उफ़्फ़ उफ़्फ़ उर्फ़ी जावेद से ‘साहित्य’ को बचा लिए जाने पर शिवानी सिद्धी की टिप्पणी
हां, तो फिर साहित्य के साहिबान या कहें साहित्य पर मेहरबान और हमारे साहित्य के कद्रदान हज़रात आप सभी को जानकर बड़ी खुशी होगी कि आखिरकार साहित्य को बचा लिया गया! उफ्फ़ जान ही अटकी हुई थी इस उर्फी में तो! पल-पल की ख़बर देने वाले आजतक का प्रभाव कुछ था यूं था कि हर कोई अपनी वाल पर टीका टिप्पणी से चिंता का ‘रेड-कार्ड’ फहराए हुए था, लाज़िमी भी है। तभी तो ऊर्फी जावेद जैसे गैंग्रीन से हमारा हिन्दी साहित्य बच गया अब वह ‘साहित्यतक’ के ओटीटी प्लेटफॉर्म मंच पर आ रही है। यह बात अलग है कि हमारा हिंदी साहित्य दुःखरन मास्टरों द्वारा जाने कब से “घुन खाए शहतीरों” पर लिखा जा रहा था, पढ़ाया जा रहा था, लेकिन पढ़ा भी जा रहा था? इसका कोई रिकॉर्ड मेरे पास नहीं है। महादेवीजी का एक पुराना इंटरव्यू कई समय तक घूमा, जिसमें वे चिंता जता रही हैं कि “इतना लिखा गया… इतना लिखा गया… मानवीयता पर लेकिन मानवीयता सिरे से गायब है”! और आज जबकि डिजिटल युग में जब चारों ओर सेल्फी देवता, हां जी देवी भी पर अभी पितृसत्ता की जड़े बाकी जो हैं, खैर सेल्फियों का बोलबाला है, हमारा साहित्य भी स्क्रीन का सहारा ले रहा है , एक समय था जब साहित्य समाज का दर्पण था लेकिन आज नहीं है घोषणा नहीं कर रही! आईना देखता ही कौन है, आप किसी को आईना दिखा भी नहीं सकते, धर लिए जाओगे वैसे पहले भी आईना देखना पसंद नहीं था किसी को । अब सब खुद को कैमरा में देखते हैं, यह जानते हुए भी कि कैमरा झूठ बोलता है । आईने की तरह कैमरा सच बोल ही नहीं सकता। हाँ तो, बात तो उर्फी की चल रही है, तो अभी कुछ समय पहले ‘पाठक क्या पसंद करते हैं ‘ मैं एक बड़े इतिहासकार लेखक ने हिंदी साहित्यकारों पर ‘एलिट’ होने का (सही ) आरोप लगाया और इसका जीता जागता उदाहरण प्रस्तुत किया उन्हीं के बग़ल में बैठे साथी ‘प्रोफेशनल लेखक’ (उन्होंने खुद को कहा था) वे पीयूष मिश्रा से निजी मुलाक़ात के अनुभव पर एक सार्वजनिक टिप्पणी करते हैं- उनके अनुसार क्योंकि ‘पीयूष मिश्रा एक एक्टर है (कलाकार नहीं) इसलिए उनकी पुस्तक ज्यादा बिकती हैं’। हो सकता है, अब आप कहें मैं तो शब्द पकड़ रही हूं। पर हिंदी लेखक जब कलाकार या अभिनेता के स्थान पर ‘एक्टर’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा है तो कहीं ना कहीं वह उसे निकृष्ट घोषित करने में लगा है। फिर उर्फ़ी जावेद तो ‘एक्टर’ भी नहीं मानी जाती, हमारी मीडिया उसे ‘सड़कछाप छपरी’ कहती है! अब आप जावेद अख़्तर के साथ फ़ोटो खिंचवाएंगे तो क्या उनके समकक्ष हो जायेंगे।
वास्तव में इसमें कोई दो राय नहीं कि शुद्धतावादी का आग्रह लिए हुए हिंदी पट्टी का लेखक आज भी साहित्य-समाज को अपनी ही तरह बौद्धिक मान कर चलता है जैसे कि हमारे सुप्रसिद्ध, प्रतिष्ठित, आदरणीय आचार्य आलोचक ने कहा था कि ‘मैं अपने पाठकों से कुछ अतिरिक्त बौद्धिकता की उम्मीद करता हूँ’। एक तो इन हिंदी विभागों के आलोचकों ने साहित्य को इतना सजा-धजा कर (काव्य-शैली कलात्मक सौंदर्य शास्त्र छंद, अलंकार ) प्रस्तुत किया कि आम पाठक वहाँ झाँकने से भी डरता है जैसे कि ऊँचे-ऊँचे शोरूम में एक गरीब(आप हाशिए के लोग पढ़ सकते हैं) आदमी झाँकने से भी डरता है कि उन्हें खुद का “सौंदर्य शास्त्र” लिखना पड़ा! वैसे ऊर्फी जावेद की भी क्या गलती? वो तो अपनी राह चली जा रही है! ये एलीट वर्ग जहाँ थोड़ा-सा अपने से विशेष लोगों को देखता हैं तो चौंक जाता है, उसे स्वीकार नहीं कर पाते बेचारे नहीं (मैं इसे कदापि हीनता-ग्रंथि नहीं कहुंगी ) फिर चाहे पीयूष मिश्रा हो या फिर कुमार विश्वास। इन्होंने तो आज तक दिन-रात गुनगुनाते रहने के बावजूद फ़िल्मों के खूबसूरत गीतों को कभी भी साहित्य के अंतर्गत नहीं माना ।
आज तक से याद आया कि बात तो “आजतक” पर होनी चाहिए थी, गाज़ गिरी उर्फी पर,गिरनी ही थी उसके पास दो-दो विशेषताएँ हैं- एक तो वह उर्फी नामक स्त्री है ; हाल ही में एक बहुत प्रसिद्ध पत्रिका के संपादक ने गार्जियन के हवाले से लिखा था कि ‘स्त्रियों की रचनाओं को सिर्फ 19% लेखक पुरुष पढ़ते हैं’। जबकि राजेंद्र बाला के जमाने से ही हमारे भीतर स्त्री रचनाशीलता को समझने की बुद्धि ही विकसित नहीं हुई अरे, हिन्दी साहित्य के कई कई इतिहास गवाह है कि वहाँ स्त्रियों को कितनी जगह मिली है? दूसरे उर्फ़ी के नाम के आगे ‘जावेद’ लिखा हुआ है ,करेला और नीम चढ़ा! चलो, खैर मानाओ कि अब वह आजतक में नहीं आ रही बल्कि आजतक के ओटीटी प्लेटफॉर्म मंच पर आ रही है, पर क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म का कोई यथार्थ नहीं है ? जी नहीं ,नहीं ही है शायद (?) वह तो आभासी दुनिया है वहां तो कैमरा अपनी आँख से दुनिया दिखाएगा न, कैमरा जो सच नहीं बोलता? पर क्या सचमुच?
शिवानी सिद्धि स्वतंत्र लेखक हैं