लीडरशिप वाली पार्टियों के खिलाफ कर रहे हैं। अभी परजीवी होकर, बाद में आंख दिखाकर कांग्रेस इन पार्टियों की जमीन लेना चाहती है। जबकि इन्होंने ही 240 पर लाया भाजपा को। सॉफ्ट हिंदुत्व की लाइन 2014 में ए के एंटनी समिति ने दी थी कांग्रेस को। शशि थरूर ने सिद्धांत दिया। पुरुषोत्तम अग्रवाल आदि हिंदी में उसके वाहक बने।जबतक यूपी में बसपा -सपा का शासन था, यानी 2007 से 2017 तक, राहुल गांधी दलित घरों में ‘ खाना इवेंट’ करते थे। सामाजिक न्याय का यह ‘हरिजन स्टाइल ‘ था। 2017 के बाद जनेऊ दिखाने लगे।
देश भर में सॉफ्ट हिंदुत्व का नतीजा यह रहा कि कांग्रेस को मिला दलित वोट 2019 की तुलना में 1 प्रतिशत घटा और मुसलमान वोट बमुश्किल 5% बढ़ा। इसके विपरीत आज भी उनके सहयोगी दलों को दलित वोट ज्यादा बढ़ा और मुसलमान वोट भी। क्योंकि उन पर यकीन ज्यादा था।
नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने जब बिहार से सामाजिक न्याय के भविष्य की राजनीति तय की तो राहुल ने उनका नाम लिए बिना एकतरफा जाति गणना बोलना शुरू किया। यह ऐसा ही था, जैसा गांधी किया करते थे, वे दलित नेता के तौर पर डॉ. अंबेडकर को और मुसलमान नेता के तौर पर जिन्ना को खारिज करते थे। खुद को नेता बताते थे। पता करिए ओबीसी सांसदों की संख्या में थोड़ा इजाफा जरूर हुआ है लेकिन कांग्रेस के कोटे से नहीं। उसने तो योगदान किया है 10% सवर्णों से 25% सांसदों को संसद भेजने में।
चुनाव में कांग्रेस की कथनी और करनी का फर्क यह था कि महाराष्ट्र में कांग्रेस सहित महा विकास अघाड़ी ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया।
बिहार में एक भी महिला को टिकट नहीं दिया कांग्रेस ने? बिहार, यूपी, झारखंड आदि राज्यों में कांग्रेस ने सवर्ण अध्यक्षों के साथ चुनाव लड़ा । बड़े पदाधिकारियों में इन राज्यों में एक भी ओबीसी नहीं है।
इन सच्चाइयों को दलित राजनीति के ऐतिहासिक आईने में देखिये। नैरेटिव युद्ध से बाहर काम कर रहे नेताओं की प्रेरणा देखिये। 2024 के चुनाव में इण्डिया गठबंधन से स्वत्रन्त्र दलित राजनीति को बाहर करने के आग्रहों की पहचान करिये। इण्डिया गठबंधन की रचना से ही दलित नेताओं को बहार रखना और फिर ठीकरा फोड़ना नैरेटिव युद्ध का ही हिस्सा है। यह युद्ध ख़त्म नहीं हुआ जारी है।
संजीव चंदन
संपादक स्त्रीकाल
