‘फेंकने दो उन्हें गोबर’: फुले दम्पति की संघर्ष गाथा  

‘फेंकने दो उन्हें गोबर, देखते हैं पहले कौन थकता है वो या हम’ फुले’ फ़िल्म का यह संवाद जाने कब तक प्रासंगिक रहने वाला है। बात हिंदी सिनेमा की करें तो उसमें निहित ब्राह्मणवादी-पितृसत्तात्मक मानसिकता और वर्चस्व ने हमेशा ‘जाति के सवालों’ को हल्केपन में चित्रित किया या पूर्णतया नज़रंदाज़ ही किया । वैसे भी मनोरंजन और व्यवसाय से ऊपर हिंदी सिनेमा कभी-कभार ही सोचता है।  अब जबकि हाशिये का समाज फ़िल्म निर्माण के व अन्य विविध क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक भूमिका निभा रहा है तो बहुजन समाज,उनके मुद्दे और उनका जागरण केंद्र में आ रहे हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि यह भले ही कोई सौ वर्षों के बाद हो रहा है , अब मुख्य धारा से जुड़े सवर्ण भी हाशिये के लोगों को सिनेमा के केंद्र में लाने को उत्साहित हैं। इसे उनकी विवशता भी मान सकते हैं क्योंकि ‘बॉक्स ऑफिस कलेक्शन’ में बहुजन समाज का योगदान तभी मिलेगा जबकि उनसे जुड़े मुद्दे उठाए जायेंगे । हाल ही में रिलीज़ ‘फुले’ फ़िल्म ने यह प्रमाणित कर दिया है कि विषय के अनुकूल होने पर आप दर्शकों को सपरिवार सिनेमाघरों की ओर लाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं । फ़िल्म के निर्देशक भी निश्चित तौर पर जानते रहे होंगे कि वंचित और बहुजन समाज के नायक-नायिका ‘फुले दम्पति’ पर फ़िल्म बनाना घाटे का सौदा नहीं रहेगा, इसलिए ‘फुले’ फ़िल्म अगर आज एक आन्दोलन का रूप ले चुकी है तो इसका श्रेय सिर्फ निर्देशक या कलाकारों को कतई नहीं दिया जाना चाहिए । इस आन्दोलन की मशाल तो ‘फुले-दम्पति’ ने 1848 में ही प्रज्जवलित कर दी थी जब उन्होंने पुणे में लड़कियों के लिए पाठशाला खोली । बाबा भीमराव अम्बेडकर जी ने संविधान के माध्यम से इस मशाल को जिलाए रखा। साहित्यिक विमर्शों और सिनेमा के फलक ने भी शिक्षा के अधिकारों के प्रति बहुजन समाज को जागरूक किया ।

भारत की प्रथम स्त्री शिक्षिका सावित्रीबाई फुले जी ने ‘अंग्रेजी भाषा’ को मैया कहते हुए उस पर कविता इसलिए लिखी थी क्योंकि अंग्रेजी भेदभाव नहीं करती बल्कि ‘मातृभाषा’ की तरह ही शूद्रों-दलितों और वंचितों को पालती- पोसती है –   

अंग्रेजी मैया,
तूने तोड़ डाली जंजीर पशुता की
और दी मानवता की भेंट
सारे शूद्र लोक को’

इस सन्दर्भ में फ़िल्म पर प्रश्न उठाना बनता है कि निर्देशक ने किसी भी दृश्य में अथवा पृष्ठभूमि में भी  उनकी किसी भी कविता का पाठ क्यों नहीं दिखाया? इसके विपरीत शिक्षा के महत्व पर एक गीत को  हटवा दिया गया । अगर अपने हर साक्षात्कार में निर्देशक को यह सफाई देनी पड़ रही है कि हमने तो यह भी दिखाया है कि ब्राह्मणों ने फुले दम्पति का साथ दिया, उन्होंने ही उनका हाथ भी थामा तो क्यों न इसे उसी पुरानी मानसिकता से जोड़ा जाए कि शूद्र या दलितों का उद्धारक कोई सवर्ण ही हो सकता है,जैसा कि हिंदी फ़िल्मों दिखाया जाता रहा है। वास्तव में निर्देशक पर सेंसर का नहीं बल्कि वर्चस्ववादी सवर्ण मानसिकता का दबाब था। निर्देशक ये भी जानते थे कि एक महत्वपूर्ण विषय पर बनी फ़िल्म अगर कहीं डिब्बे में बंद रह गई तो आर्थिक नुकसान होगा और जो सामजिक जागरण व आन्दोलन हमें आज दिखाई पड़ रहा है वह भी कमजोर पड़ जाता । अत:निर्देशक ने इसका प्रतिरोध नहीं किया अपितु सेंसर द्वारा दिए गये 16 कट्स को ‘कट’ माना ही नहीं और सेंसर बोर्ड की सिफारिश और सुझाव कहकर स्वीकार कर लिया । यह भी विचित्र विडंबना ही है कि जो फ़िल्म आन्दोलन में परिवर्तित हो चुकी है, उसके प्रचार-प्रसार के लिए ‘न्यूज़ हिन्दुस्तान’ के प्लेटफोर्म से निर्देशक को देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जी से आग्रह करना पड़ रहा है कि वे ‘फुले’ फ़िल्म देखें और अपने अमूल्य विचार पूरे देश और विश्व के साथ शेयर करें । फ़िल्म के केंद्र में स्त्री शिक्षा है पर इसके विरोध ने स्पष्ट कर दिया है कि उच्च जातीय दंभ, श्रेष्ठ होने के अहंकार से आज भी सवर्ण संकीर्ण मानसिकता ग्रस्त हैं। यह पाखंड की चरम पराकाष्ठा ही है कि जो पहले ही से इतिहास में दर्ज है उसके फ़िल्मांकन का विरोध हो रहा है, महिलाओं के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए भी फ़िल्म टैक्स फ्री क्यों नहीं हो पाई यह भी सोचने वाली बात है।

एक लुका-छिपा विरोध तो इस बात का भी है कि सवर्ण मानने को तैयार नहीं कि सावित्री बाई फुले देश की पहली महिला शिक्षिका हैं, तभी उस दृश्य को भी हटाने की माँग की गई कि जब सावित्री बाई फुले स्कूल जाती हैं और उन पर गोबर फेंका जाता है, जबकि यह ऐतिहासिक तथ्य है । दूरदर्शन पर प्रसारित  ‘भारत एक खोज’ के ‘फुले’ एपिसोड में भी यह दृश्य है । तब क्या इस फ़िल्म का बहिष्कार सवर्णों द्वारा दलितों के अधिकार की माँग का बहिष्कार समझा जाए? अब ‘मुगले-आज़म’ के जोधा-अकबर के सन्दर्भ में सिनेमा का त्वरित और दूरगामी प्रभाव समझते हैं, यानी भारतीय आम दर्शक आज भी असमंजस में हैं, जोधा-अकबर का रिश्ता क्या है? जबकि उससे जुड़ा इतिहास कोई नहीं पढ़ना चाहता । अर्थात् इसी सन्दर्भ में ‘फुले’ फ़िल्म के निर्देशक की प्रगतिशील सोच पर एक प्रश्न यह भी उठता है कि बिना किसी आधार-ग्रन्थ के फ़िल्म में जोतिबा फुले के मुख से क्यों कहलवाया गया है कि ‘आज मुझे यह कहते हए गर्व हो रहा है कि मेरी पहली शिष्या और मेरी पत्नी तथा मेरे दोस्त उस्मान शेख की बहन इस भारत वर्ष की पहली अध्यापिकाएँ हों’।  जबकि ‘फातिमा शेख’ पर अभी शोध होने बाकी हैं। यदि यह संवाद जोतिबा फुले के मुख से न कहलवाकर दर्शकों को ही समझने का मौका दिया गया होता कि पहली शिक्षका कौन है? सावित्री बाई अथवा दोनों! तो सम्भवत: ज्यादा बेहतर होता। आम दर्शक कहीं न कहीं इस दृश्य के आधार पर महात्मा फुले के संवाद को ही सत्य मानकर, इतिहास की खोज शायद ही करे । यूट्यूब पर मैंने फ़िल्म निर्देशक के कई साक्षात्कार देखे; इस ऐतिहासिक विषय पर फ़िल्म बनाने से पूर्व शोध के सन्दर्भ में निर्देशक ने जोतिबा फुले की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ‘गुलामगिरी’ का जिक्र तक नहीं किया! किया भी हो, तो सम्भवत: वही साक्षात्कार मुझसे छूट गया हो! उनका कहना था कि हमने इतनी सामग्री इकट्ठी कर ली थी कि पाँच घंटे की फ़िल्म बन सकती थी । ‘फुले दम्पति’ पर होने वाले शोध पुस्तकों पर उनकी टिप्पणी थी- ‘चाहे वे मराठी में हो इंग्लिश में हो या हिन्दी में भी हों ऑलमोस्ट 90 % मेटेरियल कोमन है बाकी जिन विवादित 10% को हमने टच नहीं किया है हालाँकि हमें ‘फ़िल्टर’ करना पड़ा लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बातों को शामिल किया गया है’। फ़िल्टर का क्राइटेरिया क्या रहा होगा? ‘भविष्योन्मुखी भविष्यवादी दृष्टिकोण लिए हुए इस कपल की कहानी को पिरोने में संतुलन बनाने की कोशिश की गई है’ यानी सबको खुश करना! समाज का एक संतुलित चित्र प्रस्तुत करना! फिर तो यह ‘फिल्टर्ड इतिहास’ आधा-अधूरा है । ‘फुले’ के लेखक मुअज्जम बेग के अनुसार कहानी के लिए मुख्यत: ‘धनंजय कीर’ की पुस्तक को आधार बनाया है । फिल्टर्ड के विषय में निर्देशक का कहना कि ‘जनता किताबों के माध्यम से सच जानती है आप वहाँ कैसे सत्य को मिटा सकते हो’? अपने वक्तव्य को वे स्वयं विरोधभासी मान रहे थे ।  

क्रूर यथार्थ तो यही है कि सवर्ण मानसिकता अभी बदलने को तैयार नहीं है, क्योंकि वर्चस्व के विशेषधिकार छोड़ना आसान नहीं । भले ही भौतिक रूप से गले में झाड़ू नहीं लटका हुआ है लेकिन जाति  (सरनेम) के नाम का मटका अभी भी गले में पड़ा है। सवर्ण जातियाँ उन्हें पहचानकर हेय दृष्टि से देखती हैं, उन्हें छोटा महसूस करवाया जाता हैं, बड़े बड़े संस्थानों में पढ़े-लिखे लोगों द्वारा भी दलितों को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है । रोजमर्रा की ख़बरों हम देख-पढ़ रहे हैं कि ‘फुले-युग’ का क्रूर यथार्थ आज भी रंग-रूप बदल कर खड़ा है, जिसे वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक संरचना का आश्रय प्राप्त है, जहाँ तथाकथित शूद्र-दलित जातियाँ और बहुजन समाज निम्न माने जाते हैं । हमारा समाज आज भी जातिगत भेदभाव के चंगुल में फँसा हुआ है, आज भी दलित समाज शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाते हैं। महात्मा जोतिबा के अनुसार शिक्षा के अभाव में ‘मति और नीति का ह्रास होता है,जो जीवन की गति उसके विकास को अवरुद्ध कर देता है, तब वित्त यानी सम्पन्नता और समृद्धि भी नहीं आती और इसलिए शूद्र वंचित रह जाता है, फ़िल्म में यह संवाद मराठी में है ।

हाँ,इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि विशेषकर उत्तर भारतीय दर्शक फुले-दम्पति के कार्यों व संघर्षों से कम परिचित है, फुले दम्पति का अवदान और संघर्ष जो कहीं पुस्तकों में दब कर रह गया था, फ़िल्म ने उसमें नयी जान फूँकी है। इस फ़िल्म ने यह महत्वपूर्ण कार्य किया कि उनके संघर्ष-गाथा घर-घर तक पहुँचा दी फ़िल्म देखकर नम आँखों से लोग सिनेमाघरों से निकल रहे हैं और उनके विषय में अधिक जानने के लिए पुस्तकें पढ़ने की बात कह रहे हैं, वे जानना समझना चाहते हैं कि उन कट्स में क्या रहा होगा जो छिपाया जा रहा है? यह अच्छा संकेत है । फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद यह भी खुलकर सामने आया कि सोशल मीडिया ने दलित पत्रकारिता को न केवल अभिव्यक्ति दी,बेहतरीन मंच दिया बल्कि बड़ी ही निडरता से वे समाज को जागरूक कर रहे हैं। यूट्यूब पर 10-20 मिनट के अनगिनत वीडियो मिल जायेंगे जो इस फ़िल्म का न केवल खुलकर समर्थन कर रहे हैं बल्कि लोगों को प्रेरित भी कर रहे हैं कि वे सपरिवार यह फ़िल्म देखें । यह भी कहा जा रहा है कि इस फ़िल्म को स्कूलों में दिखाया जाना चाहिए। जहाँ प्राचार्य और अध्यापक सहित कई स्कूल विद्यार्थियों के साथ फ़िल्म देखने पहुँचे वहीँ सवर्ण समुदायों ने फ़िल्म का ट्रेलर देखकर इसका विरोध किया, वे विविध मंचों से फ़िल्म के बायकाट की माँग कर रहे थे, बायकाट का कारण पूछने के लिए दलित पत्रकारों ने भी बेहतरीन भूमिका निभाई वे अत्यंत प्रखरता से तर्कसंगत ढंग से प्रश्न कर रहे हैं और विरोधियों से जवाब देते नहीं बन रहा । आप इन वीडियो को ‘फुले फ़िल्म विवाद’ लिखकर सर्च कर सकते हैं ।

दलित विषयों पर बनने वाली फ़िल्मों के विरोध ,बहिष्कार,और बैन जैसी स्थितियों के बीच एक सुखद खबर है कि Cannes 2025 में ‘मसान’ फ़िल्म के निर्देशक नीरज घायवान की फ़िल्म ‘होमबाउंड’ देखकर दर्शकों ने लगातार 9 मिनट तालियाँ बजाई और रोने लगे यह उत्तर प्रदेश के गाँव की पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म एक दलित और मुसलमान दोस्त के संघर्षों की कहानी है ।देखना होगा कि भारत में उसका स्वागत कैसे होता है ? महात्मा फुले के संवाद को याद रखना होगा कि- “फेंकने दो उन्हें गोबर,देखते हैं पहले कौन थकता है वो या हम”

सभी चित्र गूगल से साभार
शिवानी सिद्धि
स्वतंत्र लेखिका

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles