अहमद अली
शोध सार – इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। और इन अधिकारों को धार्मिक ग्रंथों में स्पष्ट रूप से सम्मानित किया गया है। इस्लामी कानून (शरीयत) के तहत महिलाओं को विवाह तलाक विरासत शिक्षा और पारिवारिक जीवन में समान अधिकार प्राप्त हैं। इस्लाम महिलाओं को उनके चयन के अनुसार विवाह करने तलाक के मामलों में सुरक्षा प्राप्त करने और पारिवारिक निर्णयों में स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। विशेष रूप से तलाक की प्रक्रिया में महिलाओं को कुछ अधिकार प्राप्त हैं। जैसे कि “खुला” के माध्यम से महिलाएं अपने पति से तलाक प्राप्त कर सकती हैं। “हलाला” जैसी प्रथाएँ इस्लाम में आलोचना का विषय रही हैं। और इन पर कानूनी कदम उठाए गए हैं। महिलाओं को शिक्षा का अधिकार भी प्रदान किया गया है। जिसे इस्लामी समाज में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। हालांकि समाज में पारंपरिक और सांस्कृतिक मान्यताएँ कभी-कभी महिलाओं के अधिकारों के रास्ते में बाधाएं उत्पन्न करती हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में कानून और सामाजिक सुधारों ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को सुदृढ़ करने में मदद की है। विशेष रूप से विभिन्न मुस्लिम देशों ने तलाक तीन तलाक और हलाला जैसी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जो इस्लामी पारिवारिक कानूनों के पालन और प्रचार का कार्य करता है इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह बोर्ड मुस्लिम समुदाय के बीच शरीयत के नियमों के पालन को सुनिश्चित करने की कोशिश करता है। हालांकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर समय-समय पर आलोचनाएँ भी उठती रही हैं। क्योंकि यह कुछ प्रथाओं को बदलने या समाप्त करने में अनिच्छुक दिखाई देता है जो महिलाओं के अधिकारों को प्रभावित करती हैं। इस्लाम महिलाओं के अधिकारों में समानता और सम्मान का समर्थन करता है लेकिन समाज में सुधार की आवश्यकता अभी भी बनी हुई है। विशेष रूप से पारिवारिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को चुनौती देने शिक्षा के अवसर बढ़ाने और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने के लिए अधिक कानूनी और सामाजिक प्रयासों की आवश्यकता है। इस्लाम महिलाओं के अधिकारों का समर्थन करता है लेकिन समाज में सुधार और जागरूकता की आवश्यकता अभी भी बनी हुई है ताकि महिलाएं अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों का पूर्ण रूप से लाभ उठा सकें।
बीज शब्द :विरासत, साहित्, इतिहास, संस्कृति, तलाक ,हलाला, परंपरा,खुला सुधार, मानवाधिकार, सांस्कृतिक, मान्यताएँ
मूल आलेख : मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर शरीयत (इस्लामी कानून) में कई पहलू हैं । ये अधिकार उनकी समाजिक स्थिति विवाह तलाक, विरासत और पारिवारिक संबंधों के संदर्भ में विभिन्न हो सकते हैं । कुछ मुख्य अधिकारो जैसे विवाह और तलाक शरीयत में महिलाओं को अपने चयन से विवाह करने का अधिकार होता है। वे विवाह की शर्तों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती हैं । तलाक के मामले में भी उन्हें कुछ सुरक्षा और अधिकार प्राप्त हैं। इतना ही नहीं शरीयत में महिलाओं को विरासत का अधिकार भी मिला हुआ है। जिसके तहत उन्हें उनके परिवार की संपत्ति में हिस्सा मिल सकता है । मुस्लिम महिलाओं के विवाह और तलाक से जुड़े अधिकार मुख्य रूप से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से तय होते है।
पारिवारिक जीवन में भी जैसे शरीयत में महिलाओं को अपने परिवार के संबंधों को सम्भालने का अधिकार दिया गया है। जिसमें उनकी संतानों के पालन-पोषण शिक्षा आदि शामिल है। कई मुस्लिम देशों में महिलाओं को शिक्षा और काम करने का अधिकार है। जो शरीयत के मानकों और स्थानीय कानूनों के अनुसार अनुकूल होता है। यहां यह भी ध्यान देना चाहिए की अलग-अलग मुस्लिम समुदायों और देशों में शरीयत के अलग अलग रूप हो सकते हैं जिससे अधिकारों में भिन्नताएँ भी हो सकती हैं। जैसे तीन तलाक विशेषतः इस्लामी शारीयत के माध्यम से अधिकार किए जाते हैं । इस प्रकार की तलाक के प्रवृत्ति को विभिन्न इस्लामी देशों और समुदायों में अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा गया है। कुछ देशों ने तीन तलाक को कानूनी रूप से मान्यता दी है जबकि कुछ ने इसे प्रतिबंधित किया है। यह देशों और समुदायों के कानूनी प्रणाली धार्मिक मान्यताओं और समाजिक संदर्भों पर निर्भर करती है। भारत में 2019 में पारित हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट के तहत तीन तलाक प्रतिबंधित किया गया है। इसके अनुसार तलाक देने के लिए अब मुस्लिम पुरुष को कोर्ट के पास जाना होता है। पाकिस्तान में 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को गैर-कानूनी ठहराया था। बांग्लादेश में 2017 में तीन तलाक को अवैध घोषित किया गया है। मलेशिया में तीन तलाक को गैर-कानूनी ठहराया गया है और वहां पर इसे प्रयोग में लाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाती है। इंडोनेशिया में तलाक तीन बार देने की प्रथा है लेकिन यहां पर भी कई कानूनी और सामाजिक प्रतिबंध हैं। इसी प्रकार शरीयत मे महिलाओं को शादी के लिए भी विशेष अधिकार दिए है जिसमे लड़की की पसंद भी शामिल है अगर लड़की अपनी पसंद से निकाह करना चाहती है तो उसके लिए शरीयत ने मंजूरी दी है। और परिवार वाले जहा भी अपनी लड़की के लिए लड़का देखे तो उन्हे चाहिए की वो पहले अपनी लड़की से उसकी पसंद जान ले या उस्से रिश्ते के बारे मे बात करे । हदीस मे मशवरा करना सुन्नत बताया गया है। पेगम्बर हजरत मोहम्मद (स.अ.) ने अपनी बेटी हजरत फातिमा (र.त.) का निकाह जब हजरत अली से करना चाहा तो पहले अपनी बेटी से उसकी पसंद जानी की उन्हे ये रिश्ता कुबूल है या नही। यही से पता चलता है अपनी बेटियों से उनकी मर्जी के बगेर शादी तय करना सुन्नते रसूल के खिलाफ है ।
इसी लिए निकाह के वक्त लड़का लड़की की मंजूरी जरूरी होती है जब तक दोनों निकाह के समय गवाहों के सामने तीन बार कुबूल है नहीं बोलते तब तक निकाह नहीं होता है। इस्लाम इस बात का स्पष्ट प्रमाण देता है कि ईश्वर की दृष्टि में महिला अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के मामले में पूरी तरह से पुरुष के बराबर है। इस्लाम में कहा गया है “हर आत्मा अपने कर्मों के लिए बंधक होगी” अतः उनके रब ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली कहामैं तुममें से किसी के काम को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा चाहे वह पुरुष हो या महिला तुम एक दूसरे से उत्पन्न हुए हो जो कोई भी नेक काम करेगा चाहे वह पुरुष हो या महिला और ईमान लाएगा उसे हम एक नया जीवन देंगे जो अच्छा और शुद्ध होगा और हम ऐसे लोगों को उनके कार्यों के अनुसार पुरस्कार प्रदान करेंगे ।
धर्मिक शिक्षा और समाज मे मुस्लिम महिलाओं के लिए उपलब्ध धर्मिक शिक्षा और समझ महत्वपूर्ण है। यह उन्हें अपने धर्म के नियम मान्यताओं और महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समझने और उन्हें अपने जीवन में अनुसरण करने में मदद करती है। हदीस (सहीह बुखारी) महिलाएं पुरुषों से कम नहीं हैं वे हमारे समाज का अहम हिस्सा हैं।
मुस्लिम महिलाओं की स्थिति और परंपरागत समाजिक संरचना उनकी धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रभाव डाल सकती है। विभिन्न समाजों और संदर्भों में धार्मिक स्वतंत्रता के संदर्भ में विभिन्न मान्यताएं और अनुसंधान की आवश्यकता होती है। धार्मिक स्वतंत्रता का अनुसरण करते हुए महिलाओं को अपनी स्थानीय और व्यक्तिगत परंपराओं संस्कारों और प्रथाओं के अनुसार अपने धार्मिक कार्यों को निष्क्रिय या सक्रिय रूप से निष्पादित करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। धार्मिक स्वतंत्रता का व्यापक समर्थन महत्वपूर्ण है। समाज और सामाजिक संगठनों की भूमिका यहाँ महत्वपूर्ण है जो महिलाओं को उनके धार्मिक अधिकारों के प्रति जागरूक करते हैं और उन्हें समर्थन प्रदान करते हैं। इन पहलुओं को मिलाकर मुस्लिम महिलाओं की धार्मिक स्वतंत्रता के विभिन्न आयामों को समझाना और समर्थन करना आवश्यक है ताकि वे अपने धार्मिक और व्यक्तिगत जीवन को समृद्ध और सामंजस्यपूर्ण बना सकें। और कुछ एसे कानून जिनपर खुलकर कभी बात नहीं हुई या समाज मे इन विषयों पर केवल ज्यादा चर्चा नहीं हुई। इस्लामी में मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा का अधिकार बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस्लामी कानून में शिक्षा के अधिकार को व्यापक रूप से समर्थन दिया गया है और इसे धार्मिक दायरे में एक महत्वपूर्ण अधिकार माना गया है। हदीस (सहीह मुस्लिम) “हर मुसलमान पुरुष और महिला पर ज्ञान प्राप्त करना फर्ज है।”
इस्लामी कानून के अनुसार महिलाओं को शिक्षा की प्राप्ति का पूरा अधिकार है। यहां तक कि इस्लामी शरीयत में शिक्षा को बहुत महत्वपूर्ण और आवश्यक माना गया है जो एक व्यक्ति के धार्मिक सामाजिक और व्यक्तिगत विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। कुरान और हदीस शरीफ में भी महिलाओं को शिक्षा के अधिकार की प्रतिष्ठा दी गई है। इस्लामी कानून के तहत हर मुस्लिम महिला को शिक्षा के लिए पूरी तरह से समर्थित किया जाता है और उन्हें इस अधिकार का पालन करने की स्वतंत्रता दी जाती है । इस्लामी कानून के अंतर्गत महिलाओं को शिक्षा के समान अधिकार के लिए जागरूक किया जाता है और उन्हें इसे प्राप्त करने के लिए सही माध्यमों की प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित किया जाता है । इसके अलावा इस्लामी समाजों में शिक्षा के लिए महिलाओं की पहुंच को बढ़ाने के लिए कई प्रमोटिंग और एजुकेशनल इनीशिएटिव्स हैं।हदीस (सहीह मुस्लिम) “ज्ञान प्राप्त करना हर मुसलमान पर फर्ज है, चाहे वह पुरुष हो या महिला।”
खुला शरीयत मे इसे महिलाओं को तलाक के लिए दिया गया एक कानून है जिसके अंतरगत कोई भी मुस्लिम महिला जो शादीशुदा हो और अपने शौहर से ना खुश हो और उस्से अलग होना चाहती है तो वह अपने शौहर से खुला की मांग कर सकती है। महिला को खुला की मांग करने के लिए कारण बताने की आवश्यकता होती है। जैसे कि विवाह में असहमति दुराचार या किसी भी अन्य कारण जो उसे अपने पति के साथ रहने में कठिनाई पैदा करता है। खुला की प्रक्रिया में महिला को अपनी सहमति से अपने पति से तलाक लेना होता है। यह उसकी स्वेच्छा और समझदारी से किया जाता है खुला की प्रक्रिया में महिला को अपने पति को वह धन या संपत्ति लौटानी पड़ती है जो उसने निकाह के समय (महर) के रूप में प्राप्त की थी । यह एक शर्त है ताकि पुरुष को कोई नुकसान न हो। कई मामलों में खुला की प्रक्रिया को शरई अदालत या धार्मिक प्राधिकरण के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है जहां अदालत महिला के कारणों की जांच करती है और फैसला सुनाती है । खुला के बाद महिला को एक निर्दिष्ट अवधि (इद्दत) का पालन करना पड़ता है जो आमतौर पर तीन मासिक धर्म चक्र होती है। इस अवधि के दौरान वह किसी अन्य पुरुष से विवाह नहीं कर सकती।हदीस (सहीह मुस्लिम) “फातिमा बिन्त क़ैस ने नबी (स.अ.व.) के पास जाकर शिकायत की कि उसका पति उसे तलाक देने के बाद घर से बाहर कर चुका है। नबी (स.अ.व.) ने उसे खुला लेने का विकल्प दिया और कहा कि वह खुद को स्वतंत्र कर सकती है।”
हलाला एक एसा कानून है जो महिलाओं के लिए हमेशा से विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दा रहा है जो इस्लामी कानून के तहत आता है। यह एक प्रथा है जो तलाक के बाद पति-पत्नी को पुनः विवाह करने की अनुमति देने से संबंधित है जब एक मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को तीन बार तलाक देता है तो यह तलाक अंतिम और अपरिवर्तनीय हो जाता है। इसे तलाक-ए-बिद्दत कहा जाता है । इसके बाद वे दोनों एक-दूसरे से पुनः विवाह नहीं कर सकते । यदि पति-पत्नी पुनः विवाह करना चाहते हैं । तो इस्लामी कानून के तहत पत्नी को पहले किसी अन्य पुरुष से विवाह करना होगा (शारीरिक संबंध सहित) और फिर दूसरे पति से तलाक लेना होगा । इस प्रक्रिया को हलाला कहते हैं। हलाला की प्रथा की व्यापक आलोचना की जाती है। आलोचकों का मानना है कि यह महिलाओं का शोषण है और उनकी गरिमा के खिलाफ है। कई लोग इस प्रथा को अवैध और अनैतिक मानते हैं। कुछ मामलों में हलाला को व्यवस्थित और व्यावसायिक रूप से भी अंजाम दिया जाता है जिसमें महिला को मजबूर या धोखे में रखा जाता है। इस्लामी विद्वानों में हलाला के बारे में मतभेद हैं। कुछ विद्वान इसे एक वैध इस्लामी प्रथा मानते हैं। जबकि अन्य इसे अनैतिक और इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ मानते हैं । कुछ मुस्लिम देशों ने हलाला की प्रथा को अवैध घोषित कर दिया है या इसे सीमित करने के उपाय किए हैं।हदीस (सहीह मुस्लिम) “तलाक केवल तीन बार किया जा सकता है, और तीसरी बार के बाद कोई पुनर्विवाह नहीं हो सकता, जब तक कि महिला किसी अन्य व्यक्ति से विवाह न कर ले और वह तलाक न ले” यह हदीस यह बताती है कि तलाक तीन बार तक किया जा सकता है, और तीसरी बार के बाद यदि पत्नी और पति फिर से एक साथ रहना चाहते हैं तो महिला को पहले किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करके तलाक लेना होगा।
आधुनिक समय में कई मुस्लिम समुदाय और देश हलाला की प्रथा के खिलाफ जागरूकता फैला रहे हैं और इसे समाप्त करने के लिए कानूनी और सामाजिक सुधारों की मांग कर रहे हैं। महिलाओं के अधिकारों के समर्थक और मानवाधिकार संगठन भी हलाला की प्रथा के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं ।
निष्कर्ष – मुस्लिम महिलाओं के अधिकार और कानून एक व्यापक और महत्वपूर्ण विषय है जो धार्मिक सामाजिक और कानूनी संदर्भों में कई पहलुओं को समेटता है। इस्लाम में महिलाओं के अधिकार इस्लाम और हदीस पर आधारित हैं। इन धार्मिक ग्रंथों में महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा और सम्मान का स्पष्ट उल्लेख है। महिलाओं को शिक्षा संपत्ति और विवाह के मामलों में स्वतंत्रता दी गई है। विभिन्न मुस्लिम बहुल देशों में महिलाओं के अधिकारों के लिए अलग-अलग कानूनी ढांचे हैं। इन कानूनों में तलाक संपत्ति और विरासत के मामलों में महिलाओं के अधिकार निर्धारित किए गए हैं। हालाँकि कई बार इन कानूनों का पालन ठीक से नहीं होता जिससे महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कई मुस्लिम समाजों में पारंपरिक और सांस्कृतिक मान्यताएँ महिलाओं के अधिकारों पर प्रभाव डालती हैं। हाल के दशकों में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों में सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। विभिन्न देशों में कानूनी और सामाजिक सुधार हुए हैं जिनसे महिलाओं के अधिकारों की स्थिति में सुधार हुआ है। वैश्विक स्तर पर भी मानवाधिकार संगठनों और अंतरराष्ट्रीय कानूनों ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा और सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस दिशा में काम करने वाली संस्थाओं ने महिलाओं के अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाने और सुधारात्मक कदम उठाने में मदद की है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1. मंजु आर्य साहित्य में मुस्लिम महिलाओं के मुद्दे साखी प्रकाशन
2. भगवान दास मोरवाल “हलाला” पृ.सं 36
3. आचार्य श्री चतुरसेन शास्त्री “इस्लाम का विष-व्रक्ष” हिन्दी साहित्य प्राकशन मंडल बाजार सीताराम दिल्ली
4. वीश्वम्भरनाथ “हजरत मोहम्मद और इस्लाम” साउथ मलाला इलाहबाद
5. (सहीह बुखारी) हदीस
6. (सहीह मुस्लिम) हदीस
सहायक वेबसाइट
7 . https://www.indiacode.nic.in/bitstream/123456789/11564/2/H2019-20.pdf
अहमद अली
पीएचडी शोधार्थी इ ऍफ़ एल यूनिवर्सिटी हैदराबाद