प्रधानमंत्री का ‘अधूरा सच’ व संवैधानिक इतिहास, संवैधानिकता और भारतीय संविधान

26 जनवरी को हमारे संविधान को लागू हुए 75 वर्ष पूरे होने जा रहे है। ऐसे में यह जानना महत्वपूर्ण है कि 26 जनवरी के दिन ही 1950 को भारतीय संविधान लागू करने के पीछे मुख्य उद्देश्य क्या था।

दिसंबर 1928 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने एक प्रस्ताव पेश किया,जिसमें कहा गया कि अंग्रेज दो साल के भीतर भारत को डोमिनियन स्टेटस प्रदान करें। सुभाष चंद्र बोस और पंडित नेहरू ने अंग्रेजों को दिए गए समय पर आपत्ति जताई और पंडित नेहरू पूर्ण स्वतंत्रता की मांग के पक्षधर थे। परिणामस्वरूप दिसंबर 1928 के अधिवेशन में कांग्रेस ने आम सहमति से निर्णय लेते हुए ब्रिटिश सरकार को अल्टीमेटम दिया कि यदि सरकार 31 दिसंबर 1929 तक डोमिनियन स्टेटस को स्वीकार नहीं करती है, तो कांग्रेस पूर्ण स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य घोषित करेगी। इसके एक साल बाद दिसंबर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। ‘पूर्ण स्वराज’ को भारतीयों के लिए एकमात्र सम्मानजनक लक्ष्य घोषित करने का सम्मान पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिला, जिन्होंने इस विचार को लोकप्रिय बनाने के लिए सबसे ज्यादा काम किया था। कांग्रेस अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 31 दिसंबर 1929 की आधी रात को भारी भीड़ के सामने रावी के तट पर पूर्ण स्वतंत्रता का झंडा फहराया। साथ ही कांग्रेस ने 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वतंत्रता या पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया। इसके बाद से ही 26 जनवरी को भारत में हर वर्ष पूर्ण स्वतंत्रता या पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाया जाने लगा था। आजादी के बाद 26 नवंबर, 1949 में संविधान बन जाने के बाद भी देश ने 2 महीने का लंबा इंतजार करके 26 जनवरी 1950 को ही संविधान इसलिए लागू किया, ताकि भारतीय संविधान और भारतीय सवतंत्रता आंदोलन के मध्य संबंध को सदैव जीवित रखा जा सके।

संविधान-निर्माण: इतिहास और प्रक्रिया

भारतीय संविधान का निर्माण मात्र 2 साल, 11 महीने और 18 दिन में नहीं हुआ, बल्कि यह एक लम्बी प्रक्रिया थी जो सदियों से चली आ रही थी। इसकी शुरुआत उस दिन हो गयी थी जिस दिन भारत को अंग्रेजों से मुक्त करने के लिए और भारत के नागरिकों को एक संवैधानिक व उत्तरदायी सरकार देने के लिए भारतीयों ने संधर्ष शुरू किया था। उसी संघर्ष के अंदर संविधान निर्माण की प्रक्रिया छिपी हुई है। 19 वीं सदी के आरम्भ में सामाज और धर्म सुधार आंदोलनों में सामाजिक न्याय व बराबरी के विचार स्पष्ट देखने को मिलते हैं। आगे चलकर जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जब जन्म हुआ तो भी इसकी पहचान की जा सकती है। कांग्रेस शब्द में एक राजनीतिक चेतना छिपी है, क्योंकि अमेरिकी संसद का निचला सदन कांग्रेस के नाम से जाना जाता है। 1920 में गाँधी जी द्वारा कांग्रेस के संविधान में संशोधन के बाद से पार्टी का संगठन चुनाव के सिद्धांत पर चलने लगा। अगर देखा जाये तो प्रदेश कांग्रेस समितियों द्वारा चुनी गयी अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी लोकसभा के सामान थी, तो कार्यसमिति मंत्रिपरिषद के सामान और कांग्रेस अध्यक्ष प्रधानमंत्री के सामान। अत: संविधान में भारत सरकार का संसदीय स्वरुप ब्रिटिश संसद की नक़ल नहीं, बल्कि भारतीय राष्ट्रिय आंदोलन की परम्परा को नियमित करने वाला था।

संविधान सभा

ब्रिटिश प्रकाशकों और नव साम्राज्य्वादियो द्वारा सफलतापूर्वक इस झूठ को गढ़ा गया कि भारत का संविधान और संवैधानिक सरकार अंग्रेजों द्वारा 1861 से 1935 तक किये गए संवैधानिक पहलों की परिणीति थे। परन्तु यह एकतरफा पक्ष होगा। जैसा कि गाँधी जी ने कहा था की “स्वतंत्रता मुफ्त में नहीं मिलती, उसे आपको अपने स्रवश्रेष्ठ रक्त से खरीदना पड़ता है।” और सत्यता भी यह है कि राष्ट्रवादियों की मांगे और अपेक्षाएं अंग्रेजों के संवैधानिक सुधारों से कहीं आगे थी। 1895 में एक होमरूल बिल आया था। इसकी रचना किसने की इसके पर्याप्त प्रमाण नहीं है। परन्तु यह माना जाता है कि एनी बेसेंट के विचार और तिलक की प्रेरणा से यह निर्मित हुआ था, जिसमें बहुत से मानव-अधिकारों, जैसे कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता , कानून के समक्ष समानता, संपत्ति का अधिकार आदि की मांगों को रखा गया था। अंग्रेज इन मांगो को अपने आखरी सुधार, अर्थात 1935 के एक्ट, में भी पूरा नहीं कर पाए। असल में भारतीय संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रिय आंदोलन की विरासत को ही भारतीय संविधान का आधार बनाया। उदाहरण के लिए न सिर्फ नेहरू रिपोर्ट में दिए गए 19 अधिकारों मे से 10 अधिकार संविधान में शामिल किये गए, बल्कि भाषायी आधार पर प्रदेशों के पुनर्गठन की दी गयी सलाह को भी मान लिया गया।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने भारतीय राष्ट्र को विश्व स्तर पर अद्वितीय ढंग से परिभाषित किया। 17वीं और 18वीं शताब्दी के बाद से यूरोप में उभरे सभी आधुनिक राष्ट्र- राज्य एक भाषा और एक धर्म पर आधारित थे,इसीलिए अंग्रेजों ने कहा कि भारत कभी भी इतनी सारी भाषाओं और धर्मों वाला राष्ट्र नहीं हो सकता। हमारे राष्ट्रवादी नेताओं या स्वतंत्रता सेनानियों की प्रतिभा एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना करना था जो विविधता का जश्न मनाता हो न कि इसे समस्या के रूप में देखता हो।यह वह अनूठी उपलब्धि है जिसे कुछ सत्तालोलुप लोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए तथाकथित हिंदू राष्ट्र के नाम पर नष्ट करने का अधर्म कर रहे हैं। वो इस बात को नकारने की कुचेष्टा कर रहे है कि भारत का राष्ट्र के रूप में निर्माण, भाषा या धर्म के आधार पर पाश्चात्य जगत में हो रहे राष्ट्र निर्माण की अवधारणा से भिन्न था, जो कि हमें भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के चरित्र में भी दिखाई देता है।
अगर सवाल उठे कि क्या भगत सिंह सिर्फ सिखों या पंजाब की आजादी के लिए फांसी के फंदे पर झूले थे? क्या अशफाक उल्हा खान की शहादत ओर मौलाना आजाद का संघर्ष सिर्फ मुसलमानो या उत्तर प्रदेश के लिए था? पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने सारी जवानी जेल में संघर्ष करते हुये गुजारी तो क्या सिर्फ पंडितों या कश्मीरियों के लिए? सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का निर्माण क्या सिर्फ कायस्थों या बंगालियों की आजादी के लिए किया था? और सबसे महत्वपूरण महात्मा गाँधी क्या सिर्फ गुजराती अस्मिता की बात कर रहे थे? नहीं, ये सभी अटक से लेकर कटक तक, कश्मीर से लेकर कन्यान्कुमारी तक रहने वाले हर भारतवासी के संवैधानिक मानवीय अधिकारों के लिए लड़े थे।उनकी यही विरासत भारत को एक राष्ट्र के रूप में विविधता में एकता के सूत्र में पिरोती है।

यही विविधता में एकता संविधान निर्माण के दौरान संविधान सभा में देखने को भी मिली थी। 1947 में बंटवारे के बाद संविधान सभा में ब्रिटिश भारतीय प्रांतों से 229 सदस्य तथा रियासतों से 70 प्रतिनिधि थे। जिनमें महिला सदस्यों की संख्या 15, अनुसूचित जाति के 26, अनुसूचित जनजाति के 33 सदस्य थे। हालाँकि सभा में कांग्रेस के सदस्य बहुमत में थे, लेकिन कांग्रेस पार्टी के भीतर भी बहुत वैचारिक विविधता थी। यही बात पूरी संविधान सभा के बारे में भी कही जा सकती है। जिसमें के.टी. शाह समाजवादी और वामपंथी थे, तो वहीँ इसमें हिंदू महासभा के अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी, ठाकुर दास भार्गव, के.एम. मुंशी जैसे दक्षिणपंथी और मीनू मसानी जैसे उदारवादी भी थे। प्रधानमंत्री जी अपने भाषण में तथ्यों को रखने की बात कर रहे थे। पंडित नेहरू ने भी कहा था कि “तथ्य, तथ्य हैं और आपके नापसंद करने से गायब नहीं हो जाएंगे।” और तथ्य यह है कि इस विविधता में एकता का आधार कांग्रेस को मानते हुए डॉ अम्बेडकर ने संविधान सभा के अपने समापन भाषण में कहा था कि “यदि संविधान सभा भानुमति का कुनबा होती, … और उसमे प्रत्येक सदस्य और गुट अपनी मनमानी करता तो प्रारूप समिति का कार्य बहुत बाधित हो जाता। तब अव्यवस्था के अतिरिक्त कुछ न होता। अव्यवस्था की संभावना सभा के भीतर कांग्रेस की उपस्तिथि से शून्य हो गई, जिसने उसकी कार्यवाईयों में व्यवस्था और अनुसाशन पैदा कर दिया। इसलिए सभा में संविधान के सुगमता से पारित हो जाने का श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है। “

संविधान का ड्राफ्ट संविधान सभा के अध्यक्ष को सौपते हुए बाबा साहेब डा. अम्बेडकर

यहाँ गौर करने वाली बात यह भी है कि धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान को आजादी भारत के साथ बंटवारे की नीव पर मिली थी। जब पाकिस्तान ने 1971 में एक बार फिर बंटवारे को झेला तो इसने धर्म की आधारशिला पर बने राष्ट्र की अवधारणा को गलत सिद्ध किया। इसके साथ ही पाकिस्तान को सैनिक तख्तापलट व मार्शल लॉ झेलते हुए संविधान बनाने में 26 साल लग गए। जिसने पुन: भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की समावेशी विरासत को सही साबित किया। प्रधानमत्री जी को इतिहास के इस पहलु को भी याद रखना चाहिए कि इसी समावेशी लोकतांत्रिक मूल्य का परिचय देते हुए ही कांग्रेस से वैचारिक मतभेद रखने वाले डॉ अंबेडकर का निर्वाचन क्षेत्र विभाजन के बाद पाकिस्तान में चले जाने पर, कांग्रेस ने अपने सदस्य एम आर जयशंकर से इस्तिफा दिलवा कर, डॉ. अंबेडकर के लिए सीट खाली की। जिससे वो बॉम्बे निर्वाचन क्षेत्र से सदस्य चुन कर पुनः संविधान सभा में पहुंचे। संविधान सभा ने आंबेडकर को मसौदा समिति का अध्यक्ष भी बनाया। डॉ अम्बेडकर ने स्वयं इस पर कहा था कि “संविधान सभा में अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा कराने के अतिरिक्त मैं किसी अन्य महानतर आकांक्षा को लेकर नहीं आया था। मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि मुझे और भी बड़ी जिम्मेदारियां सौंपी जाएंगी। इस कारण जब मुझे मसौदा समिति में निमंत्रित किया गया तो बड़ा आश्चर्य हुआ। जब इसका सभापति चुना गया तो और भी आश्चर्य हुआ।”

स्त्रियों की भागीदारी के मामले में भारत सबसे आगे

संविधान पर बोलते हुए प्रधानमंत्री अपने भाषण में नारी शक्ति वंदन अधिनियम को लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने वाला अहम कदम बताकर अपनी पीठ थपथपा रहे थे। पर उन्हें समझना होगा कि महिलाओं की भागीदारी से नहीं, वरन उनकी हिस्सेदारी से बराबरी सुनिश्चित होती है। अपनी स्थापना के मात्र चार वर्ष पश्चात् 1889 ईस्वी के कांग्रेस अधिवेशन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गयी थी। 1889 की कांग्रेस की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि ‘सभा को सुशोभित करने वाली महिला प्रतिनिधियों की संख्या दस से कम नहीं है’। इनमें से एक महिला सार्वजनिक बैठक में पुरुषों द्वारा चुनी गई, जबकि अन्य महिलाएं विभिन्न महिला संघों- ईसाई धर्म संघ, बंगाल लेडीज एसोसिएशन, और महिला आर्य समाज, से सम्मिलित हुई। 1890 के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान एक महिला को सम्बोधित करने या अध्यक्ष को धन्यवाद ज्ञापित करने की अनुमति दी गई थी। इस प्रकार कांग्रेस के संगठन तथा आंदोलनों में आरम्भ से ही हर स्तर पर महिलाओं ने न सिर्फ सक्रीय भागीदारी थी, बल्कि आजादी से पूर्व कांग्रेस संगठन में तीन महिलाओं को राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व का अधिकार मिलना लोकतांत्रिक सघर्ष में उनकी मजबूत हिस्सेदारी को भी दिखता है। गौरतलब है कि पश्चिमी देशों की महिलायें जब मताधिकार के लिए लड़ रहीं थी तब कांग्रेस ने एनी बेसेंट को पहली महिला राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में चुना। 1925 में, सरोजिनी नायडू कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी जाने वाली पहली भारतीय महिला बनीं, जिसमे गांधीजी की महत्वपूर्ण भूमिका रही,तब ब्रिटेन,अमेरिका जैसे स्वयं को लोकतंत्र का रक्षक कहने वाले देशो की ब्रिटिश लेबर पार्टी,अमेरिकन डेमोक्रेटिक पार्टी जैसे तथाकथित प्रगतिशील दलों में भी महिलाओं को नेतृत्व करने का अधिकार नहीं था।

1942 में नागपुर के अधिवेशन में डा.अम्बेडकर अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महिला सम्मलेन की नेताओं के साथ


नारी शक्ति वंदन की बात करने वाले प्रधानमंत्री की पार्टी भाजपा हो या उनकी पुरानी पार्टी जनसंघ,आजादी के बाद से लेकर संविधान की 75 वीं वर्षगांठ तक एक भी महिला को राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में हिस्सेदारी देने में पूर्णतया नाकामयाब रही है, और तो और उनका संरक्षक व पैतृक संगठन आर आर एस में तो आज भी महिलाओं को सदस्य तक बनने की अनुमति नहीं है। यही नहीं पुरुषों के लिए जहाँ राष्ट्रीय ‘स्वयं सेवक’ संघ, वहीँ महिलाओं के लिए राष्ट्रिय ‘स्वयं सेविका’ नहीं बल्कि ‘सेविका’ समिति है। इस अंतर के पीछे क्या सोच है, वो भी स्पष्ट होनी चाहिए। यहाँ यह भी जान लें कि कांग्रेस ने स्वतंत्रता संघर्ष में आधी आबादी को ही नहीं बल्कि अन्तोदय के विचार ने देश के गरीबों को और महात्मा गाँधी के जनांदोलनों ने लाखों अनपढ़ों को भी राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा और हिस्सेदारी दी। इस प्रकार संविधान का मूल आधार बनी जनतंत्र की भावना का संचार कांग्रेस के इसी राष्ट्रीय आंदोलन ने ही किया और परिणामस्वरूप सार्वभौम व्यस्क मताधिकार को बिना किसी बहस के संविधान में जगह मिली। संविधान में दिए गए अभिवक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का मूल भी आजादी के संघर्ष के दौरान भारतीय नेताओं द्वारा प्रेस की आजादी के लिए चलाया गया संघर्ष ही है। जिसमे विशेष रूप से कांग्रेस नेता बाल गंगाधर तिलक का विशेष योगदान रहा, जिन्होंने अपनी पत्र-पत्रिकाओं के जुझारूपन की भारी कीमत चुकाई।

प्रधानमंत्री का झूठा-सच

प्रधानमंत्री ने देश के संविधान की नींव का समावेशी मूल्य पर होने की बात तो की, पर आज उनके नेतृत्व में देश में चुनावों के दौरान धार्मिक ध्रवीकरण के नारों का नंगा नाच देखने को मिलता है उसे वो कैसे भूल जाते है? डॉ अम्बेडकर का यह चिंता बोध आज प्रासंगिक लगता है, जिसमे उन्होंने कहा था कि, “क्या भारतीय अपने देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे देश के ऊपर पंथ स्थापित करेंगे? मुझे नहीं पता। लेकिन यह बहुत निश्चित है कि यदि इन राजनैतिक दलों ने देश से ऊपर पंथ रखा, तो हमारी स्वतंत्रता को दूसरी बार संकट में डाल दिया जाएगा और संभवत: यह हमेशा के लिए खो जाएगी। इस परिस्थिति में हम सभी को दृढ़ता से हमारे रक्त की आख़िरी बूँद के साथ हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए।” फिलहाल तो इतना ही कहा जा सकता है कि भारत में आज जो लोकतान्त्रिक मूल्यों का विकृत चेहरा उभर रहा है, उससे हमारे वे मूल्य मर रहे हैं जो गांधी, नेहरू अम्बेडकर और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत ने इस देश को दिए थे। उनके विचार,उनके मूल्य और उनके उद्देश्यों के विपरीत हमारा लोकतंत्र कुछ अंतरविरोधों, कुछ विरोधाभासों और कुछ छद्म नारों तक सिमटता हुआ दिख रहा है।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्तमान भारत सरकार इसी समावेशी लोकतांत्रिक विचार पर लगातार आघात कर रही है। आज सरकार विपक्षी दल के नेता राहुल गाँधी जी की आवाज दबाने के लिए बिना प्रयाप्त क़ानूनी अवसर दिए आनन फानन में सदस्यता भंग करने से नहीं चुकती है। किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी एक सशक्त विपक्ष होता है। जहाँ विपक्ष का दायित्व है कि वह जनता की आवाज को सरकार तक पहुचाये, वहीँ सरकार का संवैधानिक दायित्व होता है कि वह विपक्ष के माध्यम से जनता की आवाज को सुने। परतु आज चाहे भारत चीन के बॉर्डर का मुद्दा हो, लद्दाख का मुद्दा हो, मणिपुर का मुद्दा हो, किसानों का मुद्दा हो, महिला पहलवानो का मुद्दा हो, EVM का मुद्दा हो, अडानी का का मुद्दा हो, सरकार खुली बहस तो छोड़िये विपक्ष की आवाज तक दबा देना चाहती है। पिछले दिनों कांग्रेस ने ट्वीट आरोप लगाया कि संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्य सभा के सभापति महोदय के सामने कहा कि “जब तक आप लोकसभा में अदानी का मुद्दा उठाएंगे, हम राज्यसभा को चलाने नहीं देंगे और इसमें सभापति महोदय भी शामिल हैं, सभापति महोदय को इसमें अडिग रहना चाहिए।” ऐसे बयान न सिर्फ संवैधानिक पदों की गरिमा पर चोट करते है बल्कि संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति से सदन का भरोसा भी टूटता है और विपक्ष राज्यसभा के सभापति के विरुद्ध पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश करने को विवश होते है। लोकतांत्रिक संस्थाओं के ऐसे संवैधानिक पदों के प्रति अपेक्षित निष्पक्षता का दरकता भरोसा एवं टूटती मर्यादायें चिंताजनक है ।

प्रधानमंत्री कांग्रेस के राज में विपक्ष की सरकारों के साथ व्यवहार पर जब अंगुली उठा रहे थे, तब भूल गए कि आज विपक्ष दलों की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकारों को राजनीतिक दलों की तोड़-फोड़ जैसे घोर अलोकतांत्रिक तरीकों से विपक्षी सरकारें गिराने का नंगा नाच कांग्रेस शासित कथित 55 साल के राज में कभी नहीं देखा गया। एक दौर वह भी था जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने वाजपेयी के नेतृत्व में जनसंघ संसदीय दल के चार सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल की संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग मानते हुए संसद का विशेष सत्र 8 नवंबर को बुलाया, जबकि युद्ध अभी भी जारी था और चीनी भारतीय क्षेत्रों में आगे बढ़ रहे थे। उस समय वाजपेयी 36 वर्ष क युवा थे, और नेहरू की उम्र उनसे ठीक दोगुनी यानी 72 वर्ष थी। यही नहीं संसद में वाजपेयी की पार्टी सबसे छोटी पार्टियों में से एक थी और नेहरू सरकार को दो-तिहाई बहुमत प्राप्त था।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यह भी कहा कि कांग्रेस ने करीब छह दशक में 75 बार संविधान बदला गया। वॉट्सअप यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट किसी साधारण व्यक्ति ने यह कहा होता तो बात समझ आती, पर देश के प्रधानमंत्री के मुख से यह बात सुनकर दुखद आश्चर्य हुआ। क्या देश के प्रधानमंत्री इतनी सी बात भी नहीं जानते कि संविधान संशोधन और संविधान बदलना दो अलग बातें हैं? समय की मांग के मुताबिक संशोधन प्रक्रिया से संविधान का सतत विकास होता है और इसके लिए संविधान का अनुच्छेद 368 में संसद को इसमें संशोधन करने का अधिकार भी देता है। संविधान के मूल ढांचें में परिवर्तन को संविधान बदलना कहते है, जिसके लिये लोग ‘चार सौ पार’ मांगते हैं। भारत की जनता ने जहाँ भाजपा 400 पार के नारे पर साधारण बहुमत से भी दूर कर दिया, पर उसी जनता ने बिना 400 पार के नारे के 1985 में श्री राजीव गाँधी को 404 सीटें दे दी थी। राजीव गाँधी ने तब सविधान नहीं बदला, बल्कि पंचायती राज जैसे महत्वपूर्ण संशोधन के साथ संविधान के लोकतांत्रिक मूल्यों की नींव और मजबूत की थी।

नेहरू-इंदिरा द्वारा संविधान संशोधनों का सच

हमारे प्रधानमत्री का भाषण हो और उसमे पंडित नेहरू न हो ऐसा बड़ा विरले ही होता है। इस बार उन्होंने पंडित नेहरू की चिट्ठी का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देश के सभी मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा था। उनके अनुसार पत्र में कहा गया था, ‘स्थिति अब असहनीय हो गई है। हमें इसका समाधान खोजना होगा, भले ही इसके लिए संविधान बदलना पड़े।’ हालाँकि मैंने जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड द्वारा प्रकाशित मुख्यमंत्रियों को पत्र, खंड 2 (नेहरू, जवाहरलाल, 1889-1964, प्रकाशन तिथि 1986, विषय हिंद स्वराज, नेहरू पत्र) उस पत्र खोजने की कोशिश की। पर पत्र संख्या 46 (पृष्ठ 382) और 47 (पृष्ठ 391) में पहले संशोधन मुद्दे पर चर्चा तो की गई है, लेकिन मैं उस विशिष्ट पंक्ति को नहीं खोज पाई जिसका प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में उल्लेख किया था। अब प्रधानमंत्री ने जिस चिट्टी का जिक्र किया, उसे अगर मान भी लें तो भी वो बड़ी ही चालाकी से बात के सन्दर्भ का जिक्र दबा गए। उनकी अधूरी कहानी का अगला अध्याय यह है कि संविधान के लागू होने होने के कुछ महीनों के अंदर ही नए संविधान का हवाला देते हुए ज़मीदारों ने बार-बार केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को अदालत के कटघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया। संविधान लागू होने के 14 महीनों के अंदर ही अदालतों ने सरकार के ख़िलाफ़ कई फ़ैसले सुना दिए थे। वस्तुतः यह बात अगर कही भी गयी, तो तत्कालीन परिस्थिति में कही गयी और प्रथम संविधान संशोधन 31 (क) व 31(ख) पंडित जवाहरलाल नेहरू सरकार द्वारा जमींदारी प्रथा उन्मूलन के विरोध को समाप्त करने तथा भूमि संबंधी सुधार में आने वाली अड़चनों को दूर करने हेतु किया गया। क्या जमींदारी प्रथा के उन्मूलन को वैधानिकता प्रदान कर देश के आम नागरिक को अधिकार देना प्रधानमंत्री की नज़रों में गलत कदम था? अनुच्छेद 15(4) को जोड़कर सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े लोगो के सम्बन्ध में विशेष कानून निर्माण हेतु राज्य को अधिकार दिया जाना क्या संविधान की सामाजिक न्याय व बराबरी के प्रति प्रतिबद्धता को नहीं दर्शाता है? प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा कि इसी सविधान की देन है कि वे प्रधानमंत्री हैं और यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि गरीबों, पिछड़ों, असशक्त जनता के अधिकारों को बचाये रखने के लिए व संविधान के लोकतान्त्रिक व समावेशी मूल्यों को मजबूत करने के लिए तत्कालीन सरकारों ने आवश्यक संशोधन किये। इसीलिए जो भारतीय संविधान को मानते हैं वे जवाहर लाल नेहरू को माने बगैर नही रह सकते, और जो नेहरू का विरोध करते है वे संविधान को मानने का सिर्फ ढोंग करते है।

जब पत्र का जिक्र चला है, तो एक पत्र महात्मा गांधी की हत्या के बाद 8 जुलाई, 1948 को सरदार पटेल ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी लिखा था। जिसमे उन्होंने लिखा कि – “गांधी जी की हत्या का मामला अदालत में है, इसलिए आरएसएस और हिंदू महासभा का इसमें हाथ है या नहीं, इस बारे में मैं कुछ भी नहीं कहना चाहता। मगर मेरे पहले के बयान इस बात का समर्थन करते हैं कि इन दो संस्थाओं, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के कारण देश में ऐसा वातावरण बना, जिसकी वजह से ऐसी करुण घटना घटी।” गांधी की हत्या के करीब डेढ़ साल बाद तक संघ पर चले प्रतिबंध को सरदार पटेल ने कुछ शर्तों के साथ खत्म कर दिया। प्रोफेसर राजमोहन गांधी ने अपनी पुस्तक ‘सरदार: एक समर्पित जीवन’ में इन शर्तों का जिक्र किया है- “संघ अपना संविधान बनाए और उसे प्रकाशित करे। सांस्कृतिक गतिविधियों में ही संघ काम करे. हिंसा और गोपनीयता का त्याग करे। भारत के ध्वज और संविधान के प्रति वफ़ादार रहने की शपथ ले और लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाए।” ऐसे में सवाल यह भी है कि संघ ने इनमें से कितनी शर्तों का यथावत पालन किया है, यह देखने के लिए “यदि” सरदार जिंदा होते तो क्या करते?

प्रधानमंत्री ने आपातकाल की भी बात की, पर आप यह भूल गए कि भारत के संविधान में 26वें संशोधन के ज़रिए, साल 1971 में ‘प्रिवी पर्स’ को खत्म कर राजशाही की आखरी निशानी को धवस्त करने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री शहीद इंदिरा गांधी ही थी। आपातकाल समाप्त कर फिर से चुनाव करने का निर्णय भी तत्कालीन प्रधानमंत्री शहीद इंदिरा गांधी का ही था। उन्होंने आपातकाल के बाद चुनावी हार को भी गरिमापूर्वक स्वीकार किया। पंडित नेहरू ने, या इंदिरा गांधी ने या राजीव गांधी ने संसद में प्रचंड बहुमत रखते हुए भी कभी विपक्षी दलों से देश को मुक्त करने की मंशा रखने वाला “कांग्रेस मुक्त भारत जैसा” घोर अलोकतांत्रिक नारा नहीं दिया। क्यूंकि विपक्ष के बिना लोकतंत्र नहीं, सिर्फ और सिर्फ तानाशाही ही हो सकती है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 42वां संविधान संशोधन, जिसके तहत प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द जोड़े गए, विगत कुछ वर्षों में सबसे विवादास्पद रहा। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवादी शब्द को निरसित करने की याचिकाओं को खारिज करने के फैसले एवं उसके साथ संविधान को लेकर बुनियादी महत्व की टिप्पणियों ने इस अनावशयक विवाद को विराम दे दिया है। बेशक फैसले से संविधान की दार्शनिकता के प्रति आज तक की अपनी राजनीति शास्त्रीय समझ एवं विश्वास की पुष्टि हुई है कि इस संविधान में धर्मनिरपेक्षता, उसका मूल ढांचा है, जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों के मुताबिक अपरिवर्तनीय है और लोकतंत्र के साथ साथ समाजवाद के अस्तित्व का एकमात्र अर्थ यही है कि हमारे संवैधानिक लोकतंत्र की शासन व्यवस्था एक लोक कल्याणकारी राज्य व्यवस्था है।

2008 में भी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति आर. वी. रविचन्द्रन एवं न्यायमूर्ति जे. एम. पांचाल की पीठ ने एक गैर-सरकारी संगठन की उस मांग को खारिज कर दिया था, जिसमें चाहा गया था कि जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 29 ए(5) से समाजवाद के प्रति निष्ठा की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया जाए। न्यायालय ने तब भी अपने फैसले में कहा कि समाजवाद को वामपंथ की सीमित परिभाषा में रखकर नहीं देखना चाहिए, यह लोकतंत्र का एक पहलू है जो आम लोगों की भलाई से जुड़ा है। सर्वोच्च न्ययायलय के फैसले से संविधान के इन मूल संस्कारों पर सवालिया निशान का स्याह साया फैलाते रहने वाली वह समूची सोच एवं विभाजनकारी विचारधारा फिर से खारिज हुई है, जो डंके की चोट पर धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद को हमारे लोकतंत्र में गाली जैसा अवांछनीय विचार बताने के साथ साथ विविधता से युक्त भारत में समावेशी राष्ट्रवाद के स्थापित स्वरूप को नकारते हुए धर्म विशेष के वर्चस्व को ही नहीं, बल्कि पदपादशाही के राष्ट्र निर्माण की वकालत करती रही है।

शपथ लेते हुए बाबा साहेब डा.अम्बेडकर, सामने प्रधानमंत्री नेहरू एवं शपथ दिलाते डा.राजेंद्र प्रसाद

आज जब हम संविधान की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, तो हमें खुद से पूछना चाहिए कि क्या 1. हम संविधान की प्रस्तावना में निहित सिद्धांतों और मूल्यों का अक्षरशः पालन करते हैं 2. क्या हम संविधान के विभिन्न प्रावधानों का ईमानदारी से पालन कर रहे हैं 3. संविधान द्वारा सृजित पदों के बारे में क्या? क्या वे सभी संविधान में वर्णित अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रहे हैं? और 4. महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों से जिन प्रथाओं का पालन करने की अपेक्षा की जाती है, उनके बारे में क्या? इस सवालों का निष्पक्ष जवाब ही सविधाननिर्मातों को सच्ची श्रद्धांजलि व सावधानिक मूल्यों के लिए सच्ची निष्ठा व प्रतिबद्धता होगी।

साथ ही हमें नवंबर, 1949 को संविधान सभा में डॉ अंबेडकर ने कहा इस बात को आत्मसात करना होगा, “26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे। हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हम कब तक विरोधाभासों का यह जीवन जीते रहेंगे? हम कब तक अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम इसे लंबे समय तक नकारते रहे, तो हम ऐसा केवल अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डालकर करेंगे। हमें इस विरोधाभास को जल्द से जल्द खत्म करना होगा अन्यथा असमानता से पीड़ित लोग राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को नष्ट कर देंगे जिसे इस सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।”
(यह आलेख the Mooknayak और स्त्रीकाल पर संयुक्त रूप से प्रकाशित है)

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ISSN 2394-093X
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