‘निल बट्टे सन्नाटा’ और घरेलू कामगार महिलायें

जावेद अनीस

एक्टिविस्ट, रिसर्च स्कॉलर. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार . संपर्क :javed4media@gmail.com
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विदेशों में सभी परिवार “घरेलू सहायक” अफोर्ड नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनकी पगार बहुत ज्यादा होती है, लेकिन भारत में “काम वाली बाई” रखना बहुत सस्ता है. शायद इसी वजह से यहाँ घरेलू कामगार महिलायें अदृष्य सी हैं. उनके काम को आर्थिक और सामाजिक रूप से महत्त्व नहीं दिया जाता है, हालाँकि इन दोनों ही क्षेत्रों में इनका महत्वपूर्ण योगदान है. भूमंडलीकरण और बढ़ते शहरीकरण के साथ संयुक्त परिवार खत्म हो रहे हैं, अब पति-पत्नी दोनों ही काम के लिए बाहर रहते हैं जिसकी वजह से घर पर बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल के लिए परिवार का कोई सदस्य मौजूद नहीं होता है. ऐसे में इनकी देखभाल और अन्य घरेलू कामों के लिए कामगारों की जरुरत पड़ती है इसलिए घरेलू कामगारों की मांग बढ़ती जा रही है अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक, भारत में करीब छह करोड़ घरेलू कामगार महिलाएं हैं. राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएसओ) 2004-05 के अनुसार, देश में लगभग 47.50 लाख घरेलू कामगार हैं. इस क्षेत्र में जिस तेजी़ से बढ़ोत्तरी दर्ज हो रही है उस लिहाज से वर्तमान में  इनकी संख्या काफी बढ़ चुकी होगी.

भारत में घरेलू काम का लम्बा इतिहास है, परम्परागत रूप से पहले महिला और पुरुष दोनों ही नौकर के तौर पर काम करते रहे हैं, इसका संबध जाति से रहा है जैसे कि वंचित जातियों के लोगों से साफ-सफाई का काम कराया जाता था जबकि ऊँची जातियों से खाना बनाने का काम कराया जाता था. हालाँकि भारत में घरेलू काम नया पेशा नही है लेकिन इसे मात्र सामंतवादी संस्कृति के नौकरों के तौर पर नही देखा जा सकता था. वर्तमान समय में ग्रामीण और शहरी संदर्भों में कामगारों और काम में बड़ा बदलाव देखने को मिलता है, अब इस क्षेत्र में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ा है. शहरी क्षेत्रों में तो ज्यादातर महिलायें ही घरेलू कामगार के तौर पर काम करती हैं, इनमें से अधिकतम ऐसी हैं जो गावों से पलायन कर रोजगार की तलाश में शहर आती हैं. शहरी मध्यवर्ग को घरेलू काम व बच्चों की देखभाल के लिए घरेलू कामगारों की जरूरत पड़ती है और वे इस जरूरत को पूरा करती हैं. आमतौर पर ये महिलायें कमजोर जातियों से होती हैं और कम पढ़ी-लिखी या अशिक्षित होती हैं और इसी वजह से उनके पास घरेलू कामगार बनने जैसी सीमित कामों का ही विकल्प होता है.

इनकी दिनचर्या बहुत लम्बी और थकाऊ होती है और उनके कार्यास्थल के हालात बहुत खराब होती है. हमारे देश में सदियों से चली आ रही मान्यताओं की वजह से आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकरानी का दर्जा दिया जाता है. उन्हें अपने काम के बदले कम वेतन मिलता ही हैं साथ में उन्हें कमतर भी माना जाता है, उनके साथ जातिगत भेदभाव भी होते हैं. उन्हें सम्मान नही दिया जाता है, कानूनी रूप से भी उन्हें उन्हें श्रमिक का दर्जा नहीं मिल सका है. घरेलू कामगार जटिल परिस्थितियों का सामना करते हैं, उनके श्रम का अवमूल्यन उन्हें सामाजिक और आर्थिक तौर पर निम्न स्तर पर रखता है. कार्यस्थल पर इन्हें कम मजदूरी, काम का समय तय ना होना, कम पैसे में ज्यादा काम करना, नियोक्ताओं का गलत व्यवहार, शारीरिक व यौन-शोषण जैसी समस्याओं को झेलना पड़ता है. एक अध्ययन के अनुसार घरों में काम करने वाले कामगार किसी न किसी तरीके से प्रताडि़त होते रहते हैं, आम तौर पर नियोक्ता का व्यवहार इनके प्रति नकारात्मक होता है, कुछ कामगारों के साथ अछूतों की तरह व्यवहार किया जाता है और काम की जगहों के अलावा उनके बाकी घर में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी जाती है, उन्हें अपमानजनक संबोधन से बुलाया जाता है, घर में कुछ भी चीज चोरी हो तो सीधा इन पर ही इलजाम लगाया जाता है, घरेलू कामगारों के साथ दुर्व्यवहार, शारीरिक और मानसिक हिंसा एवं यौन उत्पीड़न की घटनाऐं आये दिन सुर्खियां बनती हैं.

महिला बाल विकास विभाग द्वारा 2014 में संसद में दी गई जाकारी के अनुसार वर्ष 2010 से 12 के बीच देश में घरेलू कामगारों के प्रति अपराध के 10503 केस दर्ज हुए है जिसमें साल 2012 में 3564 मामले दर्ज हुए. भारत में विशिष्ट कानूनों का अभाव,शिक्षा और कौशल की कमी और समाज में व्याप्त सामंतवादी मानसिकता के कारण घरेलू कामकाजी महिलाओं की यह स्थिति बनी है.सरकार द्वारा उनके काम को श्रम की श्रेणी में स्वीकार नही किया गया है और इसे समाज और अर्थव्यवस्था में योगदान के तौर पर मान्यता नही दी जाती है. घरेलू कामगारों को संगठित करने वाले ट्रेड यूनियन और संगठन लगातार उनके पक्ष में एक कानून बनाने को लेकर सरकार पर दबाव डाल रहे हैं ताकि उनकी परिस्थितियों में सुधार हो और उन्हें सम्मान, उचित वेतन, अवकाश बोनस आदि मिल सके. ‘निल बट्टे सन्नाटा’ फिल्म इसी तरह के एक “काम वाली बाई” और उसकी बेटी की कहानी है. वैसे तो हमारी ज्यादातर फिल्में दर्शकों को अपनी ही रची गयी फतांसी दुनिया की सैर कराती हैं, लेकिन इनमें कुछ फिल्में ऐसी भी होती है जो वास्तविक दुनिया और इंसानी सपनों का अक्स बन जाती हैं. अजीब से नाम वाली “निल बट्टे सन्नाटा’ एक ऐसी ही फिल्म है जहाँ “काम वाली बाई” और एक सरकारी स्कूल प्रिंसिपल प्रमुख किरदारों के तौर पर मौजूद हैं. इन किरदारों को निभाने वाले कलाकार भी कोई सुपरस्टार नहीं है. इन सबके बावजूद 1 घंटे 40 मिनट की यह फिल्म आदर्शवादी या लेक्चर झाड़ने वाली फिल्म ना हो कर आपको रोजमर्रा की जिंदगी से सामना कराती है और वास्तविक जीवन में चीजें और घटनायें जिस रूप में हो सकती हैं उन्हें उसी तरह दिखाने की कोशिश करती है.

कहानी के पृष्ठिभूमि में अपने ताजमहल के लिए मशहूर शहर “आगरा” है जहां किसी एक स्लम-नुमा लेकिन मिक्स्ड बस्ती में चंदा सहाय (स्वरा भास्कर) अपनी बेटी अपेक्षा उर्फ अप्पू (रिया शुक्ला) के साथ रहती है,चंदा एक सिंगल मां है जो “बड़े लोगों” के घरों में जाकर काम करती है, उसे अपनी बेटी से बड़ी अपेक्षायें है शायद इसीलिए वह उनका नाम “अपेक्षा” रखती है, चंदा अपने बेटी के भविष्य के लिए बहुत चिंतित रहती है और नहीं चाहती कि उसकी बेटी को भी उसी की तरह “नौकारानी” बन कर रहना पड़े, हर गरीब की तरह वह भी चाहती है कि उसकी बेटी पढ़-लिख कर कुछ बन जाए, इसीलिए वह अक्सर अपनी बेटी से पूछती रहती है कि “बेटा अप्पू तू पढ़ लिख कर क्या बनेगी ?” वह खुद उसे डॉक्टर या इंजीनयर बनाना चाहती है इसीलिए  वह घरों में काम के अलावा एक चमड़े के जूते की फैक्ट्री में भी काम करने लगती है. अप्पू एक तरह से उसका सपना है.
इधर हर बच्चे की तरह “अप्पू” भी अपनी ही दुनिया में मस्त रहती है, पढ़ाई से ज्यादा उसका मन मस्ती में लगता है, उसे अपनी माँ के सपने से कोई फर्क नहीं पड़ता है और वह इस पर ज्यादा ध्यान भी नहीं देती है। उसे लगता है कि जिस तरह से इंजीनयर का बेटा इंजीनयर बनता है और डॉक्टर का बेटा डॉक्टर उसी तरह से बाई की बेटी बाई ही बन सकती है। उसे तो यह भी लगता है कि उसकी माँ अपने सपने उस पर थोप रही है। उसके दिमाग में यह कड़वी सच्चाई भी है कि अगर वह मैट्रिक पास भी हो जाए तो उसकी माँ  के लिए उसे आगे पढ़ना आसन नहीं होगी.

 “अप्पू” गणित में “निल बट्टे सन्नाटा” यानी काफी कमजोर होती है इसलिए जब वह दसवीं क्लास में पहुँचती है तो उसकी मां को काफी चिंता होने लगती है. चंदा जिन डॉक्टर दीवान (रत्ना पाठक शाह) के यहाँ काम करती है, संयोग से वे काफी अच्छी और मददगार होती हैं, उन्हीं की सलाह पर चंदा अपनी बेटी को प्रेरित करने उसी स्कूल में दाखिला लेती है जहां अपेक्षा पढ़ती है, यहाँ दोनों का सामना खुशमिमाज और मेहनती प्रिंसिपल (पंकज त्रिपाठी) से होता है जो गणित पढ़ाते हैं. एक ही क्लास में पढ़ते हुए दोनों के बीच एक अजीब सा तनाव पैदा हो जाता है. यही तनाव फिल्म को अपने अंजाम तक ले जाती है. स्वरा भास्कर हमारे समय की एक जागरूक और हिम्मती अभिनेत्री है, पिछले दिनों हमने उन्हें सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर लिखते और बोलते सुना है, वे भीड़ में अलग नजर आती हैं, उनके अभिनय में स्वभाविकता है और अपने किरदारों को निभाते हुए वे खुद की पहचान खो देती है, यहाँ भी उन्होंने निराश नहीं किया है, उनकी बेटी बनी रिया शुक्ला ने भी उनका अच्छा साथ दिया है. अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने एक बार फिर चौकाया है, उनमें मौलिकता है और वे लगातार अपने आप को निखार रहे हैं इस फिल्म के बाद उन्हें इग्नोर करना आसान नहीं होगा. मालकिन के किरदार में रत्ना पाठक शाह हमेशा की तरह बेहतर हैं.

निर्देशक के तौर पर ‘निल बट्टे सन्नाटा’ अश्विनी अय्यर तिवारी की पहली फिल्म है, वे ऐड मेकिंग से फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में आई हैं, सब कुछ रियलस्टिक रखते हुए उन्होंने रोजमर्रा की आम जिंदगी को बहुत खूबसूरती से पर्दे पर उतारा है, वे उम्मीद जगाती हैं. फिल्म की शूटिंग आगरा में की गयी है लेकिन एक भी क्षण ऐसा नहीं हैं जहाँ फोकस “ताज” पर जाता हो, एक-आध सीन में अगर “ताज” नजर भी आता भी है तो वह नेपथ्य में है, धुंधला और अपने आप में सिमटा सा, मानो वह अपने पूरे वैभव और खूबसूरती से कहानी में कोई खलल ना डालना चाहता हो. यह एक साधारण सी कहानी है जहाँ सपने और हकीकत एक साथ चलते हैं, जहाँ आम जीवन की तरह एक गरीब मां अपने स्थिति से बाहर निकलने के लिए अपनी बेटी के जरिये एक सपना देखती है,यह एक सिंगल माँ और उसके बेटी के बीच के खट्टे–मीठे रिश्तों की भी कहानी भी है. फिल्म का टोन आम भारतीयों के जीवन जैसा है तो अपनी तमाम मुश्किलात और संघर्षो से भरे जीवन के बीच मुस्कराने और खुश होने के लम्हे ढूढ़ ही लेते हैं.अंत में यह एक “बाई” की कहानी है जिसकी समस्याओं को आम जिंदिगी में कोई भी देखना और समझना नहीं चाहता है. उसे “काम वाली बाई” से “घरेलू सहायिका” की स्थिति तक पहुँचने के लिए लम्बा सफर तय करना होगा ताकि इस काम को करते हुए वह अपने आप को कमतर महसूस ना कर सके. बहरहाल यह “बाई” बड़े परदे पर एक फिल्म के मुख्य किरदार के तौर पर मौजूद है इसके लिए फिल्म की पूरी टीम बधाई की पात्र है.

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ISSN 2394-093X
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