2016 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक सभागार में ‘स्त्रीकाल’ ने वरिष्ठ अम्बेडकरवादी लेखिका अनिता भारती को सावित्री बाई फुले वैचारिकी सम्मान से सम्मानित किया। उस दौरान अनिता जी ने मुझसे कहा था कि ‘ इन दिनों 3 जनवरी को सावित्रीबाई फुले के साथ फातिमा शेख की चर्चा शुरू हो जाती है। चर्चा करने वालों ने उनकी जन्म तिथि पर भी शोध करना ठीक नहीं समझा। ये वे लोग हैं, जिन्होंने अकेले सावित्री बाई फुले को कभी याद नहीं किया। ‘
फातिमा शेख : एक पोस्ट ट्रुथ
फातिमा शेख सावित्रीबाई फुले द्वारा महात्मा फुले को लिखे एक पत्र में उल्लिखित हैं, एक वाक्य में। 1856 में माहत्मा फुले को लिखे अपने पत्र में ‘फातिमा’ का जिक्र किया है उन्होंने। लगभग एक दशक से फातिमा शेख की जयंती सावित्री बाई फुले की जयंती, 3 जनवरी, के साथ मनाई जाने लगी थी, या वे इसी दिन याद की जाने लगी थीं। इसे लेकर सवाल भी एक छोटे दायरे में उठने लगे कि फातिमा की जयंती उनके अपने जन्मदिन पर क्यों नहीं? कोई उनके जन्मदिन के ऊपर कोई शोध क्यों नहीं करता। जल्द ही दो से तीन साल के भीतर फातिमा शेख का जन्मदिन 9 जनवरी और जन्मवर्ष 1831 निर्धारित हो गया। 1831 ही सावित्रीबाई फुले का जन्मवर्ष है। यह जन्म वर्ष और एक इंतकाल का दिनांक और वर्ष भी विकिपीडिया और गूगल में दर्ज हो गया। गूगल ने 2022 में उन्हें अपना डूडल भी बनाया। उनके 9 जनवरी वाले जन्मदिन पर।
यह सब संघ परिवार के बढ़ते प्रभाव के कथित जवाब के लिए किया गया -कथित ‘दलित-मुस्लिम’ एकता के लिए। 20वीं सदी के तीसरे दशक में सावित्रीबाई फुले के साथ उनकी एक कथित फोटो एक पत्रिका में छपी थी, वह भी उनके नाम के साथ स्थापित हो गया। 2022 में 9 जनवरी को जब गूगल ने डूडल बनाया तो सत्यशोधक आंदोलन और महात्मा फुले एवं सावित्रीबाई फुले काल के अधिकारी विद्वान हरी नरके ने आपत्ति की और अपने सोशल मीडिया पेज पर व्यंग्य्त्मक टिप्पणी की कि ‘ मजा आ गया। आज गूगल ने अपना डूडल फातिमा शेख के नाम पर बनाया।’ उन्होंने सवाल किया कि ‘लेकिन यह जन्मदिन किसने खोजा ? किस दतस्तावेज में यह लिखा है ? ‘ उसके पूर्व वरिष्ठ दलित लेखिका अनिता भारती ने भी द प्रिंट को दिए इंटरव्यू में जन्मदिन पर सार्वजनिक सवाल उठाया था।
इस वर्ष 8 जनवरी को अनिता भारती ने अपने फेसबुक पेज पर फातिमा शेख की तस्वीर को शगुना बाई की तस्वीर बताई। 9 जनवरी को दिलीप मंडल ने 2019 में द प्रिंट के लिए लिए गए अपने इंटरव्यू के हवाले से अनिता भारती को कोट कर फातिमा शेख को अपना क्रिएशन बता दिया। बहुजन स्पेस पर काम करते हुए सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर दिलीप मंडल भाजपा सरकार से वेतन और सुविधाएं लेकर घोर साम्प्रदायिक खेमे में जाने के बाद इन दिनों राजनीति के हेमंत बिस्वा सरमा ( आसाम के मुख्यमंत्री) जैसी गतिविधियां कर रहे हैं। इसके बाद इस मुद्दे पर जाहिर है कि व्यापक चर्चा हो गई और दिलीप मंडल की ‘झूठ’ को पर्दाफाश किया गया। अनिता भारती ने दिलीप मंडल के साम्प्रदायिक इरादे से खुद को अलग बताते हुए एक नोट जारी किया लेकिन इतिहास बनते मिथ के खिलाफ अपने स्टैंड पर कायम रहीं।
दिलीप हालांकि अर्द्ध सत्य बोल रहे थे। यह सच है कि फातिमा की चर्चा उनीसवीं सदी के तीसरे दशक से हो रही थी। लेकिन किसी भी स्रोत से उनकी कोई जन्मतिथि और उनकी वास्तविक तस्वीर सामने नहीं आई है अबतक। उनके योगदानों का कोई प्राथमिक प्रमाण नहीं है। उस दौर की पढ़ी लिखी स्त्रियां लेखन कर रही थीं, कोई लेखन भी सामने नहीं आया है, जबकि सावित्री बाई फुले के स्कूल में पढ़ने वाली दलित छात्रा मुक्ता सालवे का एक लेख मिलता है। दो तीन दिनों तक चली बहस में इंडियन एक्सप्रेस, बीबीसी हिंदी या अन्य स्रोतों की बाढ़ से आ गई। कोई गूगल का डूडल सामने ला रहा था, कोई एक-दो विश्ववविद्यालयों में किया गया रिसर्च। लेकिन सारी कवायदों के बाद
तय हुआ कि
1. फातिमा थीं लेकिन वे शेख थीं और उस्मान शेख परिवार की थीं, जहाँ सावित्रीबाई फुले ने आश्रय लिया था 11 दिनों तक ,यह पूरी तरह सिद्ध नहीं है।
2. फातिमा का फोटो अपने अंतिम और उपलब्ध पहले स्रोत में सावित्रीबाई फुले के ग्रुप फोटो से निर्धारित किया गया है। मूल फोटो में ग्रुप में से किसी का नाम नहीं था। यह सिद्ध किया जाना बाकी है कि वह फोटो फातिमा का ही है, या किसी और का। किसी और का होने पर ,उसे भी सिद्ध करना होगा कि किसी और का है। जैसे साड़ी पहनने के ढंग और आदि के आधार पर उनके मुसलमान होने पर कुछ लोग संदेह कर रहे हैं।
3. फातिमा की जन्मतिथि, माह और उनका निधन प्राथमिक स्रोत से सिद्ध नहीं है।
4. फातिमा पर लिखा गया है कुछ -कुछ लेकिन सबका आरम्भ और अंत सावित्री बाई फुले की एक पंक्ति है। शेष कल्पना और अफवाह है। यह प्रमाणिकता से तय किया जाना शेष है कि उनके जीवन काल में उन्होंने क्या-क्या योगदान किए।
5. उनके इंतकाल की तिथि ( 9 अक्टूबर 1900) भी प्रमाणित नहीं है। अभी खोजा जाना शेष है कि क्या वे सच में सावित्रीबाई फुले की मृत्यु के बाद तक थीं और यदि थीं तो इतनी महत्वपूर्ण सखी और शख्सियत ने उनके बारे में क्या कुछ लिखा या कहा?
6 . विश्वविद्यलयों में उनपर किये गए सारे शोध, जो सामने लाये जा रहे हैं पिछले 5-7 सालों के हैं।
फुले-अम्बेडकरवादी चिंताओं का सच होना
फातिमा शेख पर इतिहासकरों की राय बंटी हुई है। कुछ शोध और कुछ शोधपत्र बीएचयू और जामिया मिलिया इस्लामिया में हैं, जो पिछले 5 सालों में ही हुए हैं, जिनके पास भी कोई प्राथमिक आधार नहीं हैं, लेकिन पोस्ट ट्रुथ की रचना हो गई और फातिमा सावित्रीबाई फुले के साथ पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका के रूप में स्थापित होती गई हैं। पिछले 5 सालों में हुए शोधों या लिखे गए शोधपत्रों के आधार पर यह लेख लिखे जाने तक विकिपीडिया में फातिमा को लेकर की जा रही इंट्री के एडिट के खेल जारी हैं। शोधकर्ता स्वयं कह रहे हैं कि हमें कोई प्राथमिक स्रोत नहीं मिला। हद तो यह हो गई कि विकिपीडिया ने फातिमा शेख को मदरसों से पढ़ा हुआ बता दिया, जिसका संदर्भ जामिया मिलिया के एक शोधपत्र के कयास को बनाया गया। यह एक सत्य की तरह यदि स्थापित हुआ तो स्त्रीशिक्षा के लिए 1848 में सावित्रीबाई फुले द्वारा खोली गयी पहली ‘स्त्री पाठशाला’ के इतिहास को भी चुनौती मिल जायेगी। उनके द्वारा स्त्री शिक्षा की अलख का इतिहास ध्वस्त हो जायेगा। इस तरह बहुजन स्पेस का एक इतिहास ध्वस्त होगा और इतिहास का पोस्ट ट्रुथ सिद्ध करेगा कि भारत में स्त्री शिक्षा का केंद्र भारत के मदरसे रहे हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवादी धाराएं पहले से ही सिद्ध कर रही हैं कि भारत के गुरुकुलों में पढ़ी थीं वैदिक ऋषि गार्गी, लोपा, मुद्रा, घोषा, मैत्रेयी आदि।

वामपंथी विद्वान और आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने सावित्रीबाई फुले की जयंती 3 जनवरी को लिखा, ‘भगवती देवी को हम भूल गए !ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के चरित्र निर्माण में उनकी माँ की महत्वपूर्ण भूमिका थी।खासकर दया-भावना और गरीबों की सेवा के संस्कार उन्होंने अपनी माँ से ग्रहण किए।उनकी माँ का नाम भगवती देवी था।आमतौर पर विद्यासागर की चर्चा होती है लेकिन उनकी माँ की चर्चा नहीं होती,यहां तक कि सावित्रीबाई फुले को याद करते हैं लेकिन भगवती देवी को भूल जाते हैं। ‘ उसी समय सोशल मीडिया पर एक ‘कथित वामपंथी’ खेमे से महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले और बाबा साहेब आंबेडकर के योगदानों को खारिज करते हुए, उन्हें राष्ट्रविरोधी बताते हुए लेख और वीडियो घूमे। ये सारे प्रसंग अंततः बहुजन स्पेस के, फुले-अम्बेडकरी स्पेस के लोगों की चिंताओं के अनुरूप ही घटित होते गए हैं। वाम और दक्षिण खेमे ने मिलकर परम्परावाद को ही पुष्ट किया। भारत की स्त्री शिक्षा को कोई मदरसों तक पहुंचा रहा है तो कोई गुरुकुलों तक। सावित्रीबाई फुले के श्रेय को छीनने की यह कोशिश बड़ी मुश्किल से खड़े बहुजन प्रतीकों को ध्वस्त कर देता है।
तो क्या एक मिथ के बरक्स सच कहना साम्प्रदायिकता है ?
बहुजन वृत्त से देश की नायिका,हम सबकी माई, शिक्षिका सावित्रीबाई क्यों नहीं पूरे भारत की नायिका हो सकती है? एक वास्तविक व्यक्तित्व के साथ या बरक्स एक काल्पनिक कथा रचकर, जो महज एक वाक्य के रेफरेंस से रची गई है, एक मुस्लिम महिला शिक्षिका खोजना क्यों जरूरी है? क्यों उन्हें भिड़ाना? यह साम्प्रदायिकता है, जो लोग ऐसा कर रहे, कर पाने में सफल हो रहे हैं, वे साम्प्रदायिकता को ही बढ़ावा दे रहे हैं। संघ परिवार 6 दिसंबर को विजय दिवस मनाता रहा, तो दूसरे काला दिवस, वह बाबा साहेब के निर्वाण का दिवस है। यह एक सिलसिला है, प्रवृत्ति, जो दोनों खेमे में है, और उसका उद्भव व प्रेरक ब्राह्मणवाद है।
साम्प्रदायिकता का एक ही इलाज है। नायिका सबकी हो, नायक सबका हो, सावित्री सबकी हों, तो बेगम एजाज रसूल ( संविधान सभा में सदस्य ) या इकबाल सबके हों। और संसदीय राजनीति में नेता अपना हो, अपनी जमात का। यानी मुसलमानों का नायक सबका नायक, बहुजन नायक सबका नायक, लेकिन वर्तमान संसदीय राजनीति में मुसलमानों का अपना नेता हो। उसका अपना नेतृत्व हो। प्रतिनिधित्व हो। जो घट रहा है। सेक्यूलर जीवन होता है हर संभव स्पेस पर अपने से दूसरे/other, मुसलमानों को शामिल करने से। अपने विभागों में जहां आप नियुक्तियां प्राभावित करते हैं वहां उन्हें लाएं, अपने एनजीओ में, अपने द्वारा प्रभावित शोध संस्थानों में,अपने दैनंदिन में लाएं। सवाल है कि कथित ‘दलित -मुस्लिम एकता लक्ष्य’ के लोग कंपार्टमेंट बना रहे हैं कि सेक्युलरिज्म कर रहे हैं। पहली शिक्षिका, पहली मुस्लिम शिक्षिका, फिर पहली का कई और सिलसिला बनता है, बनेगा।
पोस्ट ट्रुथ से मुकाबला और फासीवाद का डर
फासीवाद का एक बड़ा हथियार पोस्ट ट्रुथ है। उससे समय रहते मुकाबला होना चाहिए। फातिमा शेख पर बायनरी में संघर्षों के बीच अनिता भारती या हम जैसे लोग जो वास्तविक चिंता कर रहे हैं उनके सामने दुविधा है कि इस वक्त सच कहा जाये या नहीं। सच कहने का कोई वक्त नहीं होता। फासीवाद चुप्पियों से ही आता है। हमारे ही समय में कोई इतिहास भ्रामक रूप ले रहा है कहना पड़ेगा। संघ परिवार और भाजपा के तंत्र ने पोस्ट ट्रुथ के इसी षड्यंत्र के साथ तो अयोध्या परिघटना को खड़ा किया या बाबा साहेब जैसे हिंदुत्व विरोधी व्यक्तित्व को भी अपने पाले में लेने या उनकी विरासत को कुंद करने की कोशिश की। दूसरी ओर जो कथित लिबरल धारा है वह भी इसी पोस्ट ट्रुथ के खेल में शामिल है।
सवाल उठता है कि जो जमातें दशकों से, फुले-अंबेडकर इतिहास पर चुप थीं, वह अचानक से भ्रमपूर्ण माहौल बनाकर शोर कर रही हैं और जिन्होंने वास्तविक इतिहास का उत्खनन किया, उनसे चुप्पी मांग रही हैं। बहुजन धारा ‘मुसलमान और हिंदू युग्म में नहीं सोचता। पसमांदा और अशरफ की पदावलियों में सोचता है, या बहुजन और सवर्ण,दलित और सवर्ण। किसी सांप्रदायिक उन्मादी हेमंत बिस्व सरमा या दिलीप मंडल के उन्मादी इरादे का जवाब सच की चुप्पी नहीं, सच को उसकी सम्पूर्ण जटिलता के साथ कहने में है। कई बार वह जटिल पक्ष ही सरल पक्ष होता है।
यह आलेख Theमूकनायक में प्रकाशित है। साभार