पंखुरी सिन्हा की कवितायें

पंखुरी सिन्हा

मूलतः मुजफ्फरपुर की रहने वाली पंखुरी सिन्हा युवा साहित्यकारों में एक प्रमुख उपस्थिति हैं. संपर्क : nilirag18@gmail.com



सीढ़ियों का कद

मैं गिना सकती हूँ
हर एक सीढ़ी उनकी राह की
जो बनाई उन्होंने मेरे घर तक
और बता सकती हूँ
उन सीढ़ियों का कद
बहुत अदने और बौने थे सवाल उनके
उनका तब भी हस्तक्षेप था
उनका अब भी हस्तक्षेप है…………

आदतन

सारी मुश्किलें आसान नहीं होतीं
नौकरी से
कुछ खाली बर्तनो के
झनझनाने की आदत भी होती है
वो यों ही बजते हैं
आदतन…………..

कहने का हक़

मेरी सारी बातों को बदलकर
गणित में
मेरी सारी बातों को बनाकर
केवल कहने की स्थिति
वो जाने क्या क्या कहने का हक़
अख्तियार कर लेते हैं.

मेरुदण्ड

इतनी सीधी सादी परिभाषा
सभ्यता की
प्रतीत हो कड़ी
जटिल नहीं सख्त केवल
पर दरअसल ढीली ढाली ढुल मुल
ज़रा सा भी लीक से हटना जिसमे मंज़ूर नहीं हो
कुछ भी अलहदा नहीं
कोई अंतर नहीं ह

हमारी जीवन शैलियों में
इतना तय हो सब कुछ
कि ज़रा सा भी फ़र्क भटकाव लगे
अँटकाव लगे
ये दरअसल
एक लचर
मेरुदण्ड हीन
खोते हुए विश्वास का प्रतीक है.

लाल बिन्दी से रश्क

क्यों रश्क हो रहा है
उसकी लाल बिन्दी से मुझे
वो औरत जो लाल बिंदी लगाए
महफूज़ है अपने घर में
कुछ इस तरह कि मात कर दे
मेरी दौड़ती भागती दफ्तरी दुनिया की सारी फाइलें
मेरी सारी आज़ाद शख्सियत को मात कर दे
ऐसे हो कुछ सूत्र उसके पास
उसकी लाल बिन्दी कहती हो मुझसे
प्रेम से ज़्यादा बड़ी कोई बात………..

प्यार के बिम्ब

अपने आप निभ जाती है
शादी,  ज़िन्दगी, कविता
निभ जाते हैं
प्यार और बिम्ब
प्यार के भी
निभ जाता है संधि विच्छेद भी
अगर ईमानदारी से तोडा गया हो

घर बाहर

इन दिनों कहीं भी बाहर जाने पर
मेरा घर मुझे दिखवाया जाता था
उनकी नज़रों से
सामने वाले की खिड़की से
बगल वाले की भी
नीचे वाले की
सिर्फ दरवाज़े से दी गयी गवाही से
उसका वास्ता सिर्फ आवाज़ों से था
शायद बहुत सी
बहुत तेज़ आवाज़ें थीं
हमारे घर की
आवाज़ें ऊपर वालों की भी थीं
कुछ तो अनायास और आकस्मिक होंगी
कैसे नहीं होंगीं
ये फर्नीचर खिसकाने की आवाज़
जैसे किसी को फर्नीचर खिसकाने
की बहुत ज़रुरत हो
जैसे कि मेरी नानी टेबल खिसका कर ही
चलती थीं
लेकिन ये ज़रुरत कुछ ऐसे उत्पन्न हो
कि ताल बिठाए आपकी दिनचर्या से
उन सब बातों से भी
जो बस रोज़मर्रा की ज़िन्दगी हैं
और जिनका ऐसा कोई शोर नहीं
बस कटोरियों  के थाली में रखने
चम्मच बटोरने की आवाज़ है
और उसके तारतम्य में
बहुत कुछ इर्द गिर्द की
बहुत कुछ है बर्तन सजाने
बस धोकर यथास्थान रख देने की आवाज़ में
पुरानी होटलबाज़ी के किस्से हैं
न की गयी होटलबाज़ी के भी
दरअसल
कुछ चीख चिल्लाहटें मेरे घर के तोड़े जाने
के बाद की उपज हैं
टूटे हुए घर की बहुत सारी दरारें हैं
फिलहाल यहाँ
गीली मिटटी के साथ साथ
ईंट के बुरादे भी
सीमेंट की बोरिओं के निशान हैं
यहाँ, वहाँ
उन्हें उठाने के भी
कुछ हमारे हाथों
कुछ हमारे कन्धों पर
और कुछ उन लोगों की थकान है
हमारे चेहरों पर
जो सैलानियों  को पीठ पर बिठाये
घाटी दिखाते हैं
और कुछ उन लोगों की परेशानी
जिनका तबादला अभी अभी
एक ऐसे शहर में हो गया हो
जहाँ सुबह शाम बारिश होती हो
दोपहर को भी
या हर शाम आंधी आती हो
हमारे घर की बातें हमें बाहर सुनवाई जाती थीं
इस तरह
जैसे और लोगों के घरों से
टकराकर लौट रही हों
ये रोटी के कच्चे होने की चिकचिक
ये केवल दो रोटी खाने पर भी
कच्चे होने की चिकचिक
ये मेरी ही आवाज़ की तल्ख़ी
ये विदेशी कांफ्रेंस में कच्चे चावल की याद
ये भोजन के बिलकुल ही न पचने देने की राजनीती
ये मेरी ही आवाज़ की बेबस तल्ख़ी
बाहर की बातों का हवाला
हम क्या खा रहे हैं
फिलहाल
हम किसी और के हिस्से का पैसा नहीं खा रहे
न देश का
न घूस, न हड़प
हम तो किसी का दिमाग़ तक नहीं खा रहे

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ISSN 2394-093X
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