गरिमा सिंह की कविताएं

पानी 
वो जो कल-कल, छलछल बह रहा है
उसका निनाद हृदय के अंतरतम से
निरंतर गूंज रहा है…
जैसे कोई गा रहा हो राग-यामिनी… 
स्मृतियों- विस्मृतियों में हाहाकार बन 
कर्ण-कुहरों को भेदता हुआ
चीख रहा है कोई
स्पष्टता को धूंधलाता हुआ 
पानी भाप बनकर 
आकाश में समा जाता है
और बूंद बनकर उमड़ता है आंखों से
यह आदिम जल-प्लावन की घटना है! 
जो बार-बार दोहरायी जाती है 
किसी मनु को बनाने में 
बार-बार किसी श्रद्धा का समर्पण 
समूची चेतना से पानी का आह्वान है
पानी की यह लवणीयता सोखता है हृदय 
और गहराता जाता है मन किसी पीड़ा से
सारी संवेदनाओं और भावनाओं को निखारता 
किसी एकान्त दु:ख में बहता है पानी 
किसी घाट, तालाब, नदी और समुद्र में सब कुछ को संजीवनी प्रदान करता हुआ 
एक नई दृष्टि का, सृष्टि का वाहक
मनु को फिर-फिर बनाने
भीषण भीतर हुंकारता हुआ पानी!!!

शापित 
तेरा मिलना 
और मिलकर बिछड़ना 
दुनिया में कोई माकूल समय 
का ना मिलना 
और-
इस गोल दुनिया में 
हर बार सामने खड़े हो जाना 
कई रिक्तताओं और चुप्पियों के साथ 
कि यही नियति है!
इसलिए 
मिलेंगे हम फिर से
कविताओं की दुनिया में
क्योंकि वहीं है सब कुछ मुकम्मल और माकूल 
अन्यथा तो-
शापित हैं इस दुनिया में 
हम और हमारा प्रेम!!!


परकीया-भाव
औरतें
कभी-कभी सभ्यता-संस्कृति के बोझ को 
जमीन पर रखकर 
सभी रिश्तों को अर्गला पर टांगकर 
अपने होने के वजूद के साथ 
सिंगारदान के सामने खड़ी होकर
केवल बीतते वक्त के उम्र को नहीं निहारती
बल्कि दुनिया को खुबसूरत बनाने वाली 
उस अहसास को निहारती हैं
जो- आँखों में भरती है
गुनगुनी प्रेम बनकर…
जो सुबह की मुस्कुराहटों में शहद बनकर घुलती है
और शाम की शोखियों पर  चांद बनकर उतरती है
थोड़ी संवरती हैं, थोड़ी बनती हैं, थोड़ी-थोड़ी ढूंढती हैं
ख़ुद को हर जगह से-
और होंठों से गुनगुनाती हैं 
एक खुबसुरत सा गीत अपनी दुनिया में 
वे आजादी की बात नहीं करती
महसूस करती हैं उसे अपने भीतर 
रोशनी की तरह…
सोचतीं हैं –
उम्र का हरेक पड़ाव उनका अपना है
जहां प्रत्येक संबंध-
उनके अस्तित्व से इतर है 
ना हो बेशक दुनियादारी की समझ
लेकिन अपने भीतर इस परकीया-भाव को देखना
दुनिया में एक क्रांति लाने सा विचार है!

मेरा शहर
राजधानी से लगा हुआ
मेरा शहर
हर बात की बात जानता है
वह हर बदलाव को 
करीब से देखता है
हर मुद्दे पर 
बोलता है
बिना महसूस किये
धर्म, जाति और हिंसा के मुद्दे 
पर हैरान होता है…
और चुप हो जाना मुनासिब समझता है
कि क्या फ़र्क पड़ता है?
क्योंकि –
हम तो शहर हैं 
और शहर तो जलता ही है!
हम जलेंगे नहीं 
तो रहेंगे नहीं 
मेरे शहर में ही
रहती है राजनीति 
गलियां थोड़ी तंग हैं 
लेकिन हम सभ्य नागरिक 
सहिष्णु, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक हैं 
हमने सीखा है यह- संविधान से
भाषण, धरना, हड़ताल, कैंडल मार्च से
ख़ुद को जागरूक रखता है 
मेरा शहर 
और फिर अगली सुबह 
अपने काम पर लौट आता है
अनुशासित है मेरा शहर
खूब पढ़ता है किताबें 
और बातें करता है कानून की
साहित्य, विज्ञान और कलाओं की
वह जानता है कि कितनी जरूरी है
हमारी सरकार, न्याय-व्यवस्था 
हमारे बेहतर जीवन के लिए 
लेकिन आजकल
असभ्य लोगों की मनमानियां 
बहुत बढ़ गई हैं हमारे शहर में 
नहीं तो…
हमारा शहर बहुत सुंदर है
जो चुपचाप? 
अपना काम करता है

गरिमा सिंह, असिस्टेंट प्रोफेसर , हिंदी विभाग ,
वी० एम० एल० जी० कालेज, गाजियाबाद 

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