संबंधों के सैलाब की त्रासदी: कहानी संग्रह ‘एक और सैलाब’  मेहरुन्निसा परवेज़            

मेहरुन्निसा जी के कहानी संग्रह ‘एक और सैलाब’  की कहानियाँ घर और पारिवारिक सम्बन्धों के सैलाब में स्त्री के बह जाने की त्रासदी और उसके बाद खुद को समेटने के जद्दोजहद की मार्मिक अभिव्यंजना है। पितृसत्तात्मक समाज द्वारा निर्धारित संबंधों में स्त्री का अपना ‘अस्तित्व’ समाज में विस्मृत कर दिया जाता है। यथार्थ में उनकी भूमिकाओं का महिमामंडन कर यथास्थिति में हाशिये पर ही धकेला जाता है। मेहरुन्निसा जी ने स्त्री जीवन के यथार्थ बोध और जीवन मूल्यों को कथानक में पिरोकर बड़ी ही सहजता से उनकी स्थितियों को गहराई से अभिव्यक्त किया है। पितृसत्तात्मक समाज में विवाह संस्था और परिवार स्त्री के लिए सर्वाधिक सुरक्षित स्थान माने जाते हैं लेकिन इनके भीतर झाँका जाए तो बहुत भयानक यथार्थ का सामना करना पड़ता है। घर परिवारों में बच्चियों ,स्त्रियों माताओं के साथ जो भेदभाव व अत्याचार होते हैं, उन्हें परिवार की ‘लोक मर्यादा’ और ‘इज्ज़त’ के नाम पर घर में ही दबाने के प्रयास होतें है। मेहरुन्निसा जी की कहानियां इन दबी कुचली स्त्रियों की आवाज़ हैं,जहाँ सम्बन्धों के नाम पर उनका शोषण होता है। संग्रह के आरम्भ में संबंधों पर मेहरुन्निसा जी एक कविता लिखतीं हैं- 

 संबंध को मैंने कबूतर की तरह पाला था
क्योंकि,कहते हैं कबूतर अपना घर,पता नहीं भूलते,
पर मेरे सारे कबूतर उड़ गए। लौटकर नहीं आए ।
मैं उनकी प्रतीक्षा करती रही,
खाली घोंसलों को हसरतों से देखती रही 
कि- कभी तो वे लौटेंगे!
पर वे कभी नहीं लौटे!

हिंदी के पाठक(वैसे कहानीकार आलोचक भी ) जब ‘बानो मुश्ताक ‘ को अंग्रेजी में पढ़ने की ज़हमत सिर्फ इसलिए उठा -पा रहे हैं कि वे जानना चाहते हैं कि आखिर उसमें क्या ख़ास है जो हमारी हिंदी कहानियों में नहीं ? बानो मुश्ताक़ कन्नड़ लेखक वो भी स्त्री ! वे मेहरुन्निसा परवेज़ को भी पढ़े हिंदी में ही है यह लेख 3 साल पहले लिखा था

संबंधों के लिए मेहरून्निसा परवेज जी ‘कबूतर’ को चुना, वे ये भी जानती रहीं होंगीं कि कबूतर घोंसला बनाना नहीं जानता कबूतरों के घोंसलें बड़े ही बेढंगे और कच्चे-से होतें हैं। एक लोक कथा के अनुसार (पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति) लापरवाह, कबूतर ने घोंसला बनाना सीखा ही नहीं, लेकिन अंडे देना और चूजों को अपने डैनों में छिपाकर दाना देना ‘कबूतरी’ की ममता है या विवशता होती है। स्वतंत्र विचरण के लिए कबूतर के पास खुला आकाश होता है, जो उसे दाने के लिए पुकारतें है वह उसी झुण्ड में मिल जाता है और लौटता नहीं, और बाकी बचतें हैं बीट के भद्दें निशान और असहनीय दुर्गन्ध। इसलिए भूमिका में मेहरुन्निसा जी एक चिड़िया का भी  जिक्र करती है,जिसका घोंसला घूरे पर फेंक दिया जाता है पर वह ‘कुछ नहीं कहती एक शब्द भी नहीं और घोंसला बुनने लगती है। ‘मैंने हमेशा इस चिड़िया से प्रेरणा ली है बार-बार टूट कर फिर खड़े होने की शिद्दत से कोशिश की है, यही आत्मबल मैंने अपने पात्रों को देना चाहा’\ यह चिड़िया बाहर की नहीं उनके भीतर की है जो उन्हें शक्ति देती है नये सिरे से तिनके बीनकर घोंसला बनाने की। संग्रह की सभी कहानियाँ ‘स्त्री रुपी चिड़िया’ के संघर्ष को प्रतिबिम्बित करती है जो अपने घर-परिवार विशेषकर बच्चों को लेकर चिंतित है,पल-पल समेटने में सदियाँ बीत गई लेकिन स्त्री आज भी पितृसत्तात्मक समाज की बनाई गई रूढ़ियों और बन्धनों में छटपटा रही है। स्त्री की सुरक्षा उसका अस्तित्व पिता के खूँटे से निकलकर पति तक सिमटा हुआ है पिता के घर फिर भी उसकी इच्छा अनिच्छा को थोड़ा बहुत तवज्जो दी जाती है लेकिन ब्याह के बाद उसका वज़ूद पति के घर (उसका नहीं) तक सीमित हो जाता है। उसकी दिनचर्या में वही गिने चुने काम हैं जिन्हें उसकी माँ और माँ की माँ, सभी स्त्रियाँ करती आई हैं,विडंबना ही है कि सृजन करने वाली माँ की तमाम सृजनात्मकता अवरुद्ध व कुंठित हो जाती है या कहें कर दी जातीं है। ये कहानियाँ स्त्री को नव-सृजन की भूमिका के लिए तैयार करतीं हैं जहाँ वह आगे की राह अभी वह खोज रही है।

एक और सैलाब कहानी’ आधुनिकता के दौर में भीड़ के सैलाब में संवेदनशीलता के बह जाने की निर्मम दास्ताँ है। जिंदगी की भीड़ में जब अपना ही चेहरा गुम हो जाए यानी ‘संबंधो में शून्यता’ आ जाए, जिसे ‘भर पाने’ में भी भय लगता , नीलू की जिंदगी उसी दौर से गुजर रही है जीवन के थपेड़े उसे निरंतर कठोर बना रहें है। पति को एक साथ चार पांच बीमारियों ने आ घेरा अकेली तीन बच्चों की देखभाल और अस्पताल की भागदौड़ करती है, ‘उमेश, मन में किसी प्रकार का विचार नहीं करना, दुख सहने के लिए आदमी को कठोर बना देता है फिर यदि पति अकस्मात मर जाते हैं तो क्या कर लेती? पल-पल कर मौत इसलिए पास आ रही है ताकि मैं कठोर हो जाऊं और बाद की स्थिति को बर्दाश्त कर सकूँ’। और फिर जब वो कहती है- ‘मैंने ही उन्हें नींद की गोलियां ज्यादा दे दी थी… मैं बहुत मजबूर हो गई थी उमेश! भागदौड़ करते-करते मैं थक गई थी, बस इसके आगे प्रश्न ना करना’ उसकी कठोरता जिन पारिवेशिक विवशताओं के चलते क्रूरता में बदल जाती है, वह अविश्वसनीय लग सकता है,लेकिन स्त्रियों की परवरिश ही बेल की भांति होती है या तो जमीन पर पड़ी रहे पाँवो तले कुचलती रहे या किसी दीवार,पेड़ के सहारे ही चढ़ सकती है और यदि सहारा छूट जाए तो औंधे मुंह गिरती है ‘पति का सहारा था वह भी रेत पर बने गीली लकीर के समान किसी ने पैर रख दिया मिट गई ‘भगवान ने मुंह दिया है तो खाने को भी देगा कुछ करते नहीं बना तो शरीर तो बेच ही सकती है मरने के बाद भी तो शरीर नष्ट हो ही जाता है’ नीलू कह रही थी’ लेकिन उमेश ? सड़क पर वही भीड़ का सैलाब उमड़ आया था अपने आसपास इतनी भीड़ देखकर उसे अच्छा लगा मन आया, अच्छा हुआ नीलू इस भीड़ में खो गई’। सच तो यही है कि समाज के इस संवेदनहीन सैलाब में जाने कितनी नीलू खो चुकी हैं जिसे कोई खोजना नहीं चाहता, पाना भले ही चाहे, पर निभाना कोई नहीं चाहता । उमेश जान रहा है कि नीलू अंदर ही अंदर अपने से लड़ रही है उसकी आंखों में उसे व्याकुलता साफ छटपटाती लग रही है लेकिन फिर भी उमेश अनजान बनकर सुकून की सांस लेता है। कहानी के दृष्टांत बहुत ही मारक हैं जो भीतर तक झकझोर देतें है जैसे‘ के भीड़ भरे सैलाब में अपना जाना पहचाना चेहरा खोज पाना मुश्किल होता है…जोर-जोर से पहाड़े रटने वाले बच्चे की तरह बौखलाई-सी जिंदगी’बरामदे में एक भिखमंगा बैठा सूखी रोटी के टुकड़े चबा रहा था उसकी दोनों आंखें भूख से बाहर निकल पड़ने को हो रही थी, दोनों उसके आगे से बढ़ गयें उसे अपनी पीठ पर उसकी आंखें गड़ती-सी लग रही थी… दोनों की दृष्टि नाली के पास बड़ी कुत्तिया पर पड़ी जिसने शायद उन्हें बच्चे को जन्म दिया था और खुद प्रसूति बीमारी में फंस गई थी उसके मुंह में कड़वा सा स्वाद उतर आया। प्रसूति-बीमारी एक संकेत दे रही हैं माँ बनने के कष्ट को जिस तरह महिमामंडित किया जाता है कि वो अपना दुःख तक बयां नहीं कर पाती क्योंकि प्रसूति संबंधी बीमारियां समाज में बीमारियां नहीं मानी ही नहीं गई। 

मेहरुन्निसा परवेज़ जी ने हिंदी में खूब लिखा लेकिन उन पर चर्चा कितनी हुई? मैं नहीं जानती कि उनकी कहनियों को अंग्रेजी में अनुदित किया गया या नहीं?

संवादों में निहित उक्तियां जीवन के यथार्थ प्रस्तुत करतीं हैं ‘उमेश कोई कब तक एहसान करेगा पहली बार किया उपकार होता है, दूसरी बार का एहसान होता है और तीसरी बार उपेक्षा होती है…बात क्या करें पापा तो बोल नहीं सकते चुपचाप देखते हैं उनकी आंखों से पानी बहता है अच्छा पानी बहता है या रोते हैं… “हट पापा लोग रोते थोड़ी हैं मम्मी कहती है आंख से पानी बहता है”  ‘मर्द को दर्द नहीं होताएक ऐसा मुहावरा है जो पुरुष को वास्तव में पत्थर बना देता है,तुम एक ऐसी  पत्नी के बारे में कल्पना कर सकते हो जो पति की मौत के पहले ही उदासी में जी रही हो और उस छोटी सी बच्ची का वक्तव्य (संवाद नहीं) मम्मी नहीं है पापा मर गए आप चौंक जातें हैं बच्चे के शब्दों में इतनी जड़ता ये संवेदन हीनता है अथवा अभाव जनित भावहीनता! कहनी का पूरा परिदृश्य संवेदनहीन समाज का यथार्थ उजागर करता है ।

‘सिर्फ एक आदमी’ कहानी ‘सिर्फ एक आदमी की नहीं है यह एक ‘पिता’ है जो पितृसत्तात्मक ढाँचे का प्रतिनिधित्व कर रहा है जिसमें वह समस्त समाज को अपने हिसाब से फिट करना करना चाहता है,जो विशेषकर स्त्री पर वह अपना नियंत्रण रखता है और स्वयं जब-तब अनियंत्रित हो सकता है अपनी बेटी सुमी की पीठ पर बेल्ट के निशान सूखने भी न पायेंगे कि  उन्हें फिर लाल कर देगा, परिवार में मुखिया होने का दम्भ उसके हर शोषण को जायज़ ठहराता है ऐसे घर में स्त्री के लिए कोई स्पेस नहीं  ‘25 बाई 50 के प्लाट पर करीब 15 फैमिली जी रही थी मकान देख लगता है जैसे उन्होंने हवा निकालने की भी जगह नहीं छोड़ी जैसे बरसाती पुलिया के नीचे ढेरों सूअर भरे हों…रसोई के छोटे से कमरे में घर का सामान भरा था एक खिड़की को ड्रेसिंग रूम बनाया गया था दूसरी में लॉ के कोर्स की पुस्तकें जमी थी तीसरी में मौसी ने पूजा का सामान सजा रखा था’। मौसा मिस्त्री का काम खुद कर रहे हैं ‘अरे अतुल यह दीवार कहीं तिरछी तो नहीं हुई घर में तो साले सब नमकहराम है’ ‍‍अपनी पत्नी और बेटियों के साथ न बैठना उस पिता का  अहंकार है अथवा कुंठा अथवा दोनों वह अतुल से कहता है – ‘नीचे क्या रखा है सिवा बकरियों के राज के’ वास्तविकता है कि वे जितना हाय-हाय करते हैं उतनी फिकर दूर करने की कोशिश नहीं करते यह पांच-पांच लड़कियों के विवाह का दबाब ही है,जब रुपया जोड़ना चाहिए था तब तो नहीं जोड़ा, अब ब्याह के लिए पैसा नहीं बन पड़ रहा है तो बौरा गये हैं, चारों  लड़कियों को लॉ पढ़ा रहे हैं परम्परागत विचारों की माँ अलग पगला चुकी है- कि ‘लॉ पास करवाकर लड़कियों का क्या करना है’ दहेज़ प्रथा की विद्रूपताओंके लक्षण इस पोरे परिवार पर देख सकतें हैं ,वास्तव में वे लड़के वालों की मांग पूरी ही नहीं कर सकते इसलिए सुमी के लिए कितने रिश्ते आते हैं पर उन्हें कोई पसंद नहीं आता।और अपनी कुंठा जवान लड़कियों को पीटकर निकालते हैं, पहले भी कहाँ धैर्य था ‘पहले अपने बच्चे के रोने पर मुझे रात को दरवाजे के बाहर कर देते थे’।… सारे घर में उनका आतंक छाया रहता है अब तो मैं हर सुबह जब उठती हूं तो डर लगता है कि कहीं माँ ने आत्महत्या कर ली’ सिर्फ एक आदमीका वर्चस्व परिवार को खोखला कर रहा है जबकि उसकी भीतरी जड़े वास्तव में कमजोर हो चुकी है, उस पितृसत्ता को माँ बेटियां सभी मौन स्वीकृति दे रहीं हैं। सुमी कहती है – ‘लगता ही नहीं किसी का घर है लगता है किसी अस्पताल का जनरल वार्ड हो’। यह वाक्य परिवार-संस्था के बीमार होने की व्याख्या कर रहा है और इसका चरम तब होता है जब अंत में वह कह उठती है- ‘अतुल क्या तुम बप्पा  की मौत तक इंतजार नहीं कर सकते जिस दिन बप्पा मरेंगे मैं तुम्हारे पास चली जाऊंगी’ सड़क की बत्ती अचानक चली गई’ और अंधेरे में डूबा माहौल संकेत है कि दूर-दूर तक कहीं कोई रौशनी नहीं जो परिवार में एक लड़की को स्वतंत्र परिवेश दे सके। पिता के लिए सुमी की सोच किसी को भी स्तब्ध कर सकती है लेकिन इस वाक्य की पीड़ा को सम्भवत: वही समझ सकता है जिसे उस तरह भीड़ भरे घर में जानवरों की तरह रहना पड़ा हो, जहाँ बैठकर वे अपने भविष्य, अपने सुखद सपनों के बारे में भी न सोच पाए आपसे आपके विचार आपकी आजादी छीन ली गई हो सुमी की माँ कहती है– ठाकुर जी की मूर्ति भी थोड़ी जगह में आ जाती है तो तुम लोग क्यों इतना जी जलाती हो … माँ को कौन समझाए ठाकुर जी को हमारी तरह चलना फिरना नहीं होता उन्हें सपने नहीं आते , उनके मन में कोई इच्छा नहीं जागती ,पर हम इंसान हैं ,हमें पूरा हम मिलना चाहिए ना! इंसान होकर जीना बहुत मुश्किल है’ सुमी के संस्कार,पारिवारिक नैतिक मूल्य असंतोष के बावजूद विद्रोह नहीं कर पाते,पर उसके संवाद पितृसत्ता को चुनौती देने के लिए लेकिन तत्पर है और यही कहानी की सफलता भी है।

त्योहार, मेहरुन्निसा जी की कहानी ‘त्योहार’ पढ़ने के बाद प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ कहानी गुलाब के फूल-सी आकर्षक प्रतीत होगी, जिसमें हमें गुलाबी रंग और उसकी खूबसूरती ही दिखाई पड़ती है, कांटे दिखते भी हैं तो चुभते नहीं। ईदगाह में ‘ईद’ पर सभी खुश थे और लड़के सबसे ज्यादा ख़ुश’ प्रेमचंद का हामिद एक तरफ अत्यंत भोला और सरल है और दूसरी तरफ उसकी बुद्धि में परिपक्वता का विलक्षणता है जो लेखक की सोच, आदर्श और धारणा को ही अधिक दर्शाता है। जबकि मेहरुन्निसा जी कहानी ‘त्योहार’ की शानो का अल्लहड़पन,उसकी ज़िद और बिल्लियों के साथ उसकी बालसुलभ शरारतें अत्यंत स्वाभाविक लगती हैं, ईद पर जब माँ के दूर के रिश्ते के भाई  जकात में पीले साटन का फूलों वाला कपड़ा भेजता हैं,तो साटन का वह कपड़ा अम्मा की नज़रों में चुभने-सा लगता है तो पाठकों का ह्रदय द्रवित हए बिना नहीं रहता, अम्मा जो अब तीज- त्योहार से चिढ़ने लगी थी उनका कहना था ‘त्योहार में दूसरों के सामने नंगा करने चले आते हैं’। ‘त्योहारों की उदासी को कहानी के साथ जुड़कर ही महसूस किया जा सकता है।जब शानो बार बार अम्मा को झंझोड़ती कि आखिर हमारे घर नए कपडे क्यों न आये तो अम्मा चिढ़ जाती ‘आखिर ईद में नए कपडे पहनना क्या ज़रूरी है लोग क्यों बार-बार पूछते हैं हम किसी की ढकी हांड़ी खोलने नहीं जाती ?..जैसे जैसे ईद नजदीक आती उनके चेहरे की चिढ़चिढ़ाहट में बदल जाती’ पहले कितनी बेसब्री से ईद का इंतजार होता है और अब ईद के नाम पर जैसे घर में खामोशी आ जाती है ‘ईद’ शब्द डरावना लगने लगता है। तब अम्मा को उतनी नहीं जितनी मरे हुए बेटे सलीम की याद आती है शायद यही कारण है कि मोहल्ले के रमजानी का नाम आते ही वह चिढ़-सी जाती है रमजानी जिसने पिता के मरने के बाद घर को इतना संभाल लिया था  कि मोहल्ले के रईसों में उसका नाम होता है तो क्या लड़की होने के कारण अम्मा को शानो के भविष्य से उसे कोई उम्मीद नहीं,वास्तव में ये उसकी पितृसत्तात्मक सोच भी ही है। त्योहार उत्सव सुविधओं के होने पर ही भले लगते हैं पर यदि स्त्री के तथाकथित आश्रयदाता पति की असामयिक मृत्य हो जाए तो उसके लिए परिवार का पालन-पोषण अत्यंत कठिन हो जाता है,   सहानुभूति के स्थान पर ’विधवा’ का सामाजिक कलंक, पुरुषों की कुदृष्टि तिसपर शिक्षा का अभाव ,बाहरी दुनिया से बेख़बर क्योंकि कभी बाहर अकेले भेजा ही नहीं गया, बिना आर्थिक सुरक्षा के भला कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि दुनिया का मुकाबला कर पाएगी। ‘भविष्य के सैंकड़ों प्रश्न मुँह फाड़े खड़े हो जाते हैं’ अंडे वाली खाला के शौहर मरे तो उन्होंने अंडे खरीद कर बेचने का धंधा शुरू कर दिया अम्मा खाला के लिए कहती है-.… मरद के मरते ही जाने ये कैसे ये फकीरों में शामिल हो गई..इसे जरा शर्म नहीं है जकात के कपडे पहनती है और खाला भी किसी दूसरी विधवा पर लांछन लगाने से बाज़ नहीं आती ‘देखो ऐसे होती हैं, बड़े घर की पोल ,मुझ गरीबनी को सब नाम रखते हैं करीम की छम्मक छल्लो स्कूल में मास्टरनी हो गई!  तब अम्मा कहती है … बहन मरद मर गया, तीन तीन बच्चों को छाती पर खूंटे की तरह गाढ़ गाया, नौकरी करके नहीं खिलाएगी तो किस टूकने में ढांकेगी तीनों को।

कहानी त्योहारों के धार्मिक परिप्रेक्ष्य और गरीबी पर मेहरुन्निसा जी खाला के माध्यम से टिपण्णी करती है- ‘हर घर घूमने वाली ठिगने कद की खाला रोजे नमाज़ से दूर ही रहती है कोई टोकता तो साफ सुना देती भाई बिना झूठ बोले हमारे रोजगार नहीं चलता दिन में 25 झूठ बोलने पड़ते हैं ऐसे में क्या रोजा रखे हम गरीबों का तो हर दिन रोजा है’। अंत में जब खाला थैले से कपड़ा निकालती है, लालटेन के उजाले में खाला ने कपड़े को फैला दिया तो लालटेन के उजाले में अम्मा की परछाई कांपती सी लगी अम्मा की पीली पीली आंखें बरसाती डबरा की तरह भर गई थी जैसे उन्होंने गरीब होना कुबूल कर लिया था और पहली बार जकात लेने वालों की लाइन में अपने आप को खड़ा पा रही थी।

‘तीसरा पेंच’ कहानी स्त्री पुरुष के सनातन संबंधों से इतर समलैंगिक संबंधों की ओर संकेत करती है। कहानी के अंत में बड़े ही रहस्यमय ढंग से होता है और जितना समझ आता है कि  जाफरी समलैंगिक है।आरम्भ में उसका कहना – बार-बार दरवाजा खटखटाने पर भी दरवाज़ा न खोलना और खोलने पर असहज प्रतीत होना, खोलने से पहले भीतर बहुत भीतर हलचल हुई और रबड़ के स्लीपर का फर्श पर रगड़ खाने का आभास मानो कुछ जल्दबाजी में किया जा रहा है। ‘उसके’ आने से जाफ़री चेहरे पर प्रसन्नता के कोई लक्षण नहीं दिखे थे। और ये कहना कि एक लंबे समय के बाद में अपने घर में किसी स्त्री को देख रहा हूं तो फिर बाथरूम में वो वह लहंगा ?  रंग-बिरंगे जोकर जैसे पायजामे पहनना, प्रश्न करने पर कि तुम रंग-बिरंगे पजामे क्यों पहनते हो उसने कोई उत्तर नहीं दिया बल्कि ऐसा प्रतीत हुआ कि उसको यह प्रश्न करना अच्छा नहीं लगा। अंत में जब स्त्री लहंगे को देखती हैं तो पहले उसे हंसी आती है कि ये लहंगा भी पहनता है फिर अचानक एक विचार उसके मन में कौंधा और वह आश्चर्य में पड़ गई बाथरूम से तुरंत निकल आई । लौटने लगी तो पहली बार उसके मन तो फटे आंचल कर दुख घेरे था।

जाफरी की  दूसरी पत्नी शीला के किसी और से संबंध थे सुनने में आया उसके प्रेमी ने ही उसकी हत्या की थी पहली पत्नी से तलाक ले चुका था। बच्चों को मां पाल रह थी तो वह माँ और बच्चों को अपने साथ क्यों नहीं रखता ? शायद उसने इसका उत्तर नहीं खोजा था, मां बूढ़ी है तो बच्चों की वहां अकेले कैसे देखभाल कर रही है, आंखों के सामने बच्चे और माँ दोनों रहेंगे तो देखभाल ज्यादा अच्छी होगी न? स्त्री के कहने पर कि ‘क्या तुम भी समाज के बनाए बंधन को संबंध कहते हो’ तब देव प्रसन्न लग रहा था। ‘तीसरी गली’ पर अब अपना आखिरी मकान बनेगा,जिस जीवन साथी की तलाश है वह जल्दी ‘आने वाला’ है कहनी संकेतों के माध्यम से स्पष्ट कर रही है कि जाफरी अपने संबंधो को समाज में उजागर नहीं कर पा रहा, जो वास्तव में उसकी कमी नहीं सामजिक मानसिकता का प्रभाव है,पर उसके लिए वह दूसरों की जिंदगियों   से क्यों खेल रहा है?वह पढ़ा-लिखा है सरकारी नौकरी कर रहा है पर सामाजिक दबाब के कारण अपने संबंधों के यथार्थ को छिपाना उसकी विवशता है क़ानून बन जाने के बावजूद समलैंगिक संबंधों को आज भी सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिली है ।

क्रमश:(इसी संग्रह की बाकी कहानियों पर रविवार को )

सभी चित्र गूगल से साभार

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ISSN 2394-093X
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