औरतें उठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जायेगा (भारती वत्स) की कविताएं
तुम
अपनी निरँकुशताओँ की
उन कार्यवाहियों से
जिनकी बहुत भारी कीमत
चुकाई है
उन लोगों ने
जिनने खडे होने का साहस
किया था
तुम्हारे विरुद्ध ….
और अकस्मात
पड़ गये थे
निपट अकेले
भारतेन्दु हरिश्चंद्र की पत्रकारिता और स्त्री-मुक्ति के प्रश्न
यह कहना कतई गलत न होगा कि उन्नीसवीं सदी के हिन्दी समाज का लोकवृत्त भारतेन्दु के इर्द गिर्द ही गढ़ा जा रहा था। उस युग में सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक बदलावों का वाहन बनने वाली कई महत्त्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना भारतेन्दु ने की थी। उनके युग के सभी महत्त्वपूर्ण रचनाकार और पत्रकार हरिश्चंद्र मंडल में शामिल थे। रामविलास शर्मा ने भारतेन्दु युग नामक अपनी पुस्तक में लिखा है
‘लिखो इसलिए’ व श्रीदेवी की अन्य कविताएं
भाषाकितना अच्छा होता कि तुम्हारा भी अस्तित्व होता
श्रीदेवी छत्तीसगढ़ रायपुर में रहती हैं. पिछले एक...
मैं अमर बेल को गाली नहीं देता और अन्य कविताएं (कवि:एस एस पंवार)
कितनी ही बार वो मर्लिन मुनरो होते-होते बची और उसने
अपनी दीवार पर नए कैलेंडर टांगे,
एक अस्तित्वहीन मुल्क का समाजशास्त्र
उसे काटता रहा बार-बार
“केदारनाथ सिंह की कविताओं में स्त्री”
यह सर्वविदित है कि गया वक्त पुनः लौटकर नहीं आता . फिर भी कवि का यह प्रयास है कि उस उधड़े हुए समय को फिर से सिलने का प्रयत्न किया जाए ! यहाँ हमें कवि के आशावादी होने का परिचय मिलता है . जीवंतता का परिचय मिलता है . सुई और तागे की बात करते हुए करघे की बात करना, इस बात का संकेत है कि केदारनाथ जी कहीं-न-कहीं महात्मा गांधी के लघु-कुटीर उद्योग से प्रभावित थे और हथकरघा पद्धति में भी विश्वास करते थे .
औरतें अपने दु:ख की विरासत किसको देंगी
माँ-बेटी के आपसी संवाद एक दूसरे के पूरक नजर आते हैं। जिन्दगी के सारे रंग खासकर स्त्री जीवन के सारे रंग हर्ष, ख़ुशी, उत्साह, दुःख, शोक, वियोग, अकेलापन आदि एक दूसरे से गूंथे हैं। “ऐ लड़की अँधेरा क्यों कर रखा है! बिजली पर कटौती! क्या सचमुच ऐसी नौबत आ गई है”
पंखुरी सिन्हा की कविताएं (घास पटाने के मेरे बूट व अन्य)
पंखुरी सिन्हा युवा लेखिका, दो हिंदी कथा संग्रह ज्ञानपीठ से, तीन हिंदी कविता संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह।
कविता की प्रकृति ही है समय से आगे चलना
इन प्रमुख प्रगतिशील कवियों के पीछे प्रगतिशील लेखक संघ काम कर रहा था और साहित्य में प्रमुख रूप से जनवादी चेतना और फासिज़्म के विरोध के पीछे भी प्रगतिशील लेखक संघ काम कर रहा था। राजसत्ता, राजतंत्र के ख़िलाफ़ जनवादी आवाज़ का उठना ही तत्कालीन स्थिति के आधार पर बड़ी बात थी। 1942 की अगस्त क्रांति, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का रूस समेत मिश्र राष्ट्रों का और एक तरह से ब्रिटिश सरकार का ही पक्ष समर्थन करना, इसी बीच बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा, इस तरह देखा जाए तो 1939 से 1946 तक का दौर अनेक प्रकार के जटिल राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों का दौर बन गया।
आबिदा (परिमला अम्बेकर की कहानी)
‘‘अम्मा आजकल मय्यत उठने के लिए भी बीस पच्चीस हजार
लगते हैं !!‘‘
जब से खबर मिली है आबिदा...
आम्रपाली ( रेनू यादव की कविताएं)
मस्तक गिरवी पैर पंगू
छटपटाता धड़ हवा में
त्रिशंकू भी क्या
लटके होंगें इसी तरह शून्य में ?
रक्तीले बेबस आँखों से
क्या देखते होंगे इसी तरह
दो कदम रखने खातिर