हमने ‘वैशाली की नगरवधू’ आम्रपाली के विषय बहुत बार सुना है और पढ़ा भी है; लेकिन जब मैंने आम्रपाली के तथागत बुद्ध के शरणागत होने के एपीसोड को पहली बार यू-ट्यूब पर सुना तो कई सवालों ने मेरे मन-मस्तिष्क पर दस्तक दी; जैसे किसी भी महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध ‘नगर वधू’ कैसे बनाया जा सकता है? उसे सार्वजनिक उपभोग की वस्तु यानी एक वेश्या बनाकर उसकी जिंदगी से खिलवाड़ कैसे किया जा सकता है?’ ऐसे अनेक सवालों ने मुझे बेचैन किया और यह निर्णय लेने पर बाध्य किया—‘क्यों न समय संज्ञान के अपने अंतिम संपादकीय (समय संज्ञान फाउंडेशन की कार्यकारिणी और संपादक का कार्यकाल दो वर्ष है) को आधी आबादी यानी स्त्री अस्मिता पर केंद्रित किया जाए? इसलिए हफ्तों की वैचारिक जद्दोजहद के बाद मेरा प्रतिरोध ‘गिद्ध संस्कृति के विरुद्ध गौरैया की गुहार’ शीर्षक से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
जब मैंने सरसरी तौर पर गूगल को खंगाला तो पाया—प्राचीन काल से आज तक चली आ रही स्त्री दोहन की परंपरा के लिए किसी न किसी रूप में मंदिर/धर्म व शाही दरबारों का वर्चस्व व अय्याशी जिम्मेदार है। वैशाली की नगर वधु ‘आम्रपाली’ इसकी एक कड़ी मात्र है। इस ‘गिद्ध संस्कृति के चलते गौरैया, मौजूदा संदर्भ में ‘आम्रपाली’ को अपनी खूबसूरती की कीमत वैशाली की नगरवधू यानी वेश्या बनकर चुकानी पड़ती है। गौरतलब है—साधारण जन इस संस्कृति में वर्चस्ववादी समूह/समाज के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली जैसा रहा हैऔर आज भी ऐसा ही कुछ है इसलिए आम्रपाली को नगर वधू बनाया जाना बाध्यकारी था। इसके प्रतिरोध में आम्रपाली ने राज-पुरुषों के सामने उसे वैशाली की नगर वधू बनाने वाले कानून को ‘धिक्कृत’ कहा। ऐसा कहकर उसने सिद्ध कर दिया कि वह सुन्दर और साहसी ही नहीं, बुद्धिमती भी थी।’ गौरतलब है, सुंदरता, साहस और बुद्धिमता एक ऐसा कॉकटेल है, जो स्त्री और दलित-शोषित समाज के लिए हमेशा से जीवन-मरण का प्रश्न रहा है। स्त्री का जींस पहन लेना, अंतर्जातीय विवाह की बात करना, छोटा-मोटा सौंदर्य-प्रसाधन का प्रयोग आदि भी उसके लिए बवाल-ए-जान हो सकता है। ऐसे ही दलित समाज के पुरुषों का शादी के वक्त घोड़ी पर बैठना,मूँछ रख लेना, घोड़े पर बैठना वगैरा-वगैरा आज भी गिद्ध संस्कृति के चलते उनकी ‘छाती पर सांप लोटने’ जैसी श्रेणी में आता है।
‘वैशाली की नगरवधू’ के लेखक आचार्य चतुरसेन ने अपनी सारी रचनाओं को रद्द करते हुए अपनी इस रचना को एकमात्र घोषित करते हुए इसकी भूमिका में लिखा है—’इस उपन्यास का उद्देश्य ‘‘आर्यों के धर्म,साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय और मिश्रित जातियों की प्रगतिशील संस्कृति जिसका प्रतिनिधित्व वैशाली करती है, जिसमें गणतंत्र है, चुनी हुई राज्य-परिषद का मत उसके लिए कानून है, की विजय दिखाना है, जिसे छिपाया जाता रहा है।’ दूसरे वे बताते हैं—मगध आर्य जाति का प्रतीक है, साम्राज्य (वादी) है। उसमें राजतंत्र है। राजा की इच्छा ही वहाँ का कानून है।…यह आर्यों की पुरानी नीचता है। सभी धूर्त कामुक आर्य अपनी काम वासना-पूर्ति के लिए इतर जातियों की स्त्रियों के रेवड़ों को घर में भर कर रखते हैं। लालच-लोभ देकर कुमारियों को ख़रीद लेना, छल-बल से उन्हें वश में कर लेना, रोती-कलपती कन्याओं का बलात हरण करना, मूर्च्छिता-मदबेहोशों का कौमार्य भंग करना, यह सब धूर्त आर्यों ने विवाहों में सम्मिलित कर लिया। फिर बिना ही विवाह के दासी रखने में भी बाधा नहीं। इस कड़ी में अति तो तब हो जाती है जब हम उस समय के उपलब्ध साहित्य में अजातशत्रु को आम्रपाली के प्रेमियों और अजातशत्रु के पिता बिंबिसार को भी गुप्त रूप से उसके प्रणयार्थी के रूप में पाते हैं। कुछ रचनाओं में ये भी वर्णित है कि अजातशत्रु के पुत्र और बिंबिसार के पौत्र उदयभद्र को भी आम्रपाली से प्रणय करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।’
इसके विपरीत आचार्य चतुरसेन अनार्यों की श्रेष्ठता के बारे में बताते हैं—’महावीर और शाक्य पुत्र गौतम ने आर्यों के धर्म का समूल नाश प्रारम्भ कर दिया है। उन्होंने नया धर्म-चक्र प्रवर्तन किया है जहाँ वेद नहीं हैं, वेद का कर्त्ता ईश्वर नहीं है, बड़ी-बड़ी दक्षिणा लेकर राजाओं के पापों का समर्थन करने वाले ब्राह्मण नहीं हैं। ब्रह्म और आत्मा का पाखण्ड नहीं है। उन्होंने जीवन का सत्य देखा है, वे इसी का लोक में प्रचार कर रहे हैं। ’हमारा सवाल आज भी वहीं खड़ा है, जहां आम्रपाली निराश, हताश और बेबस खड़ी थी। वह अपने देश से प्यार करती थी। वह अपने प्रेमी हर्ष देव (कई जगह हम पुष्पक कुमार लिखा पाते हैं) के साथ शादी करना चाहती थी। किसी सार्वजनिक संपत्ति बनाए जाने और भौतिक संपदा के सम्मोहन से दूर वह एक सीधा-सादा जीवन जीना चाहती थी।यथोक्त के आलोक में देखा जाए तो आज आम्रपाली की जगह दिल्ली से मणिपुर तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक, न जाने कितनी गौरैया मौजूद हैं जो गिद्ध संस्कृति की शिकार हैं; और सामान्य जीवन जीने से महरूम हैं। हमारा सवाल है कि ये गिद्ध संस्कृति के संवाहक कौन हैं-आर्य, अनार्य, दोनों या कोई और? क्या गणतंत्र को रोंदने वालों की पहचान नहीं होनी चाहिए?
चलिए! अब थोड़ा पीछे महाभारत काल की ओर चलते हैं। अगर हम महाभारत में गिद्ध संस्कृति के पोषक तथाकथित ऋषि-मुनियों के सैंकड़ोंकामुक उद्धरणों और पशुओं से इनके अप्राकृतिक यौन संबंधों को दरकिनार कर सिर्फ भीष्म, कौरवों, पांडवों से जुड़े कुछ प्रकरणों तक सीमित रहें तो हर स्तर पर गिद्ध संस्कृति ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की संवाहक नजर आती है। भीष्म द्वारा जबरन हरण करके लाई गई काशी नरेश की तीनों पुत्रियों में से दो पुत्रियों अम्बिका और अम्बालिका (अम्बा वापस चली जाती है) का विचित्रवीर्य से विवाह करा दिया जाता है। गौरतलब है—’न तो विचित्रवीर्य ने उन्हें स्वयंवर में जीता था और न ही उन्होंने विचित्रवीर्य से स्वेच्छा से शादी ही की थी। यानी भीष्म इन दोनों बहनों को जबरन व एक प्रकार से खैरात में अपने अयोग्य व पौरुष विहीन भाई विचित्रवीर्य को दे देते हैं। परिणामस्वरूप, अम्बिका और अम्बालिका के साथ ‘सात वर्ष तक विषय सेवन करते रहने के कारण भरी जवानी में विचित्रवीर्य को क्षय हो जाता है और बहुत चिकित्सा करने पर भी वह चल बसता है।’ यहां भीष्म महान के कारण तीन मासूम राजकुमारियां गिद्ध संस्कृति का शिकार हो जाती हैं।
महाभारत में कुंती और पांडु के पुत्र स्वाभाविक शारीरिक संबंधों से नहीं होते। इनका कोई पुत्र वायु से, कोई सूर्य से, कोई चन्द्र से, तो कोई इन्द्र से पैदा होता है। इसी प्रक्रिया के अनुकरण के तहत माद्री को अश्विनी कुमारों को याद करना पड़ता है और नकुल और सहदेव पैदा हो जाते हैं। गिद्ध संस्कृति के चलते महाभारत में कई-कई पत्नियां रखने का रिवाज रहा है। उदाहरण के लिए ‘विचित्रवीर्य की दो, पांडु की दो, अर्जुन की चार (द्रोपदी, उलूपी, चित्रांगदा और सुभद्रा) और कृष्ण की सोलह हजार।’ इसके विपरीत द्रोपदी के पांच पति होने की विद्रूपता और उसे जुए में दांव पर लगाना इस संस्कृति के विचित्र प्रमाण हैं। दासियों को भोगना भी इस संस्कृति की विशेषता रही है। बानगी के लिए ‘जिन दिनों गांधारी गर्भवती थी उन्हीं दिनों एक वैश्य कन्या उनकी सेवा में रहती थी और उसी के गर्भ से धृतराष्ट्र के यहां युयुत्सु नाम का पुत्र हुआ था।’विदुर का जन्म और सुदेष्णा द्वारा द्रोपदी को कीचक के पास भेजा जाना, सब इसी संस्कृति के पोषक हैं, जहां स्त्री इंसान नहीं, सिर्फ उपभोग की वस्तु है।
इस कड़ी में ‘धडिचा प्रथा’ पर भी विचार किया जा सकता है। सैमुअल दास के अनुसार—‘पढ़ने-सुनने में भले ही यह अजीब और चौंकाने वाला लगे, लेकिन शिवपुरी में आज भी महिलाएं वस्तुओं की तरह खरीदी-बेची जाती हैं। पहले यहां बरसों शिवपुरी में ‘धड़ीचा प्रथा’ रही है, जिसमें स्टाम्प पर लिखा-पढ़ी से युवतियों-महिलाओं का सौदा होता था। हालांकि अब यह कुप्रथा काफी हद तक बंद हो गई है, लेकिन युवतियों को खरीद कर घर बसाने की कुरीति जारी है। जिले के करीब 30 फीसदी लोगों की अघोषित ससुराल ओडिशा, बिहार और महाराष्ट्र हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवार की बेटियों को दलाल के माध्यम से लोग यहां खरीद कर लाते हैं। फिर इन महिलाओं के साथ जुल्म और दर्द की दास्तां शुरू होती है। जिम्मेदार ऐसे मामलों में जानकर भी अनजान बने हुए हैं।’ इस मेले को ‘सिद्धेश्वर बाण गंगा मेला’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह हर साल फरवरी महीने में इन दो मंदिरों के आसपास आयोजित किया जाता है। आनंद सोलंकी इसे ‘द्रोपदी प्रथा’ कहते हैं जो भारत के कुछ जगहों में अब भी है, जैसाकि हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले और उत्तराखंड के कुछ इलाकों में। इस प्रथा को लेकर विचार विभिन्न हैं, लेकिन कुछ लोग इसे परिवार में एकता और सामंजस्य बनाने के रूप में देखते हैं।इस संस्कृति को समझने के लिए एक उपलब्ध जानकारी के अनुसार—‘युधिष्ठिर का अश्वमेध यज्ञ’ नामक शीर्षक के तहत उपलब्ध दिल दहला देने वाली जानकारी पर गौर करें तो पाते हैं—’…मुख्य रानी ने राजा की साथी पत्नियों से दया की भीख माँगी। रानियाँ मृत घोड़े के चारों ओर मंत्र पढ़ते हुए और पुजारियों के साथ अश्लील संवाद करते हुए घूमती रहीं। फिर मुख्य रानी को मृत घोड़े के पास संभोग की नकल करते हुए रात बितानी पड़ी और उसे कंबल से ढक दिया गया। अगली सुबह, पुजारियों ने रानी को उस स्थान से उठाया।’ इस संबंध में ठीक से कुछ कहा नहीं जा सकता कि ऐसे प्रकरण कितने प्रतीकात्मक हैं और कितने यथार्थपरक; लेकिन अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख रामायण में भी मिलता है, जो स्त्री को गिद्ध संस्कृति के पंजों में कैद गौरैया को तड़पने के लिए छोड़ देता है।
जब रामायण का जिक्र आ ही गया है तो यह मुद्दा भी विचारणीय हो जाता है कि दशरथ की भी तीन रानियां थी। यहां पुत्रों का जन्म किसी सूर्य या चंद्र देव से न होकर फल खाने से हो जाता है; और रघुकुल वंश और इसकी रीत ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ इतनी प्रबलता से आगे बढ़ जाते हैं कि इक्कीसवीं सदी के टीवी सीरियलों, फिल्मों, प्रवचनों और संसद तक में इनकी गूंज बार-बार सुनाई देती है। लेकिन जहां तक मेरी समझ है, कैकेयी ने अपने वचन के तहत दशरथ से राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा था और राम ने उसे पूरा भी किया था। लेकिन चौदह साल बाद दशरथ और रानी कैकेई एक साथ मौजूद नहीं थे जो राम के लिए पुन: किसी नए वचन की रूपरेखा बनाकर राम को राजा बना पाते1 लेकिन राम फिर भी राजा बने। ऐसे में राम का पुन: राजा हो जाना, वचन का पालन करने की नहीं,वचन तोड़ने की श्रेणी में आता है। जहां तक भरत का सवाल है, वह अपनी नैतिकता व भाई के प्रति सम्मान के चलते राम को राज्य लौटाने की कितनी भी जबरदस्त पेशकश कर सकता है,लेकिन राम का राजा बनना, भले ही यह रघुकुल ही क्यों न हो,यह किसी भी कुल की रीत की श्रेणी में नहीं आता है। ऐसी परिस्थितियों के चलते शूर्पणखा के साथ लक्ष्मण का प्रकरण और सीता का त्याग यानी वनवास, क्या गिद्ध संस्कृति के प्रतिमान नहीं हैं?कहने की जरूरत नहीं,जिस प्रकार आम्रपाली की तबाही के पीछे मंदिर/धर्म और शाही दरबारों से जुड़ा वर्चस्ववादी वर्ग गिद्ध संस्कृति का संवाहक रहा है, वही वर्चस्ववादी वर्ग रामायण व महाभारत में स्त्री की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है, क्या नहीं?
गिद्ध संस्कृति की पोषक एक अन्य प्राचीन प्रथा ‘देवदासी’ प्रथा है। धर्म और आस्था के नाम पर एक प्रकार से स्त्री को वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला गया। पुजारी द्वारा इनसे शारीरिक संबंध बनाने के पीछे तर्क है कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है।’ नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU), मुंबई और टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ (TISS), बेंगलुरु ने ‘देवदासी प्रथा’ पर दो नए अध्ययन किए, इनके अनुसार—’देवी/देवताओं को प्रसन्न करने के लिये सेवक के रूप में युवा लड़कियों को मंदिरों में समर्पित करने की यह कुप्रथा न केवल कर्नाटक में बनी हुई है, बल्कि पड़ोसी राज्य गोवा में भी फैलती जा रही है। नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU) के अध्ययन की हिस्सा रहीं पाँच देवदासियों में से एक, ऐसी ही किसी कमज़ोरी से पीड़ित पाई गई। NLSIU के शोधकर्ताओं ने पाया कि सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर स्थित समुदायों की लड़कियाँ इस कुप्रथा की शिकार बनती रहीं हैं, जिसके बाद उन्हें देह व्यापार के दल-दल में झोंक दिया जाता है।’
देह व्यापार के दलदल में झोंकना, इन्हें आम्रपाली से भी बुरे हालात में झोंकना है, क्योंकि आम्रपाली को उसकी तबाही के बदले असीम भौतिक सुख-सुविधाओं का जिक्र मिलता है। लेकिन देवदासियों का न सुंदरता से संबंध नजर आता है और न ही यह प्रतीत होता है कि उनकी अस्मिता के लुटेरे ऐसे रईसजादे होते हैं, जो उनपर अकूत संपत्ति लुटाते हैं। इन अध्ययनों में देवदासी कुप्रथा के खत्म न होने के कारणों के बारे में बताया गया है—’यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 और किशोर न्याय (JJ) अधिनियम, 2015 में बच्चों के यौन शोषण के रूप में इस कुप्रथा का कोई संदर्भ नहीं दिया गया है। भारत के अनैतिक तस्करी रोकथाम कानून या व्यक्तियों की तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 में भी देवदासियों को यौन उद्देश्यों हेतु तस्करी के शिकार के रूप में चिह्नित नहीं किया गया है। अध्ययन ने रेखांकित किया है कि समाज के कमज़ोर वर्गों के लिये आजीविका के स्रोतों को बढ़ाने में राज्य की विफलता भी इस प्रथा की निरंतरता को बढ़ावा दे रही है।’ ऐसे में देवदासी प्रथा की मौजूदगी पुख्ता करती है—’इक्कीसवीं सदी भी गिद्ध संस्कृति के समर्थन में है और गौरैया की पीड़ा का निवारण उसकी प्राथमिकता नहीं है, क्या है?
इस कड़ी में प्राचीन काल से चली आ रही सती प्रथा को भी गिद्ध संस्कृति की रोशनी में परखने की जरूरत महसूस हो रही है। इस संबंध में एक तर्क यह दिया जाता है कि जब हिन्दू राजा इस्लामिक आक्रमणकारियों से हार जाते या मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे तो रानियां अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए अपने आपको पति की चिता में झोंक देती थी। इस संबंध में एक बड़ा उदाहरण चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी का आता है। इस संबंध में एक उदाहरण शिव और सती के संबंध में भी आता है। सती के पिता दक्ष अपनी पुत्री सती और शिव से विवाह से प्रसन्न नहीं थे; इसलिए उनके निरादर का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। इस तिरस्कार से आहत सती ने एक दिन यज्ञ की अग्नि में कूद कर आत्मदाह कर लिया था। ’गौरतलब है—’पहले यह स्वैच्छिक बताया जाता था लेकिन कालांतर में यह एक प्रथा और रिवाज बन गया।’ इस प्रथा को लेकर मेरे मन-मस्तिष्क पर एक प्रश्न दस्तक देता है—‘पति की मृत्यु के बाद जब पत्नी सती हो जाती थी तो उनकी संतान के भविष्य के बारे में इस प्रथा के ठेकेदारों ने कभी सोचा या नहीं? अगर मृतक दंपति की संतान पुत्री है, तो आक्रमणकारी से उसकी सुरक्षा कैसे होती थी? पूरी तरह प्रतिबंधित हो जाने के बावजूद स्त्री के सती होने का बवेला यदा कदा आज भी क्योंउठ खड़ा होता है? मुझे इसमें ‘गिद्ध संस्कृति’ की खुराफात की बू आती है; जाहिर है यह प्रथा अलग से शोध व इसके निवारण के लिए अतिरिक्त कदम की मांग करती है।
मुझे लगता है सती प्रथा की जुड़वां बहन यानी दुल्हन के आत्मदाह या जबरन दाह पर भी दृष्टिपात किए जाने की जरूरत है। इसके मूल में दहेज प्रथा गौरैया की जान की दुश्मन बनी है। दुल्हन को जलाने के प्रचलन को समझने के लिए अवनीतालखानी की ‘कमरे में हाथी नियंत्रण से बाहर है’ शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट बताती है—’भारत जैसे अत्यधिक पितृसत्तात्मक समाज में, एक महिला की भूमिका उसके जन्म से पहले ही परिभाषित हो जाती है, जो अंततः उसे पुरुषों से कमतर बनाती है; क्योंकि उसे एक बोझ और ‘खाने के लिए एक अतिरिक्त मुंह’ के रूप में देखा जाता है, एक आर्थिक दायित्व के रूप में उसकी स्थिति इस विचार को बढ़ावा देती है कि पुरुष, जिन्हें भौतिक संपत्ति माना जाता है, महिलाओं के साथ अधीनस्थ का व्यवहार कर सकते हैं। एक बार जब एक महिला शादी कर लेती है, तो वह अपने पति और उसकी इच्छा से बंध जाती है; क्योंकि ‘समाज अपने पति की आज्ञाकारिता को अनिवार्य करता है’।…उपभोक्तावाद ने भारत जैसे देशों को लालची बना दिया है। इस वजह से, दहेज का उपयोग उच्च सामाजिक-आर्थिक स्थिति प्राप्त करने के साधन के रूप में किया जाता है। जैसे-जैसे स्थिति लगातार बढ़ती जाती है, सामाजिक सीढ़ी पर ऊपर चढ़ने के लिए दुल्हन के दहेज की मांग बढ़ती जाती है।’ कह सकते हैं गिद्ध संस्कृति का पोषक ‘दहेज’ ही गौरैया की सांसों की संख्या या स्थाई सुकून तय करता है।
अपने विश्वगुरु भारत में डायन-शिकार भी एक प्राचीन प्रथा है, जिसका उल्लेख प्रारंभिक संस्कृत ग्रंथों में डायन (चुड़ैलों) के रूप में मिलता है। एक आंकड़े के अनुसार 2000 से 2021 के बीच डायन के नाम पर जो हत्याएं हुई हैं, उनकी संख्या 3077 बताई गई है। इन हत्याओं के पीछे जो एक सामान्य पैटर्न नजर आता है, उसके अनुसार जादू-टोना से आरोपित यानी डायन के नाम पर बेहद क्रूर यातनाओं (इरादतन यहां यातनाओं का उल्लेख नहीं किया जा रहा है) व हत्या की शिकार स्त्रियां आमतौर पर बुजुर्ग हैं, निचली जाति व आर्थिक रूप से कमजोर यानी हाशियाकृत समाज से आती हैं। अक्सर ‘चुड़ैल’ बनाने के पीछे केकुछ हिडन कारणों में प्रमुख, ज़मीन व संपत्ति हड़पना, निजी रंजिश का प्रतिशोध, यौन संबंधों को ठुकराए जाना आदि हैं। इन हत्याओं के पीछे शिक्षा, सामाजिक लाभ व स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव आदि अंतर्निहित कारणों में शुमार हैं।
एक जानकारी के अनुसार ‘कुछ नारीवादी शिक्षाविदों ने तर्क दिया है कि ग्रामीण भारतीय समाजों की पितृसत्तात्मक संरचना के लिए खतरा पैदा करने वाली महिलाओं को अपने अधीन करने की अंतर्निहित इच्छा आधुनिक समय में डायन-शिकार के अस्तित्व का एक प्रमुख कारक है। उदाहरण के लिए, तन्वी यादव का तर्क है कि आरोपी चुड़ैलों के लिए शारीरिक और मानसिक दंड के क्रूर तरीके, जैसे कि पिटाई, नग्न परेड और लिंचिंग का इस्तेमाल जानबूझकर उन महिलाओं को आतंकित करने और चुप कराने के लिए किया जाता है, जिन्होंने अन्यथा पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती दी हो या उनके खिलाफ आवाज उठाई हो। शिखा दास ने यह भी नोट किया कि युवा, स्वतंत्र और दृढ़ इच्छा शक्ति वाली विधवाओं को उनकी स्थिति की महिलाओं के लिए पारंपरिक अपेक्षाओं से बाहर कदम रखने के लिए दंडित करने के तरीके के रूप में चुड़ैल करार दिए जाने की अधिक संभावना है।’ भले ही आज गिद्ध हमारे आसपास से विलुप्त नजर आते हैं लेकिन उनकी संस्कृति प्राचीन काल से लेकर इक्कीसवीं सदी के हर पड़ाव पर बराबर मौजूद हैं; और गौरैया को हलाल करने का कोई अवसर नहीं छोड़ती।
गिद्ध संस्कृति की प्राचीनता से एक कदम और वर्तमान की ओर बढ़ाते हैं तो हमें स्तन न ढकने देने का क्रूर नियम सामने आता है। स्तन ढकने के लिए स्तन-टैक्स के भुगतान की नंगई सामने आती है और सामने आती है नंगेली जैसी वीरांगना। बात उस समय की है जब केरल के बड़े हिस्से में त्रावणकोर के राजा का शासन था, जिसमें जातीय दबंगई के चलते उनके समाज की स्त्रियां अपने स्तन ढक सकती थी; मगर हाशियाकृत समाज की स्त्रियों को यह अधिकार नहीं था। इसके पीछे गिद्ध संस्कृति की मानसिकता बताती है कि दलित-शोषित समाज की स्त्रियों के साथ खुलेआम नंगी आंखों से सामूहिक बलात्कार, बच्चे से लेकर बूढ़े तक, कोई भी और कभी भी कर सकता था। जाहिर है, ऐसे बलात्कार छिपकर जबरन किए जाने वाले अन्य बलात्कारों की पुख्ता जमीन भी तैयार करते रहे होंगे। इसे नंगई, बेशर्मी और पशुता की पराकाष्ठा न कहें तो क्या कहें?
जुर्म सहने की कोई न कोई सीमा होती है और अंतत: प्रतिरोध होना भी तय होता है। आखिर एडवा जाति की स्त्री नंगेली ने स्तन ढककर क्रूर व संवेदनहीन सिस्टम को चुनौती दी। उससे टैक्स की मांग की गई; लेकिन नंगेली ने इसे ठुकराते हुए कहा—’अपने शरीर की इज्जत करना, उसे ढकना या खुला रखना, यह उसका निजी मसला है। जब अन्य वर्ग की महिलाओं को यह अधिकार है कि वे खुद को अपने हिसाब से सहेजें तो फिर हमें यह अधिकार क्यों नहीं?’ इस साधारण से तर्क यानी एक स्वाभाविक अधिकार की मांग को कुचलने के लिए नंगेली पर टैक्स बढ़ा दिया गया और सजा देने की चेतावनी भी दी। बात आगे बढ़ गई और अंतत: नंगेली घर के अंदर गई और फ़रसे से अपने स्तन काट कर अधिकारी को दे दिए। इस संबंध में मणियन कहते हैं—’नंगेली के इस बलिदान से तत्काल तो कुछ नहीं बदला, यह एक घटना थी और उसे घटना के तौर पर ही देखा गया, पर जब अंग्रेजों ने इस क्षेत्र पर कब्जा किया तो स्तन-कर को समाप्त कर दिया और फिर हर वर्ग की महिला को स्तन ढकने का अधिकार मिल गया।’ अगर अंग्रेजी सरकार ऐसा नहीं करती—गिद्ध संस्कृति के संवाहकों की नैतिकता व संवेदनशीलता कभी नहीं जागती क्या? इस प्रश्न के जवाब में ‘हां’ कहना आसान नहीं है; क्योंकि यह संस्कृति अपनी दबंगई व संवेदनहीनता के दम पर किसी न किसी रूप में आज भी जिंदा है।
नंगेली के बरअक्स यदि हम पर्दा प्रथा को देखें तो गिद्ध संस्कृति की कुछ अलग ही तस्वीर सामने आती है। एक मत के अनुसार—’इस प्रथा की शुरुआत भारत में 12वीँ सदी से मानी जाती है। इसका ज्यादातर विस्तार राजस्थान के राजपूत जाति में था।’इस संबंध एक अन्य मत है—’कुछ विद्वानों का मानना है, महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने के लिए पर्दा अस्तित्व में आया। लेकिन बाद में इसने स्त्री की गतिशीलता और स्वतंत्रता को सीमित कर अपने आधीन बनाए रखने के षडयंत्र का रूप ले लिया; और इसे धर्म का संरक्षण भी हासिल हो गया। इस्लाम के आगमन के पश्चात 19वीं शताब्दी में पर्दा प्रथा पूरे भारत में वर्चस्ववादी जातियों को गहना हो गई। इस प्रथा का नकारात्मक पक्ष जो इसे गिद्ध संस्कृति के शरणागत करता है, वह है—’यह प्रथा स्त्री की मूल चेतना को अवरुद्ध करती है। यह उसे गुलामों जैसा अहसास कराती है। जो स्त्रियां इस प्रथा से बंध जाती हैं। वे कई बार इतना संकोच करने लगती हैं कि बीमारी में भी अपनी सही से जांच नहीं कराती और जान से हाथ तक धोना पड़ता हैं।’
जहां तक पर्दा प्रथा की जकड़न के ढीले होने का प्रश्न है, इसके पीछे भूमंडलीकरण का बढ़ता प्रभाव है; न कि पितृसत्ता की सोच का लचीलापन। जिस हरियाणा में स्त्री को परंपरागत पोशाक पहनने के लिए मजबूर किया जाता था, वहां परिस्थितियों का दबाव इतना हावी हुआ कि हरियाणा की अग्रणी महिलाओं में आजकल जींस, स्लीवलेस कुर्ती/टी-शर्ट, मिनी स्कर्ट व स्पोर्ट्स ब्रा आदि का चलन काफी बढ़ गया है। महिलाओं के खेलों में भाग लेने की प्राथमिकता ने घूंघट प्रथा को हतोत्साहित किया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। गिद्ध संस्कृति के पैरोकार आज भी महिलाओं की अस्मिता पर होने वाले हमलों के लिए गाहे-बगाहे महिलाओं के परिधानों पर उंगली उठाते हैं; और इसके खिलाफ मुहिम चलाते हैं। आज भी इसके पीछे का हिडन ऐजेंडा नारी की गतिशीलता और स्वतंत्रता को बाधित करना है, जो गिद्ध संस्कृति के वर्चस्व को सुनिश्चित करता है। लेकिन स्त्री की नजर में यह ऐजेंडा अब हिडन नहीं रह गया है और इसके विरुद्ध प्रतिरोध बराबर जारी है।
गौरैया की गरिमा को तार-तार करने वाली गिद्ध संस्कृति की एक अन्य प्रथा ‘बहू जुठाई’ के रूप में जानी जाती है, जो रमणिका गुप्ता के एक कहानी संग्रह का नाम भी है। ‘बहू जुठाई’ कहानी के संबंध में एक समीक्षात्मक टिप्पणी सामने आती है, इसके अनुसार—’नई नवेली दुल्हन को बहू जुठाई की रस्म निभानी पड़ती है। उसे अपनी पहली रात ठाकुर के घर में बितानी पड़ती है। यह स्थिति उस देश में है, जहाँ नारी की पूजा होती है। यदि कोई विरोध करता है, तो ठाकुर द्वारा उसका बुरा हाल किया जाता है। कहानी की ‘भाभी’ जब ठाकुर के घर जाने को नकारती है, तो उसका इतना बुरा हाल किया जाता है कि पूछो मत- भाभी को झोट से पकड़ के खींचता बराहिल पठान ऐसे ले गया जैसे द्रोपदी को दुशासन। वहीं भाभी को नाचने गाने का हुक्म दे दिया। नारी दोहरे शोषण की शिकार हुई है। असलियत तो यह है कि दलित महिलाओं का अपने जिस्म पर अपना कोई अधिकार नहीं है।’
बेला भाटिया इस बहु-जुठाई या डोली प्रथा को दलित-शोषित समाज की सामाजिक-आर्थिक दशा को एक साथ जोड़कर इसकी विद्रूपता का आईना दिखाते हुए बताती है—’दलित खेत-मजदूरों को आर्थिक शोषण के साथ-साथ जघन्य सामंती शोषण का शिकार भी होना पड़ता था।…बीसवीं सदी की शुरुआत में भी शाहाबाद के इलाके (आज के भोजपुर और रोहतास जिले) में सामंतों ने ‘डोली प्रथा’ चला रखी थी जिसके तहत गरीब मजदूरों की नई बहु को पहली रात जमींदार के साथ गुजारनी पड़ती थी। मजदूर महिलाओं के साथ राजपूत और भूमिहार जमींदारों, उनके कारिंदों और लठैतों द्वारा बलात्कार करना आम बात थी।’ बेला भाटिया सवाल उठाती हैं—‘मौजूद तथ्यों को देखकर तथाकथित बड़े-बड़े अभिजनों की तो बिसात ही क्या, अच्छे-अच्छे बाहुबलियों के रोंगटे खड़े हो जाने चाहिए कि किस प्रकार एक तथाकथित विश्व-विख्यात लोकतांत्रिक देश में रात-दिन जानवरों की तरह काम करने के बावजूद, इंसानों को चूहे व जानवरों का चारा खाने को विवश होना पड़ता है। इस तथाकथित सवर्ण समाज का जब इतने शोषण-उत्पीड़न से भी पेट नहीं भरता तो ये इन दलितों की नई-नवेली दुलहनों को सामंत व उनके लठैतों साथ पहली रात गुजारने और बलात्कार करने देने के लिए मजबूर करते हैं।’
ऐसा नहीं है कि दलित-शोषित समाज निरा मुर्दा समाज है। बेला भाटिया बताती है—’अगर दलितों का अपना कोई स्वाभिमान अपनी दुल्हन को पहली रात सामंत और उसके लठैतों के बलात्कार से बचाने के लिए हथियार उठा लेता है, तो विधान सभाओं और संसद द्वारा इन सामंती व बलात्कारी कारनामों का विरोध करने के गुनाह के एवज में इन हथियार उठाने वालों पर टाडा से भी सख्त कोई कानून बनाकर, इनके लिए कठोर से कठोर दण्ड की व्यवस्था की जाती है, क्योंकि ये सारे मामले सनातनी हिन्दूवादी व्यवस्था का घोर उलंघन जो हैं।’सनातन का राग अलापने वाले एक बार सिर्फ कल्पना मात्र करके देखें कि उनकी दुल्हन को यदि पहली रात किसी दलित-शोषित व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह या किसी सवर्ण के साथ रात गुजारने के लिए बाध्य होना पड़े तो उन्हें और उनके घर-परिवार वालों को कैसी पीड़ा की अनुभूति होगी। लेकिन यह संवेदनहीनता और पशुता की पराकाष्ठा ही है, जो सारे कुकर्म तथाकथित सनातन संस्कृति के बैनर तले बिना किसी लाज-शर्म के चलते रहते हैं। जाहिर है, हमारा सिस्टम दबंगों के आधीन है और मूल रूप से उनके हितों की पूर्ति करता है। यहां ठीक-गलत, नैतिकता व मानवीयता के लिए कोई स्पेस नहीं है।
गिद्ध संस्कृति की पड़ताल के अगले पड़ाव पर हमें फूलन देवी गिद्धों से दो-दो हाथ करती नजर आती है। वह सीधी-साधी फूलन देवी जिसका जन्म उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के गोरहा के पुरवा गाँव में हुआ था, जिसका परिवार छोले, सूरजमुखी और मोती बाजरा उगाता था। वह अपनी बहनों के साथ गोबर के उपले बनाती थी और गुजर बसर करती थी। उसके चाचा और उसके चचेरे भाई मैयादीन ने फूलन के पिता की जमीन कब्जा ली। एक विवाद के दौरान दस वर्षीय फूलन ने विरोधियों पर पत्थर फेंके और उन्हें चोट पहुंचाई। फूलन की गिरफ्तारी हुई और उसने माला सेन को पुलिस के कारनामों के बारे में बताया—’उन्होंने मेरे साथ खूब मौज-मस्ती की और मुझे बहुत पीटा भी।’ यहां से फूलन की बर्बादी का दौर शुरु होता है और फिर बाबू गुज्जर के गिरोह द्वारा फूलन के परिवार को अगुआ किया जाना, बाद में उसका श्रीराम की कैदी बनाया जाना, फिर उसे बेहमई ले जाकर ठाकुरों द्वार बार-बार बलात्कार किया जाना और अंत में उसे पूरे गांव के सामने नग्नावस्था में कुएं से पानी भर कर लाने के लिए मजबूर करना, बैंडिट क्वीन फिल्म में दिखाए गए ये वे दृश्य हैं जिन्हें देखने भर से रूह कांप उठती है। जिसने इसे झेला, उसकी पीड़ा का वैसा एहसास भुक्तभोगी और उसके परिवार के अतिरिक्त किसी अन्य को नहीं हो सकता, क्या हो सकता है?
यह इतिहास की एक अनूठी दास्तान है कि यह गौरैया यानी फूलन देवी आत्मसमर्पण व आत्महत्या करने की अपेक्षा डाकू मान सिंह के साथ मिलकर राम सिंह और उसके भाई से प्रतिशोध लेना चाहती है; मगर गांव वालों द्वारा उसकी बात न माने जाने की हालत में वह यमुना नदी के किनारे बाईस ठाकुरों की गोली मार कर हत्या कर देती है। बाद में वह आत्मसमर्पण भी करती है और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के सहयोग से संसद तक भी पहुंच जाती है। लेकिन फिर शेर सिंह राणा नामक एक युवक द्वारा उसके घर के बाहर उसकी हत्या कर दी जाती है। मौजूदा घटनाक्रम की चर्चा से हमारा लक्ष्य घटना की बर्बरता के उल्लेख की अपेक्षा उस पैटर्न को रेखांकित करना है, जो दर्शाता है कि गिद्ध संस्कृति का सत्ता-संरक्षित वर्चस्ववादी पैटर्न प्राचीन काल से लेकर आज तक कमोबेश एक जैसा ही चला आ रहा है, जो बताता है कि भले ही सदियां बदल गई हैं लेकिन गिद्ध संस्कृति निर्विवादित रूप से लगभग एक ही ढर्रे पर चलती आ रही है।
मौजूदा कड़ी में राजस्थान राज्य के अजमेर जिले के एक छोटे से गांव की रहने वाली भंवरी देवी का शारीरिक शोषण भी कमोबेश गिद्ध संस्कृति की परिधि के अंदर ही आता है। भंवरी देवी जो राजस्थान के स्वास्थ्य विभाग में सहायक नर्स दाई की नौकरी पर कार्यरत थी, वह उस समय की सत्ता पर काबिज कुछ जातीय दबंगई के अहं में चूर लोगों के संपर्क में आई। खुलकर उसके शारीरिक शोषण-उत्पीड़न और ब्लैकमेलिंग के एपीसोड्स हुए और अंतत: भंवरी दर्दनाक मृत्यु का प्राप्त हुई। केस काफी उछला, सीबीआई जांच हुई और आरोपपत्र दाखिल किए जाने के समय तक महिपालमदेरणा, मलखान सिंह बिश्नोई, सहीरामबिश्नोई, सोहनलालबिश्नोई, शहाबुद्दीन, बलिया, बिशनारामबिश्नोई, ओम प्रकाश बिश्नोई, कैलाश जाखड़, परसराबिश्नोई, मलखान सिंह का भाई, उमेशरामबिश्नोई, सहीरामबिश्नोई और भंवरी का पति अमरचंद के सहयोगी, ये 12 सदस्य जेल में थे। मौजूदा संदर्भ में हमारी मंशा किसी को दोषी या निर्दोष साबित करने की नहीं, बल्कि इन जातीय दबंगों के नामों की सूची से यह समझने की है कि मौजूदा ऐपीसोड में भी जातीय दबंगई का तात्कालिक सत्ता का नेक्सस ही गिद्ध संस्कृति का पोषक था और गौरैया की मौत का जिम्मेदार भी।
इस कड़ी में के सन 2002 के दंगों से जुड़ा बिलकिस बानो का केस भी गिद्ध संस्कृति का ही प्रतिमान है। माना कि भीड़ का कोई चरित्र व पहचान नहीं होती। जाहिर है, भीड़ के इसी चरित्र के चलते बिलकिस बानो के घर में घुसकर एक बच्ची समेत सात लोगों की निर्मम हत्या कर दी जाती है और बिलकिस बानो के साथ गैंग रेप भी होता है। अपराधियों को सजा भी हो जाती है लेकिन जब इस जघन्य कांड के ग्यारह दोषियों को रिहा कर दिया जाता है, मिठाइयां बांट कर जश्न मनाया जाता है और अपराधियों को संस्कारी ब्राह्मण जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है तो फिर गिद्ध संस्कृति का कुरूप चेहरा सामने आ जाता है, जो जातीय दबंगई और इसके सत्ता के साथ इसके गठजोड़ को गौरैया की अस्मिता से खिलवाड़ पर निरंकुशता की मुहर लगाता है। यह अलग मसला है कि लम्बी जद्दोजहद के बाद इस मसले में सुप्रीम कोर्ट जैसे-तैसे गौरैया के आंसू पोंछने में कामयाब रहा। अगर इस मामले में त्वरित न्याय मिल गया होता तो बहुत संभव है—‘देश को जनवरी 2018 के जम्मू-कश्मीर के ‘कठुआ बलात्कार’ के नाम से शर्मसार न होना पड़ता। न एक आठ वर्षीय बालिका का अपहरण होता, न उससे छह-छह पुरुषों द्वारा बलात्कार होता और दुष्कर्म को छिपाने के लिए न उसकी निर्मम हत्या होती। अगर इंसानियत जरा भी जिंदा होती तो इस अपहरण, सामूहिक बलात्कार और निर्मम हत्या के समर्थन में प्रदर्शन नहीं होते। लेकिन हमारे देश में धर्म और जाति की खाल में छिपे ऐसे अनेक गिद्ध मौजूद हैं जिन्हें समाज और सत्ता की दबंगई (इसे नंगई भी कह सकते हैं) का संरक्षण प्राप्त है।
‘कास्टिंग काउच’ गिद्ध संस्कृति के एक अलग संस्करण के रूप में हमारे सामने समय-समय पर उद्योग जगत की महिलाओं के गुस्से और प्रतिरोध के ज्वालामुखी यानी #Times Up और #Me-too के रूप में फट पड़ता है और फिर वर्चस्ववाद की धूल भरी आंधी में कही विलुप्त प्रायः हो जाता है। हम मौजूद संदर्भ में जानबूझकर #Times Up और #MeToo से जुड़े किस्सों का उल्लेख नहीं कर रहे हैं, हम सिर्फ संकेत देने तक सीमित रहने के पक्षधर हैं। कुछ अरसे पहले भारतीय फिल्म उद्योग में इस ज्वालामुखी ने काफी उष्मा पैदा की। इसकी आंच समुद्री ‘ज्वार’ की तरह तथाकथित बड़ी-बड़ी फिल्मी हस्तियों के दामन तक पहुंची और फिर ‘भाटा’ की तरह वापस लौट आई। इसी दौरान #Me-too ज्वालामुखी की एक धारा पत्रकारिता जगत की एक बेहद लोकप्रिय व प्रभावशाली शख्सियत एमजे अकबर, जो उस दौरान देश के विदेश राज्य मंत्री के पद पर आसीन थे, के वर्तमान व भविष्य को लील गई। हमारे पास उन गौरैयाओं के वर्तमान और भविष्य के लील जाने का डाटा नहीं है, जिनके प्रतिरोध की ज्वाला उन्हें खुद को दफन करने के लिए प्रज्वलित होती है।
मुझे लगता है नारी उत्पीड़न की यात्रा तब तक पूरी नहीं होगी जब तक इसमें यशपाल के उपन्यास ‘दिव्या’को शामिल नहीं कर लिया जाता। घटनाक्रम मल्लिका द्वारा अपनी उत्तराधिकारिणी के दर्शन कराने का है। जब वह दिव्या का परिचय कराती है तो अभिजात वर्ग की पंक्तियों से अस्पष्ट अस्फुट गुंजन-सा उठने लगा—‘‘तात धर्मस्थ की प्रपौत्री!…दिव्या! विष्णु शर्मा की पौत्री! दिव्या! द्विज कन्या! दिव्या! कुल कन्या दिव्या! विप्र कन्या दिव्या!’’…मल्लिका ने देखा—सामंत वर्ग और अभिजात समाज की पंक्तियां विश्रृखल हो रही थी। क्षण भर में एक ललकार सुनाई दी—‘‘मद्र की द्विज कन्या वेश्या के आसन पर बैठकर, जन के लिए भोग्या बनकर वर्णाश्रम को अपमानित नहीं कर सकती!’’ आचार्य भृगु उर्ध्वभाहू खड़े होकर आवेश में कांप रहे थे।’’…अब दिव्या का स्वर सुनाई देता है—‘‘जन, समाज और कुल वर्ग सुनें, मैं इस विषय में धर्म व्यवस्थापक, नीतिविद, महा पंडित आचार्य रुद्रधीर का निर्णय जानना चाहती हूं।’’
दिव्या आचार्य रुद्रधीर से कहती है—‘‘कुलवधु, कुलमाता और कुल महादेवी के आसन दुर्लभ सम्मान हैं लेकिन आचार्य कुलवधु, कुलमाता और कुलमहादेवी निरादृत वेश्या के समान स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नहीं हैं। वह आगे कहती है—‘‘ज्ञानी आचार्य कुलवधु का सम्मान, कुलमाता का आदर और कुलमहादेवी का अधिकार आर्य पुरुष का प्रश्रय मात्र हैं। वह नारी का सम्मान नहीं, उसे भोग करने वाले पराक्रमी पुरुष का सम्मान है। आर्य, अपने स्वत्व का त्याग करके ही नारी वह सम्मान प्राप्त कर सकती है।’’
दिव्या आगे स्पष्ट करती है—‘‘ज्ञानी आर्य, जिसने अपना स्वत्व ही त्याग दिया, वह क्या पा सकेगी? आचार्य दासी को क्षमा करें। दासी हीन होकर भी आत्मनिर्भर रहेगी। स्वत्व हीन होकर वह जीवित नहीं रहेगी!’’
अब तक हम मान कर चल रहे थे कि आमतौर पर हाशियाकृत समाज की महिलाएं की गिद्ध संस्कृति की क्रूरता का शिकार होती हैं लेकिन यशपाल के उपन्यास की ‘दिव्या’ने तथाकथित कुलवधु, कुलमाता और कुलमहादेवी को स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की कसौटी पर एक वेश्या से भी निम्न स्तर की साबित कर दिया तो कहा जा सकता है गौरैया चाहे महलों में हो या खेल-खलिहान या जंगलों में गिद्ध संस्कृति की पहुंच से बाहर नहीं है। यह स्थिति भारतीय समाज की सारी श्रेष्ठता, सभ्यता और सुसंस्कृतता को कठघरे में खड़ा करती हैं, शासन-प्रशासन और सभी संवैधानिक संस्थाओं के मुखौटों की नाकामी या उदासीनता को बेनकाब करती है।
इस कड़ी में निर्भया कांड, हाथरस की गुडि़या कांड और नारी अस्मिता को तार-तार कर देने वाले मणिपुर के अनेक एपीसोड्स को शामिल किया जा सकता है। कुश्ती जगत से जुड़ी गौरैयाओं के संघर्ष के घटनाक्रम पर भी बात हो सकती है। लेकिन इस कड़ी में इनके अलावा हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में कदम-दर-कदम आने वाले ऐसे अनेक कारनामे हैं जो गौरैया की बेबसी और गिद्ध संस्कृति की निरंकुशता पर प्रतिरोध की मांग करते हैं। जैसाकि हम पहले जिक्र कर चुके हैं कि गिद्ध संस्कृति को लेकर हम घटनाओं की चर्चा की अपेक्षा उन प्रवृत्तियों पर बात करना चाहते थे जो प्राचीन काल से गौरैया की अस्मत लूटने के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल की एक ट्रेनी डाक्टर की हत्या के ऐपीसोड ने हमें इस विषय पर विचार करने के लिए विवश कर दिया है। इस हत्या की पहली पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पुष्टि हुई है कि लेड़ी डाक्टर की हत्या हुई है, हत्या के बाद उससे दुष्कर्म हुआ है और उसकी कई हड्डियां टूटी हुई पाई गई हैं। इसके विरोध में पूरे देश के डाक्टर आंदोलित हैं। राजनीति अपनी बेशर्मी के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने से बाज नहीं आ रही है। लेकिन दुखद है कि धर्म, जाति, क्षेत्र और अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को दरकिनार कर देश अपनी भारतीयता का परिचय नहीं दे रहा है। जाहिर है, ऐसी अराजकता के माहौल में गिद्धों के होंसले बुलंद हो रहे हैं और गौरैया की अस्मत प्राचीन काल के भी भयावह दौर से गुजर रही है। ऐसे माहौल के चलते वह दिन दूर नहीं जब घृणा, स्वार्थ, अवसरवाद व अनैतिकता की आग हम सब को निगल जाएगी और न गिद्ध बचेंगे और न ही गौरैया। अगर कुछ बचेगा भी तो वह होगा—’बार-बार खुद को दोहराने वाला अपना गुलामी का इतिहास।’इस सबके बावजूद सुकरात की तर्ज पर हमारा फोकस व्यक्तियों और घटनाओं के चित्रण पर नहीं है। हमारा फोकस समाज को समस्या के प्रति जागरुक करने और इसके सामूहिक निदान के विकल्प तलाशने पर है, न कि समाज में असंतोष व अराजकता पैदा करने पर।
चलिए अब हम प्राचीन काल से चले आ रहे गौरैया की अस्मिता से खिलवाड़ करने वाले यानी गिद्ध संस्कृति से जुड़े घटनाक्रमों का वर्तमान की रोशनी में पोस्टमार्टम और आत्ममंथन करने का प्रयास करते हैं। गौरतलब है, काफी समय से हाशियाकृत समाज निरंतर जय भीम, नमो बुद्धाय के साथ-साथ जय संविधान! का प्रयोग अपने संबोधन में प्रमुखता से करता आ रहा है। वह जय संविधान का नारा बाबा साहब की वजह से लगा रहा है या वह संविधान के होने के असली मकसद की दृष्टि से लगा रहा है, इस संबंध में निश्चित तौर कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता पंजी) और सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के आंदोलन ने संविधान को इंसानी जागरूकता के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया और अब 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान यही संविधान राजनीति के केन्द्र में विराजमान हो गया।
राजनीतिक मंच से व संसद में संविधान का लहराया जाना क्या वैसा कुछ है, जैसा अयोध्या में श्रीराम की प्राण प्रतिष्ठा का एपीसोड? क्या संविधान व श्रीराम की प्राण प्रतिष्ठा दोनों का मकसद सिर्फ राजनीति की रोटी सेंकना है, सार्वभौमिक नैतिकता की ओर ले जाना है या कुछ और? निस्संदेह, श्रीराम का अस्तित्व प्राचीन काल से है और ऊपर वर्णित उदाहरणों से स्पष्ट हैं कि नारी उत्पीड़न का प्रचलन भी प्राचीन काल से लेकर आज तक अलग-अलग रूप में इसके समानांतर चलता आ रहा है। हमारा प्रश्न है—नारी अस्मिता से खिलवाड़ के लिए जिम्मेदार कौन, श्रीराम या उनका अनुसरण करने वाले तथाकथित सनातन के दावेदार? अगर जिम्मेदार श्रीराम हैं तो आज उनकी प्राण प्रतिष्ठा के मायने ही क्या रह जाते हैं? यदि श्रीराम जिम्मेदार नहीं हैं तो फिर क्या सनातन के दावेदार इसके जिम्मेदार हैं? यदि ऐसा है तो श्रीराम के नारे लगाने वाले उनकी प्राण प्रतिष्ठा के दावेदार कैसे हैं? उन्हें दंडित क्यों नहीं किया जाना चाहिए? अगर दंड देना अनुचित है तो क्या सनातन में स्त्री की भूमिका सिर्फ भोग की वस्तु तक सीमित है? यदि ये दोनों जिम्मेदार नहीं हैं तो नारी अस्मिता को रोंदने वाले कौन हैं, वे कहां से आते हैं और वे इतने निरंकुश कैसे हो गए है? कहीं ये वे आर्य तो नहीं जिन्हें आचार्य चतुरसेन अपने उपन्यास ‘वैशाली की नगर वधू’ में कठघरे में खड़ा करते हैं; और इनके विरुद्ध अनार्य संस्कृति का समर्थन करते हैं? ये सवाल आत्ममंथन व नारी अस्मिता के सवाल को हल करने के लिए हम सब की प्राथमिकता होने चाहिए। श्रीराम के बाद चलिए अब संविधान की अचानक बढ़ गई लोकप्रियता के सवाल से दो-चार होते हैं। सर्वविदित है, भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। जाहिर है, इससे पहले भी कोई संविधान था और श्रीराम अपने आप में एक मुकम्मल संविधान के रूप में सदियों से मौजूद रहे हैं, क्या नहीं? भारतीय संविधान ऊपर उल्लिखित गिद्ध संस्कृति का समर्थन नहीं करता लेकिन प्राचीन काल से चला आ रहा गौरैया का उत्पीड़न रुकने का नाम ही नहीं ले रहा, क्यों?निस्संदेह, देश में संविधान है, विस्तृत कायदे-कानून हैं, इसे लागू कराने के लिए पुलिस-प्रशासन है, विभिन्न आयोग हैं, अदालतें हैं और चौबीसों घंटे जनता की सेवा में समर्पित जन-प्रतिनिधि हैं। नारी अस्मिता पर हमलों की निरंतरता के मद्देनजर सवाल बनता है-इनमें से कौन हैं वे, जो अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभा रहे हैं?कौन हैं वे जो गिद्ध संस्कृति को जिंदा रखने का मोह नहीं त्याग पा रहे हैं?
इस सवाल का जवाब पाने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है। जानते सब हैं, मगर उत्तर वे देते हैं जो पीडि़त हैं। जाहिर है, समस्या से निपटने के लिए पीडि़तों के पास न रणनीति है और न ही उपयुक्त शक्ति और विकल्प। इसलिए इनके पास जवाब होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। इसलिए गिद्ध संस्कृति आज भी बखूबी जिंदा है। सवाल का उत्तर वे भी जानते हैं जो उत्पीड़क हैं और इसके लिए जिम्मेदार भी हैं, मगर वे इसका जवाब देना जरूरी नहीं समझते। गौरतलब है, जब भी वे जवाब देने पर आते हैं तो जवाब में अपनी दबंगई व निरंकुशता का ही परिचय देते हैं, अर्थात पंचों की बात सिर माथे लेकिन पतनाला वहीं गिरेगा। ये वे लोग हैं, जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक सत्ता पर आपसी नेक्सस के दम पर समाज व सिस्टम पर काबिज हैं। इनके लिए लोकतंत्र और संविधान ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ जैसे हैं; यानी ये निरंकुश राजा और जनसाधारण इनकी निरीह प्रजा, बाकी सब फालतू की बात है। अगर इस राजा और प्रजा के विभेद को हवाई यात्रा के संबंध में समझें—’ये खुद को बिजनेस क्लास और अन्य को कैटल क्लास कह कर संबोधित करते हैं।’
हमारा सवाल संविधान लहराने वालों से भी है—‘क्या वे वर्चस्ववादी नेक्सस तोड़ने और सार्वभौमिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए संविधान का राग अलाप रहे हैं; या विशुद्ध राजनीति की रोटियां सेंकने के लिए? एक सवाल संविधान की जय जयकार वाले हाशियाकृत समाज से भी है—‘क्या उनका संविधान की जय जयकार करना आरक्षण बचाने व निजी लाभ तक सीमित है या इसका संबंध इसे व्यापक अर्थों में अपनाए जाने से भी है? यही सवाल अल्पसंख्यक समाज से भी है—‘क्या उनका संविधान के प्रति मोह एनआरसी और सीएए के छोटे संकट से मुक्ति तक सीमित है या जिम्मेदार नागरिक हो जाने के लिए किसी सीमा के पार जाने तक? इसलिए हमें वैशाली के दौर जैसा गणतंत्र नहीं चाहिए जो किसी महिला को उसकी खूबसूरती की सजा उसे ‘वैशाली की नगर वधू’ या वेश्या बनाकर देता है। हमें ऐसा गणतंत्र चाहिए जिसमें देश का संविधान सर्वोपरिराष्ट्रीय गौरव का सर्वोत्तम प्रतीकहो।
अंत में साझा करना जरूरी महसूस हो रहा है कि अभी देश ने 78वां जश्न-ए–आजादी मनाया हैं। आजादी को लेकर मेरी अपनी एक पीड़ादायक दुविधा है, जिसे मैंने मेरे मन-मस्तिष्क में उलझे कुछ शब्दों को आजाद कर एक कविता का स्वरूप देने का प्रयास किया है, जिसका शीर्षक है—’क्या करूं’। बहुत संभव है यह मेरे जैसे देश के अनेक नागरिकों का दर्द हो और हम सबकी मुखरता के चलते यह किसी सकारात्मक अंजाम तक पहुंचने का सबब बन सके।
मेरे देश का संविधान/देश के हर नागरिक की/’मूलभूत आजादी’ को/थाली में परोसकर ऐसा देता है/जैसे बाबुल/अपनी लाड़ली को/डोली में बिठा, अपनी जिम्मेदारी से/मुक्ति का सपना संजोता है**वह अपनी लाड़ली को गहने,/तन ढंकने के कपड़े और/हर मौसम कामुकाबला करने केलिए/ कवच-कुंडलदेता है/वहसोने को खटिया और/ओढ़ने के लिए रज़ाई भीदेता है/यानी संविधान के नागरिकजैसी/चाकचौबंद सुरक्षा करता है**लेकिन इतने सारे/बंदोबस्त के बाद भी/बाबुल की लाड़ली ‘आजादी’/सड़क पर नग्न घुमाई जाती है और/बलात्कार की रस्म निभाई जाती है/सफेदपोश गिद्ध हो जाते हैं और/अदालती तराजू के बेबस पैरोकार/अपना वजूद बचाते नजर आते हैं**देश में ‘आजादी’ का डंका/आज वो लोग पीट रहे हैं,/जो आजादी को बंधुआ बना/एक रेप के बाद, दूसरे नए/रेप के कीर्तिमान की मुहिम चलाए हैं/आवाम निरंतर छटपटा रहा है मगर/अभी पांव नहीं जमा पा रहा है/**मैं भी दिल से चाहता हूं/ अपनी’आजादी’ का डंका बजाऊं/इसकी शान में नए-नए गीत गुनगुनाऊँ/इसे प्रेयसी-सा प्यार करूं और/इसके लिए आसमान से तारे तोड़ लाऊं/लेकिन मेरे दिलोदिमाग को/मुखौटा संस्कृति का रंग नहीं भाता है/क्या करूं,मुझे झूठ नहीं सुहाता है?
ईश कुमार गंगानिया
स्वतंत्र लेखक