यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही ज़माना था

निवेदिता


निवेदिता पेशे से पत्रकार हैं. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय रहती हैं. हाल के दिनों में वाणी प्रकाशन से एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’ के साथ इन्होंने अपनी साहित्यिक उपस्थिति भी दर्ज कराई है. सम्पर्क : niveditashakeel@gamail.com

( किश्तों  में लिखा जा रहा यह संस्मरण निवेदिता के निजी जीवन और तत्कालीन समय को एक साथ दर्ज कर रहा है . इनमें एक स्त्री की यात्रा और कालचक्र एकाकार हो गए हैं . )

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जब ज़रा गरदन झुका ली देख ली तस्वीरें यार 

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उन्हें लड़ना ही होगा अपने हिस्से के आसमान के लिए 

हवा के साथ कुछ जलने की तीखी गंध मेरे भीतर उतर आयी।  नीले धुंए की लट उपर उठ रही थी।  कुछ जल रहा है।  मैं भागी। पतीली में मैंने दूध चढ़ाया था। जो उबल उबल कर  आग की लपटों में समा गया। मां दौड़ते आयी,  ‘ ओह! तुमने सारा दूध जला दिया। ध्यान कहां है तुम्हारा? ‘ मैंने कुछ नहीं कहा गीली पलकों से बूंद टपक पडे। मैं लिपट गयी मां से । मां रोक लो हरमीत को।  रोक लो मां । मैं रो रही थी बच्चों की तरह, जैसे उससे उसका कोई खिलौना छीन कर ले जा रहा हो। दंगे के दौरन हरमीत को पंजाब जाना पड़ा । मैं सोच रही थी किसी को अपनी जगह क्यों छोड़ना पड़े? सिर्फ इसलिए की वह सिख है.. मुसलमान है…इसाई है !

मैं कमरे से बाहर निकल आयी। कच्ची रौशनी में भीगी हुई शाम पसरी थी। मां चाय बना कर ले आयी। तारों के फीके आलोक में सड़क की तरफ उतरती पगड़डियां किसी नदी की तरह लग रही थी, जो धीमें-धीमें बह रही हो।यूनीवर्सिटी खुली और पढ़ाई तेजी से शुरु हो गयी। मेरे पास कई किताबें नहीं  थीं। काफी दिन हो गए थे लायब्रेरी का मुंह देखे। उन दिनों लायब्रेरी में किताबें मिल जाया करती थीं। काॅलेज कैंपस की ये सबसे खूबसूरत इमारत है। अंग्रेजों के जमाने का। सायेदार रास्तों से गुजरते हुए जब लाइब्रेरी पहुंचे  तो गेट पर श्रीकांत मिल गया .  उसने बताया आज कलाकारों की बैठक है। हमने कहा, ‘ आते हैं’ .  लाइब्रेरी से दो किताबें इशु कराया। मुझे पता था कि कौन सी किताब किस कोने में दुबकी रहती है। धूल भरे शीशों के भीतर मन माफिक किताबें तलाशना आसान नहीं था। हम लाइब्ररी से बाहर निकल आए। पीपुल्स बुक हाउस के पास जमघट लगी थी। देखा राणा बनर्जी  अपने चिर परिचित मुद्रा में गुणगुणा रहे हैं। हाथ में सिगरेट है। मैंने पीछे से एक हाथ जमाया , ‘  जब देखो सिगरेट पीते रहते हो।’  ‘ ओह! तुम हो। पता होता तो पहले पी लेता’.

राणा की आवाज पर हमसब मरते थे। वह जब गाता तो लगता धरती डोल रही है। लंबी-लंबी पलकें,सांवला रंग। खालिश  रोमैंटिक शक्ल  और ऐसा आदमी जिसपर बंगाली बालाएं जान देती थीं। राणा के पिता गुरुदत्त बनर्जी  खुद कम्युनिस्ट थे। राणा पर उनका गहरा असर था। राणा का छोटा भाई है संजीव, जो पत्रकारिता से जुड़ा है। जिसे हमलोग प्यार से तूफान कहते हैं। राणा जब आंठवी में पढ़ रहा था उसी समय वह वाम आंदोलन के सम्पर्क में आया और बाद में सीपीआई एम एल से जुड़ा । पर उसका एमएल के साथियों से ज्यादा समय हमलोगों के साथ गुजरता। इप्टा में वह खूब दिलचस्पी लेता। उसकी गहरी सांस्कृतिक समझ ने ही उसे दूसरे विरादराना संगठनों के नजदीक ला दिया था। उसकी शक्ल  मशहूर गायक हेमंत कुमार से काफी मिलती थी। बल्कि उसके पिता बिल्कुल हेमंत कुमार ही लगते थे। कई बार ट्रेन में सफर के दौरान लोगों ने हेमंत कुमार समझ कर उन्हें घेर लिया था बड़ी मुश्किल  से उन्हें यकीन दिलाना पड़ा कि वे हेमंत कुमार नहीं गुरुदत्त बनर्जी  हैं। राणा ने एक दिन यह किस्सा बताया था। हमलोग खूब हंसे थे।

वह चाय लिए मेरे पास आ गया। हम पीपुल्स बुक हाउस के पीछे वाले कमरे में बैठ गए।  मैंने पूछा, ‘ क्या हो रहा है ?’  उसने कहा, ‘इनदिनों नेहरु को पढ़ रहा हूं।’ मैंने तंज लहजे में कहा, ‘अच्छा अति क्रांतिकारी लोग भी नेहरु को पढ़ते हैं। वह हंसने लगा। तुम जानती हो व्यक्तिगत रुप से नेहरु मुझे काफी पसंद है। उनको पढ़ते हुए हैरानी होती है। वे तो मार्क्सवाद  के पक्षधर रहे हैं। तुम पढ़ोगी तो कायल हो जाओगी। एक जगह उन्होंने कहा-‘ मुझे पक्का यकीन है कि आज दुनिया और हिन्दुस्तान के सामने जो समस्याएं मुंह बाएं खडी  हैं,उन्हें हल करने की एकमात्र कुंजी समाजवाद है,जब मैं यह शब्द  जुबान पर लाता हूं तो उसके वैज्ञानिक,आर्थिक मतलब में इस्तेमाल करता हूं। समाजवाद सिर्फ आर्थिक सिद्धांत नहीं है। मुझे भारत के लोगों की गरीबी ,बेरोजगारी और गुलामी के खात्में के लिए कोई और रास्ता नहीं सूझता। इसके लिए हमारी राजनीतिक व समाजिक व्यवस्था में बड़ी और क्रांतिकारी तब्दिलियां जरुरी है। खेती में, उद्योग में अमीरों के बोलबाले को खत्म करना जरुरी है। हिन्दुस्तान के रजवाड़ों, सामंती तानाशाह  निजामों का  उखड़ना जरुरी है।’ राणा ने मुझे देखा, ‘  हमारे नेता क्या इससे ज्यादा क्रांतिकारी  बातें करते हैं?  मैंने चुटकी ली, ‘ तो अब एक क्रांतिकारी  बुर्जुआ से प्रभावित हो रहा है। वैसे मैं तुमसे सहमत हूं। नेहरु मुझे भी पसंद हैं। मैं उन कम्युनिस्टों में से नहीं हूं जो उन्हें सिरे से खारिज करते है !’  हमारी बातचीत लंबी हो रही थी। तबतक तनवीर अख्तर आ गए , ‘ अरे अभी तक तुमलोग यहीं हो, मिटिंग का समय हो गया।’ हमलोग मिटींग के लिए निकल गए। पटना के सभी कलाकारों की मौजूदगी थी। बिहार के सांस्कृतिक इतिहास में फिर कभी कलाकारों की इतनी एकता दिखी नहीं। मसला था प्रेमचन्द्र रंगशाला  में सीआरपीएफ के कब्जे का। मिटिंग लंबी चली। तय हुआ कि इस सवाल पर हमलोग जुलूस निकालेंगे। बिहार की सांस्कृतिक जमीन उर्वर रही है। यह वह दौर था जब सांस्कृतिक हलचल के लिए बिहार जाना जाता था। भारतीय जननाट्य संध इप्टा की बिहार में पहचान थी।  कलासंगम, अंकुर, बिहार आर्ट थियेटर,अनागत, किसलय,कला त्रिवेणी, मित्रम, भंगिमा, निमार्ण कला मंच, सर्जना और प्रेरणा जैसे संगठन भी कला के क्षेत्र में लगातार सक्रिय थे।

वापसी नाटक में निवेदिता , श्रीकांत और रूपा

देश राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। जनता पार्टी का प्रयोग विफल रहा था। बिहार की सामाजिक, राजनीतिक  और आर्थिक स्थितियों ने नक्सलवाद के लिए नई जमीन तैयार की,  जिसके असर से कलाकार भी अछूते नहीं थे। गीतों में कहानियों में, नाटकों के जरिये इस विचार धारा के पक्ष में सामाजिक स्थितियां तैयार की जा रही थी। अनागत जैसी मजबूत संस्था में बिखराव आ चुका था। अनागत से निकले परवेज अख्तर,रश्मी  सिन्हां, विनीत,और जावेद अख्तर अनागत छोड़कर इप्टा में शामिल  हुए। इन्हीं राजनीतिक पृष्ठभूमि में बिहार में इप्टा का पुर्नगठन हुआ। इप्टा के पुर्नगठन के बाद रंगमंच एक नए तेवर में जनता के बीच था। तनवीर अख्तर, कवि और लेखक कन्हैया जी,राजेन्द्र सिंह राजन, डा0 ए0के सेन जैसे लोगों के समूह ने, जिनका रुझान मार्क्सवाद  की तरफ था , इप्टा को नयी शक्ल  दी। उसी दौर में मैं इप्टा से जुड़ी। इप्टा में मेरा पहला नाटक प्रेमचन्द्र लिखित इस्तीफा था। मेरे लिए नाटक बिल्कुल नया अनुभव था। एक दिन पापा ने कहा कि चलों तुम्हें कुछ कलाकारों से मिलाते हैं। उन दिनों इप्टा का आॅफिस एनीबेंसेन्ट रोड में हुआ करता था। जिसे मैत्री-शान्ति  भवन के नाम से जानते हैं लोग। शाम  का समय था। जब मैं इप्टा के दफ्तर पहुंची तो  देखा कई नौजवान लड़के लड़कियां हाथ में कागज लिए जोर-जोर से संवाद बोल रहे हैं।

कुछ लोग हारमोनिम पर तान दे रहे हैं। मुझे काफी दिलचस्प लगा ये नजारा। पापा ने मेरा परिचय कन्हैया जी से कराया। मेरी बेटी है नाटक करना चाहती है। वे काफी खुश  हुए। थियेटर में लड़कियों की कमी हमेशा  रही है। उन्होंने बताया कि एक साथ कई लघु नाटक किए जा रहे हैं। हम चाहते हैं कि निवेदिता करे। तनवीर अख्तर ने कहा कि कल शाम  को आएं। हमलोग तय करते हैं। दूसरे दिन इप्टा पहुंची। देखा एक  खूबसूरत शक्ल  वाला लड़का गा रहा है। मेरा परिचय कराया गया। ये संजय उपाध्याय हैं। अच्छे गायक हैं। उसने बड़ी शाइस्तगी से हाथ बढ़ाया। मैंने तपाक से हाथ मिलाया। इप्टा के शुरुआती  दौर में जो कुछ गहरे दोस्त बने उसमें संजय थे। समय के साथ जीवन में बहुत कुछ बदलता है। दोस्ती के रंग भी फीके पड़ते हैं।

मुझे बताया गया कि प्रेमचन्द्र की कहानी ‘  इस्तीफा’  के लिए मेरा चयन हुआ है। मेरे साथ अभिनय करेंगे परवेज अख्तर। मुझे स्क्रीप्ट दे दिया गया। मेरा दिल घबरा रहा था। परवेज अख्तर मंजे हुए कलाकार थे। मैं उनकी पत्नी की भूमिका कर रही थी। परवेज अख्तर बड़े इख्लाक़ से मिले। बड़ी अदा से आदाब अर्ज किया। मैंने देखा उंची पेशानी  , आंखें रौशन  और मुस्कुराती हुई। चेहरा इसकदर पुरकशिश कि देखते रहिए। मैं खुद  शर्मा गयी और ये सोच कर धबरा गयी की कहीं इन्होंने मुझे धूरते हुए देख तो नहीं लिया।

निवेदिता की बहन सोना  थियेटर के साथ धारावाहिक और फिल्म करती हैं

पापा ने उनलोगों सेे कल भेजने का वादा कर विदा लिया।  सारी रात मैं प्रेमचन्द्र की कहानी इस्तीफा में डूबती-उतरती रही। मुझे ठीक -ठीक याद नहीं पर कुल 6 लधु नाटकों का मंचन हुआ था। एक नाटक में रश्मि अभिनय कर रही थीं । उसी दौरान मेरे कई गहरे दोस्त बने। रश्मि  उस दौर की बड़ी अभिनेत्री थी। उसे देखकर लगता था कि वह अभिनय के लिए ही बनी है। रंगमंच का यह मेरा दूसरा अनुभव था। जब स्कूल में थी तो एन0एन0 पांडे के निर्देशन में ‘घर का भेदी’ नाटक किया था। एन0एन0 पांडे उन दिनों रंगमंच में काफी सक्रिय थे। राजेन्द्र नगर में रहते थे। हमलोग उनके पड़ोसी थे। उस नाटक की खूब तारीफ हुई थी। इस्तीफा नाटक में मूल रुप से तीन पात्र थे। पति-पत्नि और उनका बेटा। नाटक में बेटा के किरदार के लिए बच्चे की खोज शुरू हुई। हमारे निर्देशक  परेशान  थे। मेरी छोटी बहन सोना उस समय 10 साल की थी। मैंने कहा कि इस नाटक में अगर आप कहें तो बच्चे के रोल के लिए सोना को ले सकते हैं। नाटक मंचित हुआ। परवेज अखतर की वजह से नाटक सफल रहा। मैंने महसूस किया कि अभिनय मेरे बूते की चीज नहीं है। मैं अभिनय नहीं कर रही थी। बाद में अपूर्वानंद ने नाटक की समीक्षा करते हुए लिखा कि ‘मेरा चेहरा काठ का चेहरा था’। यह दूसरी बात है कि बाद में वही चेहरा उसे भाता था।

मेरी उम्र उस समय 16-17 साल रही होगी। नाटक को जीने का यह मेरा पहला अनुभव था। अभी मैं सीख रही थी। अभिनय की बारीकियों से मेरा वास्ता नही पड़ा था। एक कलाकार, जिस किसी भी कला माध्यम में काम करता हो, चाहे शब्द  में ,चाहे रंग में, उसका अनुभव क्षेत्र बहुत विशाल  होता है, जटिल भी। मैंने महसूस किया कि अभिनय के लिए यह जरुरी है कि आप अभ्यास में रहें। कई बार मांजते-मांजते भी अभिनेता में चमक आती है। मैंने कभी भी अभिनय में अपना पूरा समय नहीं दिया। बहुत बाद में वापसी नाटक के मंचन के बाद यह भरोसा हुआ कि शायद हम भी नाटक कर सकते हैं। वापसी की कहानी मजदूरों की जिन्दगी पर आधारित थी .  इस नाटक में मेरे पति की भूमिका श्रीकांत कर रहे थे। तनवीर अख्तर का निर्देशन  था। यह संयोग है कि दोनों नाटक में बच्चे की भूमिका में मेरी बहनों ने अभिनय किया। इस्तीफा में सोना ने अभिनय किया तो वापसी में रुपा बाल कलाकार के रुप में काफी सराही गयी। उन दिनों अक्सर दोपहर में हमारे नाटक का रिहर्सल  होता था .  हम काॅलेज से सीधे रिहर्सल में आ जाते थे। ऐनी बेसेन्ट की तंग गलियों के पास ही शांति-मैत्री भवन था। जहां हमलोग रिहर्सल किया करते थे। बरामदे के ठीक सामने एक बड़ा कमरा था, दाई तरफ आंगन, दालान के दूसरे सिरे पर चैकोर कमरा था, जिसमें सामान रखे जाते थे। खिड़कियों और दरवाजे से छनकर रौशनी आती थी। कमरे की चैड़ाई में एक पुरानी दरी बिछी हुई थी।  कमरे का यह हिस्सा सामने आम सतह से कुछ उंचा और नुमायां हो गया था। श्रीकांत वही धुनी  रमाये बैठे थे। कुछ लड़के चाय बनाने में लगे हुए थे। तनवीर अख्तर अभी आए नहीं थे। मैं सामने बैठ गयी। श्रीकांत के साथ नाटक करना सबसे ज्याद सहज था। वह हमेशा  मुझे भरोसा देता। मेरे संवाद पर मेहनत करता। अक्सर रिहर्सल से जब फुरसत मिलती हम किसी न किसी की कविताएं और नज्म पढ़ते रहते। फैज और साहिर मेेरे प्रिय शायर रहे हैं। श्रीकांत की आवाज में उनको सुनना अच्छा लगता था। रिहर्सल के बाद कई बार हमारा अड्डा विनोद के घर लगता था। साहिर की लंबी नज्म ‘ परछाईयां’  को मैंने श्रीकांत से ही सुना। विनोद को ये नज्म खूब पसंद थी। कभी-कभी दोनों इसका पाठ करते।
जिन्दगी अजीब होती है। जब आप अपने समय को जीते हैं तोे पता नहीं चलता कि उसमें कितना कुछ है जिसने आपके जीवन को बनाया। गुजरी हुई घटनाएं ऐसे याद आती हैं जैसे कल की बात हो। मुझे याद है। उस शाम,   जब विनोद के घर पहुंचे,  सूरज ढ़ल गया था, आसमान पर पीली रौशनी फैली थी। हमसब उसके कमरे में बैठ गए। श्रीकांत ने अदा के साथ कहा मतला हाजिर करता हूं, फिर वो शेर  पेश  करुंगा, जिसका वादा है। हमलोगों ने भी बड़ी अदा से कहा  , ‘  इरशाद  अता हो ! ‘  श्रीकांत की आवाज लोचदार और नफासत से भरी है। सुर निहायत साफ और उसमें दूर तक पहुँच  जाने की खसियत है। उसने साहिर को सुनाना शुरू  किया-

रूपा अब पत्रकारिता करती हैं

जवान रात के सीने पे दूधिया आँचल
मचल रहा है किसी ख्वाबे.मरमरीं की तरह
हसीन फूल , हसीं पत्तियाँ , हसीं शाखें
लचक रही हैं किसी जिस्मे.नाज़नीं की तरह
फ़िज़ा में घुल से गए हैं उफ़क के नर्म खुतूत
ज़मीं हसीन है ,ख्वाबों की सरज़मीं की तरह
  तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरतीं हैं


कभी गुमान की सूरत कभी यकीं की तरह
वे पेड़ जिन के तले हम पनाह लेते थे
खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह
इन्हीं के साए में फिर आज दो धड़कते दिल
खामोश होठों से कुछ कहने.सुनने आए हैं
न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से
ये सोते.जागते लमहे चुराके लाए हैं


यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही ज़माना था
यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी
धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से
हुजूरे.ग़ैब में नन्हीं सी इल्तिजा की थी
कि आरज़ू के कंवल खिल के फूल हो जायें
दिलो.नज़र की दुआयें कबूल हो जायें
 तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

हम दम साधे सुनते रहे, बहते रहे। परछाइयां लंबी नज्म है। हमने ऐसी विचलित करने वाली लंबी नज्म इसके पहले नहीं सुनी थी।  देर काफी हो गयी थी। घर जाना था। मन में साहिर को लिए विदा हुई। आसमान साफ था। बहुत धीमी हवा थी,जो पेड़ों को छूकर हल्के से निकल गयी। वृक्षों की घने चमकीले पत्तों की सरसराहट में जैसे किसी ने कानों में चुपके से कहा- तसव्वुरात  की परछाइयां उभरती है।

दूसरे दिन हमारा रिहर्सल सुबह 10 बजे से ही था। मैं अपनी बहन रुपा को लेकर आयी थी। नाटक का एक संवाद ‘मछली चारा खायेगी’ बोलने में रुपा को मुश्किल  होती थी। तनु भैया ने देखा बच्ची परेशान हो रही है उन्होंने कहा तुम्हें जिस तरह बोलना हो बोलो। रुपा बचपन से ही जहीन है। वह जो भी करती थी समां बांध देती थी। लोग कहते नन्हीं सी बच्ची में ख़ुदा आ बसा है। एक दृश्य  में मुझे और श्रीकात को काफी करीब आना था। तनवीर अख्तर कहते- तुम दोनों को पति-पत्नी की तरह दिखना है। इस दृश्य  में ऐसा लगना चाहिए कि एक -दूसरे के प्रति गहरा अनुराग है। श्रीकांत को मुश्किल  हो रही थी। मैंने हंसते हुए कहा , ‘  भूल जाओ कि ये मैं हूं। मेरा आंलिगन इस तरह से करो’ – यह कहते हुए मैंने उसे समेट लिया। मेरा ये तरीका काम कर गया। श्रीकांत सहज हो गए। वह दृश्य  खूबसूरत बन पड़ा। नाटक लोगों को पसंद आया। मुझे भी भरोसा हुआ कि मैं अभिनय कर सकती हूं।

प्रसिद्ध रंगकर्मी जावेद

यादें खामोशी से सुलग रही हैं। कबीर की तरह, लुकाठी लिए हमसब बाजार में खड़े हैं। अपने अनुभवों को लिखते हुए मैंने कोशिश  की है कि उस समय को समग्रता में देख सकूं। इन्सान की शुरू  की आधी जिन्दगी पहाड़ की चढ़ाई की तरह होती है, दूसरा आधा हिस्सा ढ़लान का। अभी हम पहाड़ पर चढ़ रहे हैं। उबड़-खाबड़ और चुनौतियों से भरे पहाड़ पर।बिहार के सांस्कृतिक आंदोलन में प्रेमचंद रंगशाला  एक ऐसा आंदोलन है,  जिसने देश की सांस्कृतिक व राजनीतिक परिदृष्य को बदला। इस आंदोलन के पक्ष में देष भर के साहित्यकार , कलाकार व वामपंथी छात्र संगठन एकसाथ आए।

1971 में प्रेमचन्द्र रंगशाला बनकर तैयार था। पहली बार बिहार में कोई रंगशाला इतना खूबसूरत  बना, जिसमें मंचीय प्रस्तुति के लिए कई संभावनाएं थीं। उसमें कुछ कार्यक्रम भी हुए। पर बिहार में 74 आंदोलन के दौरान प्रेमचंद रंगशाला में सीआरपीएफ का कब्जा हो गया था। रंगशाला के मंच को जवानों ने अपना रसोईघर बना लिया था। हालात ये हुए कि स्टेज तक जल गया। परदे फट गए। करोड़ों की लागत से बना रंगशाला सीआरपीएफ के खाना बनाने और रहने में इस्तेमाल हो रहा था। उसी दौरान कुछ नौजवानों ने यह सवाल उठाया कि प्रेमचन्द्र रंगशाला में सीआरपीएफ क्यों है?

रंगशाला एक बड़ा मुद्दा  बना। 1980 में प्रख्यात साहित्यकार महादेवी वर्मा की अध्यक्षता में पटना में प्रेमचंद जयंती मनायी जा रही थी। उसी साल दुनिया के कई हिस्सों में प्रेमचंद जयंती मनी। उन दिनों प्रेमचंद रंगशाला का नाम राजकीय रंगशाला था। सम्मेलन के दौरान साहित्यकारों के बीच से किसी ने ये सवाल उठाया कि राजकीय रंगशाला का नाम प्रेमचंद रंगशाला होना चाहिए। महादेवी वर्मा ने कहा कि ‘ यह कितना बुरा है कि एक रंगशाला में सीआरपीएफ का कब्जा है।’  यह हैरानी की बात है कि कुछ अझात नौजवानों ने प्रेमचंद रंगशाला से सीआरपीएफ का कब्जा हटाओ के नारे लगाये। यह नारा देश भर का मुद्दा बना। हमलोग प्रेमचंद रंगशाला के मसले को लेकर बात-चीत कर रहे थे। तनवीर अख्तर ने कहा कि शहर में प्रेस बिल के मामले को लेकर धरना चल रहा है। हमलोगों को भी शामिल होना चाहिए।

1982 के आस -पास प्रेस बिल लागू हुआ। जिसके खिलाफ सारे पत्रकार सड़क पर आए। पत्रकारों का साथ सभी वाम-जनवादी संगठनों ने दिया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरे के सवाल ने आंदोलन की जड़े मजबूत की। हमलोगों को पोस्टर बनाने का जिम्मा था। फ़ैज़ की नज्म- ‘बोल की लब आजाद हैं तेरे’ और जुबां पर मुहर लगी तो क्या ग़म है कि खूने -दिल में डूबो ली है उंगलियां मैंने’ जैसी नज्मों का खूब इस्तेमाल किया। कहते हैं फूलों की शक्लों  और उनकी रंगों-बू से सरावोर शायरी से भी अगर आंच आ रही हो तो यह मान लेना चाहिए कि फ़ैज़ वहां पूरी तरह मौजूद हैं।

लंबे आंदोलन के बाद सरकार को प्रेस बिल कानून वापस लेना पडा़। यह ऐसी जीत थी, जिसने यह हौसला दिया कि संघर्ष की जीत होती है। पर अभी लंबी लड़ाई थी। कई और मोर्चे पर डटे रहना था। शायद वह नवंबर का महिना था। धुली-धुली रुपहली घूप फैली थी। बिहार भर के कलाकार एस के मेमोरियल हाॅल में जमा हुए थे। युवा महोत्सव का आयोजन किया गया था। कलाकार संधर्ष समिति ने तय किया था कि जबतक प्रेमचंद रंगशाला खाली नहीं होता कोई भी सरकारी आयोजन नहीं होने देंगे। साथियो ने पुरुस्कार वितरण का बहिष्कार किया। पर्चा बांटा गया। जिसमें यह लिखा हुआ था कि हम क्यों बहिष्कार कर रहे हैं। बहिष्कार के आरोप में पांच छात्र गिरफ्तार कर लिए गए। जावेद अख्तर,अशोक  आदित्य,पुष्पेन्द्र,राणा बनर्जी ,  एक का नाम याद नहीं। जावेद उन दिनों बीएन काॅलेज के छात्र थे। उनकी गिरफ्तारी से हंगामा हो गया। बीएन काॅलेज के छात्रों को लगा कि उनके काॅलेज के छात्र को पुलिस ले गयी।  छात्रों ने खुद उस आयोजन का बहिष्कार कर दिया। नीरज, जो इनदिनों जद यू का एमएलसी है,  वह बीएन काॅलेज में एआईएसएफ का लीडर था। उसने अगुवाई  की, और प्रशासन को धमकी दी  कि गिरफ्तार किए गए छात्रों को छोड़ दिया जाय। प्रशासन पर छात्रों का इतना दबाव पड़ा की 24 घंटे के अंदर सभी छात्र रिहा कर दिए गए। कलाकार संघर्ष समिति ने तय किया कि वे सरकारी युवा महोत्सव के समानान्तर युवा महोत्सव आयोजन करेंगे। आयोजन के लिए पांच कनवेनर रखे गए। अपूर्वानंद, जावेद अख्तर खान,पुष्पेन्द्र,प्रो0 संतोष, कुमार ध्रुव । इतने बड़े आयोजन करने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं था। हमलोगों ने चंदा जमा करने के कई तरीके इजाद किया। जिसमें सड़को पर गाते हुए चंदा मांगना शामिल था। हर सुबह एक नये संघर्ष की सुबह होती थी। कोई लंबी चैड़ी महत्वकांक्षाएं नहीं थीं। सबके सब रंगकर्मी,छात्र, जिनकी आंखों ने छोटेे-छोटे सपने देखे। वह सपना था कि बिहार में प्रेमचंद रंगशाला मुक्त हो।

निवेदिता

1986 की बात है। पटना इप्टा की टीम गुवाहाटी गयी थी ,जहां ब.व कारंत से साथियों की मुलाकात हुई । परवेज  ने विस्तार से कारंत को बिहार में चल रहे आंदोलन की जानकारी दी। उसी के कुछ दिन बाद साहित्यक पत्रिका नटरंग में ब.व कारंत का साक्षात्कार छपा। जिसमें उन्होंने कहा-‘मुझे शर्म आती है कि मैं एक ऐसे देश  में रहता हूं जहां रंगशाला में सीआरपीएफ का कब्जा है.’ वहां से लौटने के बाद इप्टा के साथी युवा महोत्सव की तैयारी में लग गए। पटना में जितने भी हाॅल थे सब हमलोगों ने बुक कर लिया था। बिहार के सभी जिलों से कलाकार आए। उनदिनों रंगकर्मियों और लेखकों की कई जमातें थी। एक जमात वैसे लोगों की थी ,जो आर्थिक रुप से अच्छी स्थिति में थे। पर ज्यादातर लोगों की हालत खस्ता थी। फिर भी हमसब जीवन से भरे हुए थे। रोज एक नए अनुभवों से गुजरते हुए। मुझे याद है कि मेरा जिम्मा कालिदास रंगालय में था। कौन से नाटकों का मंचन होगा,  कितनी कविताओं का पाठ होगा। मैं कविताएं लिखती थी। पर अपने लिखे पर भरोसा नहीं करती। शर्म  आती थी अपनी रचनाओं के बारे में कुछ कहते हुए। यह संकोच आज भी बना हुआ है। अपूर्व ने कहा तुम्हें भी अपनी कविता का पाठ करना चाहिए। मैं धबरायी। उसने मेरा साहस बढ़ाया। अपनी तरह जीने और अपनी तरह कविताएं लिखने की जिद में मैंने काफी चोटें खाई है, अपमान सहा। पर मैं जानती थी कि मेरा फैसला मेरे पाठक करेंगे। हाॅल खचाखच भरा था। मैंने अपनी कविता पढ़ी। लोग खामोश  थे। अचानक तालियों की गड़गड़ाहट से महसूस हुआ कि कविता मेरी पीठ घीमें-धीमें थपथपा रही है। मेरी आंखों में खुशी  के आंसू थे। इस आयोजन का ये असर हुआ कि सरकार को अपना कार्यक्रम बंद करना पड़ा। नवंबर की गुलाबी ठंड भी हम कलाकारों का हौसला पस्त नहीं कर पायी। आंदोलन अपने चरम पर था।  1987 में केन्द्रीय संगीत अकादमी ने बिहार में राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव का आयोजन किया। जिसमें देश  के सभी वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी शामिल थे। ब. व कारंत, रतन थियेम,प्रतिभा अग्रवाल, बंगाल के बड़े अभिनेता कुमार राय और नेमीचन्द्र जैन आयोजन में शामिल थे। जिस दिन कार्यक्रम की शुरुआत थी हमलोगों ने एक बड़े कैनवास पर कारंत के बयान को लिखा-‘मुझे शर्म आती है कि मैं एक ऐसे देश  में रहता हूं,  जहां रंगशाला में सीआरपीएफ का कब्जा है’। यह बैनर लिए हुए हमसब हाॅल के अंदर गए और मंच पर कब्जा जमा लिया। शायद संस्कृति के इतिहास में यह पहली परिधटना होगी कि जब सरकारी आयोजन में शामिल होने आए सभी बड़े कलाकारों ने आंदोलन के पक्ष में अपनी आवाज दी। टाइम्स आॅफ इंडि़या ने इस खबर को फस्ट लीड़ बनाया और लिखा-‘ए टाईम टू प्रेाटेस्ट’।

आंदोलन ने गति पकड़ ली थी। आंदोलन करते हुए लगभग  एक साल गुजर गए थे। यह हमारा आखरी दांव था। हमसब ने तय किया कि प्रेमचंद जयंती  के मौके पर रंगशाला के मसले पर प्रदर्शन होगा । बिहार के सभी प्रमुख साहित्यकारों से अपील की गयी। डा0 ऐ.के सेन ने झंडी दिखाकर हमारे जुलूस को रवाना किया। नागार्जुन जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे। सैकड़ों नौजवानों ने लाल, पीली और सफेद झंडिया लहराई। बड़े बडे कैनवास पर यह लिखा हुआ था कि प्रेमचंद रंगशाला मुक्त करो। जिन शायरों और अदीबों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लिखा था , उनके लिखे शब्द  जुलूस में झिलमिला रहे थे। जुलूस शान्ति  से आगे बढ़ रहा था। आगे-आगे बाबा नागार्जुन,कविवर कन्हैया जी चल रहे थे। पुलिस ने चारों ओर से हमें घेर लिया। हम बढ़ते जा रहे थे। हमसब ने कहा कि आज प्रेमचंद रंगशाला को खाली कराये बगेर साथी पीछे नहीं हटेंगे। आर.ब्लाॅक चैराहे पर जुलूस रोक दिया गया। कन्हैया जी,बाबा नागार्जुन समेत सभी वरिष्ठ रंगकर्मी और साहित्यकार जमीन पर बैठ गए। सिर के उपर आसमान दहक रहा था। पुलिस का एक बड़ा जत्था  सामने आया। उसने चेतावनी  दीे, ‘ आपसब ये जगह खाली कर दें। नहीं तो हमें मजबूर होना होगा।’  हमलोग डटे रहे। सबने एक दूसरे का हाथ थामा। और हम आगे बढ़ने लगे। अचानक पुलिस की लाठियां बससने लगी। लोग डटे रहे। कन्हैया जी  के सिर पर लाठी पड़ी खून की धार बह गयी। पुलिस ने सबको खदेड-खदेड कर पीटा। हम खड़े रहे। एक दूसरे की बांह को कस कर थामें हुए। हमारी आवाज गीली थी,होठों पर लब्ज सूखे नहीं थे। हमलोगों ने चीखकर कहा-  संस्कृतिकर्मियों पर फैाजदारियां करने वालों और गोलियों चलाने वालों से कह दो कि दुनिया में वह गोली कहीं नहीं बनी है,  जो सच को लगे। शाम  हो गयी थी। कन्हैया जी को काफी चोट आयी थी। लहू उनके कंधों तक बहकर सूख चुका था। बाबा को भी गहरी चोट लगी थी। कई साथी बुरी तरह घायल हुए। हमसब घर की ओर निकले। कुछ दिनों बाद अखबारमें बड़ी सी खबर छपी प्रेमचंद रंगशाला सीआरपीएफ से मुक्त हुआ। जारी……

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ISSN 2394-093X
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