प्रज्ञा मिश्रा की कविताएं

 

स्त्री

1.
|जीवन जिया उसने भी
जिसे बांधा तुमने
चौखट की इज्जत से
पर,
क्या तुम कभी
यह जान सके
कि
उस जीवन को जीने में
कितनी बार
वह मृत हुई है ?

2.
जैसे जैसे रात्रि के पहर ढलते है
वो बुनती है ताना बाना
कि दिन के पहर में
उसे बांटना है कैसे खुद को
घर के कई हिस्सों में
और फिर
सांझ होते- होते समेट लेना है
अपने सभी बिखरे टुकड़ों को
और परोस देना है अपनी देह
कि दिन भर टुकड़ों में बंट कर
घर संभालने बाद
अब वो टुकड़ों में नही
पूरी स्वीकारी जाएगी
इससे इतर कि
मन के टुकड़े अब
फिर और टूटते हैं
कभी न जुड़ पाने के लिए !

3  
स्त्री समेटती है उफनती लहरों को
और दफनाती है चीखों को
फिर लाती है एक मौन !
जो सहमा नहीं है
बस शांत है !
निकलेगा वो मौन
कभी..
बन कर सैलाब
और करेगा तबाह
पुरुष के दंभ को !!

4
लोग कहते उसे कभी बोलते नहीं देखा
वो चुप चुप सी ही रहती है
पर,
देखा है मैंने
उसकी आंखें मौन की भाषा बोलती हैं
उनमें चीखें है
पीड़ा है
विद्रोह है
और हौसला भी 
तो क्या इतना काफी नहीं
किसी क्रांति के लिए ?

5.
तुम उसे बोल लो,
कह लो,
रोक लो,
मनवा लो अपनी मनमानी
पर आखिर कब तक?
किसी नदी को रोक पाया है
भला
राह का कोई भी रोड़ा?
वो बहती है..रौंदते हुए सारे पत्थर
देखना एक दिन
तुम्हारे बनाए सारे बंधनों को बहा ले जाएगी
वह अपने वेग से
और अपनी उन्मत्त चाल में स्वच्छंद बहेगी
स्त्री आखिर नदी का ही तो दूसरा पर्याय है।

प्रज्ञा मिश्रा ( pragya1724@gmail.com)
अध्यापिका(बेसिक शिक्षा विभाग,उत्तर प्रदेश द्वारा संचालित सरकारी स्कूल,सुल्तानपुर में कार्यरत)
प्रकाशन – देश के विभिन्न समाचार पत्रों में कविता,कहानी एवं लेख प्रकाशित।

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ISSN 2394-093X
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