नीची जाति
गांव में जहाँ मेरा घर था वहाँ मुसलमान भी रहते थे। हिंदूओं मे सवर्ण जातियां हमें, हमेशा घृणा और तिरस्कार की नजर से ही देखते थे सो मुसलमानों से प्यार होने लगा। वे लोग अच्छी तरह बात करते थे। थोड़ा बहुत लगाव भी था उनमें हमारे लिए।
धीरे-धीरे बड़ा हुआ। पढ़ा-लिखा भी और नौकरी लगी दिल्ली में। जिस ऑफिस में काम करता था वहाँ सवर्णों का वर्चस्व था। वे मुझे पीठ पीछे चमार या चमट्टा ही कहते थे। चूंकि मैं अच्छे पद पर था इसलिए मुँह पर कहने का साहस उनमें नहीं था। मेरा पीउन भी समाज में हाशिए पर फेंका गया व्यक्ति था सो मेरी पीठ पीछे होने वाली बातों को समय मिलने पर बता देता था। सवर्णों के मन में अगर मेरे लिए घृणा और द्वेष था तो प्यार तो मेरे मन में भी नहीं था उनके लिए।
मेरे ऑफिस में ही अकरम भाईजान भी काम करते थे। मुझसे जूनियर थे और उम्रदराज भी। मुझे बहुत मान देते थे। उनसे मुझे लगाव हो गया। मुसलमानों के साथ गांववाला प्यार याद आता उन्हें देखकर।
एक दिन वे मुझे अपने घर ले गए। अपने अब्बू और अम्मी से मिलवाया। मुझे अच्छा लगा।
फिर वे घर में अंदर चले गए यह कहकर कि अभी आता हूँ तब तक मैं उनके अब्बू से बात करूं।
उनके अब्बू मुझसे बहुत प्यार से बातें करते रहे और बातों ही बातों में मुझसे उन्होंने पूछा, ‘आप नाम के आगे कुछ नहीं लगाते.. मसलन शर्मा, वर्मा, चौहान, श्रीवास्तव’।
‘जी नहीं।’
‘आप हिन्दुओं में नीची जातियों से हैं क्या।’ उन्होंने एक ही सांस में पूछ लिया था।
‘मैं नीची जातियों में से हूँ या नहीं, ये दीगर सवाल है बाबूजी लेकिन क्या मुसलमान अर्थात् आप भी मुझे नीची जाति का मानते हैं यह जरूरी सवाल है।’ मैंने पूछा था अकरम के अब्बू से तो वे कुछ नहीं बता पा रहे थे।
लूडो
उन दिनों ऑफिस नहीं जाते थे वे दोनों और न ही उनके बच्चे अपने-अपने स्कूल जाते। करोना काल था। खाली समय में वे चारों लूडो खेला करते। सुमद्रा अपने पति और बच्चों से रोज जीतती। बच्चे तो मजे लेते लेकिन सुमद्रा का पति उखड़ जाता। कई बार कहता, ‘हर रोज तुम्हीं कैसे जीत जाती हो। कहीं बेईमानी तो नहीं कर लेती।’
‘ हे सुनो, हम औरतें बेईमान नहीं होती। बेईमान तो तु….म….लोग.।’ मजाक-मजाक में पुरुष का यथार्थ परोस देती थी सुमद्रा अपने पति से। सुमद्रा का पति तिलमिला जाता। सुमद्रा सब समझ जाती। फिर उसने एक तरीका निकाला। वह जानबूझकर गलत चालें चलने लगी और उसका पति जीतने लगा। स्थिति यहाँ तक आयी कि वह बच्चों से भी हारने लगी। हारना ही तो स्त्री ने अपनी नियति बना ली है। उसका पति अब बहुत खुश रहता। वह, उसे देखकर कई बार सोचती, ‘ये खुश हैं इससे ज्यादा मुझे और क्या चाहिए।’
तभी……
तभी एक दिन, सुमद्रा के पति ने सुमद्रा से पूछ ही लिया था ‘क्या बात है आजकल तो तुम रोज ही हार जाती हो, लगता है……… लूडो खेलना भूल गई हो। मुझे देखो मैं रोज जीतता हूँ।’
‘ और मुझे जो लगता है वह यह है कि अगर ज्यादा दिन तक मैं जीतती रहती तो लूडो तो मैं जीत लेती लेकिन बहुत संभव है कि तुम्हें हार जाती।’ न जाने कब उसके मुंह से निकल गया था।
जहर की पौध
चुन्नू अपने मम्मी पापा के साथ जब माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए गया तो बहुत खुश था। लेकिन जब वहाँ जाकर देखा कि मंदिर तो बहुत ऊँचाई पर है तो थोड़ा सा दुखी हुआ। चुन्नू के पापा मुकेश शर्मा ने जब अपने चुन्नू को निराश देखा तो कहा, ‘कोई बात नहीं चुन्नू…… हम, तुम्हें पिट्ठू पर बैठाकर ऊपर ले चलेंगे और माता के दर्शन करवाएंगे।’ चुन्नू खुश हो गया। तभी उसके पापा ने पिट्ठू को बुलाया। पिट्ठू एक मुसलमान था। चुन्नू के पापा ने उससे मोलभाव किया तो बात आठ सौ रुपए में बन गई अर्थात् चुन्नू को पिट्ठू ऊपर पहाड़ी पर ले जाएगा और लाएगा।
पिट्ठू बहुत ही विनम्र और सज्जन था। जब चुन्नू के पापा ने पिट्ठू के कंधों पर बैठने के लिए चुन्नू से कहा तो पहले तो चुन्नू ने नानुकुर की बाद में रोने लगा।
पिट्ठू सहम गया और उसने चुन्नू से पूछा, ‘क्यों बेटा, मुझसे कैसा डर। मैं आपको बिल्कुल परेशान नहीं होने दूंगा। तुम मुझे घोड़ा-घोड़ा कहना और मैं दौड़ता हुआ चलूंगा।’
लेकिन चुन्नू पिट्ठू के कंधे पर बैठने को बिल्कुल राजी नहीं हुआ बल्कि रोने और लगा।
चुन्नू के मम्मी पापा परेशान होने लगे। भीड़ इकट्ठी हो गई थी।
चुन्नू को चुप करते हुए चुन्नू के पापा ने बहुत प्यार से जब चुन्नू से कारण पूछा तो चुन्नू ने बताया, ‘पापा ये पिट्ठू आतंकवादी है….ये……..ये न………पापा……..ये मुसलमान है……….सब मुसलमान आतंकवादी होते हैं………ये पाजामा भी ऊँचा सा पहने है…………..पापा………..पापा….. इसके पास जरूर कहीं न कहीं वेपन भी होगा। ये मुझे रास्ते में मार देगा।’
पिट्ठू और जुड़ आई भीड़ सन्न रह गई थी चुन्नू की बात सुनकर। मासूम बच्चा इतनी गहरी बात कैसे जानता है। भीड़ में से निकलकर एक महिला ने चुन्नू से आखिरकार पूछ ही लिया, “बाबू, आपको ये बातें किसने बताई।”
चुन्नू ने अपने पापा अर्थात् मुकेश शर्मा की ओर अंगुली उठा दी थी।
शर्म
लड़की रोज कॉलेज जाती और अपने घर लौटकर आती। लड़की पढ़ने में जितनी होशियार और बुद्धिमान थी उससे भी ज्यादा सुंदर थी। गांव था इसलिए दबंगई भी चरम पर थी। सो कुछ दबंग लड़कों की नजर में चढ़ गई। लड़कों ने पहले तो नाजायज़ कोशिश की लेकिन जब दाल न गली तो अपने असली रूप में आ गए। और एक दिन कॉलेज से लौटते समय गोधूली के वक्त लड़की को पकड़ लिया और सभी ने मिलकर उसका सामूहिक बलात्कार किया। बाद में उसे छोड़कर भाग गए।
लड़की ने हिम्मत की और अपने घर लौट आई। पूरी बात अपने परिवार-वालों को बताई। परिवार-वालों ने थाने में रिपोर्ट लिखवाई।
मीडिया वालों को पता चला तो एक मीडियाकर्मी भी आ धमकी और लड़की से बोली, ‘एक बाइट दे दो।’ लड़की ने हाँ में सिर हिला दिया था।
मीडियाकर्मी ने लड़की की पहचान छुपाने के लिए उसे अपना स्कार्फ दे दिया जिसे वह अपने गले में लटकाए हुए थी।
लड़की ने पूछा, ‘ये क्यों।’
‘ इसे अपने चेहरे पर डाल लो या लपेट लो ताकि लोग आपको पहचान न पाएं। आपको भी शर्म न महशूश हो।’ मीडियाकर्मी का तर्क था।
लड़की ने स्कार्फ गोल घुमाकर हवा में लहरा दिया और बोली थी, ‘मैं ऐसे ही इंटरव्यू दूंगी। रही बात शर्म की तो शर्म मुझे नहीं बलात्कारियों को आनी चाहिए।’
और उसने चेहरे को माइक के सामने कर दिया था।
गद्दार
भंते जी अपनी पूरी अश्वशक्ति से चीख रहे थे, ‘इन हिंदुओं ने हमारे मठों को ढहाया है। हमारे तथागत की मूर्तियों को तोड़ा है। ये विनाशक हैं। इन्हें तो सबक सिखाना ही होगा। इन्हें हम बौद्ध अनुयायी कभी स्वीकार नहीं करेंगे। ये हमारे दुश्मन हैं। वक्त आ गया है
इनसे सीधे और आमने-सामने लड़ा जाए।’ और लगभग हाँफते हुए शांत हो गए थे।
ये एक सादा समारोह था। अन्य लोगों के बोलने के पश्चात भंते जी बोल रहे थे। मैं भी इस कार्यक्रम का हिस्सा था। नहीं रहा गया मुझसे सो मैं बोला था, ‘भंते जी।’
‘जी’
‘एक बात पूछनी थी आपसे।’
‘निःसंदेह पूछो।’ वे बोले थे।
‘क्या भगवान बुद्ध ने कभी किसी को बुरा कहा। हिंसा, युद्ध की बात कही। किसी का अपमान किया। मुझे लगता है आपको भी नहीं करनी चाहिए। आपको मैत्री और शांति फैलानी चाहिए और तथागत को हर घर- हर देहरी तक ले जाना चाहिए।’ जितना जानता था सो मैंने कह दिया था।
भंते जी ने पहले तो मुझे घूरा फिर लोगों की ओर देखा, फिर चीखे थे, ‘ये आदमी तुम्हारे समाज का नहीं हो सकता। ये गद्दार है। इसे निकालो।’
इसके पहले कि लोग मुझे भगाते, मैं वहाँ से चल दिया था।
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डॉ0 पूरन सिंह
संप्रति : भारत सरकार में संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत
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