पूजा कुमारी
सारांश:-
हिंदी रंगमंच में स्त्री रंगकर्मी का आगमन 20वीं सदी के अंतिम चरण में हुआ। ‘देर आई पर दुरुस्त आई’ कहावत महिला रंगकर्मियों को चरित्रार्थ करता है। कला की अभिव्यक्ति में रंगमंच का स्थान उत्कृष्ट माना जाता है। उत्कृष्ट दृश्यात्मक कला प्रस्तुति में महिला रंगकर्मियों के द्वारा नए प्रयोग का लोहा सभी मानते हैं। तथाकथित नेपथ्य में जीवन निर्वाह करती स्त्री, अब रंगमंच पर अपनी कुशल बुद्धि का परिचय दे रही है। शुरुआत में रंगमंच पर महिलाओं का योगदान महज नृत्य, गान और संगीत तक ही सीमित था। समय के बदलते दौर को महिलाओं ने समझा और अपनी प्रतिभा का परिचय देना प्रारंभ किया। पितृसत्तात्मक व्यवस्था की कठपुतली के दायरे से बाहर निकलकर महिलाओं ने स्वयं के लिए नई जमीन तैयार किया। रंगमंच पर अभिनेत्री, नाटककार का सफर तय करते हुए वर्तमान में महिलाएं मंचसज्जा के प्रत्येक घटक निर्देशन, पटकथा लेखन और प्रोडक्शन का निर्वाह कुशलता पूर्वक कर रही है।
बीज शब्द :- रंगमंच, रंगकर्मी, निर्देशिका, मूर्त-अमूर्त, रंगसज्जा।
भूमिका
दृश्यात्मक कला प्रस्तुति हेतु एक विशेष क्षेत्र या स्थान को रंगमंच कहा जा सकता है। जहां मानव जीवन की गतिविधियों का पुनः क्रियात्मक रूप दिखाता है। वर्तमान में रंगमंच का परिष्कृत रूप हमारे समक्ष मौजूद है। आज इस विशेष स्थान को अनेक प्रकार के तकनीकी सुविधाओं के साथ सजाया जा रहा है। परंतु हम वैसी प्रत्येक स्थान को रंगमंच कह सकते हैं, जहां मानव गतिविधियों को कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। परंतु कला की गरिमा बनाए रखने के लिए इसकी सीमा तय की गई है। जिसे नाट्य प्रस्तुति के साथ देखा जा सकता है। जैसा कि हम सभी जानते है। नाटक और रंगमंच के बीच अत्यंत प्रगाढ़ संबंध स्थापित है। कोई भी नाटक रंगमंच पर मंचित हुए बिना अधूरा समझा जाता है। वैसे ही बिना नाटक का रंगमंच अस्तित्वहीन जान पड़ता है। रंगमंच और नाटक के अन्नोन्याश्रित संबंध को इंगित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं “रंगमंच पर अभिनीत होकर ही नाटक पूर्ण अभिव्यक्ति को प्राप्त हो सकता है। पुस्तकों में वह अंटता नहीं। नाटक का नाम सुनते ही स्वभावत: स्टेज का स्मरण हो आता है। इसलिए नाटककार और समालोचक दोनों के लिए स्टेज की जानकारी आवश्यक होती है।”¹
यह आलेख हिंदी रंगमंच में महिला रंगकर्मियों के योगदान के बारे में है। जिसे सदैव पुरुष अधिकृत सत्ता ने हाशिये पर रखा है। नाटक और रंगमंच की चली आ रही पुरुषत्व परंपरा को प्रश्नीकृत करती हुई कलविद् महिलाओं ने रंगमंच को विकासोन्मुख बनाया है। बहुमुखी प्रतिभा की धनी महिलाएं उम्दा अभिनेत्री और संवेदनशील नाटककार के साथ-साथ मंच सज्जा का संचालन भी कुशलतापूर्वक किया है। मंच सज्जा के अंतर्गत कलाप्रिय स्त्रियां प्रकाश योजना, ध्वनि योजना, मंच व्यवस्था, वेशभूषा इत्यादि रंगमांचीय तत्वों का सफल निर्वाह कर रही है। नाटक और रंगमंच को सार्थकता प्रदान करने वाला प्रमुख रंगकर्मी में निर्देशक या निर्देशिका होते हैं। सार्थकता की इस कड़ी में महिलाओं की भूमिका और योगदान पर यह शोध आलेख प्रकाश डालता है। अर्थात् निर्देशिका के रूप में मंच सज्जा में प्रस्तुत स्त्रियों की प्रतिभा का विवेचन।
निर्देशन कार्य
निर्देशन कार्य अमूर्त को मूर्त बनाने का द्योतक है। नाटककार द्वारा प्रस्तुत अमूर्त वस्तु यानी लिखित नाट्य प्रति को मूर्त बनाने का कार्य निर्देशक/निर्देशिका करते हैं। अर्थात अमूर्त नाट्यालेख को रंगालेख में परिवर्तित करना, निर्देशन का प्राथमिक कार्य है। रंगमंच विधान में सबसे क्लिष्ट कार्य निर्देशन का होता है। निर्देशक या निर्देशिका नाटक का प्रगाढ़ अध्ययन करने के बाद रंगमंच के अनुरूप नाटक के शब्दों के भीतर दृश्यबंध, रंगसज्जा, ध्वनि प्रभाव आदि रंगशिल्प के तत्व का संधान करता है। कभी-कभी निर्देशन कार्य में नाटककार द्वारा रचित नाट्यालेख को आवश्यकता अनुसार परिवर्तित भी कर दिता जाता है। यह परिवर्तन का सफल होना दर्शकगण पर निर्भर करता है। नाटक में निहीत मूलभाव का सधारणीकरण निर्देशन कार्य की सफलता का परिचायक है। एक अच्छा निर्देशन कार्य नाटक को प्रसिद्धि प्रदान करा सकता है। ठीक इसके विपरीत खराब निर्देशन कार्य नाटक को प्रतीत बना सकता है। इस बात की पुष्टि डॉक्टर मांधाता ओझा और डॉ शशि सरदारनी ने किया है “निर्देशक नाटक की प्रस्तुति के लिए अपेक्षित रंगमंच के विभिन्न अवयवों का संघटक ही नहीं है अपितु सहृदय रूप से नाटक के आवेदन की अनुभूति भी करता है। इसलिए वह प्रस्तुतीकरण को जीवंत बना सकता है।”²
महिलाओं का निर्देशन कार्य
हिंदी रंगमंच में स्त्रियों की स्थिति बदलती रही है। स्त्रियों के योगदान से यह मंच कभी अछूता नहीं रहा है। रंगमंच का एक काल ऐसा था, जब स्त्रियां प्रत्यक्ष रूप से रंगमंच पर मौजूद नहीं थी। परंतु अप्रत्यक्ष रूप से स्त्रियां हमेशा रंगमंच पर रही।(स्त्री वेशभूषा में पुरुष कलाकार)। समय बदलता गया और रंगमंच पर स्त्रियां प्रत्यक्ष रूप से नजर आने लगी। अभिनेत्री, नाटककार की सफल भूमिका के बाद महिलाओं ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन निर्देशन कार्यों में भी सफलतापूर्वक दे रही हैं। महिलाओं के सफल सृजनात्मक हस्तक्षेप को इंगित करते हुए अपर्णा वेणु ने लिखा है। “किसी भी नाट्य प्रस्तुति के मूलभूत तीन प्रमुख तत्व होते हैं— अंतर्वस्तु, रूप संरचना एवं दर्शकीय अनुभूति। इन तीनों तत्वों के परिपेक्ष में स्त्री पक्षीय रंगकर्म पर विचार किया जाए तो जरूर कहा जा सकता है कि महिला रंगकर्मियों ने भारतीय रंगमंच के परिदृश्य को ज्यादा व्यापक, संवेदनशील और मानवीय बनाया है।”³ हिंदी रंगजगत में निर्देशन कार्य में पहली नारी शांता गांधी है। लोकनाट्य परंपरा में इनका निर्देशन कार्य प्रारंभ हुआ। हालांकि इन्होंने रंगमंच में अपनी शुरुआत नृत्य कार्य से किया था। परंतु रंगमंच की दुनिया को समझते जानते हुए इन्होंने निर्देशन कार्य का भी श्री गणेश किया। लोकरंग मंच पर शांता गांधी का निर्देशन नवीन अनुभूति का साक्षात्कार करता है। भवई शैली में ‘जसमा ओडन’ नौटंकी शैली में ‘अमर सिंह राठौर’ की प्रस्तुति इनके कार्यों की प्रतिष्ठा रंग जगत के लिए विस्मरणीय है। शांता गांधी का यह प्रयास आधुनिक हिंदी रंगमंच में लोक शैलियों की संभावनाओं के नए आयाम प्रस्तुत किए। जिससे आगे आने वाले रंगकर्मी काफी प्रभावित हुए। इन्होंने लोकनाट्य में निर्देशन कार्य कर, रंगमंच में महिलाओं के लिए एक नया राह प्रशस्त की हैं। हालांकि बाद में इन्होंने संस्कृत नाटक ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘मध्यम वियोग’, ‘भगवद्ज्जुकम्’ इत्यादि नाटकों की प्रस्तुति में निर्देशन कौशल दिखाया। आधुनिक हिंदी रंगमंच पर सशक्त निर्देशिका के रूप में पहला नाम उषा गांगुली का लिया जाता है। प्रतिभाशाली उषा गांगुली अच्छी अभिनेत्री, नाटककार, रूपांतरकार रही हैं। परंतु उनकी प्रसिद्धि रंगमंच पर विशेषतः निर्देशिका के रूप में हुआ। इनके द्वारा निर्देशित पहला नाटक मन्नू भंडारी कृत ‘महाभोज’ है। इन्होंने लगभग 25-30 पात्रों को मंच पर अत्यंत सहजता से प्रस्तुत किया है। उनके निर्देशन में अधिक पात्रों द्वारा मंचित यह नाटक अपनी मूल संवेदनाओं की सटीक प्रस्तुति किया। तत्पश्चात नाटक ‘रूदाली’ का निर्देशन, इनकी निर्देशकीय क्षमता को रंगजगत में प्रतिष्ठित किया। उषा गांगुली के निर्देशन में महाश्वेता देवी की कहानी पर आधारित ‘रुदाली’ (1993) नाटक रंगमंच पर मंचित हुआ। यहां जीवन संघर्षों एवं अनुभवों का स्त्रीवादी दृष्टि से अभिव्यक्त किया गया है।नाटक का नवीन विषय-वस्तु और मानव जीवन की विषमताओं का मार्मिक चित्रण प्रेक्षकों को अपनी ओर आकृष्ट किया। उषा गांगुली ने पर पीड़ा पर दुखित होने या रोने की विवशता को नितांत मर्मस्पर्शी तरीके से प्रस्तुत किया। जीवन की इस घटना का अत्यंत जीवंत प्रस्तुति दर्शकों के मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ा। नाटक में प्रस्तुत स्त्री पात्र सनिचरी अपने आत्मसम्मान के लिए समाज के ठेकेदारों से लड़ती है। नारी जीवन विभीषिका की प्रस्तुति उषा जी ने किया है। पूरे नाटक के जरिए उषा जी दो बातों को दर्शकों के सम्मुख स्पष्ट करती है। पहली, स्त्री की सुरक्षा पुरुष के हाथों में नहीं है और दूसरी, स्त्री चाहे इस सामाजिक व्यवस्था में गरीब हो या अमीर हमेशा यौन संबंध के लिए उपयुक्त केवल वस्तु होती है। ऐसे अनुठे विषय वस्तु की प्रस्तुति एवं उषा गांगुली का निर्देशन कार्य ही इन्हें रंगमंच की सशक्त निर्देशिका के रूप में प्रतिष्ठित किया है। उषा गांगुली की समसामायिक निर्देशिका गिरीश रस्तोगी का योगदान रंगजगत में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अपनी बहुमुखी प्रतिभा से इन्होंने रंगजगत को समृद्ध और संपन्न बनाया है। इन्होंने ‘ध्रुवस्वामिनी’ और ‘नहुष’ नाटक की प्रस्तुति का निर्देशन किया है। इन्होंने स्त्रीत्व पक्षीय भावों का प्रदर्शन कर प्रेक्षकों को स्त्री संवेदना से जोड़ने का सफल प्रयास किया है। इन दो नाटकों की प्रस्तुति भी स्त्री संवेदनाओं, समस्याओं, जटिलताओं आदि को प्रस्तुत करती है। निर्देशन कार्य के दौरान इन्होंने ध्रुवस्वामिनी के चारित्रिक गुणवत्ता को मंच पर पूरे सटीकता से प्रस्तुत किया हैं। ध्रुवस्वामिनी एक सशक्त स्त्री के रूप में नाटक में मौजूद है, जो अपने इच्छाओं और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करती है। ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से भारतीय महिलावर्ग को सजग करने की चेष्टा किया है। कमजोर और डब्बू राजा राम गुप्त को त्याग कर साहसी योद्धा चंद्रगुप्त को अपने पति के रूप में स्वीकार करती है प्रस्तुतीकरण का सही तरीका ध्रुवस्वामिनी को समझ में अच्छी स्त्री के रूप में स्थापित करता है। क्योंकि भारतीय समाज में महिलाओं को स्वयं के लिए सुयोग्य वर जुड़ने की स्वतंत्रता नहीं थी। गिरीश रस्तोगी का निर्देशन कार्य महिलाओं को स्वयं के लिए सही चुनाव का राह दिखाता है। आधुनिक नारियों की समस्या के संदर्भ में उनकी प्रस्तुति नाटक का मूल भाव ‘ऐतिहासिक प्रसंग’ को भी सुरक्षित रखता है। यह प्रस्तुति सशक्त महिला ध्रुवस्वामिनी के रूप में वर्तमान नारियों के लिए एक संदेश छोड़ता है। महिलाएं स्वतंत्र भाव से अपने निजी जीवन से जुड़ी हरेक संदर्भ का सही चुनाव करें। है। इन्होंने महिला नाट्य लेखन और रंगकर्मी होने के विषय में लिखा- “निश्चय ही यहां महिला-व्यक्तित्व, उसकी शारीरिक-मानसिक, बौद्धिक संरचना को, स्त्री संवेदना को भी समझ कर चलना, उसके ‘निजीपन’ के अहसास और ‘सृजन’ के नित नए रास्ते निकालने की कोशिश और क्षमता को सामाजिक ‘सामाजिक संघर्ष’ को समझकर चलना होगा, वहीं स्त्री-सृजन कर्म है। विविधताओं में संतुलन-क्षमता पुरुष की अपेक्षा, स्त्री में ज्यादा होती है और बेहद सूक्ष्म स्तर पर। वह घर, समाज, परिवार, बाहर संबंधों और अंतर्बाह्य द्वंदों से, कला-प्रयोजन के प्रश्नों से टकराती है।”⁴ रस्तोगी जी को स्त्री संवेदनाओं और मानवीय संवेदनाओं की अच्छी समझ थी। जिस कारण वह प्रेक्षकों के समक्ष स्त्री पक्षीय विचारों को व्यक्त करने में सफल हुई। अच्छी निर्देशिका के रूप में दर्शक वर्ग तक संवेदनाओं और समस्याओं को किस तरीके से परोसा जाए, उसकी अच्छी समझ थी। एक निर्देशिका के रूप में दर्शक वर्ग को आकर्षित करने हेतु मंच पर कब, कैसे और कहां चीजों को प्रस्तुत किया जाए वह बखूबी जानती थी। जिससे पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री अस्मिता के प्रश्नों को उठाया जा सके। गिरीश रस्तोगी एक प्रयोगवादी निर्देशिका सिद्ध हुई है। इन्होंने अद्वितीय नाटकालेख ‘कितना कुछ एक साथ’ भी तैयार किया। जिसमें मोहन राकेश के तीनों नाटक की प्रमुख स्त्री पात्र मल्लिका, सुंदरी और सावित्री के पक्ष में बाते कही गई हैं।
रंगमंच को समृद्ध करने की इस कड़ी में कई महिला रंगकर्मियों ने अपनी अहम भूमिका निभाई है। नाटक को निर्देशित कर नाटक के मूल विषय-वस्तु को प्राणवान बनाने का कार्य महिलाओं ने किया है। जिसमें से प्रमुख नाम है:-कीर्ति जैन (और कितने टुकड़े), रसिक अगाशो(म्यूजियम का स्पीशीज इन डेंजर), बी जयश्री (अग्निपथ), सुरभि (घोरराक्षस), सुषमा देशपांडे (व्हय मि सावित्रीवाई), अनुराधा कपूर (जीवित या मृत), त्रिपुरारी शर्मा (बहू), नादिरा जाहीर बब्बर (सकुबाई) इत्यादि। संवेदनशील निर्देशिकाओं के रूप में इन सभी ने स्त्री जीवन से संबंधित नाटकों का मंचन करवाया है। साथ ही भारतीय रंग परंपरा में चली आ रही पुरुषवादी व्यवस्था को भी तोड़ा है। रंग परंपरा को नया आयाम दिलाने हेतु महिलाओं ने वर्जित दृश्यों का भी मंचन करवाया। वर्जित दृश्यों की परिपाटी में अधिकांशतः महिला समस्याओं की प्रस्तुति में बाधा पहुंचती थी। उदाहरणस्वरूप मृत्यु, उच्च स्वर में आवाहन करना, रक्तपात, दांत काटना, यौनिकता संबंधित मार्मिक दृश्यों का चित्रण आदि शामिल है। निर्देशिकाओं ने वर्जित दृश्यों की दीवार गिराकर स्त्री जीवन से जुड़ी समस्याओं की प्रस्तुति खुले तौर पर किया। इन्होंने ऐसे ऐसे नाटकों का मंचन करवाया जिसके केंद्र में स्त्री समस्याएं उपलब्ध थी। साथ ही जन चेतना को सजग करने और स्त्रियों के प्रति सहानुभूति और सच्ची संवेदना प्रकट करने का प्रयास निरंतर करती रहीं। स्त्री जीवन की त्रासदी को रेखांकित करते हुए निर्देशिकाओं ने मंच पर उन समस्याओं से निजात पाने की राह भी प्रशस्त किया। भारतीय समाज में स्त्रियों को सही स्थान दिलाने हेतु रंगमंच पर स्त्री विमर्श की शुरुआत इन निर्देशिकाओं के जरिए प्रारंभ हुआ। इस प्रयोजन के बारे में रवि चतुर्वेदी ने लिखा है- “21 सदी महिलाओं के बहुआयामी उभार, जागरूकता और दावेदारी की सदी है। आदिवासियों, दलितों, स्त्रियों और वंचितों की धमक से यह सदी उद्वेलित है और समाज, राजनीति व कला सहित जीवन का कोई भी क्षेत्र इस उभार से अछूता नहीं रह गया है। रंगमंच और नाटकों में भी इस महिला विमर्श का धमक को साफ तौर पर महसूसा जा सकता है।”⁵
इस कड़ी में 2024की सशक्त निर्देशिका प्रो रमा यादव के द्वारा किया गया प्रयोग रंगमंचीय दुनिया में ऐतिहासिक पहल सिद्ध होता हुआ नजर आया है। इन्होंने मोहन राकेश के तीन नाटको को मिश्रित कर एक अनूठा रंग-प्रयोग किया। रमा यादव दिल्ली विश्वविद्यालय के मेरिंडा हाउस कॉलेज में हिंदी की प्राध्यापिका हैं। प्राध्यापन के साथ इन्होंने नाटक निर्देशन कार्य भी कर रहीं हैं।गिरीश रस्तोगी ने एक नाट्यालेख तैयार किया था। उसी संदर्भ में रंगालेख की प्रस्तुति प्रो रमा यादव ने किया है।
मोहन राकेश आधुनिक हिन्दी रंगमंच के सुप्रसिद्ध नाटककार हैं l उन्होंने तीन नाटक लिखे – ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे-अधूरे’ l यूँ उनका एक अपूर्ण नाटक ‘पैर तले की जमीन’ भी था। जिसे राकेश के मरणोपरांत कमलेश्वर ने पूरा किया, किन्तु वह अपनी कोई ख़ास पहचान बना नहीं पाया l अपने सशक्त कथ्य और शिल्प के बूते राकेश के तीनों नाटक रंगकर्मियों को गाहे-बगाहे आकर्षित करते रहते हैं l इसी आकर्षण का ताजा उदाहरण है, रमा यादव के निर्देशन में हुई प्रस्तुति ‘मोहन राकेश के तीन नाटक’ l यह प्रस्तुति अपने-आप में अनूठी इसलिए थी कि इसमें राकेश के तीनों नाटकों के चुनिन्दा अंशों के साथ उनके ‘विजन’ को दर्शाने की कोशिश की गयी l प्रस्तुति गत 23 सितम्बर 2024 को मंडी हाउस स्थित श्रीराम सेंटर के प्रेक्षागृह में हुई l
मोहन राकेश आज़ाद हिन्दुस्तान की उस हवा में नाट्य-लेखन शुरू करते हैं जिसमें सम्बन्धों में तेजी से बदलाव हो रहा था l आत्ममुग्धता बढ़ रही थी, विज्ञान-तकनीक के अविष्कार, औद्योगिकीकरण, टूटते संयुक्त परिवार, गाँव से शहर की ओर पलायन – सब मिलकर इंसान के स्वभाव को बदल रहे थे l संवेदना कुछेक खण्डित अनुभूतियों में तब्दील हो रही थी जिन्हें अभिव्यक्त करने के लिए साहित्य में ‘द्वन्द्व’, ‘तनाव’, ‘अजनबीपन’, ‘असंतोष’, ‘उलझन’ जैसे शब्दों का आगमन हुआ l मोहन राकेश समकालीन जीवन और हिन्दी के रंग-परिदृश्य – दोनों की ही चुनौतियों और समस्याओं से अच्छी तरह परिचित थे l उनके तीनों नाटक नये परिवेश से उपजी नयी और खण्डित अनुभूतियों को सम्पूर्णता में व्यक्त करने का सफल प्रयास करते हैं l
‘द्वन्द्व’ राकेश के नाटकों की केन्द्रीय विशेषता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ कलाकार और राजसत्ता के साथ भावना और यथार्थ का द्वन्द्व दिखलाता है l ‘लहरों के राजहंस’ में आध्यात्म और भौतिक सुख का द्वन्द्व और चयन न कर पाने की दुविधा है तो ‘आधे-अधूरे’ में आधुनिक महानगरीय परिवार के सदस्यों में तल्ख़ और कटु सम्बन्धों से उपजा तनाव है l ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों के राजहंस’ का देश-काल भले ही कालिदास और महात्मा बुद्ध से जुड़ा हो लेकिन इन दोनों ही नाटकों का कथ्य आधुनिक मनुष्य के मानसिक संघर्ष और दुविधा से भी जुड़ा है l कारण और परिस्थितियाँ अलग-अलग होने पर भी ‘द्वन्द्व’ आधुनिक मनुष्य के जीवन की नियति बन चुका है l रमा यादव के निर्देशन में हुई प्रस्तुति तीनों नाटकों में निहित इसी विविध-आयामी द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश करती दिखी l प्रस्तुति की शुरुआत ‘आधे-अधूरे’ की शुरुआत में ‘काले सूट वाले आदमी’ के वक्तव्य से हुई जो जीवन की ‘अनिश्चितता’ को रेखांकित करने वाली थी l ‘आधे-अधूरे’ के दृश्यों के लिए आधुनिक घर के ड्राइंग रूम के सेट का प्रयोग किया गया जो कमोबेश मोहन राकेश के रंग-निर्देशानुसार ही था l ‘आषाढ़ का एक दिन’ और लहरों के राजहंस’ के दृश्यों का परिवेश निर्माण छुट-पुट रंग-सामग्री के साथ रिकार्डिड ध्वनि से हुआ जिसमें क्रमशः मेघ गर्जन व वर्षा और ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ काफ़ी प्रभावशाली रहे l मल्लिका, सावित्री, महेन्द्रनाथ, बिन्नी की भूमिकाएँ एक से अधिक अभिनेता-अभिनेत्रियों ने की l चरित्र की उम्र और स्वभाव में आये बदलाव के अनुरूप यह रंग-युक्ति संतुलित और उपयुक्त रही l मल्लिका के ‘भावना में भावना का वरण’, कालिदास को उज्जैनी भेजने के आग्रह, सुन्दरी द्वारा कामोत्सव का आयोजन, नन्द में अदम्य सुन्दरी-पत्नी और गौतम बुद्ध के प्रति खिंचाव से उपजे द्वन्द्व, सावित्री के घर छोड़ने का निश्चय, महेन्द्रनाथ और अशोक के साथ हुई बहस, बिन्नी द्वारा उस ‘चीज’ को ढूँढने की व्यर्थ कोशिश वाले दृश्य असरदार बन पड़े l दृश्य नाटकों के अनुसार क्रमवार न होकर आपस में गुंथे-मिले थे l सारा कार्य-व्यापार, गतियाँ, मुद्राएँ, वेशभूषा, प्रकाश आदि ‘द्वंद्व’ को ही घनीभूत करते दिखे l मोहन राकेश अपने नाटकों में सुचिंतित रंग-निर्देशों के लिए भी जाने जाते हैं l इस प्रस्तुति में ‘आधे-अधूरे’ के कुछ रंग-निर्देशों का वाचन करने के साथ उन्हें हरकत की भाषा में तब्दील किया गया l राकेश ने रंगभाषा पर चिंतन करते समय उपयुक्त शब्द के चयन के साथ ही प्रदर्शन में उच्चारण की लय पर काफी बल दिया है, जो अभिनय करने वाले कलाकार के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण है। इस प्रस्तुति में कई कलाकार इस चुनौती से जूझते दिखे l डॉ राम यादव के प्रयोगशीलता ने रंगमंच को एक नई जमीन प्रदान की है।
निष्कर्ष
हिंदी रंगमंच पर स्त्रियों की भूमिका उच्चतम श्रेणी की मानी गई है। रंगकर्मी के रूप में महिलाओं ने रूढ सामाजिक व्यवस्था से संघर्ष करती हुई स्वयं को रंगमंच पर स्थापित करने का कार्य किया है। स्त्री-पुरुष की जटिल समीकरण रंगकर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। स्त्रियां इस समीकरण की बंदिशों को लांगती हुई अपनी प्रतिभा का परिचय दे रही है। रंगकर्म के नित्य नए प्रयोग में महिलाओं का स्थान शीर्ष पर है। निर्देशिकाओं का सफलतापूर्वक नवीन रंग प्रयोग का आयोजन वर्तमान में रंगमंच को समृद्ध बना रहा है। निर्देशिकाओं ने अपने कर्मयोग से रंगमंच को अपनी अलग पहचान बनाती हुई नजर आ रही है। वे न सिर्फ स्त्रियों से संबंधित मुद्दों को प्रस्तुत करती हैं, बल्कि समाज में व्याप्त हरेक छोटे-बड़े मुद्दों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर पूरे मानव समाज को अच्छे से जीवन जीने की संदेश देती है। साथ ही उनमें नई संभावनाओं की तलाश में दर्शकों के लिए उचित स्पेस भी छोड़ रही हैं। अपनी प्रयोगधर्मिता से महिलाओं ने भारतीय रंगमंच को समृद्ध करने के साथ इसे अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में भी सफलता हासिल की है। हिंदी रंगमंच में महिला रंगकर्मी का कार्य रंगमंच को अधिक मजबूत और प्रभावोत्पादक बना रही हैं।
संदर्भ ग्रंथ
1) द्विवेदी, हजारी प्रसाद- हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,1952, पृष्ठ संख्या 154
2) ओझा, डॉ मांधाता, सरदाना डॉ शशि-नाटक नाटक चिंतन और रंग प्रयोग, कला मंदिर, नई सड़क, दिल्ली 2003, पृष्ठ संख्या 9
3) वेणु, अपर्णा-भारतीय रंग मंच की महिला परंपरा, लोक भारती प्रकाशन, 1-बी,नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2023, पृष्ठ संख्या 96
पूजा कुमारी (शोधार्थी)
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
poojadasskpskp@gmail.com