क्या हो रहा है महिलाओं का राजनीतिकरण!

विनय ठाकुर

महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे ने राजनीतिक पंडितों और राजनीतिक पार्टियों दोनों की अक्ल को झकझोर कर रख दिया है। दक्षिण पंथी राजनीति के उभार को थामने की कोशिश कर रही वामपंथी और उदारवादी मध्यवर्गीय राजनीतिक धारा भारतीय राजनीति के वामावर्त के साथ शायद तालमेल नहीं बिठा पा रही है। चुनावी समर में कौन सा अस्त्र प्रभावी है विचारधारा सामाजिक सत्ता विन्यास या फिर मुद्दे और उनका क्रम क्या है। यह सब अनिश्चित हो गया है राजनीतिक संवाद संरचना का स्वरूप एकदम से बदल गया लगता है राजनीतिक संवाद के मतदाताओं तक पहुंचाने की गति और दिशा एकदम से बदल गई लगती है। मतदाता समूह के रूप में स्त्रियों के निर्णायक उभार से अचानक से सत्ता की सड़क पर राजनीति के परिचालन को राइट हैंड ड्राइव से लेफ्ट हैंड ड्राइव में बदल दिया है महिलाएं जो कल तक परिवार और पड़ोस की प्राथमिकताओं के अनुसार अपनी राजनीतिक राय कायम करती थी स्मार्टफोन और सोशल मीडिया के जमाने में राजनीतिक संदेशों को अपनी प्राथमिकताओं की विन्यास के अनुसार उसे प्रोसेस कर अपनी राय कायम कर रही है। 

लोकसभा चुनाव प्रचार के वक्त यह बहुत मुखर नहीं था कि राजनीतिक पार्टियों महिला मतदाताओं को हार जीत के बीच का अंतर तय करने वाली मान रही है। पर तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव के वक्त राजनीतिक पार्टियों कहीं लाडली बहन कहीं लाडली बहन बेटी योजना कहीं मैया सम्मान योजना के माध्यम से आक्रामक रूप से उनको रिझाती दिख रही थी। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में उन्हें अपनी ओर मोड़ने के लिए कड़ी स्पर्धा देखने को मिल रही थी सरकार की ओर से सीधे उनके खाते में जाने वाली राशि राज्य की राजनीति में उनका सशक्त करने से कहीं अधिक उन्हें परिवार की राजनीतिक स्पेस में ज्यादा सशक्त कर उन्हें उनकी राजनीतिक गतिविधि चुनावी और गैर चुनावी दोनों ही मामले में मजबूत बना रही है। सरकार के द्वारा महिलाओं को मुफ्त परिवहन की सुविधा उनकी गतिविधियों का दायरा बढ़ा रही है और उनके देश दुनिया का विस्तार कर रही है तो 200 यूनिट तक मुक्त बिजली से महिलाओं के ऊपर घरेलू रसोई उपकरणों के इस्तेमाल के माध्यम से रसोई का बोझ हल्का हो रहा है और उनके पास अतिरिक्त समय हासिल हो रहा है जो उन्हें एक नई स्त्री के रूप में अपने को करने में उन्हें मदद प्रदान कर रहा है। इस तरह से उनकी राजनीतिक राय को भी प्रभावित कर रहा है। 

महिलाओं के घर से निकलने की सहूलियतें 

चाहे कर्नाटक की शक्ति हो बंगाल का साइकिल स्कीम हो या तमिलनाडु का पिंक बस योजना इन सभी ने महिलाओं को घरों से निकलने में सहूलियत प्रदान कर उन्हें राजनीतिक रूप से सशक्त और प्रभावी बनाएं और एक मतदाता समूह के रूप में पार्टियों के बीच उसकी पहचान बढ़ी  है। महिलाओं के मतदान का प्रतिशत पिछले कुछ समय से लगातार बढ़ रहा है। पुरुषों और महिलाओं के बीच मतदान करने वालों की संख्या में अंतर घटा है। पुरुषों की तुलना में घरेलू महिलाओं में विचारधारा के आधार पर राजनीतिक पार्टी चुनने की बजाय योजना व नीतियों के आधार पर राजनीतिक पार्टियों को चुनने की प्रवृत्ति रही है इसीलिए कल्याणकारी योजनाओं का असर महिला मतदाताओं पर ज्यादा होता है जबकि पुरुष मतदाताओं पर विचारधारा वह उम्मीदवारों के दवाइयों का प्रभाव ज्यादा होता है। इसीलिए सत्ताधारी पार्टियों अपनी योजनाओं के माध्यम से महिला मतदाताओं को ज्यादा प्रभावित कर पाती है खासकर ऐसी योजनाओं के माध्यम से जिनका संबंध घरेलू जीवन और रोजमर्रा की गतिविधियों पर होता है |

भले हम इस बात को लेकर इतरायें कि दुनिया के सबसे मजबूत लोकतंत्र का दावा करने वाले अमेरिका में अभी तक कोई भी महिला राष्ट्रीय प्रमुख नहीं बन पाई है जबकि हमारे यहां भारत में प्रधानमंत्री राष्ट्रपति लोकसभा अध्यक्ष और राज्यों के मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक सभी संवैधानिक पदों पर महिलाएं आसीन हो चुकी है पर उसके बाद भी सत्ता में भागीदारी को लेकर भारत की महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं की जा सकती है। राजनीतिक सशक्तिकरण के मामले में भारत की स्थिति विश्व में विश्व नंबर पर है । हाल ही में ब्रिटेन में हुए चुनाव में 263 महिला संसद सदस्य चुनकर आई जो की हाउस ऑफ कॉमंस में सदस्यों की संख्या का 40 फीस दिए इसी तरह दक्षिण अफ्रीका के नेशनल असेंबली में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 45 फ़ीसदी तक रहा है तो अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 2930 तक भारत में लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 2004 तक 5 फ़ीसदी से 10 फ़ीसदी के बीच रहा है जबकि 2014 में यह बढ़कर 12 फ़ीसदी हुआ राज्य विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व और भी कम है।

महिलाओं का राजनीतिकरण

गांधी जी द्वारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बड़ी संख्याओं में घरेलू महिलाओं को घरों से बाहर निकाल कर उनका राजनीतिकरण किया गया और आजादी के बाद महिलाओं को पूर्ण मताधिकार हासिल हुआ साक्षरता और संपत्ति के बंदी से मुक्त होकर सभी को मतदान के अधिकार हासिल होने के बावजूद महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की गति धीमी हो रही। दक्षिण एशिया की राजनीति में माइक्रो लेवल या शीर्ष सत्ता संरचना में महिलाओं की उपस्थिति यूरोप अमेरिका से पहले दिखती है परंतु यह महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण से कहीं अधिक पितृसत्तात्मकता और समाज की सामंतवादी संरचना का असर ज्यादा दिखता है। क्योंकि यहां महिलाओं को शीर्ष पर पहुंचने की शक्ति उसके परिवार द्वारा अर्जित राजनीतिक पूंजी के माध्यम से हासिल हुई थी ना की निजी राजनीतिक संघर्ष के माध्यम से अछूते  महिला मतदाता समूह को सक्रिय व कार्यकारी बनाकर अपनी और मोरनी और अपनी राजनीति पूंजी बढ़ाने का काम राजनीतिक पार्टियों कर रही है। इसमें राष्ट्रीय पार्टियों से कहीं अधिक क्षेत्रीय पार्टियों की है। इस मुहिम की सफलता तीन कारकों के द्वारा निर्धारित हो रही है आर्थिक दृष्टि सामाजिक सत्ता संरचना का पुनर्विन्यास और राजनीतिक शक्तियों का पुनर्विन्यास।

महिलाओं की राजनीतिक सक्रियता चुनावी और गैर चुनावी दोनों में ही एक हलचल और बदलाव देखने को मिल रहा है जिसे जांचने परखने    में पुराने उपकरण और पर्याप्त साबित हो रहे शायद इसी वजह से राजनीतिक नतीजे का अंदाजा ना तो मीडिया लगा पा रही है और ना ही पार्टियां। महिलाओं ( खासकर ग्रामीण घरेलू महिलाओं की) की राजनीतिक राय जानने के लिए औपचारिक से कहीं अधिक औपचारिक से कहीं अधिक अनौपचारिक माहौल की जरूरत होती है ऐसे माहौल की जहां उसके ऊपर सामाजिक राजनीतिक सत्ता संरचना की छाया नहीं पड़ती हो। इस राय को जानने के लिए सामाजिक विज्ञान के ग्रुप डिस्कशन की तरह के टूल चाहिए। जिसके लिए संसाधन व समय की सीमा होने की वजह से मीडिया और राजनीतिक दल दोनों ही तैयार नहीं है। जबकि कॉरपोरेट बाजार बाजार के प्रौद्योगिकी और डाटा माइनिंग के जरिए ज्यादा लाभकारी स्थिति में है। इस वजह से वह बेहतर राजनीतिक पूंजी निवेश कर चुनावों को प्रभावित करने की स्थिति में होता है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह आलेख राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप से साभार

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