दादी नानी की परीक्षा 

चित्र साभार गूगल

बच्चे भी कई प्रकार की आवाज़ें निकाल कर रोते हैं और हर बच्चे के रोने की अवाज उनकी माएँ बखूबी पहचानती है। यह मुझे इस बार  समझने का मौक़ा मिला। एक माँ की छटपटाहट ने तो मात्र एक घंटे में पेपर जमा करवा दिया। दूजे  माँ का भी लिखना डेढ़ घंटे में हड़बड़- हड़बड़ किसी तरह पूरा करके अपने नन्हे की ओर  दौड़ पड़ा। इन तमाम बातों को अपने अंदर  महसूसते हुए बतौर शिक्षक मुझे परीक्षा और इस व्यवस्था से घृणा बढ़ती जा रही थी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू हो चुका था । 2021 के रजिस्टर्ड विद्यार्थियों को 2025 में जेनेरिक की अतिरिक्त परीक्षाओं का एग्जाम लिखने का नोटिस आ चुका था।  जबकि इनके फाइनल रिज़ल्ट्स  कई महीने पीछे इनके हाथों में आ चुके थे। बहुत सारे विद्यार्थियों ने अपने वैवाहिक जीवन तक को साकार कर लिया था। ग्रामीण और कस्बाई इलाक़े में स्थित इस कॉलेज में ऐसे विद्यार्थी कई होते थे। कई विद्यार्थी तो अब मातृत्व का सुख भी भोग रही थीं। उन्हें क्या पता था कि ग्रेजुएट हो चुकने के बाद भी देश की शिक्षा नीतियों के तहत उनको फ़ाइनल रिज़ल्ट्स हाथ में होने के बाद भी एग्जाम्स के लिये बुलाया जा सकता है!  उनके नन्हे कॉलेज परिसर में, दादी नानी की गोद  में उफड़ते, कांदते रोते हुए अपनी माँओं की परीक्षाओं को कठिन बना रहे थे। उनके रोने की आवाज़ हर किसी को परेशान कर रही थी। मैंने  इनविजिलेटर होने के नाते परीक्षा में कोई बाधा उत्पन्न ना हो इसलिए विद्यार्थियों के हित  में उन्हें दूर ले जाने का आग्रह किया। गार्ड ने उन्हें खुले मैदान से दूर करते हुए गर्ल्स कॉमन रूम में बैठने का रास्ता दिखा दिया । मैंने ना चाहते हुए भी उनसे इस सर्द में धूप को छीनते  हुए उन्हें एक काल कोठरी में बैठवा दिया था। मुझे गिल्ट भी महसूस हो रहा था लेकिन मेरे लिये और परीक्षा देने वालों के लिए यही सही निर्णय था।

 उन नन्हों के रोने की आवाज़ें पूरी तरह से  तो कम नहीं हो सकी लेकिन कुछ कम ज़रूर हुई। बीच-बीच में नाना प्रकार की आवाज़ें लिए वह अपने माँ की चलती कलमों पर जल्द लिखने का दबाव बना रहे थे। दादी और नानी अपनी सुखी छातियों से लिपटाये इन नन्हों को अपना समग्र देने की चेष्टा कर  रही थी। फिर भी यह निरीह सी  नन्ही जानों को माँ के स्पर्श और जीवनामृत दूध के बिना चैन कहाँ? दादी नानी आपस में बातें करती हुई सुनाई पड़ती हैं – “ परीक्षा मात्र उनकी कहाँ? यह परीक्षा तो हम सबके बीच  है; तीन पीढ़ियाँ इस परीक्षा  में शामिल हैं (दादी,बहू, नाती) ! बिटिया, बहू जो भी अंदर में पेपर देने की कोशिश  कर रही उनका दिमाग़ लिखने में कम और अपने सुनने की सक्षमता को और गौर से सुनने में प्रायसरत दिखी। अपने नन्हों की बिलखने की अवाज उन्हें कितना ही पेपर लिखने दे रही होंगी यह एक मातृ हृदय ही समझ सकता  है। जब मैं एक अविवाहित को इन बच्चों की रूलायी गहरे  घाव और दर्द से भर रही थी तो उन माँओं का सोचो जरा जो इन्हें अपने खून से सींच कर उन्हें इस दुनिया में हज़ार दर्द सहकार दुनिया में लाती हैं। उनका हस्र तो जाने क्या ही हो रहा होगा?

बच्चे भी कई प्रकार की आवाज़ें निकाल कर रोते हैं और हर बच्चे के रोने की अवाज उनकी माएँ बखूबी पहचानती है। यह मुझे इस बार  समझने का मौक़ा मिला। एक माँ की छटपटाहट ने तो मात्र एक घंटे में पेपर जमा करवा दिया। दूजे  माँ का भी लिखना डेढ़ घंटे में हड़बड़- हड़बड़ किसी तरह पूरा करके अपने नन्हे की ओर  दौड़ पड़ा। इन तमाम बातों को अपने अंदर  महसूसते हुए बतौर शिक्षक मुझे परीक्षा और इस व्यवस्था से घृणा बढ़ती जा रही थी।

दूर झारखंड के सबसे बड़े डैम जिन्हें कभी ‘विकास का मंदिर’ कहा गया वहाँ पिकनिक मनाने वालों का ताँता और हाई बेस में बजते डीजे दिल की धड़कनों को कम्पित  कर डरा रहे थे। तनाव  परिवेश का, दिल और मस्तिष्क का, बढ़ता जा रहा था। परीक्षा का होना हर हाल में, हर परिस्थिति में अपनी उपयोगिता पर सवाल खड़े कर रहा था।

दूर कहीं कुछ गीत के बोल बज रहे थे-

 “ हम किस गली जा रहे हैं,

हम किस गली जा रहे हैं,

अपना कोई ठिकाना नहीं?

अपना कोई ठिकाना नहीं? ”

शिक्षा! रोज़गार! परिवार! मातृत्व! मानसिक हिंसा! बुजुर्ग! ध्वनि प्रदूषण! बड़े बांध! विस्थापन! अमानवीय तंत्र! आदि आदि। शब्दों के बादल गहरे घने और डरावने  बनते जा रहे थे। ‘ वर्ड क्लाउड ‘ की तरह सुगढ़, सुंदर  नहीं बल्कि बिखरा हुआ, छितराया हुआ, कुरूप। जिसे चाह कर भी संभालना मुश्किल।

दिमाग़ में  सब चीज़ों में  आपस में गुथमगुथा होना  प्रारंभ हो चुका था। और नानियाँ, दादियाँ कितने अपने अपने परीक्षाओं में पास हो सकी इसका मूल्यांकन किसके हिस्से था यह तय करना अभी भी बाक़ी था। एक तेज़ धमाका  बूम।।।।।।। एक शून्य में विस्तार लेती ‘स्तब्ध प्रश्चिह्न’ व  व्याकुलताएँ ।   ?????????

नीतिशा खलखो

विभागाध्यक्ष, बी एस के कॉलेज

मैथन,  धनबाद ,  बृहत झारखंड, 

(neetishakhalkho@gmail.com)

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