राजेन्द्र सजल: एक कहानी सजग कहानीकार

सबसे पहली बात जो राजेन्द्र सजल जी के बारे में कही जानी चाहिए कि वे एक कहानी सजग कहानीकार हैं। हमारे यहाँ लेखक की सजगता का आकलन समाज के संदर्भ में ही किया जाता है। कोई लेखकअथवा कहानीकार समाज के मुद्दों को और उसकी समस्याओं को अपनी कहानियों में कितना उठाता है, कितना रचता है उतना ही हमारे लिए वह कहानीकार एक सजग कहानीकार होता है। किंतु कोई कहानीकार कितना कहानी सजग कहानीकार है यह बात प्राय: और कम से कम दलित आलोचकों और रचनाकारों के बीच तो चर्चा या आलोचना का विषय नहीं बनती। ऐसा करते ही हमें लगता है कि हम रूपवादी हो रहे हैं। हम साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र के प्रति झुकाव या लगाव प्रदर्शित कर रहे हैं और जैसे यह एक साहित्यिक अपराध है जो हम कर रहे हैं। असल में यह सब हमने शुरू भी नहीं किया। जैसे जैसे साहित्य में तथाकथित प्रगतिशील चेतना का वर्चस्व स्थापित हुआ वैसे वैसे संस्कृति, सौन्दर्य-शास्त्र, परंपरा नाम की प्रत्येक चीज से हमने दूरी बरतनी शुरू कर दी। उसे त्याज्य और घृणित मान लिया गया। यद्यपि नामवर सिंह इसके अपवाद रहे और नई कहानी के नएपन को उन्होंने कहानी के शिल्प के आधार पर ही चिह्नित किया। यहाँ यह बात बराबर ज़ोर देकर कहने की जरूरत है कि क्योंकि हिन्दी के दलित साहित्यकारों का पालन-पोषण इसी तथाकथित प्रगतिशील आंदोलन की निगरानी में हुआ इसलिए दलित आलोचकों और साहित्यकारों ने भी रचना में रचनात्मकता पर बात करने से परहेज किया। न केवल परहेज किया बल्कि बाद में तो एक हद तक कठहुज्जती भी की। यह सब बहुत ही सहज था। क्रिया की प्रतिक्रिया की तरह। ‘सौंदर्यशास्त्र’ के नाम तक से हमने नफ़रत होने लगीथी। जबकि कमाल की बात यह है कि हमारी रचनाओं में, कहानियों में, कविताओं में कमाल की रचनात्मकता मौजूद रही है। कहानी की कला, कविता की बुनावट के मामले में हमारे रचनाकार विशेष रूप से आश्वस्त करते रहे हैं। उनके भीतर अनुभूति की आँच इतनी प्रखर है कि वह आंच अपनी अभिव्यक्ति के लिए अपने आप एक ताल, एक धुन, एक रचनात्मक शिल्प तैयार करती है। कोई भी रचना अच्छी हुए बिना पाठकों के बीच जगह बना ही नहीं सकती। हांलाकि यह एक अलग और गंभीर मुद्दा है कि खानदानी प्रकाशकों, पार्टी चालित आलोचकों और अकादमिक ठेकेदारों के रहते अच्छी रचनाएँ पाठकों तक पहुँच भी नहीं पाती।

राजेन्द्र सजल एक कहानी सजग कहानीकार हैं, इसकी दो वजहें हैं एक, अपने कहानी संग्रह की भूमिका में उन्होंने अपनी इस सजगता का परिचय दिया है। और दूसरा संग्रह में शामिल उनकी कहानियों की शिल्पगत विविधता इसका परिचायक है। पहले बात करें भूमिका की, जहाँ वे लिखते हैं—“असल बात यह है कि कहानी, कहानी रहनी चाहिए और उसमें कहानीपन होना चाहिए।” अब ये कहानीपन किसी कहानी में आता कैसे है या उसे कैसे समझा जा सकता है? इसे समझाते हुए वे आगे लिखते हैं कि “जिसका (कहानी का) इस विशाल दुनिया में एक छोटा-सा संसार होता है। जिसमें पात्र और घटनाएँ इस दुनिया के प्रेम, पीर और प्रतिरोध को उमड़-घुमड़कर अभिव्यक्त करती रहें। जिसको पढ़कर लगे कि ‘हाँ, ये मेरा भोगा हुआ यथार्थ है, या फिर मुझसे जुड़े किसी शख्स, परिवेश अथवा समय की कहानी है। कहानी की दुनिया पाठक की अपनी दुनिया से जुड़ती चली जाए।” मतलब कहानी के पाठक को यह पता रहता है कि वह कोई कहानी पढ़ रहा है पर उसके बाद भी वह वहाँ घटित हो रही घटनाओं से, वहाँ विचरते चरित्रों से आत्मीय संबंध बना पाता है।  कहानी के भीतर के देशकाल और वातावरण को वह महसूस करता है। यह महसूस करना, उसे जीना है। जैसा कि स्वयं राजेन्द्र सजल जी ने लिखा है कि  “उस जमीन पर ( कहानी में) होने वाले हर मौसम को पाठक महसूस कर सके। कभी भीगता रहे तो कभी ठिठुरता- तपता रहे और आखिर बासन्ती रंग में रंगा हुआ महसूस करे।”  यह ठिठुरना, तपना, बासंती रंग में रंगा जाना भावना के धरातल पर कहानी को महसूस करना ही है। अपने वास्तविक जीवन के साथ कहानी के जीवन को भी जीना है। यहाँ विभिन्न तरह के भाव, जिन्हें काव्यशास्त्र में स्थायी भाव कहा गया है जो रस के रूप में पाठक के भीतर संचरित होते हैं; उन्हीं के बारे में राजेन्द्र सजल जी बात कर रहे हैं। असल में कहानी का कहानीपन यही हैकि कहानी पाठक के भीतर विभिन्न  भावों (रसों) का संचार कर सके।

साथ ही यह भी सत्य है कि आज के पाठक या कहें आधुनिक पाठक की बुद्धि भी उतनी ही सजग है जितनी उसकी भावनाएँ।  वह स्थितियों और घटनाओं को जीवन में ही नहीं कहानी के भीतर भी तर्क और अपने विवेक के धरातल पर जाँचता और परखता है। यह उसके आधुनिक होने का प्रमाण है। अब उसकी प्रवृति ही ऐसी बन चुकी है। ऐसे में कहानीकार को कहानी में दिमाग भी लगाना पड़ता है। पाठक इतना भी भावुक नहीं है कि बिना किसी ठोस आधार के उसकी भावनाएँ संचरित होना शुरू कर दें। अगर ऐसा है तो भी यह हमारे साहित्यकारों और आलोचकों का दायित्व है कि वे पाठकों को सावधान, और जिम्मेदार पाठक बनने की ओर अग्रसरित करें।  दलित साहित्य या कहें विशेष रूप से अस्मिता धर्मी साहित्य में पाठकों के ही नहीं रचनाकारों में भी अपनी अस्मिता को लेकर भावुक हो जाने की पूरी संभावना रहती है। राजेन्द्र सजल जी के यहाँ आधुनिक पाठक होने की यह सजगता पूरी तरह से विद्यमान है। उनकी कहानियाँ कोरी भावुक बनाकर रुलाने वाली, क्रोध में और आवेश में मुट्ठियाँ भींचने वाली कहानियाँ नहीं हैं। वे सबसे पहले पाठक के भीतर विश्वास पैदा करती हैं कि वे सच्चाई को दिखाने वाली कहानियाँ है। जैसे किसी कोर्ट में अपनी कोई भी बात रखने से पूर्व कटघरे में खड़ा व्यक्ति यह कसम खाता है कि “मैं जो कुछ कहूँगा सच कहूँगाँ, सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगा।” ऐसी ही कोई कसम लेकर राजेन्द्र सजल कहानी लिखना आरंभ करते हैं।  यह तो हम जानते ही हैं कि बाहरी दुनिया का सच कहानी में ज्यों का त्यों नहीं आता, उसे तराशना, काटना-छाँटना पड़ता है। और इस काम में राजेन्द्र जी माहिर शिल्पकार हैं। वे पूरी तरह जानते हैं कि “कहानी आनंद के साथ-साथ हृदय की उर्वरता को न बढाए और झकझोर कर चेतना को जगाए नहीं तो फिर क्या कहानी हुई।” (भूमिका से) इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजेन्द्र सजल जी की कहानियाँ एक ओर पाठक के भीतर विभिन्न रसों का संचार तो करती ही हैं। उसके भीतर सोए स्थायी भावों को रस के रूप में परिणत करती ही हैं, साथ ही वे ऐसा समाज और जीवन की विविध स्थितियों का यथार्थ चित्रण करके करती हैं। ये स्थितियाँ परिवेश और इतिहास जन्य हैं कोरी भावुकता या कल्पना इनके पीछे नहीं है।

अब इन बातों को उनकी कहानियों के जरिये जाने। इस संग्रह में कुल जमा उनकी दस कहानियाँ संग्रहित हैं।  कहानियों की विषयवस्तु अपने समय के तमाम बड़े और गंभीर मुद्दों को समेटे हुए हैं। जातिवाद, संप्रदायवाद, ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता और इन सबसे परिचालित अपने समय की राजनीति, सभी जरूरी मुद्दे इनकी कहानी में गुँथे हुए हैं। साथ ही साथ मनुष्य मात्र की विभिन्न प्रवृतियाँ, जिसमें प्रेम, ईर्ष्या, डर और लालच, चालाकी, समझदारी, हताशा और निराशा , संघर्ष और टकराव, जीत और हार सभी स्थितियाँ कहानियों को सहज बनाए रखती हैं। जैसे पहली ही कहानी ‘मास्टर माई’ को लें। कहानीकार इस कहानी में प्रेमचंद टाईप का कहानीकार है। प्रेमचंद टाईप से मेरा मतलब है ऐसा कहानीकार जो अपने पाठक का बहुत ध्यान रखता है। वह चाहता है कि वह जो कहानी कह रहा है उसे समझने में उसके पाठक को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। इसलिए वह कहानी में पात्रों की मन:स्थितियों की व्याख्या बहुत मन लगाकर करते हैं। मास्टर माई का अपने बेटे पर वैसे ही प्रेम और भरोसा है जैसे प्राय: माँओं का होता है। पर संतान के रंग-ढंग कैसे बदल जाते हैं, यही इस कहानी में बताया गया है। निश्चित रूप से यह कोई नया विषय नहीं है। संतानों का मतलबी निकलना, धोखेबाज होना सर्वविदित है। इस कहानी को विशेष बनाता है। माँ (मास्टर माई) को इस बात का एहसास क्रमश: किस तरह होता है और उसकी वह अजीब मुस्कान जो इस एहसास के बाद उसके चेहरे पर चिपक जाती है।  अपने बेटे को जवाब देती मास्टर माई की वह मुस्कान और गहरी हो जाती है। “हाँ, बेटा ढोर ही चर रहे हैं और मैं सो रही हूँ।” यहाँ व्यंजनार्थ में सामने खेत को चरते रोजडों का जिक्र नहीं है बल्कि मास्टर माई और उसके पति की कमाई आज कैसे उन्हीं का नकारा और निकम्मा सपूत चर रहा है और वह माँ अपने अंधे प्रेम में अब तक देख ही नहीं पा रही थी, इस बात का जिक्र है। ठीक वैसे ही जैसे “ बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।” कह कर प्रेमचंद कहानी का सारा मर्म एक वाक्य में निचोड़ देते हैं। कहानी में खेत, और खेतों पर रहने और काम करने वालों की जिंदगियों का चित्रण कर कहानी को विश्सनीय बनाया गया है। असल में राजेन्द्र सजल जी जानते हैं कि किसी कहानी को विश्वसनीय उसका कथानक नहीं बनाता बल्कि कथानक को अपने ऊपर खड़ा करने वाला परिवेश और देशकाल बनाता है। राजेन्द्र सजल की कहानियों में राजस्थान के एक क्षेत्र विशेष का जीवन इस कदर पिरोया गया है कि कहानी अपने आप जी उठती है।

राजेन्द्र जी की कहानियों में अधिकाँश कहानियाँ स्त्री चेतना की कहानियाँ हैं। इन कहानियों को यहाँ स्त्री विमर्श की कहानियाँ न कहकर स्त्री चेतना की कहानियाँ इसलिए कहा जा रहा हैक्योंकि कहानियों में जो केन्द्रीय स्त्री किरदार हैं वे पूरी तरह से अपने ऊपर हो रहे अनाचार और दुर्व्यवहार के प्रति सजग हैं। वे न केवल जानती हैं कि जो हो रहा है वह गलत हो रहा है बल्कि अपनी जितनी सामर्थ्य उनमें है उसके बल पर वे उन स्थितियों, परिस्थितियों से जूझती हैं, लड़ती हैं। वे चुपचाप आँसू नहीं बहाती। अब सारी करामात इसी बात में है कि उनकी यह लड़ाई कहानी के कहानीपन और पाठक के आधुनिक पाठक होने को कितना साथ लेकर चल पाती है। जैसे उनकी ‘मास्टर माई’, ‘इत्ती सी बात’, ‘बावली’ और ‘झमकू’  ये चार कहानियाँ सीधे-सीधे स्त्री चेतना की कहानियाँ हैं। ‘बावली’ श्यामवर्णी लड़की जिसे ब्याह के बाद उसका पति इसीलिए त्याग देता है कि वह सुन्दर नहीं। भारतीय समाज में सुंदरता का पैमाना गौरा होना ही है। गुण कोइ नहीं देखता। कृष्ण श्यामल हैं तो भी पूज्य हैं पर राधा तो गौरी ही होनी है। सांवली जिसे गाँव-मौहल्ले वाले ‘बावली’ कहने लगते हैं क्योंकि वह रोज-रोज ससुराल में अपना अपमान सह नहीं पाती और एक टूटी खंडहरनुमा हवेली में जाकर विक्षिप्त की तरह वहाँ रहने लगती है। यही बावली जब बिल्कुल विपरित हालातों में भी जी जाती है और एक बेटे को जन्म देती है तब उसका पति, उसके सास-ससुर उसे वापस ले जाना चाहते हैं। अब तो वह एक बेटे की माँ है। बेटे की माँ होते ही उसका मोल बढ़ जाता है। पर बावली अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं करती। वह जानती है कि यह उसका स्वीकार नहीं बल्कि उसके बेटे का ( घर के वंश चलाने वाले) का स्वीकार है। जो पति उसे सबके सामने पत्नी मानने को तैयार नहीं है, जिसे उसकी शक्ल से घिन आती है, वह रात के अँधेरे में अपनी हवस मिटाने उसी के पास आता था। उस पर जबरदस्ती करता था, उसी का परिणाम वह बेटा है।वह कैसे उस पति के घर वापस लौट सकती थी। “…ना माई ना! आज लल्ले की माँ हूँ, लल्ला खिलाने का सुख दुनियाँ का सब से बड़ा सुख है माई। इस सुख की खातिर वो राजी है, पण माई यो सुख मिलणो….तरसन दे माई, उनको तरसन दे। पतो तो चाले, बिछोह की पीड़ा काँई व्हे/ फेर माई, यो तो लल्लो हुयो परमात्मा भली करी, जे लल्ली होति तो म्हारो कांई होतो,…. दादा-दादी नै पोतो चाहे, बाप नै बेटो, अर मैं?” इस मैं का कोई जवाब नहीं है दुनिया के पास। इस ‘मैं’का जवाब न मिलने  का सारा भार वह बावली अपने जीवन को कुछ बेहतर बना पाने के रास्ते को ठुकराकर चुकाती है। वह भीख माँगकर खाती है, कोई यह भी कह सकता है कि बदले की भावना से भरी वह अपने बेटे की जिंदगी भी कष्टदायक बना देती है, पर जो है सो है। उसका यही तरीका है समाज से बदला लेने का।  आज भी स्त्री इस बात का जवाब माँग रही है दुनिया से, क्या संतान पैदा करने ( बेटा पैदा करने) के अलावा भी स्त्री की कोई जरूरत है पुरुष की जिंदगी में? और न भी हो तो क्या स्त्री को किसी पुरुष के बिना जीने की आज़ादी है?

राजेन्द्र जी की कहानियाँ स्त्री चेतना के चलताऊ मुद्दों की बजाए बहुत गहरे पैठे और बहुत हद तक सहज स्वीकृत मान लिये गए व्यवहारों पर  सवाल उठाती हैं। उनकी नायिकाएँ ग्रामीण समाज की तथाकथित अनपढ़ औरतें हैं जिनके बारे में पढ़ा-लिखा समाज प्राय: यह सोच रखता है कि उनमें किस बात की स्त्री चेतना हो सकती है। इन औरतों के अवसर कितने भी सीमित क्यों न हों पर वे भरपूर जवाब देती हैं। इस जवाब में उसकी सारी जिन्दगी निकल जाती है। पर यही उनकी जीत है कि वे लड़ती हैं और अंत तक समझौता नहीं करती।  “इत्ती सी बात” बहुत ही भावुक कर देने वाली और भीतर तक भेद जाने वाली कहानी है। मुझे यहाँ रजनी तिलक की वह कविता याद आ रही है जिसमें वे सहज स्वीकार करती हैं कि ‘हाँ मैं लड़ाका हूँ।’ पर इसका मतलब यह नहीं है कि ये स्त्रियाँ प्रेम, अपनेपन और जिम्मेदारी के एहसास से रहित है। दलित स्त्री के व्यक्तित्व की एक जो खास पहचान है वह है उसका कर्मठ होना। वह बहुत मेहनती और बड़े जिगरे वाली होती है।  प्रसिद्ध साहित्यकार रांगेय राघव की बहुत प्रसिद्ध कहानी ‘गदल’ भी इसी तरह की कहानी है। ‘गदल’ और इत्ती सी बात की ‘दादी’ स्त्री मुक्ति की आदर्श कही जा सकती हैं। वास्तव में मुक्ति दिमाग से चाहिए। कोई दूसरा, सामने का पुरुष और समाज आपको मुक्त नहीं करता, आप स्वयं इस मुक्ति की एहसास को अपने भीतर धारण करते हैं। निश्चित रूप से समाज में गैर बराबरी है पर आप आपकी जो भी स्थितियाँ हैं उनके बीच ही अपनी लड़ाई भरपूर लड़ते हैं, लड़ सकते हैं, आपको लड़नी चाहिए। ‘इत्ती सी बात’ की दादी बहुत कर्कश है, उसे कभी किसी ने हँसते नहीं देखा। पर इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वह अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से पीछे हटती है। बल्कि अपने कर्मठ व्यक्तित्व के बल पर ही उसने वह औरा हासिल किया है कि अपनी शर्तों पर जी सके।  खुश होना और अपनी खुशी को हँस कर अभिव्यक्त करना यह नेमत प्रकृति ने अपने किसी जीव को नहीं दी। केवल मनुष्य है जो खुश होकर हँसता है और अपनी खुशी का इज़हार करता है। पर दादी के वैवाहिक जीवन की शुरुआत होती है उस झन्नाटेदार थप्पड़ से जो उसे इसलिए रसीद कर दिया जाता है कि नई नवेली आई बहु जो मात्र तेरह साल की है, ननदों के साथ मिल कर हँस बोल रही है। उसकी उन्मुक्त हँसी बाहर उससे लगभग दूनी उम्र के पति को सुनाई देती है और बस झन्नाटेदार थप्पड़ के साथ “शर्म-हया है कि नहीं, बाबले ( मायके) ने कुछ नहीं सिखाया। बाहर मेहमान बैठे हैं और ही-ही कर रही है।”  औरत को सासरे में कोई और इज्जत दे न दे। कोई और समझे चाहे न समझे। पर पति नाम के प्राणी के साथ जिसके पीछे वह अपना सबकुछ छोड़ कर चली आती है, उससे प्यार और अपनेपन की वह उम्मीद करती है। और पति भी जब दूनी उम्र का हो, उससे समझदारी की उम्मीद ज्यादा रहती है।  वह चाहती तो थी कि  गौना कराकर वापस न आए। पर पिता ने अपनी इज्जत की पग़ड़ी उसके पैरों में रख दी। मजबूरन वह ससुराल आई पर अपने भीतर इस कसम के साथ कि वहाँ कभी नहीं हँसूगी। उसकी इस कसम से उसका पूरा जीवन रसहीन हो जाता है। अपनी इस कसम को पालने की खातिर वह अपना सारा जीवन प्यार और अपनत्व के इज़हार से रहित हो कर जीती है। यह एक ऐसा दंड है जो वह स्वयं के माध्यम से समाज को देती है। यह एक ऐसी कसम बन जाती है जिसका तावान उसे अपने आप को निचोड़ कर भरना पड़ता है। सबसे बड़ी बात सारी उम्र बीत जाती है और मरते समय तक किसी को उसके दुख का पता नहीं चलता। पति को तो अपनी उस गलती की गंभीरता का एहसास उस समय भी नहीं होता जब मरने से पहले वह उसे बताती है। “बस, इत्ती-सी बात! और तू उम्र भर…!” उसकी समझ में ही नहीं आता कि औरत की भी इज्जत है, उसका स्वाभिमान है। उसके स्वाभिमान को केवल उस पर हिंसा या यौन हिंसा करके ही नहीं कुचला जाता बल्कि उसके उठने, बैठने, हँसने और बोलने पर सरेआम प्रतिबंध लगाकर भी कुचला जाता है। जब एक नवयौवना को इस आधार पर, उसके घर वाले घुड़कते हैं तो उसका कोमल हृदय, उसका व्यक्तित्व जो अभी आकार ग्रहण करने ही लगे हैं कुंठित और विकृत हो जाता है।  यह समाज के लिए इत्ती सी बात हो सकती है पर दादी मुँह फेर कर यह कहते हुए मर जाती है “इत्ती सी बात ?”  कहानी में अंत मे आकर इन शब्दों की व्यंजना स्पष्ट होती है।  यहाँ कोई भी यह कह सकता है कि आखिर इस कसम से उसने क्या पाया।  पर कहने वाला इसकी व्याख्या किसी तरह से करता रहे पर कहानी अपना मकसद पूरा कर देती है। वह अपने पति से यह कह कर मरती है कि “अगले जन्म में मैं आदमी बनूँगी और तुम लुगाई बनना। मैं तुझे खूब हँसाऊँगी। तू हँसना, मैं नहीं मारूँगा…” ऐसा नहीं है उसे अपने पति से प्रेम नहीं है। वह उसकी इज्जत के लिए दोहरी मेहनत करती है। मरते-मरते यह कह कर जाती है कि “अगले जन्म की तैयारी है। तू बेगा आना। मैं बाट देखूँगी…” सारी उम्र उसका बेचारा पति यह समझ ही नहीं पाता कि उसकी हर सुविधा का ध्यान रखने वाली, उसकी सारी जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर ढोने वाली उसकी औरत को आखिर दो बोल हँसकर बोलने से क्यों परहेज है। झमकू भी एक ऐसी ही कहानी है जो समाज के इस सत्य को बयां करती है कि संतान न होने की जिम्मेवारी सिर्फ़ औरत को उठानी पड़ती है। गाँव में ब्याहली आई झमकू को उसका पति सास-ससुर इसलिए त्याग देते हैं कि सात साल में वह एक बार भी पेट से नहीं हुई। पर झमकू इस बात को नहीं मानती उसके भीतर कहीं विश्वास है कि बिना किसी सबूत के ऐसे कैसे उसे बाँझ करार किया जा सकता है। वह वहीं रहती है अनाथ हरिया का घर बसाती है। उसका विश्वास जीतता है जब वह पहले ही साल में गर्भ धारण करती है।

असल में राजेन्द्र जी की कहानियाँ अपने विषय- मुद्दों को लेकर इतना ध्यान नहीं खीँचती जितना उस विषय या मुद्दे के ट्रीटमेंट को लेकर। राजस्थानी आबो-हवा, भाषा, बोली बानी और मन:स्थतियों विशेष का चित्रण इन कहानियों को विशेष बनाता है। अलग अलग कहानियाँ अलग- अलग तरह से आगे बढ़ती हैं। कहानी काअपने भीतर के देशकाल में आगे-पीछे होना, कहानी में रोचकता पैदा करता है। झमकू कहानी की शुरूआत झमकू के इस एहसास के साथ होती है कि आज शायद तबियत कुछ गड़बड़ है। “झाड़ू उठाया ही था कि धरती घूमती सी जान पड़ी। वह आँख मूँदकर आँगन में बैठ गई। कुछ देर बाद उठी तो जी मतलाने लगा।….”  एक समझदार पाठक को बताने की जरूरत नहीं कि यह सब किस बात का संकेत है। वह अनुमान लगा लेता है कि यह उसके गर्भवती होने का संकेत है। और उस पर “झूँठ हुआ तो? लोग हँसेगे! हँसे तो हँसे। बाकी रहा ही क्या है।” से पाठक को समझ आता है कि ऐसा बहुत कुछ है जो घटित हो चुका है उसे जानकर ही कहानी को पूरा जाना जा सकता है। फिर, धीरे धीरे पीछे की कहानी खुलती है, और वापस वर्तमान में आकर खत्म होती है। वहाँ पहुँचकर झमकू को ही नहीं बल्कि उसके साथ पाठक को भी असीम शांति मिलती है। “चौधरी का झुका सिर मुश्किल से उठा। आसमान में उमड़ती बादली चाँद को ढक रही थी। वह जल्दी-जल्दी हवेली की तरफ़ बढ़ा। उसके कानों में शूल-सी हँसी टकराई। उसने पलट कर देखा, झमकू पागल-सी खिलखिला कर हँस रही थी।” ‘बादली’ झमकू थी जिसने चाँद के दाग को ढ़क लिया थाऔर साथ में चाँद को भी। अपने इस पुरुषार्थ पर वह खिलखिला के हँस रही थी।

राजेन्द्र जी के यहाँ कहानियों के मामले में काफ़ी विविधता है। यह विविधता कहानी लिखने और कहने के ढंग में भी है और जो कहा जाना है उसे लेकर भी है। एक तरफ़ जैसाकि पहले भी कहा गया कि वे प्रेमचंद टाइप के कहानीकार हैं। जो, जो कहना चाहते हैं उस पर केन्द्रित रहते हैं। आलतू-फालतू के वर्णन और विवरण वहाँ नहीं होते। अब तक हमने जिन कहानियों पर बात की वे ऐसी ही कहानियाँ हैं। बेशक कहानी के देशकाल और पात्रों के भीतर के जज्बातों का चित्रण करने में वे काफ़ी समय लेते हैं। इससे पाठकों को कहानियाँ बहुत बेहतर ढंग से समझ आती हैं। पर सभी कहानियाँ इस तरह की कहानियाँ नहीं हैं। ‘अंतिम रामलीला’ अपने भीतर औपन्यासिक कलेवर लिये हुए हैं तो ‘दिल्ली के बादशाह के दुख’ बाणभट्ट की ‘कादंबरी’ का सा असर पैदा करती है।

‘अंतिम रामलीला’ आजादी के दौर का बहुत नया और देसी विश्लेषण प्रस्तुत करती कहानी है। अपने बीते इतिहास को देखने समझने की एक दम नई समझ देने वाली। यह हनुतपुरा गाँव की कहानी है। गाँव जो आजादी से पहले मुस्लिम तेलियों का गाँव होता था। यहाँ की जमीन में तिलहन, सरसों, मूँगफली की जबरदस्त खेती होती थी। उस इलाके की रानी साहिबा ने यह सब देख समझकर गाँव बसाया था। गाँव में खेती करने वाली जातियों के साथ-साथ तेलियों और विभिन्न शिल्पी जातियों को भी बसाया गया। सबसे ज्यादा काम फलाफूला तेलियों और रैगरों का था। खेती के लिए रेगिस्तान में चड़स की जरूरत थी। चड़स बनाने के लिए रैगरों की। जो बूढ़े और मरे बैलों का इस्तेमाल करके प्रकृति का इको सिस्टम बनाये रखते थे।  जल्द ही इन दोनों जातियों का वर्चस्व छा गया। उनकी हवेलियाँ बन गईं। गाँव बहुत खुशहाल था। गाँव में नहीं थे तो राजपूत, ब्राह्मण और महाजन। लेखक लिखता है कि बेशक देश गुलाम था पर गुलामी का दंश इस गाँव ने सीधे नहीं झेला थाऔर न ही किसी को ऊँच-नीच के कारण हटकार-फटकार की वेदना से गुजरना पड़ाथा। आपस में झड़पे हो जाती थीं पर उनपर जाति और धर्म का रंग नहीं था। पर यह सब बदल गया जब देश आजाद हुआ। भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ, धीरे-धीरे बाहर की खबरें ( मुसलमानों पर अत्याचार और उनके द्वारा देश छोड़ कर जाने की ) तेलियों को बेचैन करने लगीं। अंतत: उन्होंने भी गाँव छोड़ कर जाने का निर्णय लिया। इसके बाद उनकी हवेलियों, मकानों और दुकानों को सरकार ने बाहर से आए ब्राह्मणों और बनियों को सौंप दिया गया। ये ब्राह्मण और बनिये अकेले नहीं आए इनके साथ आई हिन्दू धर्म की विभाजनकारी नीति। पहली बार गाँव वालों को पता चला कि कौन जात ऊँची है और कौन नीची।  इस तरह से राजेन्द्र सजल जी यह कहना चाहते हैं कि बेशक विभिन्न पेशों पर आधारित जातियाँ भारतीय गाँवों की सच्चाई है पर उनके बीच मनुस्मृति के विभाजन कारी सिद्धान्त बाद में थोपे गए। यह सब भारतीय गाँवों पर अंग्रेजों के समय, आजादी के दौरान विकसित हुआ। वे कहना चाहते हैं कि भारतीय गाँवों का जातीय वैर-भाव बनियों और ब्राह्मणों का पैदा किया हुआ है। क्योंकि अंग्रेजी शासन और छापेखाने के विकास ने न केवल लिखे शब्द की कीमत बढ़ा दी बल्कि उन जातियों की सामाजिक आर्थिक हैसियत भी बहुत बढ़ गई जो परपंरा से लिपि पढ़ना और लिखना जानती थीं।  उन्होंने रातोरात नए नए शास्त्र रच कर ऐसे प्रचारित कर दिये कि जैसे वे हमेशा हमेशा से जन सामान्य में मान्य थे।  खैर कहानी में केवल इतना ही नहीं है। वह रैगरों के अपने हक और  संघर्ष की कहानी भी है। कहानी का वितान बहुत विस्तृत और व्यापक है।  बनियों और ब्राह्मणों के बीच की राजनीति भी है। ब्राह्मणों की मक्कारी और बनियों की चतुराई भी है। गाँव की छोटी बड़ी करार कर दी गई जातियों के बीच फूट की राजनीति भी है।  सबसे बड़ी बात है गाँव के सरपंच ( जो जात से रैगर है।)  द्वारा ब्राह्मणों और बनियों की इस राजनीति और चतुराई को समझ कर उसका ऐसा तोड़ निकालना की वह शातिरपना बेअसर हो जाए। गाँव में चुनाव होते हैं और ब्राह्मण और बनियों की सारे षड़यंत्र के बाद भी चूहे रैगर का बेटा सरपंच बन जाता है। अब ब्राह्मणों और बनियों ने यह देख लिया है कि लोकतंत्र के चलते उन्हें राजनैतिक सत्ता सभी जातियों के साथ बाँटनी पड़ेगी। कहानी में ब्राह्मणों के नेता आचार्य जी और बनियों के नेता सेठ धनपत जी की बातचीत का नमूना देखिये।बनियों का नेता सेठ धनपत आचार्य जी से कहता है कि… “यह तो निश्चित है कि अब सत्ता मंदिर से निकलकर खेत-खलिहानों और कांकड़ पर बसी बस्तियों में चली जाएगी और हम देख रहे हैं, आज़ादी के बाद से ही कई संगंठन बन गए हैं। आए दिन उनके नेता राजनैतिक जागरुकता के लिए सभाओं का आयोजन करते रहते हैं। ऐसे में अब न तो उनको धर्म और शास्त्र का हवाला देख आप नियंत्रित कर सकते हैं और न ही अछूत कहकर किसी को बहिष्कृत कर सकते हैं।” आचार्य जी जवाब देते हैं “नहीं, ऐसा नहीं है। धर्मस्थलों का सत्ता शून्य होने का अर्थ है, निष्प्राण होना और यह कभी संभव नहीं है। हाँ, कभी कभी सत्ता अपने मार्ग से भटक जाती है। यह एक जंगली हथिनी की तरह होती है, जो न तो अनाड़ियों के काबू में आती है और न ही अपना पुराना आवास भूलती है, देखना एक दिन फिर लोट आएगी।” इसके लिए वे पूरी योजना बनाकर काम करते हैं। सबसे पहले गाँव के पिछड़ी जातियों (किसानों) और दलित जातियों के बीच एक दूसरे के खिलाफ़ एक नए संघर्ष को जन्म दे देते हैं। और दूसरी और धर्म को खाने कमाने का धंधा  बनाते हैं और गाँव वालों का आर्थिक शोषण करते रहते हैं। गाँव में होने वाली रामलीला केवल भगवान राम की लीला नहीं बल्कि बनियों और ब्राह्मणों की लीला है। गाँव की किसान जातियों और दलित जातियों के बीच रामलीला में ज्यादा से ज्यादा दान देने का कंपीटिशन करवा के दोनों से न केवल रुपये ऐंठते हैं बल्कि दोनों के बीच कभी न मिटने वाली विभाजक रेखा भी खींचते हैं। वर्तमान भारत में हम यह देखते ही हैं कि दलितों को जाति के नाम पर प्रताडित करने वाले ज्यादातर पिछड़ी किसान जातियों के ही लोग हैं। इस कहानी में  गाँव का सरपंच जो एक पढ़ा लिखा दलित युवक है इस चाल को समझ जाता है और वह रातोंरात उस रामलीला मंडली का तंबू वहाँ से उखड़वाकरफेंक देता है।और फिर कभी उस गाँव में रामलीला न करवाने का निर्णय लेता है। यहाँ आकर कहानी खत्म होती है।  वास्तव में मैंने जैसा कहा कि कहानी का कथानक इतना विस्तृत और व्यापक है कि उस पर उपन्यास लिखने की जरूरत थी। यूँ  भी कहानी पचास पेज तक फैली है। कहानी को पढ़ते हुए बार-बार पिछले पन्नों पर लौटने की जरूरत होती है। इतने सारे पक्ष और झरोखें हैं कि बहुत कुछ एक साथ मौजूद है। पाठक ‘जय भीम’ भी सुनता है। रैगरों के लिए ‘गंगापुत्र’ होने की व्याख्या भी सुनता है। हिन्दू-मुसलमान भी है तो गाँव के वे मुहावरे जो इस कहानी को उस गाँव विशेष हनुतपुरा की कहानी बनाते हैं।

“हो ग्यो म्याऊँ को सो मूँडों

थारी शान बिगड़गी जी

आंटी मूँछयाळी बालम

थारी ढीली पड़गी जी”

‘दिल्ली के बादशाह के दुख’ कहानी मृणाल पाण्डे के उपन्यास ‘हिमुली हीरामन की कथा’ की याद दिलाती है। दोनों कहानियों का कथानक वर्तमान की राजनीति और राजनैतिक हस्तियों पर केन्द्रित है। यह वास्तव में अपने समय के राजनैतिक इतिहास को लिखने का परंपरागत भारतीय अंदाज है।  स्वयं पत्रिका के संपादक संजीव चंदन की कुछ कहानियों में कथा कहने का यह अंदाज मिलता है। इसमें लेखक सूत्रधार य़ा नट और नटी की तरह कहानी सुनाना आरंभ करते हैं। “एक राजा था। लोगों का मानना था कि वह राजा कम बादशाह ज्यादा था। अत: वह बिना किसी बहस में पड़े यह घोषित कर चुका था कि जिसको जैसा लगे, मान सकता है उसको कोई आपत्ति नहीं हैं। ‘राजा साहब कहो या फिर बादशाह सलामत। फिर भी जब किसी के मुख से वह ‘जहाँपनाह ! संबोधन सुनता तो छाती दूनी हो जाती थी।” यह सबकुछ बहुत व्यंजना परक है।कथा लोककथा की तरह कही गई है। पर लेखक बराबर यह आग्रह करता रहता है कि यह कहानी सच्ची कहानी है।वास्तव में यह लोककथ कहने का ढंग ही है। “कहानी को आगे बढ़ाने से पहले मैं यह बताना उचित समझता हूँ कि यह कहानी मुझे मेरे दादाजी ने सुनाई थी। उस वक्त मेरे और दादाजी के बीच जो संवाद हुआ वह उतना ही रोचक और जरूरी है जितनी कहानी है।” किसी लोककथावाचक की तरह लेखक भी यह दावा करता है कि यह कहानी पीढ़ी दर पीढ़ी इसी तरह सुनाई जाती रही है। कहानी की सच्चाई के बारे में दादाजी कहते हैं कि “हाँ, मैं तुम्हें यह जरूर बता दूँ कि यह कहानी एक सच्ची कहानी है। भले ही इतिहास के पन्नों में इस कहानी के पात्रों और घटनाओं का कहीं जिक्र नहीं मिलेगा, किंतु एक सच्ची कहानी की यह विशेषता होती है कि जो भी उसको पढ़ता है या सुनता है वह उसकी अपनी हो जाती है। उसको लगता है कि यह मेरी या फिर मेरे समय की कहानी है।…” और सच में जब पाठक इस कहानी को पढ़ता है। तो अपने समय के राजनैतिक गलियारों में पहुँच जाता है।  इस तरह की कहानियाँ जो अपने समय के शासन और शासक की सच्चाईयों को अपने कथानक के दायरे में लेकर आती हैं वहाँ लेखक को यही शैली अपनानी पड़ती है। इस तरह की कहानियाँ इसी तरह लोककथा शैली में जादुई यथार्थ की तकनीक से कही जाती हैं। इस तरह की कहानियों में लेखक का ध्यान देशकाल और वातावरण को उसके यथार्थ में पकड़ने पर नहीं रहता। वह विवरण नहीं देता। वहाँ एक के बाद एक घटनाएँ कहानी को आगे बढ़ाती हैं। और पाठक बिना कोई सवाल किये कुतुहलवश आगे बढ़ता रहता है। यहाँ कहानी के भीतर एक नई कहानी है। बिल्कुल अलिफ़ लैला की तरह। हाँलाकि यहाँ आधुनिक कहानी का पक्ष कमजोर पड़ता है।

एक और कहानी है ‘कोख कोठरी और अनसुलझा रहस्य’।रहस्य और रोमांच से भरी यह कहानी राजेन्द्र सजल की कहानी कला का एक और नमूना है। जहाँ ‘मास्टर माई’ जैसी कहानियों में लेखक प्रेमचंद सरीखा कहानी को बहुत खोल कर एक एक बात समझाकर कहने वाला कहानीकार दिखता है वहीं इस कहानी में लेखक पूरी कहानी संकेतों में कहता है। उन संकेतों को पकड़कर और खोल पाने में सफ़ल होकर पाठक को एक अलग ही तरह का आनंद मिलता है। कहानी में एक नवाब साहब हैं जिनकी दो बीबियाँ हैं और है एक उनका घरेलू नौकर। बढ़ती उम्र के नवाब साहब की बीबियों से नौकर से बढ़ती नजदीकियाँ जहाँ नवाब साहब को बाप बनने का सुख देती हैं वहीं नवाब साहब का खानदानी खून उस नौकर की मौजूदगी से बार बार पछाड़ खा खाकर गिरता और उठता रहता है। उसी के कारण नवाब साहब भारत छोड़ कर पाकिस्तान जाने का निर्णय करते हैं। पर छोटी बीबी हैं कि वह उस नौकर को भी साथ लेकर चलना चाहती है।इसकी क्या वजह है इसे भी संकेतों में कहा गया है। अंत तक यह रहस्य सुलझ ही नहीं पाता कि असल में पाकिस्तान कौन दो लोग गए और किन दो लोगों को वहीं मारकर हवेली में ही बंद कर दिया गया। पाठक यहाँ अपनी सुविधा से कहानी को जिस तरह पढ़ना चाहें पढ़ सकते हैं। हो सकता है कि हवेली में मिलीं लाश छोटी बीवी और उस नौकर ही हो क्योंकि नवाब साहब उस नौकर को अपने साथ पाकिस्तान नहीं लेकर चलना चाहते थे, क्योंकि उसके सामने रहने से उन्हें हमेशा अपने नामर्द होने की याद आती रहेगी। हो सकता है वह लाश बड़ी बीबी और उस नौकर की हो क्योंकि उसबड़ी बहु का ही तो अवैध संबंध उस नौकर से था। यह भी तो हो सकता है कि वह लाश स्वयं बड़ी बीबी और नवाब साहब की ही हो, कहीं छोटी बीवी ने नौकर के साथ मिलकर उन दोनों की हत्या कर दी हो।  पाठक जिस दिशा में चाहे सोच सकता है, उसी के अनुसार उसे तर्क कहानी में मिल जाएँगे। इस तरह यह कहानी लगातार उसके जेहन में बनी रहेगी। यह इस कहानी की बहुत खास विशेषता है। इसके अलावा भारत पाकिस्तान के बँटवारे की पृष्ठभूमि में इस कहानी को जो खड़ा किया गया है उससे कहानी सच्ची होने का पूरा आभास देती है। बल्कि उसी के कारण कहानी जिंदा हो जाती है।  प्रसिद्ध शिक्षाविद् कृष्णकुमार ने अपने एक व्याख्यान में बच्चों को कहानी से कैसे जोड़ें इस मुद्दे पर विचार करते हुए कहा कि कहानी इस तरह कही चाहे कि बच्चों को कहानी, सच्ची लगे।  इसके उदाहरण के लिए उन्होंने अपने एक प्रयोग के बारे में बताया कि कैसे एक स्कूल के छोटे बच्चों को उन्होंने एक बार ‘बुढ़िया की रोटी’ कहानी सुनाई जिस दिन कहानी समाप्त हुई उस दिन वे अपने साथ रात की बासी रोटी ले गए और ले जाकर उस रोटी को उन्होंने यह कहकर अपनी मेज पर रख दिया कि यह उसी बुढ़िया की वही रोटी है जिसे कव्वा ले गया था।  बस फिर क्या था वह कहानी जैसे बच्चों के लिए जिन्दा अनुभव हो गई। वे उस रोटी को उसी विश्वास के साथ देख रहे थे हो न हो यही वह रोटी है। क्योंकि वह रोटी साक्षात सामने थी इसलिए उन्हें बुढ़िया और कव्वे की लड़ाई पर पूरा भरोसा हो गया। ठीक यही काम राजेन्द्र सजल जी ने अपनी इस कहानी के साथ किया कोख कोठरी और अनसुलझे रहस्य को भारत-पाकिस्तान के विभाजन की सच्ची घटना के बीच पिरो दिया।

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ISSN 2394-093X
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