
साभार गूगल
(1)कुछ वैसा ही होगा
आग की लपटों
और खंडहरों मे तब्दील होते घरों के बीच
बंकरों में छुपकर बचने की जद्दोजहद के बाद भी
नहीं टूटती उम्मीदों की वजह से
तनकर खड़ हो जाते हैं
बख्तरबंद वाहनों के सामने
ध्वस्त हो जाने के बाद भी
फिर से बसे हैं अनगिनत शहर
बचे रह गए हैं पेड़-पर्वत और
बची रह गई है कुछ फूलों की रंगत भी
हिरोशिमा पर बमबारी के बाद भी
बची रह गई थी दुनिया
फिर से आबाद होने के लिए
कुछ वैसा ही होगा
पर साम्राज्यवाद के खत्म होने और
मनुष्यता और प्रेम के बचे होने
पर लगे प्रश्न चिन्हों के साथ ?
(संदर्भ-रूस यूक्रेन युद्ध)
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(2) युद्ध और औरतें
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गाजापट्टी में बासठ फ़ीसदी बच्चे और औरते मरीं
युद्ध बच्चो और औरतों ने शुरु नही किया था
बच्चे तो मांओं के ईद- गिर्द मडरा रहे होंगे
मांएं युद्ध के बीच भी बच्चों और मर्दों के भूख मिटाने की चिंता मे भयातुर जी रहीं होगीं
ये उन मर्दो में निश्चिंत ही नही होंगी , जिन्होने राकेट दागे
ये उनमे भी नही थी जिन्होने शत्रुओं की बस्ती में घुसकर नरसंहार किया
जिन्होने शत्रु पक्ष की औरतों को टार्गेट किया
उन्हें निर्वस्त्र किया और उनके सर को धड़ से अलग किया
दोनो तरफ सर्वाधिक विनाश उनका ही होता है
दोनो विश्व युद्धों में सामूहिक बलात्कार और हत्या से लेकर
तालीबानी बर्बरता और म्यांमार में सैन्य अत्याचार तक
सब जगह वे आसान टार्गेट होती हैं
और बच्चो का तो कोई नही बचता,
बेसहारा वे शरणार्थी बन असमय बूढ़े हो जाते है।
क्यों और कबतक औरतें और बच्चे निस्सहाय रहेंगे
कबतक युद्धों में नोचे -खसोंटे जाते रहेगे
(आखिर कब तक…)
उन पर रहम करो
उनसे लड़ो जिनने तुमपर बम बरसाए हैं
रॉकेट दागे हैं , और तुम्हारा सर कलम किया है।
(संदर्भ – इजराइल और फिलिस्तीन युद्ध)
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(3 ) मुझे चिड़िया बनना था
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मुझे पंखों वाली चिड़िया बनना था
पर बना दिया गया आदमी
चिड़िया बनता तो सीमाएं नहीं रहती
उड़ जाता दूर ,बहुत दूर
अपने गांव-शहर से दूर
अपने प्रदेश से भी दूर
चला जाता दूसरे देश भी
सरहद क्या कर लेता मेरा ?
मैं नदी नहीं बनता
जिसके निर्बाध बहने की इच्छा को
रोक दिया जाता बांध बनाकर
मैं घने उंचे पेड़-पर्वत बनकर भी
बाड़ लगाकर बाधित किया जा सकता था
और आदमी बनकर तो
वर्ण और संप्रदाय की जंजीरों में
जकड़ ही दिया जाता।
इसीलिए मुझे चिड़िया बनना था।
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(4)) देख सकूं होते यह सब
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सोचता हूं पानी बन जाउं
जिससे रह सकूं हर घर और देह में
और विचरण करूं नभ में बनकर मेघ
सोचता हूं बनूं आकाश
जिसमें उड़े पाखी निर्विघ्न
करते हुए कलरव और अट्टहास
हवा भी चाहता हूं बनना
जिसमें उड़े पतंग बच्चों की
और देखूं उनकी किलकारियां
पर धरती बनना भी ज़रूरी
जहां टिक सके पैर
और देख सकूं होते यहसब।
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(5) नियति
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हम मजमा जुटाते हैं
और दूसरों के मजमों में
हंगामा मचाते हैं
हम शब्द थूकते हैं
और अपने लिए उसे
घोंट भी लिया करते हैं।
हम जब नई लीक पर चलते हैं
तो खड़ होकर सशंकित
चली हुई लीकों को देखते भी हैं-
आज यही हमारी नियति है।

अनिल किशोर सहाय
दिनमान, वागर्थ , कथाक्रम, कृति बहुमत, समय सुरभि अनन्त, पाखी, सबलोग, ककसाड़, प्रेरणा अंशु, व्यंग्य यात्रा, प्रणाम पर्यटन, प्रभात खबर, हिन्दुस्तान, शुभम संदेश, दैनिक प्रदीप, लघुकथा कलश, पत्रकारिता बीते कल से आजतक – सहित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं ,लेख,संस्मरण,कहानी,लघुकथा ,व्यंग्य, प्रतिक्रिया आदि प्रकाशित। संपादन– “सप्तम स्वर, ” भागलपुर का सच ” “स्वर्ण तरंग ”
सम्प्रति – स्वतंत्र लेखन
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