हिंदू कोड बिल और डॉ. अंबेडकर
डॉ. अंबेडकर राजनीति के आकाशगंगा के ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र हैं जिनकी छवि कालांतर में भी धूमिल नहीं हो...
प्रोफ़ेसर रतनलाल की रिहाई!
यह आंबेडकरवाद और एकजुट लड़ाई की जीत है
एच. एल. दुसाध
सत्ता का रवैया
देखते हुए...
कानूनी भेदभाव: बेड़ियाँ तोड़ती स्त्री (सी.बी.मुथम्मा)
उल्लेखनीय है कि अदालत में बहस के दौरान महाधिवक्ता सोली सोराबजी ने सरकार की तरफ से दलील दी थी कि महिलाओं द्वारा विवाह करने की स्थिति में, गोपनीय और महत्वपूर्ण सरकारी सूचनाओं और दस्तावेजों के लीक होने का खतरा या संभावना बढ़ सकती है। इस पर न्यायमूर्ति अय्यर ने पूछा था "क्या पुरुषों द्वारा शादी करने से यह खतरा या संभावना शून्य है?"
सत्ता में भारतीय महिलाओं की उपस्थिति: सामर्थ्य, सीमाएँ एवं संभावनाएँ
अन्तरराष्ट्रीय मंचो पर महिला प्रश्न पर चली आ रही बहस और आन्दोलन का अपना एक लम्बा इतिहास रहा है। पूरे विश्व में विधायिकाओं में सिर्फ 10.5 प्रतिशत महिलाएँ हैं और मंत्री पद पर सिर्फ 6 प्रतिशत महिलाएँ है। हमारे देश की स्थिति हमारे पड़ोसी देशों से भी बदतर है। हमारे देश में भी महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण का प्रश्न अचानक ही उत्पन्न नहीं हुआ। 1947 में महिलाओं की स्थिति के संबंध में तैयार हुई रिपोर्ट में एक पूरा अध्याय ही महिलाओं की राजनीतिक स्थिति के बारे में था और इसमें विशेष रूप से इस बात का उल्लेख किया गया था कि महिलाओं की खराब स्थिति के लिए उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के साथ ही उनकी राजनीतिक स्थिति भी जिम्मेदार है और इससे उबरने के लिए विधायक निकायों में आरक्षण के बारे में कहा गया था.
इंसाफ करने के नाटक-नौटंकी की क्या जरूरत: अरविंद जैन
सुप्रीम कोर्ट ने अपने मुख्य न्यायधीश पर लगे आरोप को खारिज कर दिया और इसपर अपनी रिपोर्ट जारी करने से इनकार भी...
पैतृक सम्पत्ति, कृषि भूमि और स्त्रियाँ
'कृषि भूमि' विवाद की पृष्ठभूमि यह है कि एक था लाजपत जिसकी मृत्यु के बाद, उसकी कृषि भूमि उसके दो पुत्रों नाथू और संतोख को मिली नाथू ने अपना हिस्सा एक बाहरी व्यक्ति को बेच दिया। संतोख ने मामला हमीरपुर अदालत में दायर कर कहा कि (उत्तराधिकार कानून[7] की धारा 22 के अनुसार) उसे इस मामले में प्राथमिकता पर संपत्ति लेने का अधिकार है।
बेड़ियाँ तोड़ती स्त्री : मेरी रॉय, जिसने सम्पत्ति में समान उत्तराधिकार की लड़ाई...
मुकदमें की पृष्ठभूमि यह है कि केरल में ईसाई समुदाय में संपत्ति पर अलग-अलग उत्तराधिकार कानून थे, जो प्राचीन काल से धर्मशास्त्रों के आधार पर बने-बनाये गए थे। लम्बे समय तक यह सिलसिला चलता रहा। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रथा और कानून होने के कारण, अनिश्चितता और संपत्ति विवाद बढ़ते जा रहे थे। 1916 में त्रावनकोर में राजशाही थी और महाराजा ने सभी नियमों को मिला कर भारतीय ईसाईयों के लिए उत्तराधिकार सम्बन्धी पहला कानून त्रावणकोर ईसाई उत्तराधिकार अधिनियम, 1916 (अधिनियम, 1916) बनाया था।
बेड़ियाँ तोड़ती स्त्री: करुणा प्रीति: अनब्याही माँ का संतान के संरक्षकत्व का संघर्ष
सच यह है कि पितृसत्तात्मक समाजों में, विवाह संस्था के 'अंदर' पैदा हुए बच्चे वैध मगर विवाह संस्था के बाहर (अनब्याही, विधवा या तलाकशुदा स्त्री से) पैदा हुए बच्चे अवैध कहे,माने (समझे) जाते हैं। न्याय की नज़र में, 'वैध' संतान सिर्फ पुरुष की और 'अवैध’ स्त्री की होती है। इसीलिए वैध संतान का 'प्राकृतिक संरक्षक' पुरुष (पिता) और ‘अवैध’ की संरक्षक स्त्री (अनब्याही, विधवा या तलाकशुदा माँ) होती है। उत्तराधिकार के लिए वैध संतान और वैध संतान के लिए-वैध विवाह होना अनिवार्य है।'अवैध संतान' पिता की संपत्ति के कानूनी वारिस नहीं हो सकते।
यौन-उत्पीड़न की जांच आरोपी मुख्य न्यायाधीश ही कैसे कर सकते हैं!
उनका ये कदम न्याय की मोटी से मोटी समझ रखने वाले के लिए भी पचाना इसलिये मुश्किल है कि कोई आरोपी अपने ही खिलाफ दर्ज शिकायत की सुनवाई कैसे कर सकता है? यदि ये बेंच गठित की गयी तो इस बेंच में किसी महिला न्यायाधीश को क्यों नहीं रखा गया? विशाखा एक्ट के तहत ऐसे किसी भी मामले की सुनवाई के लिये बेंच में महिला न्यायाधीश का होना या मेजॉरिटी में महिलाओं का होना जरूरी है.मुख्य न्यायाधीश की ये हड़बड़ी क्या कहती है?
और भी तरीके हैं (तीन) तलाक-ए-बिद्दत समाप्त करने के: सरकार बहादुर की मंशा पर...
सात बिन्दुओं पर आधारित यह बिल अभी भी तीन तलाक बोलने वाले पति को तीन साल की सजा़ देने पर कायम है। अभी भी यह अपराध संज्ञेय और गैर जमानती होगा। इसका अर्थ है कि तीन तलाक़ बोलने वाले शौहर को पत्नी या उसके खून के रिश्तेदारों की शिकायत पर फ़ौरन पुलिस जेल ले कर चली जाएगी और उसे तीन साल तक की सजा दी जाएगी। बिल में खून के रिश्तेदारों की परिभाषा भी स्पष्ट नही है।