सत्यजीत राय के वाजिद अली शाह

 “कलाकार कायर नहीं हो सकता”

सत्यजीत राय के वाजिद अली शाह का मानना है कि “सिर्फ मौसिकी और शायरी ही मर्द की आँखों में आँसू ला सकते है”आँखों में आँसू होने का अर्थ है ह्रदय में करुणा,प्रेम संवेदना और वे तमाम कोमल भाव जो मूलत: स्त्रियोचित गुण माने जाते हैं । एक बादशाह जो पुरुष ही होगा जिसे शासन भी करना है उसे कठोर होना ही होगा, लेकिन एक कोमल ह्रदय, कलाकार वाजिद अली शासक कैसे हो सकता था उनके किरदार के विषय में अंग्रेज़ रेजिडेंट जेम्स ओउट्राम का एक संवाद में आया है कि वो विरोधाभासों का बण्डल है’निश्चय ही चरित्र के उन विरोधी रंगों को चित्रित करना राय के लिए आसान नहीं रहा होगा। चुनौती तो यह भी थी कि फिल्म शतरंज के खिलाड़ी जिस कहानी का रूपान्तरण है उसमें वाजिद अली शाह किरदार के तौर पर आये ही नहीं,फिर क्या कारण रहा होगा कि फिल्म में राय ने न केवल वाजिद अली का किरदार गढ़ा, बल्क़ि उसे पूरा मौका दिया कि वह केंद्र में आ गया है जबकि कहानी में दो शतरंज के खिलाड़ी मुख्य पात्र है । जब कहानी और फ़िल्म का अध्ययन करते हैं तो दोनों की मूल संवेदना का अंतर समझ आता है और राय की दृष्टि भी समझ आ सकती है, वास्तव में यह फ़िल्म कहानी का विस्तार है, जो किरदार की माँग करता है, जिसके बिंदु मेरी समझ में सत्यजीत राय को कहानी के संवादों से मिले। कहानी में वाजिद अली के काल का विलासितापूर्ण परिवेश आया है जिसके लिए सीधे-सीधे वाजिद अली को जिम्मेदार ठहराया “वाजिद अली शाह का समय था लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था छोटे-बड़े अमीर-गरीब…सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी…सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था” और अंत में एक कायर बादशाह के राजनीतिक अध:पतन की बात है  आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से,इस तरह खून बहाये बिना, न हुई होगी यह वह अहिंसा न थी जिस पर देवगन प्रसन्न होते हैं यह कायरपन था, जिस पर बड़े कायर आँसू बहाते हैं’ जिसे प्रेमचंद विलासिता कह रहे है,अंग्रेज़ रेजिडेंट जेम्स ओउट्राम ने बादशाह के कला-प्रेम पर विलासिता का रंग देकर उसे अयोग्य साबित कर पदच्युत करने के लिए नई संधि बनाई । कहानी के प्रसंग में विलासिता और कायरता इन दोनों विशेषणों को सत्यजीत राय की फ़िल्म चुनौती देती है और वाजिद अली के किरदार की जो छवि निर्मित होती है उससे आपको सहानुभूति होती है। पितृसत्ता में आँसू बहाना स्त्रियों का गुण है जबकि पुरुषों के लिए वही कायरता है,सत्यजीत राय वाजिद अली शाह के लोक प्रचलित छवि से विपरीत उनका वास्तविक किरदार प्रस्तुत करना चाहते हैं और उन्होंने किया भी ।

किरदार कथा को विश्वसनीय बनाते हैं, किरदार का विश्वसनीय होना भी ज़रूरी है,तभी वह यादगार बन पायेगा, ऐतिहासिक किरदार का चरित्रांकन और भी सावधानीपूर्वक करना होता है फिर वाजिद अली के ऐतिहासिक और विवादित व्यक्तित्व को चित्रित करना एक श्रमसाध्य कार्य था जिसमें अतिरिक्त छूट नहीं ली जा सकती थी, वैसे भी बॉलीवुड पर ऐतिहासिक चरित्रों के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप लगता रहता है जैसे अकबर-जोधा अथवा सलीम की अनारकली,पद्मावत  अत: सत्यजीत राय ने इस किरदार पर गहन शोध किये। परिवेश किरदार को रूपाकार प्रदान करता है जिसके अनुकूल वह क्रिया-प्रतिक्रिया करता है सिनेमा में किरदार लिखने बाद अभिनयेता उसमे जान फूँकता है किरदार की संवाद अदायगी,उठने बैठने के अंदाज शारीरिक चेष्टाओं में भी नजर आता है। आवाज में होने वाले उतार-चढ़ाव उसकी मनोदशा मन:स्थिति को प्रकट करते हैं।कहानी बेहतरीन हो लेकिन किरदार दमदार ना हो तो ना कहानी याद रहती है ना किरदार। इसलिए कई दफा नायक नायिका भुला दिए जाते हैं लेकिन सहायक किरदार याद रह जाते है भिनेता को अपना मूल चोला उतार फेंक किरदार में घुसना होता है तभी वह उसके साथ न्याय कर पाता है।

‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर सत्यजीत राय के इस वक्तव्य को जानकार हम वाजिद अली के किरदार के गढ़ने की वजह को समझ सकते हैं- “आसान लक्ष्य मुझे बहुत ज़्यादा पसंद नहीं आते। निंदा तो होती ही है, लेकिन उस तक पहुँचने की प्रक्रिया अलग होती है। मैं दो नकारात्मक शक्तियों, सामंतवाद और उपनिवेशवाद को चित्रित कर रहा था। आपको वाजिद और डलहौजी दोनों की निंदा करनी थी। यही चुनौती थी। मैं दोनों पक्षों की कुछ सकारात्मक बातों को सामने लाकर, उनके प्रतिनिधियों में कुछ मानवीय गुण भरकर इस निंदा को रोचक बनाना चाहता था। ये विशेषताएं काल्पनिक नहीं हैं बल्कि ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित हैं। मुझे पता था कि इससे रवैया में कुछ दुविधा पैदा हो सकती है, लेकिन मैंने शतरंज को ऐसी कहानी के रूप में नहीं देखा जिसमें कोई खुले तौर पर पक्ष ले और अपना पक्ष रखे। मैंने इसे दो संस्कृतियों के टकराव का एक चिंतनशील, यद्यपि निर्मम दृष्टिकोण माना – एक अप्रभावी और प्रभावहीन तथा दूसरी सशक्त और घातक। मैंने स्पेक्ट्रम के इन दो चरम सीमाओं के बीच स्थित कई अर्ध-छायाओं को भी ध्यान में रखा…आपको इस फिल्म को उसकी पंक्तियों के बीच पढ़ना होगा।”– सत्यजीत रे, 1978  https://www.arthousecinema.in/2021/07/shatranj-ke-khilari-1977/ यानी वाजिद अली के किरदार पर जो कथाएँ जनता के बीच लोकप्रिय रही उन्हें ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सकारात्मक व मानवीय गुणों के साथ पिरोना था, जिसे वे दो संस्कृतियों के टकराव के आईने में देख रहे थे। 

किरदार रचने के बाद उन्हें उसे निभाने के लिए कलाकार खोजना था, खोज अमज़द खान पर आकर खत्म हुई। यह जानना दिलचस्प है कि ‘शोले’ हिट हो चुकी थी और धन्नो सहित उसका हर छोटा-बड़ा किरदार आज भी ज़हन में चस्पां है फिर गब्बरसिंह तो अमर किरदार हो चुका था, उसकी भयंकर आवाज़, वीभत्स चेहरा बात-बात पर थूकना, क्रोध की चरम सीमा, कमर में लटकी बन्दूक की गोलियों के बेल्ट। बॉलीवुड में कलाकारों को स्टीरियोटाइप करने का चलन हमेशा से रहा है फिर गब्बरसिंह की क्रूरता को धो-पोछकर नए सिरे से तैयार करना आसान नहीं था कहते हैं कि सत्यजीत राय के पास तीसरी आँख है उन्होंने अमज़द खान को गब्बरसिंह से बिलकुल विपरीत वाजिद अली शाह के किरदार के रूप में देख लिया था  वाजिद अली शाह जो राजगद्दी पर बैठे हुए, फरियादी की गुहार सुनकर द्रवित हो कविता रच सकता है,   जो अपनी रियाया पर किसी भी प्रकार का अत्याचार नहीं देख पाता,इसलिए अपने अंतिम समय में चुपचाप गद्दी छोड़ देता है लेकिन खून खराब नहीं होने देता।शूटिंग के समय ही जब अमज़द खान का कार एक्सीडेंट हुआ तो राय ने कहा कि यदि अमज़द नहीं होंगे तो फ़िल्म भी नहीं बनेगी, यह वाजिद अली के प्रति के किरदार के लिए प्रतिबद्धता ही थी जिसे अमज़द खान ने भी शिद्धत से निभाया।   शतरंज के खिलाड़ी कहानी अगर सज्जाद अली और मिर्जा के किरदारों की वजह से याद आती है, और हमें नवाबों की अकर्मण्यता पर क्रोध आता है तो फ़िल्म शतरंज के खिलाड़ी फिल्म वाजिद अली शाह की विलक्षण भूमिका की वजह से महत्वपूर्ण हो जाती है जब वाजिद अली शाह का किरदार के प्रति हमारे मन में सहानुभूति उभर कर आती है जो सिर्फ सत्यजीत राय के द्वारा ही संभव हो सकता था।

फ़िल्म का आरंभ में वे प्रस्तावना देते हैं जहाँ वे संकेत करते हैं कि यहाँ पर कोई जंग नहीं लड़ी जा रही बल्कि खेल खेला जा रहा है ,अंग्रेजों के द्वारा और मोहरा है वाजिद अली शाह। खेल यानी फ़िल्म शुरू होती है शंख-नगाड़ों से नहीं अपितु बल्कि ढोलक की थाप और शहनाई के साथ जो वाजिद के कला प्रेमी होने की ओर संकेत करता है शतरंज के खेल में बादशाह गया तो खेल खत्म! प्रस्तावना देने का अर्थ ही यही है कि फिल्म के कांसेप्ट को दर्शकों तक पहुँचाया जाए, तत्कालीन उपनिवेशिक राजनीतिक परिदृश्य को दिखाकर वे स्पष्ट करते हैं कि इनमें ही वाजिद अली का किरदार विकसित हुआ है। संवाद लेखक जावेद सिद्धिकी ने साक्षात्कार में बताया कि ‘राय ने एक गुरु मन्त्र दिया कि संवाद वहीं लिखना जहाँ पिक्चर बोलना बंद कर दे अगर तस्वीर खुद बता रही है कि वहाँ क्या हो रहा है तो वहाँ अलफ़ाज़ की कोई ज़रुरत नहीं’। अमिताभ के वोइस ओवर ने प्रस्तावना को दिलचस्प बनाया और किरदार की रूपरेखा को रेखांकित करता है- ‘इस शौकीन रिआया के सरताज हैं ‘वाजिद अली शाह’ जिन्हें राजकाज के अलावा हर तरह का शौक है।’ जिसे प्रेमचंद ने विलासिता कहा था यहाँ उसके लिए शौक़ीन शब्द का इस्तेमाल हुआ है, वे वाजिद अली शाह का बड़ा ही कलात्मक ढंग से फिल्मांकन करते हैं जहाँ संवाद नहीं है।  सबसे पहले वे कृष्ण बने गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं, गीत के बोल हैं- ” जाने-आलम दरस मुबारक, जुग जुग जीवो सदा विराजो”  उनका यह स्वरूप हिन्दू मुस्लिम दोनों जनता को मोहित करता है वाजिद के राज में साझी विरासत को दर्शाता है, दूसरे दृश्य में मोहर्रम पर वाजिद स्वयं नगाड़े बजा रहे हैं रजा प्रजा में कोई भेद नहीं स्पष्ट है ‘यथा राजा तथा प्रजा’। तीसरे दृश्य में अपनी रानियों के साथ शाही और रसिक अंदाज में बैठे हैं रानियाँ उन्हें पंखा झल रहीं हैं सभी के प्रति प्रेम का समभाव, पृष्ठभूमि में प्रेम का प्रतीक बांसुरी बज रही है । अंत में उनके सिंहासन पर कैमरा जिसका डिजाइन भी केक की तरह है बीचों बीच वाजिद अली चेरी की तरह बैठे है केक जिसके पीस काटकर अंग्रेज़ हड़प रहे हैं अब चेरी बाकी है, यह भी किरदार को चित्रित करने का खूबसूरत अंदाज़ है । सूत्रधार व्यंग्यात्मक ढंग से कहतें हैं – “कभी-कभी वाजिद अली शाह दरबार भी सजा लिया करते हैं …उन्हें हुकूमत करना पसंद ना हो लेकिन अपना ताज बेहद पसंद था, 5 साल पहले शौक-शौक में इस ताज को बड़े शान से लंदन की नुमाइश में भेजा था, तब एक अंग्रेज ने जानते हैं क्या फिकरा कसा था, अवध के सरताज का सिर  चेरी की तरह हड़प लिया जाए?  यह अल्फाज हिंदुस्तान के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के थे जो पिछले 10 साल में जाने कितनी ‘चेरिया’ साफ कर चुका है पंजाब, बर्मा, नागपुर, सतारा, झांसी। और अब एक ही चेरी बाकी है। ‘अवध’! ‘काश तुम जान पाते वाजिद अली शाह अंग्रेज रेजिडेंस जनरल उट्रम तुम्हारे लिए क्या मंसूबे बना रहा है जो इस समय वाजिद अली शाह की दिनचर्या पढ़ रहा है’ केक जिस पर अवध लिखा है जिसे गाहे-बगाहे अंग्रेज हड़पते चले जा रहे हैं निगलते चले जा रहे हैं यानी ऐसा बचा-कुचा अवध वाजिद अली शाह को मिला था जिसे किसी भी बादशाह के लिए  बचाए रखना कभी भी आसान नहीं था वाजिद अली इससे बखूबी जानता था लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनके शासन काल में विविध कलाओं और हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतिओं का आदान प्रदान बेहतरीन ढंग से हुआ था। फ़िल्म में भाषा के साझे प्रयोग पर सत्यजीत राय कहते हैं- हिन्दी  जिसे हिन्दुस्तान का एक बहुत बड़ा हिस्सा जनता समझता है वास्तव में ‘ स्ट्रिक्टली  हिंदी’ नहीं इट्स उर्दू , क्लासिकल फॉर्म ऑफ़ हिन्दी ’ ये इसलिए ज़रूरी था क्योंकि यही भाषा उस समयकाल में फल-फूल रही थी एक अन्य स्थल वे बताते है कि “जबान कोई हो शब्दों की अपनी लय होती है यह लय सही होनी चाहिए अगर एक सुर गलत लग जाए तो तो पूरा सुर बेमानी हो जाता है। ”

फ़िल्म के एक दृश्य में अंग्रेजों की कूटनीति शतरंज के खेल में आये बदलावों के माध्यम से बताई गई  है, मुंशी साहब कह रहे हैं कि “बादशाहों का खेल है खेलों का बादशाह…दोनों बेगम आमने-सामने रहती है, प्यादा पहली चाल में एक साथ दो घर चल सकता है और प्यादा अगर दूसरे के खाने में पहुँच जाए तो वह मल्लिका बन सकता है, फ़ायदा? बाजी झटपट खत्म हो जाती है”। यह संकेत है कि विक्टोरिया की कंपनी प्यादे अब अवध पर कब्ज़ा करने वाली है, जिसका सीधा अर्थ है कि यहाँ बादशाह की कोई हैसियत नहीं बल्क़ि वजीर जो रानी है विक्टोरिया रानी का प्रतीक बन चुकी है अब बादशाह को उसके प्यादे भी मात दे सकते है।और फिर जनरल उट्रम का संदेश आता है- “पिछले 10 साल में सुल्तान-ए-आलम ने मुल्क-ए-इंतजाम को सुधारने की कोई कोशिश नहीं की जिसकी वजह से आवाम में बदहाली और बेचैनी फैली हुई है इसलिए हमारी सरकार ने फैसला किया है कि तमाम मामलात फैसले को अपने हाथ में ले लेगी”। लेकिन यह उस संधि के विरुद्ध था जो सिराज़ुद्धौला ने की थी इसलिए वाजिद अली कहता है – सुल्तान- ए- आलम बादशाह-ए-अवध मालिक-ए- मैरूस-ए-अवध पर कंपनी बहादुर के कब्जे की अफवाह उड़ाने वाले को अपराध घोषित किया जाएगा सजा दी जाएगी’ यह संदेश भी प्रकारांतर से अंग्रेजो के लिए था ऐसा मुझे लगा“क्या बात है और प्रधानमंत्री मदार-रु-दौला रोने लगा संभालो अपने आप को रेसिडेंट साहब ने अपनी कोई गज़ल सुना दी क्या?” फिर पर अगले ही पल गंभीर होते हुए व्यंग्य भी करता ‘सिर्फ मौसिकी और शायरी ही मर्द की आँखों में आँसू ला सकता है’ यह संवाद वाजिद अली शाह के किरदार का केन्द्रीय बिंदु है जिसके बाद वाजिद अली का एक लम्बा मोनोलॉग जो उसके किरदार की मौलिक छवि को उभारता है- ‘आप सब ने हमें धोखा दिया है, हमने अपने रिश्तेदारों से ज्यादा पर भरोसा किया, हुकूमत की तमाम जिम्मेदारियाँ आपको दी और आपने क्या किया सिवाय अपनी जेब भरने के क्या किया! क्या किया आपने! कुछ नहीं किया…’ यहाँ वाजिद अली के सहज विश्वास करनेवाले किर्दासर तो है ही साथ ही आगे का संवाद यह भी सप्शत करता है कि वो अपनी कमियों को जानते थे गलती तो हमारी ही है अगर तख्त पर बैठने से इंकार कर देते तो बेहतर होता, पृष्ठभूमि  पीछे बांसुरी बज रही है लेकिन लड़कपन था हीरे जवाहरात की चमकदमक शाही शानो शौकत यह सब हमारा मन लुभा गए’। चमक-दमक के पीछे की स्याह तस्वीर को एक किशोर लड़का क्या ही समझ पाता, जो समझौते पूर्व में राजाओं ने किये उसकी भरपाई आने वाली पीढ़ियों को चुकानी होती है जबकि अंग्रेज़ कई रियासते हड़प चुके थे अवध-केक का अंतिम पीस बचा था । प्रधानमंत्री मदार-रु-दौला का इस षड्यंत्र में हाथ होने से इनकार नहीं किया जा सकता था जिसे वजिस अली के इस संवाद से जान सकते हैं  ‘सलीमन साहब…सच कहते थे आपके बारे में भी, जो उन्होंने कहा था वह गलत नहीं था। मदार-रु-दौला! यह कागज का टुकड़ा आपने रेसिडेंस साहब के मुँह पर क्यों ना मार दिया!!! यह आप हमसे पूछ रहे हैं, अपने उनसे क्यों न पूछा कि उन्हें वह एहतराम तोड़ने का क्या हक था जिसमें साफ-साफ लिखा था कि कंपनी मुल्क की हिमाकत को अपने हाथ में ले सकती है लेकिन हमारी मसनद हमसे हरगिज़ नहीं छीन सकती’ वाजिद अली का गुस्सा और गुरुर झलकता है यहाँ। एक कला-प्रेमी राजगद्दी पर बैठकर किस रूप में शासन करता है सेनाओं का निर्माण करता है लेकिन अंग्रेजों की चाल के आगे विवश हो जाता है अगला संवाद वाजिद अली की बेबसी को दर्शाता है-  ‘जब हम तख्तनशीं हुए हमने एक हकीकी बादशाह बनने की कोशिश और एक हद तक बादशाहत निभा भी गए…     आपको हमारी बहुत फौज याद है दीवाने बहादुर ? रोज किस तरह मश्के हुआ करते थे, कितने दिलकश नाम रखे थे हमने अपनी पलटन के बांका, तिरछा, अख्तरी, लादरी, घनघोर और हमारी ‘जनाना फौजें’.. हसीना, माशूक, सर बख्त के लिबास… कितना सुंदर मंजर हुआ करता था… कितना खूबसूरत’ ।सेनाओं के नाम तक में कलात्मकता ! लेकिन ‘रिचमंड साहबकी चालाकी देखिये ‘इस फौज की क्या जरूरत है, सरहदों की हिफाजत के लिए अंग्रेजी फ़ौज मौजूद है और उसकी तनख्वाह भी तो आप ही देते हैं तो बेकार में यह परेशानी लेने की क्या जरूरत है’? वाजिद इस चालाकी को खूब समझ पा रहा है‘बहुत बेहतर, रेजिमेंट साहब… आपका हुकुम सर आंखों पर यह परेशानी भी दूर किए देते हैं अब क्या करें…! हम क्या करते, बादशाह अपनी रिआया के लिए परेशान ना हो तो क्या करें, एक बादशाह बादशाहत ना करे तो क्या करें’ ? और उदास हो वह उस दिन को याद करता है जब एक फरियादी के सामने होने पर वो एक गीत उनके मन में तरंगित होने लगा था- 

तरप तरप सगरी रैन गुजरी,

कौन देस गए हो सांवरिया।

भर आई अखियां मदमारी सरक सरक गई चुनरिया,

तुमरे घोरन मोरे द्वार से जो निकसे,

सुध भूल गई मैं बावरिया

तरप तरप सगरी रैन गुजरी कौन देश गयो सांवरिया

आप जानते हैं यह गीत हमने कब और कहाँ रचा था? सारा मंजर तस्वीर की तरह हमारे सामने है !!! यह गीत हमने इसी तख्त पर, भरे दरबार में रचा था। एक आदमी हमारे सामने हाथ बंधे खड़ा है उसकी फरियाद सुनी जा रही है और तब अचानक एक अनोखी बात होती है हमारे कानों में उसकी आवाज आना बंद हो जाती है और उसकी बजाय यह गीत गूंजने लगता है’। बादशाह जबकि उसे न्याय करना है, कविता रच रहा है फरियादी के दुःख उसे गीत लिखने को विवश करते हैं,उसकी करुणा सृजनात्मक हो उठती है अभिव्यक्ति भी तुरंत प्रस्फुटित होती है उससे आप युद्ध की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ‘मदार-रु-दौला जरा रेसिडेंट साहब से जाकर मालूम तो कीजिए इंग्लिशतान के कौन-कौन से बादशाह गीत लिखा करते थे,और उनकी मलिका-ए-विक्टोरिया या की रिआया उनके कितने गीत गाया करती है’ शासक कवि ह्रदय नहीं हो सकता अथवा कहे कि कवि ह्रदय शासक नहीं बन सकता फिर एक कन्फेशन इस मलाल के साथ कि उसके और उसकी रिआया के साथ अन्याय हो रहा है – ‘हम जानतें हैं हम बादशाहत के लायक नहीं थे, पर अगर हमारे रिआया आकर हमसे शिकायत करती कहती  जाने आलम आप गद्दी छोड़ दीजिए, हम आपको नहीं चाहते हैं, आपके राज में हम दुखी हैं, बेजार हैं’ तो बाखुदा हम उसी वक्त है ताज और तख्त से दस्त- बदजार हो जाते। लेकिन मदार-रु-दौला कोई आया नहीं ये कहने, और आप जानते हैं क्यों नहीं कहा इसलिए नहीं कहा क्योंकि हमने उनसे कभी असलियत नहीं छुपाई उन्हें मालूम तो हम कैसे बादशाह और उस पर भी उस पर भी उन्होंने हमें चाहा आज 10 बरस के बाद भी हमें उनकी आंखों में प्यार दिखाई देता है हर गली कूचे में वे हमारे गीत गाते हैं’  सरकार बहादुर फौज क्यों भेज रही है इसका भी इल्म है वाजिद अली को ‘उन्हें मालूम है कि अवध वाले लड़ना भी जानते हैं। हमारी मजलूम रिआया में से ही कंपनी फौज के बेहतरीन सिपाही भर्ती हुआ करते हैं…है ना यह अजीब सी बात में मदारुद्दौला!! हमारी भूखी सताई हुई मजलूम रिआया में से ही कंपनी फौज के बेहतरीन सिपाही भर्ती हुआ करते थे”। इसी बात को रेज़ीडेंट साहब भी कहता है- क्या हम शांतिपूर्ण ढंग से गद्दी ले सकते हैं! नहीं तो हमें हमारे ही सैनिकों को उनके ही भाइयों पर गोली चलने का आदेश देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा’ फिर वाजिद अली शाह अपनी गद्दी की मूठ को कसकर पकड़ते हुए कहता है कि कह दो कि ‘इस तरह माँगने से हम मसनद नहीं देगे इसे हासिल करने के लिए हमसे मुकाबला करना होगा तुम इस सिर से ताज तो छीन लेगा लेकिन हमारे इस सिर को झुकाएगा कैसे ?  पृष्ठभूमि में डंके और युद्ध संगीत बज रहा है ।वो अंग्रेजों की फ़ौज का मुकाबला करने को तैयार भी है लेकिन अब तक समझ चुका था कि इन्हीं में से दगा करने वाले लोग भी हैं क्योंकि युद्ध का अंजाम जानता है तब गीत गाता  है जब छोड़ चले लखनऊ नगरी, कहे हाल के क्या हम पे गुजारी    

अँगरेज़ भी जानते हैं कि वाजिद अली शाहएक धर्मनिष्ट व्यक्ति है दिन में पाँच बार नवाज़ पढ़ता है, शराब नहीं पीता, हरम इतना बड़ा की रेजिमेंट समां जाए, ये राजा नाचता है, गाता है जाने कितनी पत्नियों के साथ रहता है छत पर पतंग उड़ाता है,लड़कियों के साथ नाचता है वह उन्हें कोई नुकसान नही पहुंचा सकता, उसे विरोधाभासों का बण्डल कहता है । इसलिए वाजिद की माँ बेगम साहिबा का भी तर्क है ‘अगर वह अच्छा शासक नहीं था तो उसे पहले ही तख्त से क्यों न उतारा गया 10 साल बाद अचानक क्यों उसे गद्दी से उतरने के लिए संधि पर हस्ताक्षर करवाए जा रहे हैं…हमें मुआवजा नहीं चाहिए हमें इन्साफ चाहिए हम विक्टोरिया से गुहार करेगे’ ।

वाजिद अली रेजिमेंट साहब को खुद आमंत्रित करता है लेकिन इस शर्त के साथ कि आने से पहले सारी सेनाओं के मोर्चो पर रोक लगा दी जाये, तोपे उतार ली जाये, हथियार ले लिए जाए और एलान करवा दिए जाते है  जब अंगेज फ़ौज आये रियाया उनका मुकाबला न करे, इस सीन के बाद शहनाई बजती है शहनाई जो दुःख-दर्द को और भी गहन बना देती है वाजिद अली एक एक आम जनता की हैसियत से वजीफा का शुक्रिया अदा करता है रेजिडेंट उसकी सराहना करता है कि आपने सेना के हथियारों को इस्तेमाल होने से बचा लिया ताकि शांतिपूर्ण वार्ता हो सके तो यह था बादशाह का ना किसी खून खराबे के अपनी गद्दी सौंप देना जो कायरता नहीं  क्योंकि संधि पर वाजिद अली शाह ने दस्तखत नहीं किये –‘आप सिंहासन तो ले सकते हो दस्तखत नहीं ले सकते’  सूत्रधार का अंतिम संवाद ‘न कोई गोली चलेगी न खून खराबा होगा वाजिद अली शाह अपना वादा पूरा करेंगे आज से तीन दिन बाद 7 फरवरी 1856 को अवध पर अंग्रेजी कब्ज़ा हो जाएगा जाने आलम अपनी महबूब नगरी लखनऊ को हमेशा के लिए छोड़ देगे…लार्ड डल हौजी आखिरी चेरी हडप कर चुका होगा मल्लिका विक्टोरिया तशरीफ़ ला आ रही हैं’ यानी यह युद्ध नहीं था इसलिए इसे जीता या हारा नहीं गया बल्कि अंगेजों द्वारा अवध हड़पा गया जिसे राय ने आरम्भ में बता दिया, जिसे प्रेमचंद ने कायरता कहा वह सत्यजीत राय के अनुसार परिवेश की उपज थी एक कलाकार कायर नहीं हो सकता यही वह वाजिद अली शाह के किरदार का महत्वपूर्ण पक्ष है जिसे सत्यजीत राय ने उपनिवेशिक काल से शोध के माध्यम से निष्कर्ष के रूप में स्थापित किया है । शमा जैदी के अनुसार उन्होंने राय को वाजिद अली की पुस्तक ‘परीखाना’ पुस्तक के कुछ अंश पढ़ने को कहा थ लेकिन उन्होंने मन क्र दिया कि संभवत: फिर मैं फिल्म न बना पाऊं क्योंकि उनका उद्देश्य वाजिद का सकारात्मक पक्ष जनता के समक्ष रखना था जिसमे वाजिद दयनीय विवश नजर आ सके यह किरदार  प्रेमचंद की कहानी के प्रतिरोध में गढ़ा गया तो कहाँ ग़लत न होगा।

एक गीत जो मैंने फ़िल्म में मिस किया, जिसके लिए कहा जाता है कि वह लखनऊ छोड़ने के दौरान गया था “बाबुल मोरे नैहर छूटो ही जाए’ इसका इस्तेमाल सत्यजीत राय ने क्यों न किया ? खैर, ‘छोड़ चले लखनऊ नगरी’ गीत जो अमजद खान की आवाज़ में हैं उसमें वाजिद का दर्द झलकता है ये गीत वाजिद अली के अंतिम दिनों में लखनऊ की समृद्ध परम्परा और संस्कृति के ढहते मंजर के दुःख को चित्रित करता है । अमज़द खान ने वाजिद अली शाह के किरदार में खुद को ढालने के लिए खूब मेहनत की कि आपको गब्बरसिंह को याद नहीं आयेंगे,उनका शारीरिक गठन, हाव-भाव उठने बैठने का तरीका,संवाद अदायगी के साथ गीत गाना,नृत्य करना अभी लाज़वाब है । अंतिम वार्ता में जेम्स आउट्राम के समक्ष बड़ी दृढ़ता से वाजिद का मुकुट उतार कर रेजिमेंट को देना और शर्म से दोनों की आँखे झुक जाना, बिना संवाद के अमज़द खान ने कमाल कर दिया यहाँ शासक हारा नहीं बल्कि एक कलाकार आज़ाद हुआ ।

सभी चित्र गूगल से साभार

रक्षा गीता

फिल्म विशेषज्ञ

सहायक आचार्य

दिल्ली विश्विद्यालय  

Rakshageet@kalindi.du.ac.in

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ISSN 2394-093X
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