अलविदा “रोज दीदी” (डॉ. रोज केरकेट्टा )

अनुज बेसरा

अपनी कृतियों से “रोज दीदी” बनना डॉ. रोज केरकेट्टा की सबसे बड़ी उपलब्धि है। डॉ. रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, रांची में आयोजित डॉ. रोज केरकेट्टा के भावांजलि, श्रद्धांजलि और शब्दांजलि कार्यक्रम में सम्मिलित होने का अवसर मिला। खचाखच भरे सभागार में विद्वानों और युवाओं की उपस्थिति देखकर भाव विभोर होना स्वाभाविक था। मंच पर महिलाओं और पुरुषों की समान भागीदारी, रोज दीदी की सबसे बड़ी उपलब्धि का प्रतीक प्रतीत हो रही थी। लोग एक-एक कर मंच पर आ रहे थे और रोज दीदी के साथ बिताए अनमोल पलों की स्मृतियों को ताजा कर रहे थे।रोज केरकेट्टा से “डॉ. रोज केरकेट्टा” बनना और फिर अपने कृतित्व व व्यवहार से सर्वसामान्य होकर “रोज दीदी” बन जाना कोई आसान कार्य नहीं था। सिमडेगा जैसे सुदूर जिले की संख नदी के किनारे जन्म लेना और फिर राष्ट्रीय पटल पर छा जाना तथा 1970 के दशक में, जब अधिकांश लोग दो जून की रोटी के लिए संघर्षरत थे, उस दौर में आदिवासी महिलाओं के बौद्धिक आंदोलन का नेतृत्व करना डॉ. रोज केरकेट्टा की एक महान उपलब्धि थी, जो आज भी लोगों को गहन स्तर पर प्रभावित करती है।

5 दिसंबर 1940 ई. में सिमडेगा जिले के संख नदी के किनारे स्थित कइसरा सुंदरा टोली नामक आदिवासी गाँव में जन्मी, डॉ. रोज केरकेट्टा का देहावसान 17 अप्रैल 2025 को रांची स्थित अपने आवास में हुआ। उनके पिता डॉ. प्यार केरकेट्टा स्वयं भी एक प्रतिष्ठित साहित्यकार थे, जिनसे लेखन का संस्कार रोज दीदी को विरासत में मिला। मात्र 25 वर्ष की उम्र से ही वे झारखंड की भूमि और यहाँ की आवाम के प्रति समर्पित हो गई थीं। उस समय, जब जयपाल सिंह मुंडा राजनीतिक स्तर पर झारखंड आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे, रोज केरकेट्टा भी अपने लेखों के माध्यम से आंदोलन को वैचारिक आधार प्रदान करने लगी थीं।

सभागार में भावांजलि और शब्दांजलि अर्पित करते हुए निम्न रूप से डॉ. रोज केरकेट्टा को विद्वान याद कर रहे थे:- 

“जंगल मेरा घर है
नदी मेरी मां
धरती मेरा शरीर
फिर क्यों कोई कहता है
कि मैं सभ्य नहीं हूँ?”

रोज दीदी की उपरोक्त कविता को याद करते हुए महाश्वेता देवी के समकक्ष लाकर रविभूषण कहते हैं – “मेरे जीवन में केवल दो व्यक्तित्व ऐसे हैं जो मेरे लिए ‘दीदी’ बन पाईं। उनमें से एक थीं डॉ. रोज केरकेट्टा। शांत, सौम्य, निश्छल, उन्मुख और बहुआयामी व्यक्तित्व वाली डॉ. रोज केरकेट्टा का जाना साहित्य जगत के लिए एक बड़ी क्षति है। वे स्थानीय होकर भी राष्ट्रीय स्वर की पर्याय थीं।”

रोज दीदी की उपरोक्त कविता को याद करते हुए महाश्वेता देवी के समकक्ष लाकर रविभूषण कहते हैं – “मेरे जीवन में केवल दो व्यक्तित्व ऐसे हैं जो मेरे लिए ‘दीदी’ बन पाईं। उनमें से एक थीं डॉ. रोज केरकेट्टा। शांत, सौम्य, निश्छल, उन्मुख और बहुआयामी व्यक्तित्व वाली डॉ. रोज केरकेट्टा का जाना साहित्य जगत के लिए एक बड़ी क्षति है। वे स्थानीय होकर भी राष्ट्रीय स्वर की पर्याय थीं।”

“सिमडेगा की संख नदी के किनारे जन्मी और सिसई (गुमला) की कोयल नदी के किनारे से अध्यापन की शुरुआत कर रांची की स्वर्णरेखा नदी तक का सफर तय करते हुए, रोज फुआ स्थानीयता और राष्ट्रीयता के बीच एक सेतु बन गईं। वे स्थानीय भाषा को हिंदी में जगह देकर हिंदी को समृद्धि प्रदान की”.- सावित्री बड़ाईक

“1970 के दशक में झारखंड अलग राज्य की मांग को लेकर चले बौद्धिक आंदोलन में डॉ. रामदयाल मुंडा और बी. पी. केशरी के बाद यदि कोई सबसे प्रसिद्ध नाम था, तो वह था डॉ. रोज केरकेट्टा। वे दर्जनों संगठनों की पदेन अध्यक्ष भी रहीं”. – रणेंद्र

“पढ़ाई, लड़ाई और लिखाई – तीनों को साथ लेकर चलती थीं रोज दीदी”.- मिथिलेश

झारखंड की प्रमाणिक आवाज थीं रोज दीदी। अपने व्यापक दृष्टिकोण के कारण वे सर्वव्यापी हो गई थीं.- पंकज मित्र

1970 के दशक में आयोजित कई महिला सम्मेलनों के माध्यम से रोज दीदी ने झारखंड आंदोलन में महिलाओं की बौद्धिक भागीदारी को सामने रखा। वे महिलाओं को लिखित और वैधानिक अधिकार दिलाने की प्रबल पक्षधर थीं.- दामोदर

आदिवासी भाषा-साहित्य, संस्कृति और स्त्री सवालों पर रोज दीदी ने कई देशों की यात्राएं की और राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी हुई. खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन (शोध ग्रंथ), प्रेमचंदाअ लुङकोय (प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया अनुवाद), सिंकोय सुलोओ (खड़िया कहानी संग्रह), हेपड़ अवकडिञ बेर (खड़िया कविता एवं लोक कथा संग्रह), पगहा जोरी-जोरी रे घाटो (हिंदी कहानी संग्रह), सेंभो रो डकई (खड़िया लोकगाथा) खड़िया विश्वास के मंत्र, अबसिब मुरडअ (खड़िया कविता संग्रह) और स्त्री महागाथा की महज एक पंक्ति आदि उनकी प्रमुख रचनाएँ रही हैं. इसके अलावे भी कई पत्र- पत्रिकाओं में लगातार आलेख और विचार छपते रहे. पगहा जोरी- जोरी रे घाटो रोज दीदी की प्रमुख रचनाओं में से एक थी इस कहानी किताब में उन्होंने आदिवासी समाज की महिलाओं की समस्या, विस्थापन और चुनौतियों जैसे मुद्दों पर कहानी रच कर राष्ट्रीय स्तर पर विषयों को लेकर आई और विख्यात हो गई. किताब को पढ़ने के बाद समझ आता है “कम कहकर सब कुछ कह देना” रोज दीदी की लेखनी की पहचान थी. स्थानीय मुद्दों को सहजता और व्यापक रूप से साहित्यिक रूप देकर लोगों के लिए पाठ्य बनाना और उसे चर्चा का केंद्र बनाना रोज दीदी की शोषित समाज को भेंट है. जिस विषय पर आज भी चर्चा गहनता से हो पा रही है. प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया भाषा में अनुवाद करना खड़िया भाषा को राष्ट्रीय पटल पर खड़ा कर दिया. यह कृति स्थानीय भाषा को राष्ट्रीय पर लाने के लिए एक सेतु का काम किया. निश्चित रूप से अन्य स्थानीय लेखक भी इससे प्रभावित हुए.

स्थानीय भाषा के प्रति उनका लगाव इस बात से समझ आता  है कि जब 2022 में धनबाद और बोकारो के इलाकों में झारखंडी भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन के लिए आंदोलन चल रहा था तो वे उस आंदोलन का न सिर्फ समर्थन किये बल्कि बाहरी भाषा का विरोध करते हुए विश्वम्भर फाउंडेशन द्वारा दिए जा रहे विश्वम्भर साहित्य भारती सम्मान- 2022 को यह कहते हुए लेने से मना कर दिया कि “जिस भाषा में मैं जीती हूँ, अगर उसे सम्मान नहीं दिया गया, तो मुझे सम्मान लेकर क्या करना.”

अपने जीवन काल अपनी विद्वता और लगन के बल पर सिमडेगा जैसे पिछड़े जिले में सिमडेगा कॉलेज, सिमडेगा और एस. एस. उच्च विद्यालय सिमडेगा जैसे आज के समय में प्रतिष्ठित संस्थानों का नींव रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

रोज दीदी की याददाश्त जीवन के अंतिम पड़ाव में भी बहुत मजबूत रही. वे व्यक्ति को देखकर ही नाम से पहचान लेती थी. अपने जीवन में उन्हें ब्रेस्ट कैंसर जैसे बीमारी का सामना करना पड़ा लेकिन वे मजबूती से जनमानस के लिए खड़े रहे. घर में ही एक दुर्घटना के दौरान उनका पैर टूट गया था. लेकिन वे अपनी मजबूत इरादों और हौसलों के कारण पुनः ठीक हो गई. बाद में एक बार पुनः वे गिरे जिसमें उनका कमर टूट गया. इस घटना के बाद वे अपने हजारों किताबों की कलेक्शन के साथ बिस्तर में आ गए लेकिन उनका साहित्य प्रेम और शोषण के खिलाफ बुलंद आवाज कम नहीं हुआ.

डॉ. रोज केरकेट्टा को जो विरासत अपने पिता से मिला था उसे अपने तक ही सीमित नहीं रखी. उस लेखनी कला को अपनी अगली पीढ़ी पुत्री वंदना टेटे को सौंप कर अपनी कर्तव्य का निर्वहन भी किया. आज वंदना टेटे भी अपनी मां के समकक्ष होकर आदिवासी समाज, विस्थापन मुद्दे, जेंडर संवेदनशीलता, शोषण, अत्याचार और संघर्ष जैसे विषयों पर बखूबी सशक्त लेखन कर प्रसिद्धि हासिल कर चुकी है. इसीलिए तो प्रसिद्ध आलोचक और साहित्यकार श्री रविभूषण जी कहते हैं जिस प्रकार महाश्वेता देवी अपने चार पीढ़ी की बौद्धिक- साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाने का काम की उसी प्रकार डॉ. रोज केरकेट्टा की भी जीवन है. वे भी तीन पीढ़ी तक बौद्धिकतावाद और साहित्यवाद को आगे बढ़ाने का काम की हैं.

आज रोज दीदी अपने कृतियों से साहित्यिक और संघर्षात्मक पौध रोपण कर गई हैं जिसका पेड़ बनना और फल देना बाकी है. सरकार और जनप्रतिनिधियों को भी आवश्यकता है कि उनके कारवाँ को आगे बढ़ाएं और उन्हें उचित सम्मान से सुशोभित कर एक आदर्श प्रस्तुत किया जाए.

सभी चित्र गूगल से

अनुज बेसरा
विद्यार्थी, अर्थशास्त्र विभाग, रांची विश्वविद्यालय, रांची
ईमेल: anuj002besra@gmail.com

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ISSN 2394-093X
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